Remove ads
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
ईश्वर शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। ये दो संस्कृत के शब्द “ईश” और “वरच्” (प्रत्यय) के जुड़ने से बना है। ईश का अर्थ प्रभु, स्वामी या नियंत्रण करने वाला है। वर का अर्थ सर्वोपरि है। इसे भगवान, परमात्मा, प्रभु, परम पुरुष, या स्वामी भी कहा जा सकता है। ईश्वर विषय ऐसा विषय है जिस पर मानव सभ्यता सृष्टि के आरम्भ से ही विचार और विश्लेषण करती आई है। हिन्दु धर्म के अनुसार ईश, ईश्वर, परमेश्वर एक ही शक्ति के नाम हैं, यही वह परम शक्ति है जिससे समस्त संसार की उत्पत्ति हुई है।
विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में ईश्वर के प्रति अलग-अलग मान्यताएँ और धारणाएँ पाई जाती हैं, लेकिन सभी धर्मों में ईश्वर को एक सर्वोच्च शक्ति, सृष्टिकर्ता और नियंता के रूप में मान्यता दी जाती है। ईश्वर शब्द की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना के मूल स्वरूप को समझने के लिए की गई होगी। ईश्वर की परिभाषा करना सरल नहीं है क्योंकि यह विभिन्न दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है। हिन्दू धर्म में, ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में त्रिमूर्ति में माना जाता है। इस्लाम में, अल्लाह को एकमात्र सृष्टिकर्ता माना जाता है। ईसाई धर्म में, ईश्वर को पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में देखा जाता है।
ईश्वर शब्द हिन्दु धर्म ग्रंथों जैसे कि वेदों और पुराणों में कई स्थानों पर उल्लेखित है। जैसे की :
ऋग्वेद में ईश्वर को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है, जैसे कि 'ब्रह्मणस्पति', 'विष्णु', 'इन्द्र', 'अग्नि' आदि। इन नामों से ईश्वर की विभिन्न शक्तियों और रूपों की चर्चा की गई है। यजुर्वेद में, ईश्वर को 'परमात्मा' और 'सर्वशक्तिमान' के रूप में वर्णित किया गया है। यजुर्वेद के मंत्रों में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले परमात्मा की महिमा गाई गई है।
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम्। कविः मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतः अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (यजुर्वेद ४०, ८) [1]
सामवेद में, संगीत और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की स्तुति की जाती है। यहाँ पर ईश्वर को 'उत्सव' और 'प्रभु' के रूप में पुकारा जाता है। अथर्ववेद में, ईश्वर को 'ब्रह्म' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें ईश्वर की अद्वितीयता और सर्वव्यापकता पर जोर दिया गया है।
भागवत पुराण में, ईश्वर को 'भगवान श्री कृष्ण' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन है, जिसमें वे सर्वोच्च ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, वे कहते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ : यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।१०.३९।। [2]
शिव पुराण में, भगवान शिव को ईश्वर के रूप में पूजा जाता है। इसमें शिव की महिमा, उनकी लीलाएँ, और उनके विभिन्न रूपों का वर्णन है। विष्णु पुराण में, भगवान विष्णु को ईश्वर के रूप में माना गया है। इसमें विष्णु के दशावतारों की कथा और उनकी लीला का वर्णन है। देवीभागवत पुराण में, देवी माँ को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें देवी की महिमा, उनकी उपासना और उनके विभिन्न रूपों का विवरण है।
ईशावास्य उपनिषद में कहा गया है,
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् [3]
अर्थ : "यह संपूर्ण जगत ईश्वर में व्याप्त है।"
कठोपनिषद में कहा गया है, “ईश्वर का संबंध आत्मा और परमात्मा से है, ईश्वर सर्वोच्च सत्ता और ज्ञान का स्रोत है। वे सबसे छुपा हुआ है। ईश्वर को अनुभव करने के लिए गहरी, सूक्ष्म और ध्यानमग्न बुद्धि की आवश्यकता होती है। ईश्वर का साक्षात्कार करना साधारण ज्ञान से परे है।”
एष सर्वेषु भूतेषु गूढो ऽऽत्मा न प्रकाशते। । दृश्यते तु अग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥ (कठोपनिषद) [4] मुण्डकोपनिषद में कहा गया है, सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म जिसका अर्थ है, "ईश्वर सत्य, ज्ञान और अनंतता का स्वरूप है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कहता है, “ईश्वर तिल में छुपे हुए तेल की तरहं से ही हमारे शरीर में छुपा हुआ है। उसे सत्य और तपस्या से ही अनुभव किया जा सकता है। इसका साक्षात्कार बाहरी दुनिया में नहीं है, बल्कि साधना और सत्य के अनुसरण से ही सम्भव हैं।”
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुसा पश्यति कश्चनैनम्। हृदा-हृदिस्थं मनसा च एनमेव विदुरमृतास्ते भवन्ति॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्) [5]
हर ग्रंथ अपने तरीके से ईश्वर की महिमा का गुणगान करता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर की अवधारणा भारतीय धार्मिक और दार्शनिक विचारों में कितनी महत्वपूर्ण है। इस की महत्ता को सभी हिन्दू ग्रंथ, वेद, पुराण और उपनिषद ईश्वर के रूप में स्वीकारते हैं।
1. हिन्दू धर्म में, ईश्वर की अवधारणा बहुत व्यापक है। यहाँ एकेश्वरवाद, बहुईश्वरवाद, और अद्वैतवाद की धारणाएँ मिलती हैं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं सबका जन्मदाता हूँ, मैं ही सबका विनाशक हूँ।"दुनिया मैं एक मात्र हिंदू धर्म ही है जो सबसे प्राचीन है, इसके बाद ही अनेक धर्म आय, रामायण, महाभारत जैसे धर्म ग्रंथ की घटनाओं का सबूत आज भी मिलते है, ये वैज्ञानिक दृष्टि से भी सच साबित हुआ नजर आता है।
2. इस्लाम में सबसे बड़ी शक्ति को अल्लाह कहा जाता है। कुरान में अल्लाह को एकमात्र सत्य के रूप में वर्णित किया गया है। इस्लाम में इस शक्ति का कोई भी साझेदार या अलग रूप नहीं माना जाता है। वे अनन्त है।
3. ईसाई धर्म में, ईश्वर को त्रित्व के रूप में माना जाता है - पिता, पुत्र (यीशु मसीह), और पवित्र आत्मा। बाइबिल के अनुसार, ईश्वर ने संसार की सृष्टि की और मानवता के पापों के उद्धार के लिए अपने पुत्र यीशु को बलिदान किया।
ईश्वर के अस्तित्व पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण भिन्न हो सकते हैं। कुछ वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं और इसे वैज्ञानिक तर्कों से परे मानते हैं। वहीं, कुछ वैज्ञानिक और दार्शनिक मानते हैं कि ब्रह्मांड की जटिलता और सृष्टि के क्रमबद्ध नियमों को देखते हुए, एक सर्वोच्च शक्ति का अस्तित्व संभव हो सकता है।
ईश्वर, अल्लाह या यीशु का विचार व्यक्तिगत आस्था और विश्वास पर आधारित है। विभिन्न धर्म और संस्कृतियाँ अपने-अपने ढंग से ईश्वर की व्याख्या करती हैं, लेकिन सभी में एक साझा उद्देश्य होता है - मानवता को नैतिकता, दया और प्रेम की ओर प्रेरित करना। ईश्वर की अवधारणा हमें आत्म-साक्षात्कार और सृष्टि के मूलभूत प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करती है।
विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व को पूरी तरह से नकारता नहीं है। केवल कुछ लोग ही हैं जो ईश्वर को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं और इसके बारे में नास्तिक दृष्टिकोण रखते हैं। कुछ लोग इसे स्वीकारते हैं, लेकिन दूसरे नामों से। जैसे कुछ इसे ब्रह्मांड में विकास की रचनात्मक शक्ति कहते हैं, कुछ इसे ऐसी शक्ति मानते हैं जो हमारे जीवन में परिवर्तन ला सकती है, और कुछ इसे अंतिम रहस्य मानते हैं जिसे अभी मानव को समझना है।
ईसा मसीह के अनुयायी ईसाई के रूप में जाने जाते हैं। यीशु का जन्म लगभग 6 ई.पू. बेथलेहम में हुआ। ईसाई धर्म की मुख्य पुस्तक बाइबल तीन पवित्र पुस्तकों- तोराह, इंजिल और ज़बूर का संग्रह है। ईसाई और इस्लाम दोनों धर्मों में यह माना जाता है कि ईश्वर द्वारा बनाया गया पहला मानव आदम था और हम सभी उसके पुत्र और पुत्रियाँ हैं। उनके वंश में, कई पैगंबर जन्में थे। उनमें से कुछ हज़रत दाऊद, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा हैं।
जिसका प्रमाण पवित्र बाइबिल - उत्पत्ति ग्रंथ में भी है । उत्पत्ति ग्रंथ 1:29 - मैंने आपके खाने के लिए सभी प्रकार के अनाज और सभी प्रकार के फल प्रदान किए हैं और उत्पत्ति ग्रंथ 1:30 - लेकिन सभी जंगली जानवरों और सभी पक्षियों के लिए मैंने भोजन के लिए घास और पत्तेदार पौधे प्रदान किए हैं-इसलिए मैंने उन्हें शाकाहारी होने का आदेश दिया। ईसाई धर्म में परमात्मा को निराकार मना जाता है, परंतु सच्चाई यह है कि परमात्मा साकार और निराकार दोनो है। वह अपने अपने अनुसार निराकार और साकार होता रहता है। प्रमाण के लिए देखें: बाइबल (उत्पत्ति 1:1), (इब्रियों 11:6), (रोमन 1:20), (रोमन 1:19, 20), साल्म/स्तोत्र 53:1-3)।
वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं। इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक कुरान है और प्रत्येक मुसलमान ईश्वर शक्ति में विश्वास रखता है।
इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है, अर्थात् अल्लाह/भगवान/ ईश्वर के सिवा कोई माबूद नहीं है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।
इस्लाम में मुसलमानों को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नहीं क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नहीं रहता इसलिए इस्लाम में बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की हुक्म दिया गया है।
इस्लाम में 5 वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम में रमज़ान एक पाक महीना है जो कि 30 दिनों का होता है और 30 दिनों तक रोज़ रखना फ़र्ज़ है जिसकी उम्र 12 या 12 से ज़्यादा हो।12 से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नहीं।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नहीं लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।
वेद के अनुसार हर व्यक्ति ईश्वर का अंश है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे हैं। हिंदू धर्म ईश्वर को दोनों अर्थात् साकार तथा निराकार रूप में देखता है।इस के अनुसार जो ईश्वर सब चीजों को साकार रूप देता है,वो खुद भी साकार तथा निराकार रूप धारण कर सकता है।सनातन धर्म (लोकपरिचित हिंदू धर्म) आत्मा (ईश्वर का अंश)को जीवन को आधार मानता है। हिंदू धर्म मानव को किसी पाप समलित होने आज्ञा नहीं देता।इसके अनुसार जीव को मानव जन्म में सद्कर्म तथा मानवता आचरण करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी उद्देश्य से हुआ है। ईश्वर अनंत है , अजन्म है। हिंदू धर्म में आदिशक्ति मां को श्रृष्टि का आधार बताया गया। ब्रह्मा को श्रृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालनहार तथा महेश को श्रृष्टि का विनाशक बताया गया है।
जैन धर्म में तीर्थंकर एक धार्मिक मार्ग का आध्यात्मिक शिक्षक होता है जिसे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र पर विजय प्राप्त किया हुआ माना जाता है; जिनकी धार्मिक विचारधारा को जैन धर्म के सभी भक्त निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करने के लिए पालन करते हैं। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड के समय का चक्र दो हिस्सों में बांटा गया है। आरोही समय चक्र को उत्सर्पिनी कहा जाता है और अवरोही समय चक्र को अवसरपिनी कहा जाता है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हैं जिन्हें उनके आध्यात्मिक शिक्षक और सफल उद्धारक माना जाता है। ऋषभ देव जैन धर्म के संस्थापक और पहले तीर्थंकर हैं। महावीर जैन धर्म के अंतिम यानी चौबीसवें तीर्थंकर थे। भगवान महावीर के अन्य नाम वीर, अतिवीर, सनमती, महावीर और वर्धमान हैं।
बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के आधार पर कई परंपराओं और प्रथाओं का पालन किया जाता है। बौद्ध धर्म की स्थापना 2600 साल पहले, एक भारतीय तत्ववेत्ता और धार्मिक शिक्षक सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के द्वारा की गई थी। गौतम बुद्ध ने देवताओं को संसार के समान चक्र में फंसे हुए प्राणियों के रूप में देखा है। उन्होंने केवल भगवान की अवधारणा को भगवान के अस्तित्व के बारे में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बिना एक तरफ रख दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए देवताओं पर विश्वास करना जरूरी नहीं है। गौतम बुद्ध का मानना था कि "भगवान अन्य सभी प्राणियों की तरह पुनर्जन्म के चक्र में शामिल हैं और आखिरकार, वे गायब हो जाएंगे। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 'ईश्वर में विश्वास' आवश्यक नहीं है।"
15 वीं शताब्दी में स्थापित सिख धर्म दुनिया के चार प्रमुख धर्मों में से एक है। सिक्ख धर्म की स्थापना गुरु नानक (ई.स. 1469-1539) जी द्वारा की गई थी। सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य लोगों को भगवान के सच्चे नाम (सतनाम) से जोड़ना है। सिक्खों का पवित्र ग्रंथ "गुरु ग्रंथ साहिब" है। सिक्ख मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मानव जीवन में एक गुरु होना चाहिए और बाकी सभी से ऊपर एक परमात्मा है। गुरु नानक देव, सिख धर्म के संस्थापक ने हमें गुरु ग्रंथ साहेब में कई संकेत दिए हैं कि हम केवल सद्गुरु / तत्त्वदर्शी गुरु की शरण में जाने से ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुरु मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विभिन्न मूल भाषाओं में भगवान का वास्तविक नाम कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में), हक्का कबीर (पृष्ठ संख्या 721 पर गुरु ग्रंथ साहिब में पंजाबी भाषा में) है। सिक्ख धर्म के लोग वाहेगुरु को सच्चा मंत्र जान कर उसका जाप करते हैं जबकि वास्तविकता में 'वाहेगुरु' एक शब्द है जिसे ईश्वर, परम पुरुष या सभी के निर्माता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। कबीर साहेब का अर्थ परमात्मा से है कुछ लोग कबीर शब्द को महात्मा कबीर दास से जोड़ देते है जो की गलत है कबीर दास जी कोई भगवान नही थे बल्कि वो खुद परमात्मा के निराकार रूप के भक्त थे। वाहेगुरु शब्द सतलोक में भगवान के रूप में देखने के बाद, श्री नानक जी के मुख से "वाहेगुरु" शब्द निकला था। गुरु नानक जी ने एकेश्वरवाद के विचार पर जोर देने के लिए ओंकार शब्द के पहले "इक"(ੴ) का उपसर्ग दिया। इक ओंकार सत-नाम करत पुरख निरभउ,
निरवैर अकाल मूरत अंजुनि सिभन गुर प्रसाद।
अर्थात् यहां केवल एक ही परम पुरुष है, शास्वत सच, हमारा रचनहार, भय और दोष से रहित, अविनाशी, अजन्मा, स्वयंभू परमात्मा। जिसकी जानकारी कृपापात्र भगत को पूर्ण गुरु से प्राप्त होती है।
नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।
भारतीय दर्शनों में "ईश्वर" के विषय में क्या कहा गया है, वह निम्नवत् है-
इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टिवैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।
हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतंजलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।
कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादानकारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ विराजमान हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में संचरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।
नैयायिक उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर-सिद्धि हेतु निम्न युक्तियाँ दी हैं-
(क) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।
(ख) आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते. जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता. अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।
(ग) धृत्यादेः - जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।
(घ) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।
(ङ) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।
(च) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती. वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.