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भगवान श्री विष्णु जी के अवतार विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
वराहावतार भगवान विष्णु के अवतार हैं । जब जब धरती पापी लोगों से कष्ट पाती है तब तब भगवान विविध रूप धारण कर इसके दु:ख दूर करते हैं। दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को जल में डुबो दिया था तब भगवान विष्णु वराह अवतार लेकर पृथ्वी का कल्याण किया था। इनकी शक्ति अथवा पत्नी देवी वाराही हैं जो भगवती लक्ष्मी की स्वरूप हैं और इनमें देवी पार्वती जी की शक्तियां हैं।
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वराह | |
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पृथ्वी के रक्षक | |
भगवान वाराह हिरण्याक्ष का संहार और पृथ्वी की रक्षा करते हुए। | |
संबंध | स्वयं भगवान |
निवासस्थान | सूकरक्षेत्र सोरों |
मंत्र | ॐ वराहाय नमः, ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नम:। |
अस्त्र | सुदर्शन चक्र |
जीवनसाथी | वाराही और भूदेवी |
संतान | नरकासुर |
शास्त्र | भागवत पुराण, विष्णु पुराण, वाराह पुराण |
एक बार मरीचि नन्दन कश्यप जी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिये खीर की आहुति दी और उनकी आराधना समाप्त करके सन्ध्या काल के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे गये। उसी समय दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति (यह कश्यप की पत्नी तथा दैत्यों की माता हैं।) कामातुर होकर पुत्र प्राप्ति की लालसा से कश्यप जी के निकट गई। दिति ने कश्यप जी से मीठे वचनों से अपने साथ रमण करने के लिये प्रार्थना किया। इस पर कश्यप जी ने कहा, "हे प्रिये! मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार तेजस्वी पुत्र अवश्य दूँगा। किन्तु तुम्हें एक प्रहर के लिये प्रतीक्षा करनी होगी। सन्ध्या काल में सूर्यास्त के पश्चात् भूतनाथ भगवान शंकर अपने भूत, प्रेत तथा यक्षों को लेकर बैल पर चढ़ कर विचरते हैं। इस समय तुम्हें कामक्रीड़ा में रत देख कर वे अप्रसन्न हो जाएंगे। अतः यह समय सन्तानोत्पत्ति के लिये उचित नहीं है। सारा संसार मेरी निन्दा करेगा। यह समय तो सन्ध्यावन्दन और भगवत् पूजन आदि के लिये ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं वे नरकगामी होते हैं।"
पति के इस प्रकार समझाने पर भी उसे कुछ भी समझ में न आया और उस कामातुर दिति ने निर्लज्ज भाव से कश्यप जी के वस्त्र पकड़ लिये। इस पर कश्यप जी ने दैव इच्छा को प्रबल समझ कर दैव को नमस्कार किया और दिति की इच्छा पूर्ण की और उसके बाद शुद्ध जल से स्नान कर के सनातन ब्रह्म रूप गायत्री का जप करने लगे। दिति ने गर्भ धारण कर के कश्यप जी से प्रार्थना की, "हे आर्यपुत्र! भगवान भूतनाथ मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरा यह गर्भ नष्ट न करें। उनका स्वभाव बड़ा उग्र है। किन्तु वे अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं। वे मेरे बहनोई हैं मैं उन्हें नमस्कार करती हूँ।"
कश्यप जब सन्ध्यावन्दन आदि से निवृत हुये तो उन्होंने अपनी पत्नी को अपनी सन्तान के हित के लिये प्रार्थना करते हुए और थर थर काँपती हुई देखा तो वे बोले, "हे दिति! तुमने मेरी बात नहीं मानी। तुम्हारा चित्त काम वासना में लिप्त था। तुमने असमय में भोग किया है। तुम्हारे कोख से महाभयंकर अमंगलकारी दो अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। सम्पूर्ण लोकों के निरपराध प्राणियों को अपने अत्याचारों से कष्ट देंगे। धर्म का नाश करेंगे। साधू और स्त्रियों को सतायेंगे। उनके पापों का घड़ा भर जाने पर भगवान कुपित हो कर उनका वध करेंगे।"
दिति ने कहा, "हे भगवन्! मेरी भी यही इच्छा है कि मेरे पुत्रों का वध भगवान के हाथ से ही हो। ब्राह्मण के शाप से न हो क्योंकि ब्राह्मण के शाप के द्वारा प्राणी नरक में जाकर जन्म धारण करता है।" तब कश्यप जी बोले, "हे देवि! तुम्हें अपने कर्म का अति पश्चाताप है इस लिये तुम्हारा नाती भगवान का बहुत बड़ा भक्त होगा और तुम्हारे यश को उज्वल करेगा। वह बालक साधुजनों की सेवा करेगा और काल को जीत कर भगवान का पार्षद बनेगा।"
कश्यप जी के मुख से भगवद्भक्त पौत्र के उत्पन्न होने की बात सुन कर दिति को अति प्रसन्नता हुई और अपने पुत्रों का वध साक्षात् भगवान से सुन कर उस का सारा खेद समाप्त हो गया।
उसके दो पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ और विधि के विधानों के हिसाब से ये दुष्टता की राह पर चल पड़े। ये प्रभु की इच्छा से इनके कुल में प्रहलाद और बलि जैसे महापुरुषों का जन्म भी हुआ।
एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादि ऋषि कहलाते हैं और देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं) सम्पूर्ण लोकों से विरक्त होकर चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल पहरा दिया करते थे। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे।
उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा, "अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।" ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, "भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पापयोनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।" उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।
यह जान कर कि सनकादिक ऋषिगण भेंट करने आये हैं भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, "हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।"
भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोले, "आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।"
भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये तीन जन्म असुर योनि को प्राप्त करेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जाएंगे। तब जय विजय का पहला जन्म सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ और वराहावतार और नरसिंह अवतार में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का संहार हुआ , त्रेता युग में रावण कुंभकर्ण के रूप में हुआ जिनका संहार श्रीराम द्वारा हुआ अंत में तीसरे जन्म में शिशुपाल दन्तवक्र के रूप में हुआ और श्रीकृष्ण के द्वारा इनका संहार हुआ और ये श्रीविष्णु के निवास बैकुंठ धाम में वापिस आ गए | "[1]
जय और विजय बैकुण्ठ से गिर कर दिति के गर्भ में आ गये। कुछ काल के पश्चात् दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम महर्षि कश्यप ने हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष रखा। इन दोनों यमल के उत्पन्न होने के समय तीनों लोकों में अनेक प्रकार के भयंकर उत्पात होने लगे। स्वर्ग पृथ्वी, आकाश सभी काँपने लगे और भयंकर आँधियाँ चलने लगीं। सूर्य और चन्द्र पर केतु और राहु बार बार बैठने लगे। उल्कापात होने लगे। बिजलियाँ गिरने लगीं। नदियों तथा जलशयों के जल सूख गये। गायों के स्तनों से रक्त बहने लगा। उल्लू, सियार आदि रोने लगे।
दोनों दैत्य जन्मते ही आकाश तक बढ़ गये। उनका शरीर फौलाद के समान पर्वताकार हो गया। वे स्वर्ण के कवच, कुण्डल, कर्द्धनी, बाजूबन्द आदि पहने हुये थे। हिरण्यकश्यपु ने तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा जी से उसने वरदान ले लिया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात में, न घर के भीतर हो न बाहर। इस तरह से अभय हो कर और तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर के वह एक छत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पलन करते हुये शत्रुओं का नाश करने लगा। एक दिन घूमते घूमते वह वरुण की पुरी में जा पहुँचा। पाताल लोक में पहुँच कर हिरण्याक्ष ने वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुये कहा, "हे वरुण देव! आपने जगत के सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवों पर विजय प्राप्त किया है। मैं आपसे युद्ध की भिक्षा माँगता हूँ। आप मुझसे युद्ध करके अपने युद्ध कौशल का प्रमाण दें। उस दैत्य की बात सुन कर वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया पर समय को देखते हुये उन्होंने हँसते हुये कहा, "अरे भाई! अब लड़ने का चाव नहीं रहा है और तुम जैसे बलशाली वीर से लड़ने के योग्य अब हम रह भी नहीं गये हैं। तुम को तो यज्ञपुरुष नारायण के पास जाना चाहिये। वे ही तुमसे लड़ने योग्य हैं।
वरुण देव की बात सुनकर उस दैत्य ने देवर्षि नारद के पास जाकर नारायण का पता पूछा। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं। इस पर हिरण्याक्ष रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने भगवान वाराह को अपने दाढ़ पर रख कर पृथ्वी को लाते हुये देखा। उस महाबली दैत्य ने वाराह भगवान से कहा, "अरे जंगली पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहाँ लिये जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। रे अधम! तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है इसलिये आज मैं तेरा वध कर डालूँगा।"
हिरण्याक्ष के इन वचनों को सुन कर वाराह भगवान को बहुत क्रोध आया किन्तु पृथ्वी को वहाँ छोड़ कर युद्ध करना उन्होंने उचित नहीं समझा और उनके कटु वचनों को सहन करते हुये वे गजराज के समान शीघ्र ही जल के बाहर आ गये। उनका पीछा करते हुये हिरण्याक्ष भी बाहर आया और कहने लगा, "रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? आकर मुझसे युद्ध कर।" पृथ्वी को जल पर उचित स्थान पर रखकर और अपना उचित आधार प्रदान कर भगवान वाराह दैत्य की ओर मुड़े और कहा, "अरे ग्राम सिंह (कुत्ते)! हम तो जंगली पशु हैं और तुम जैसे ग्राम सिंहों को ही ढूँढते रहते हैं। अब तेरी मृत्यु सिर पर नाच रही है।" उनके इन व्यंग वचनों को सुनकर हिरण्याक्ष उन पर झपट पड़ा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अन्त में हिरण्याक्ष का भगवान वाराह के हाथों वध हो गया।
भगवान वाराह के विजय प्राप्त करते ही ब्रह्मा जी सहित समस्त देवतागण आकाश से पुष्प वर्षा कर उनकी स्तुति करने लगे।[2]
ब्रह्मा नें मनु और सतरूपा का निर्माण किया और सृष्टि करने की आज्ञा दी। इसके लिये भूमि की आवश्यकता होती है जिसे हिरण्याक्ष नामक दैत्य लेकर सागर के भीतर भू देवी को अपना तकिया बना कर सोया था तथा देवताओं के डर से विष्ठा का घेरा बना रखा था।
मनु सतरूपा को जल ही जल दिखा जिसके बारे में ब्रह्मा को बताया तब ब्रह्मा ने सोचा कि सभी देव तो विष्ठा के पास तक नहीं जाते, एक शूकर ही है जो विष्ठा के समीप जा सकता है। भगवान विष्णु का ध्यान किया और अपने नासिका से वाराह नारायण को जन्म दिया, पृथ्वी को ऊपर लाने की आज्ञा दी।
वाराह भगवान समुद्र में उतरे और हिरण्याक्ष का संहार कर भू देवी को मुक्त किया।[3]
सन्दर्भ भागवत महापुराण पुस्तिका से।
ऊँ नम: श्री वराहाय धरण्युद्धारणाय स्वाहा: स्कन्द पुराण
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