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हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
विष्णु सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं जिनको नारायण और हरि के नाम से भी जाना जाता है। विष्णु को जगत का पालनकर्ता माना जाता है, जब अधर्म और पाप बढ़ता है तब वे अवतार लेते हैं। वैष्णववाद के भीतर सर्वोच्च हैं, जो समकालीन हिन्दू धर्म के भीतर प्रमुख परंपराओं में से एक है।
विष्णु | |
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Member of त्रिमूर्ति | |
भगवान विष्णु | |
अन्य नाम |
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संबंध | |
निवासस्थान | |
मंत्र |
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अस्त्र | |
प्रतीक | |
दिवस | गुरुवार (बृहस्पतिवार) |
जीवनसाथी | लक्ष्मी , तुलसी और भूदेवी |
भाई-बहन | पार्वती या दुर्गा (शैववाद के अनुसार आनुष्ठानिक बड़ी बहन) |
संतान | |
सवारी | |
शास्त्र | |
त्यौहार |
हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार भगवान विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति भगवान विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा जी को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव जी को संहारक माना गया है। मूलतः भगवान विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में भगवान विष्णु मान्य रहे हैं। कल्की अवतार १०वां (आखिरी) अवतार है।
पुराणानुसार भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी हैं। पौराणिक कथा के अनुसार तुलसी भी भगवान् विष्णु को लक्ष्मी के समान ही प्रिय है[1] और इसलिए उसे 'विष्णुप्रिया' के रूप में मान्यता प्राप्त है। भगवान विष्णु का निवास क्षीरसागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।[2]
जिवन के मुखय स्त्रोत व देवो के संहायक|अपनी दोनों पत्नियों के साथ गरुड़ पर भगवान विष्णशेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, चम्बा पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में।]]
'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है। ('विष्' या 'विश्' धातु लैटिन में - vicus और सालविक में vas -ves का सजातीय हो सकता है।) निरुक्त (12.18) में यास्काचार्य ने मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति' के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है।[3] वैकल्पिक रूप से 'विश्' धातु को भी 'प्रवेश' के अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ होता है।[4]
आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही माना है[5], तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है"।[6] 'विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।[7]
ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक (व्यापनशील) ही किया है। विष्णुसूक्त (ऋग्वेद-1.154.1 एवं 3) की व्याख्या में आचार्य सायण 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील (देव) तथा सर्वव्यापक करते हैं;[8] तो श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध ही लेते हैं।[9] महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है[10] और कई जगह परम विद्वान् के अर्थ में भी लिया है।[11]
इस प्रकार सुस्पष्ट परिलक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ व्यापनयुक्त (सर्वव्यापक) है।
वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र 5 सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाय तो उनका महत्त्व बहुत बढ़कर सामने आता है।[12] ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' (विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है।[13]
ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है :-
विष्णु की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं (अथवा तदाश्रित रहते हैं)। ‘त्रेधा विचक्रमाणः’ भी प्रकारान्तर से उनके तीन पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद भी उक्त तथ्य के परिचायक हैं। मधु से आपूरित उनके तीन पद-क्रम में से दो दृष्टिगोचर हैं, तीसरा सर्वथा अगोचर। इस तीसरे सर्वोच्च पद को पक्षियों की उड़ान और मर्त्य चक्षु के उस पार कहा गया है।[14] यास्क के पूर्ववर्ती शाकपूणि इन तीन पाद-प्रक्षेपों को ब्रह्माण्ड के तीन भागों-- पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सूर्य की संचार गति के प्रतीक मानते हैं।[15] यास्क के ही पूर्ववर्ती और्णवाभ उन्हें सूर्य के उदय, मध्याकाश में स्थिति तथा अस्त का वाची मानते हैं।[16] तिलक महोदय इनसे वर्ष के त्रिधाविभाजन (प्रत्येक भाग में 4 महीने) का संकेत मानते हैं।[17] यदि देखा जाय तो अधिकांश विद्वान् विष्णु को सूर्य-वाची मान कर उदयकाल से मध्याह्न पर्यन्त उसका एक पादप्रक्षेप, मध्याह्न से अस्तकाल पर्यन्त द्वितीय पादप्रक्षेप और अस्तकाल से पुनः अग्रिम उदयकाल तक तृतीय पाद-प्रक्षेप स्वीकारते हैं। इन्हीं पूर्वोक्त दो पाद-प्रक्षेपों को दृष्टिगोचर और तीसरे को अगोचर कहा गया है। लेकिन मैकडाॅनल सहित अन्य अनेक विद्वानों का भी कहना है कि इस अर्थ में तीसरे चरण को 'सर्वोच्च' कैसे माना जा सकता है? इसलिए वे लोग पूर्वोक्त शाकपूणि की तरह तीन चरणों को सौर देवता के तीनों लोकों में से होकर जाने का मार्ग मानते हैं।[18] सूर्य की कल्पना का ही समर्थन करते हुए मैकडानल ने विष्णु द्वारा अपने 90 अश्वों के संचालित किये जाने का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्ये के चार-चार नाम हैं। इस प्रकार 4 की संख्या से गुणीकृत 90 अर्थात् 360 अश्वों को वे एक सौर वर्ष के दिनों से अभिन्न मानते हैं। वस्तुतः विष्णु के दो पदों से सम्पूर्ण विश्व की नियन्त्रणात्मकता तथा तीसरे पद से उनका परम धाम अर्थात् उनकी प्राप्ति संकेतित है। स्वयं ऋग्वेद में ही इन तीन पदों की रहस्यात्मक व्याख्या की गयी है।[19] इसलिए इस पद को ज्ञानात्मक मानकर ऋग्वेद में ही स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु का परम पद ज्ञानियों द्वारा ही ज्ञातव्य है।[20]
वैसे तो विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है, किन्तु उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने ‘गिरि’ पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में ‘पर्वत के समान उन्नत लोक’ भी किया है।[21] 'गिरि' को यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाय तो समस्या का समाधान हो जाता है। विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक ‘परम पद’ है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। उस ‘परम पद’ की विशेषता यह है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है।[22] वहाँ अनेक शृंगों वाली गायें (अथवा किरणें) संचरण किया करती हैं। ‘गावः’ यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है। श्लेष से उसका अर्थ ‘गायें’ करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं ‘किरणें’ करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहुल्य सहज ही अनुमेय है। विष्णु के ‘परम पद’ में मधु का स्थायी उत्स (= स्रोत) है।[23] यह ‘मधु’ देवताओं को भी आनन्दित करनेवाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाय पर वह हर स्थिति में परमानन्द का वाचक है, जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी करते हैं।[23] उसी मंत्र में वहाँ पुण्यशाली लोगों का, तृप्ति (आनन्द, प्रसन्नता) का अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है।
विष्णु की एक प्रमुख विशेषता उनका इन्द्र से मैत्रीभाव है।[24] इन्द्र के साहचर्य में ही उनके तीन पाद-प्रक्षेपों का प्रवर्तन होता है। इन्द्र के साथ मिलकर वह शम्बर दैत्य के 99 किलों का विनाश करते हैं।[25] इसी प्रकार वह वृत्र के साथ संग्राम में भी इन्द्र की सहायता करते हैं। दोनों को कहीं-कहीं एक दूसरे की शक्तियों से युक्त भी बतलाया गया है। इस प्रकार विष्णु द्वारा सोमपान किया जाना और इन्द्र द्वारा तीन पाद-प्रक्षेप किया जाना भी वर्णित है। ऋग्वेद, मण्डल 6, सूक्त 69 में दोनों देवों का युग्मरूपेण स्तवन हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद के मण्डल 5, सूक्त 87 में इन्द्र के सहचर मरुद्गणों के साथ उनकी सहस्तुति प्राप्त होती है।
'विष्' धातु से व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ ‘व्यापक, गतिशील, क्रियाशील अथवा उद्यम-शील’ होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे लोगों द्वारा स्तुत होते हैं।[26]
अपने वीर्य (बल) अथवा वीर कर्मों के कारण वे शत्रुओं के भय का कारण हैं। उनसे लोग उसी प्रकार भयभीत रहते हैं, जिस प्रकार किसी पर्वतचारी सिंह से। ‘परमेश्वराद्भीतिः’ आदि श्रुति-वचनों से सामान्य जनों का भी उनसे भय करना सिद्ध हो जाता है। उनसे भयभीत होना अकारण नहीं है। वे कुत्सितों (शत्रुओं) का वध आदि हिंसाकर्म करने वाले हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वे कुत्सित हिंसादिकर्ता (कुचरः) का ही वध करते है।[27] इसलिए उनके लिए कहा गया है कि वे हत्यारे नहीं हैं।[28]
विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। ‘उरुगाय’ का अर्थ आचार्य सायण द्वारा ‘महज्जनों द्वारा स्तूयमान’ अथवा ‘प्रभूततया स्तूयमान’[29] करने से भी विष्णु की महिमा विखण्डित नहीं होती। डाॅ.यदुनन्दन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ ‘विस्तीर्ण गति वाला’ करने के लिए हम इस लिए आग्रहवान् हैं, क्योंकि उसे ‘सभी लोकों में संचरण करने वाला’ कहा गया है।[30] उनके पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं।
विष्णु के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं[31] तो वहीं पर आश्रित जनों का पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के प्रसादस्वरूप प्राप्त होता है, जिससे कि वे परम तृप्ति का अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, उनका वे सर्वविध कल्याण करते हैं, क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं।[26] वे वरिष्ठ दाता हैं।[28]
विष्णु के गुणों में भी त्रयात्मकता परिलक्षित होती है। वे तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले, तीनों लोकों को नाप लेने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। इसी प्रकार वह ‘त्रिधातु’[32] अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं।
विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं।[31] वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण में हैं। विष्णु भ्रूण-रक्षक भी हैं। गर्भस्थ बीज की रक्षा के लिए और सुन्दर बालक की उत्पत्ति के लिए विष्णु की प्रार्थना की जाती है।उनके पालक स्वरूप पर स्पष्ट बल देने के कारण ऋग्वेद में अहोरात्र अग्निरूप में भी उन्हें 'विष्णुर्गोपा परमं पाति..'[33] अर्थात् सबके रक्षक-पालक कहा गया है। आचार्य सायण ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के बारहवें मन्त्र की व्याख्या में भी विष्णु को स्पष्ट रूप से 'पालन से युक्त' मानते हैं।....
इसलिए समग्र परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में विष्णु को परम हितैषी कहा गया है।[23]
सर्वाधिक मन्त्रों में वर्णित होने के बावजूद इन्द्र को 'सुकृत' और विष्णु को 'सुकृत्तरः' कहा गया है।[34] 'सुकृत्तरः' का आचार्य सायण ने 'उत्तम फल प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ' अर्थ किया है; श्रीपाद सातवलेकर जी ने 'उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ' अर्थ किया है और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी 'अतीव उत्तम कर्म वाला' अर्थ किया है।[35] इन्द्र 'सुकृत' (उत्तम कर्म करने वाला) है तो विष्णु 'सुकृत्तरः' (उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ) हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि ऋग्वेद में ही यह मान लिया गया है कि विष्णु सर्वोच्च हैं। इसी प्रकार इन्द्र के राजा होने के बावजूद विष्णु की सर्वोच्चता ऋग्वेद में ही इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें विष्णु के लिए कहा गया है कि "वे सम्पूर्ण विश्व को अकेले धारण करते हैं"[32] तथा इन्द्र के लिए कहा गया है कि वे राज्य (संचालन) करते हैं[36]। तात्पर्य स्पष्ट है कि सृष्टि के सर्जक एवं पालक विष्णु ने संचालन हेतु इन्द्र को राजा बनाया है। इस सुसन्दर्भित परिप्रेक्ष्य में विष्णु की सर्वोच्चता से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रन्थों एवं बाद की पौराणिक मान्यताएँ भी स्वतः उद्भासित हो उठती हैं।
ब्राह्मण-युग में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान है।[37]
इस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब छीनकर इन्द्र को दे दी।[38] वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है।[39]
विष्णु वास्तव मे परम तत्व है, इसीलिए वाल्मीकि ने इनके ग्रंथो का वर्णन किया है और वास्तव मे प्राचीन समय मे वर्ण प्रमुख थे सबको समान अधिकार और सम्मान था।कुछ लोग इन्हें ब्राह्मण भी मानते है, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य, कुछ शूद्र वास्तव मे शिव और विष्णु और ब्रह्मा तीन ही प्रमुख देवता है।
विष्णु ने हमेशा कमजोरो का भला किया है और हमेशा उनसे प्यार किया है चाहे वो शबरी हो केवट हो, हनुमान हो यें सभी दिन है। उन्हीने राक्षसों से हमेशा सामान्य जन की रक्षा की है वो प्रजा के परम हितेषी थे और ख़ुद भी उनके मध्य ही रहते है।
ऋग्वेद तथा ब्राह्मणों में उपलब्ध संकेतों का पुराणों में पर्याप्त परिवर्धन हुआ-- कथात्मक भी, विवरणात्मक भी और व्याख्यात्मक भी। पुराणों ने इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से रहित (परे) हैं।[40] वे जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं।[41] जिस समय दिन, रात, आकाश, पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं।[42] सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को विष्णु जी ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है -- सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ।[43] इन सन्दर्भों से विष्णु की सर्वोच्चता तथा सर्वनियन्ता होने की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है।
माना गया है कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।[44]
वैष्णवों के सिरमौर तथा 'पुराणों का तिलक'[45] के रूप में मान्य भागवत महापुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ।[46]
इसी प्रकार अधिकांश पुराणों में विष्णु को परम ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। उनसे सम्बद्ध कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना;[47] तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना;[48] शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत[49] तथा शिवपुराण[50] जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। छिद्रान्वेषी लोग इन्हीं कथाओं का उपयोग मनमानी व्याख्या करके ईश्वर-विरोध के रूप में करते हैं। परन्तु, इन्हें सान्दर्भिक ज्ञान की दृष्टि से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्त्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है।[51]
विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :-
इस प्रकार समस्त सृजनात्मक उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं।[52]
श्रीविष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अतिप्रसिद्ध है :-
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभाङ्गम्।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किये हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत् के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान् श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
वेदांत दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में विष्णु और शिव की भूमिका को लेकर भिन्न दृष्टिकोण हैं। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, और द्वैत तीन प्रमुख सम्प्रदाय हैं जो इस विषय पर अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
अद्वैत (स्मार्त) दृष्टिकोण:
अद्वैत वेदांत, जिसे आदि शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया, मानता है कि सभी देवता एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूप हैं। अद्वैत के अनुसार, विष्णु और शिव दोनों ही परम सत्य ब्रह्म के विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अद्वैत दर्शन में अंतिम उद्देश्य ब्रह्म की अद्वैत स्थिति की प्राप्ति है, और इस संदर्भ में विष्णु और शिव दोनों ही समान रूप से पूजनीय हैं।
विशिष्टाद्वैत (श्री सम्प्रदाय) दृष्टिकोण:
विशिष्टाद्वैत वेदांत, जिसे रामानुज ने प्रतिपादित किया, मानता है कि विष्णु ही सर्वोच्च परमात्मा हैं, जिनके अनंत शुभ गुण हैं। इस दर्शन के अनुसार, भगवान विष्णु ही ईश्वर हैं, और वह जगत का कारण, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। विशिष्टाद्वैत मानता है कि शिव एक देवता हैं, वे विष्णु के अधीन हैं और उनकी दिव्य लीला का हिस्सा हैं। इस सम्प्रदाय में, विष्णु और उनके अवतारों की भक्ति सर्वोच्च मानी जाती है, और जीवात्मा का अंतिम उद्देश्य विष्णु के साथ भक्ति और सेवा के माध्यम से संबंध स्थापित करना है। रामानुज के सिद्धांतों में, विष्णु की भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया गया है, जिसमें शिव का स्थान महत्वपूर्ण है लेकिन विष्णु के समकक्ष नहीं।
द्वैत (माध्व सम्प्रदाय) दृष्टिकोण:
द्वैत वेदांत, जिसे माध्वाचार्य ने स्थापित किया, विष्णु और जीवात्माओं के बीच अनंत भिन्नता पर जोर देता है। इस दृष्टिकोण में, विष्णु को सर्वोच्च भगवान माना जाता है, जबकि शिव को एक शक्तिशाली देवता के रूप में देखा जाता है, जो विष्णु से अलग हैं। द्वैत दर्शन में विष्णु की सर्वोच्चता को प्रमुखता दी जाती है, और शिव की भूमिका महत्वपूर्ण लेकिन विष्णु से भिन्न मानी जाती है। माध्व सम्प्रदाय में विष्णु की भक्ति और सेवा को ही मोक्ष का एकमात्र साधन माना जाता है।
'अवतार' का शाब्दिक अर्थ है भगवान् का अपनी स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा भौतिक जगत् में मूर्त रूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना।[53] अवतार की सिद्धि दो दशाओं में मानी जाती है -- एक तो अपने रूप का परित्याग कर कार्यवश नवीन रूप का ग्रहण; तथा दूसरा नवीन जन्म ग्रहण कर सम्बद्ध रूप में आना, जिसमें माता के गर्भ में उचित काल तक एक स्थिति की बात भी सन्निविष्ट है।[54] इसमें अत्यल्प समय के लिए रूप बदलकर या किसी दूसरे का रूप धारणकर पुनः अपने रूप में आ जाना शामिल नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के सुप्रसिद्ध सातवें एवं आठवें श्लोक में भगवान् ने स्वयं अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि -- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ।[55] इसके अतिरिक्त भागवत महापुराण में एक विशिष्ट और अधिक उदात्त प्रयोजन की बात कही गयी है कि भगवान् तो प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश आदि से परे अचिन्त्य, अनन्त, निर्गुण हैं। तो यदि वे अवतार रूप में अपनी लीला को प्रकट नहीं करते तो जीव उनके अशेष गुणों को कैसे समझते? अतः जीवों के प्रेरणारूप कल्याण के लिए उन्होंने अपने को (अवतार रूप में) तथा अपनी लीला को प्रकट किया।[56] इसलिए विभिन्न अवतार-कथाओं में कई विषम स्थितियाँ हैं जिससे जीव यह समझ सके कि परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग कैसा होता है!
विष्णु के अवतारों की पहली व्यवस्थित सूची महाभारत में उपलब्ध होती है। महाभारत के शान्तिपर्व में अवतारों की कुल संख्या 10 बतायी गयी है (मूलपाठ) :-
हंस: कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम ॥
वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च।
रामो दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च ॥[57]
अर्थात् (श्रीभगवान् स्वयं नारद से कहते हैं) हंस कूर्म मत्स्य वराह नरसिंह वामन परशुराम दशरथनन्दन राम यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि -- ये सब मेरे अवतार हैं। आगे यह भी कहा गया है कि ये भूत और भविष्य के सभी अवतार हैं।[58] मूलपाठ में वर्णन छह अवतारों का है :- 1.वराह 2.नरसिंह 3.वामन 4.परशुराम 5.राम 6.कृष्ण[59]
चूँकि महाभारत बुद्ध के जन्म से पूर्व की अथवा बुद्ध के अवतारी होने की कल्पना से पहले की रचना है; अतः स्वाभाविक रूप से उसमें कहीं बुद्ध का नामोनिशान नहीं है। उसके बदले हंस को अवतार रूप में गिनने से दश की संख्या पूरी हो गयी है।
महाभारत के दाक्षिणात्य पाठ में अवतार का वर्णन इस प्रकार है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामनः।
रामो रामश्च रामश्च कृष्णः कल्की च ते दश॥[60][61]
यहाँ पूर्वोक्त अवतारों में से हंस को छोड़कर तीसरे राम अर्थात् बलराम को जोड़ देने से दश की संख्या पूरी हो गयी है। इस विवरण से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि महाभारत-काल तक दश से अधिक अवतारों की कल्पना भी नहीं की गयी थी; अन्यथा उन दश अवतारों को 'भूत और भविष्य के भी सभी अवतार' नहीं कहा गया रहता।
बाद में अन्य अवतारों की भी कल्पना प्रचलित हुई और कुल अवतारों की गणना चौबीस तक पहुँच गयीं।[62]
भागवत महापुराण में 22 तथा 24 अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत वाली दश ही रही है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड-257.40,41), लिंगपुराण (2.48.31,32), वराहपुराण (4.2), मत्स्यपुराण (2.85.6,7) आदि अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के वर्णन (अध्याय-2से16)[63] में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक (नाममात्र के पाठ भेदों के साथ) प्रायः सर्वनिष्ठ है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥[64]
इस प्रकार विष्णु के दश अवतार ही बहुमान्यता प्राप्त हैं। इनके संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं :
दशावतार के अतिरिक्त अन्य चौदह अवतारों के नाम (भागवत महापुराण की दोनों सूचियों को मिलाकर)[78] इस प्रकार हैं :-
विकिमीडिया कॉमन्स पर विष्णु से सम्बन्धित मीडिया है। |
1. नारायण कन्नू : ईश्वर, परमात्मा भगवान कृष्ण सुन्दर
2. विष्णु : हर जगह विराजमान रहने वाले
3. वषट्कार: यज्ञ से प्रसन्न होने वाले
4. भूतभव्यभवत्प्रभु: भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी
5. भूतकृत : सभी प्राणियों के रचयिता
6. भूतभृत : सभी प्राणियों का पोषण करने वाले
7. भाव : सम्पूर्ण अस्तित्व वाले
8. भूतात्मा : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों की आत्मा में वास करने वाले
9. भूतभावन : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों का पोषण करने वाले
10. पूतात्मा : शुद्ध छवि वाले प्रभु
11. परमात्मा : श्रेष्ठ आत्मा
12. मुक्तानां परमागति: मोक्ष प्रदान करने वाले
13. अव्यय: : हमेशा एक रहने वाले
14. पुरुष: : हर जन में वास करने वाले
15. साक्षी : ब्रह्मांड की सभी घटनाओं के साक्षी
16. क्षेत्रज्ञ: : क्षेत्र के ज्ञाता
17. गरुड़ध्वज: गरुड़ पर सवार होने वाले
18. योग: : श्रेष्ठ योगी
19. योगाविदां नेता : सभी योगियों का स्वामी
20. प्रधानपुरुषेश्वर : प्रकृति और प्राणियों के भगवान
21. नारसिंहवपुष: : नरसिंह रूप धरण करने वाले
22. श्रीमान् : देवी लक्ष्मी के साथ रहने वाले
23. केशव : सुंदर बाल वाले
24. पुरुषोत्तम : श्रेष्ठ पुरुष
25. सर्व : संपूर्ण या जिसमें सब चीजें समाहित हों
26. शर्व : बाढ़ में सब कुछ नाश करने वाले
27. शिव : सदैव शुद्ध रहने वाले
28. स्थाणु : स्थिर रहने वाले
29. भूतादि : सभी को जीवन देने वाले
30. निधिरव्यय : अमूल्य धन के समान
31. सम्भव : सभी घटनाओं में स्वामी
32. भावन : भक्तों को सब कुछ देने वाले
33. भर्ता : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के संचालक
34. प्रभव : सभी चीजों में उपस्थित होने वाले
35. प्रभु : सर्वशक्तिमान प्रभु
36. ईश्वर : पूरे ब्रह्मांड पर अधिपति
37. स्वयम्भू : स्वयं प्रकट होने वाले
38. शम्भु : खुशियां देने वाले
39. जगन्नाथ - जग के नाथ
40. पुष्कराक्ष : कमल जैसे नयन वाले
41. महास्वण : वज्र की तरह स्वर वाले
42. अनादिनिधन : जिनका न आदि है न अंत
43. धाता : सभी का समर्थन करने वाले
44. विधाता : सभी कार्यों व परिणामों की रचना करने वाले
45. धातुरुत्तम : ब्रह्मा से भी महान
46. अप्रेमय : नियम व परिभाषाओं से परे
47. हृषीकेशा : सभी इंद्रियों के स्वामी
48. पद्मनाभ : जिनके पेट से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई
49. अमरप्रभु : अमर रहने वाले
50. विश्वकर्मा : ब्रह्मांड के रचयिता
51. मनु : सभी विचार के दाता
52. त्वष्टा : बड़े को छोटा करने वाले
53.अनन्त : जिसका कोई अन्त नहीं
54. स्थविरो ध्रुव : प्राचीन देवता
55. अग्राह्य : मांसाहार का त्याग करने वाले
56. शाश्वत : हमेशा अवशेष छोड़ने वाले
57. कृष्ण : काले रंग वाले
58. लोहिताक्ष : लाल आँखों वाले
59. प्रतर्दन : बाढ़ के विनाशक
60. प्रभूत : धन और ज्ञान के दाता
61. त्रिककुब्धाम : सभी दिशाओं के भगवान
62. पवित्रां : हृदया पवित्र करने वाले
63. मंगलपरम् : श्रेष्ठ कल्याणकारी
64. ईशान : हर जगह वास करने वाले
65. प्राणद : प्राण देने वाले
66. प्राण : जीवन के स्वामी
67. ज्येष्ठ : सबसे बड़े प्रभु
68. श्रेष्ठ : सबसे महान
69. प्रजापति : सभी के मुख्य
70. कैटभभाजित : कैटभ का वध करने वाले
71. वासुदेव - राजा वसुदेव के पुत्र
72. माधव : देवी लक्ष्मी के पति
73. मधुसूदन : रक्षक मधु के विनाशक
74. ईश्वर : सबको नियंत्रित करने वाले
75. विक्रमी : सबसे साहसी भगवान
76. धन्वी : श्रेष्ठ धनुष- धारी
77. मेधावी : सर्वज्ञाता
78. विक्रम : ब्रह्मांड को मापने वाले
79. क्रम : हर जगह वास करने वाले
80. अनुत्तम : श्रेष्ठ ईश्वर
81. दुराधर्ष : सफलतापूर्वक हमला न करने वाले
82. कृतज्ञ : अच्छाई- बुराई का ज्ञान देने वाले
83. कृति : कर्मों का फल देने वाले
84. आत्मवान : सभी मनुष्य में वास करने वाले
85. सुरेश : देवों के देव
86. शरणम : शरण देने वाले
87. चक्रधारी - चक्र धारण करने वाले
88. विश्वरेता : ब्रह्मांड के रचयिता
89. प्रजाभव : भक्तों के अस्तित्व के लिए अवतार लेने वाले
90. अह्र : दिन की तरह चमकने वाले
91. सम्वत्सर : अवतार लेने वाले
92. व्याल : नाग द्वारा कभी न पकड़े जाने वाले
93. प्रत्यय : ज्ञान का अवतार कहे जाने वाले
94. सर्वदर्शन : सब कुछ देखने वाले
95. अज : जिनका जन्म नहीं हुआ
96. सर्वेश्वर : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी
97. सिद्ध : सब कुछ करने वाले
98. सिद्धि : कार्यों के प्रभाव देने वाले
99. सर्वादि : सभी क्रियाओं के प्राथमिक कारण
100. अच्युत : कभी न चूकने वाले
101. वृषाकपि: धर्म और वराह का अवतार लेने वाले
102. अमेयात्मा: जिनका कोई आकार नहीं है।
103. सर्वयोगविनि: सभी योगियों के स्वामी
104. वसु : सभी प्राणियों में रहने वाले
105. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाले
106. सत्य : सत्य का समर्थन करने वाले
107. समात्मा: सभी के लिए एक जैसे
108. सममित: सभी प्राणियों में असीमित रहने वाले
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