न्यायकुसुमांजलि, भारतीय न्यायदर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके रचयिता उदयनाचार्य हैं। इसमें आस्तिकता के पक्ष में बहुत सबल तर्क दिये गये हैं।
उदयनाचार्य ने तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया है। कुसुमांजलि में ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिये निम्नलिखित नौ 'प्रमाण' दिये हैं-
- कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
- वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ -- न्यायकुसुमांजलि. ५.१
- (१) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।
- (२) आयोजनात् - जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते। जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता। अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।
- (३) धृत्यादेः – जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है. और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।
- (४) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। “इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है”, यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।
- (८) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं. अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।
- (९) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं. किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
न्यायकुसुमाञ्जलि में पाँच स्तबक (अध्याय) में कुल ७३ श्लोक हैं।
- लक्षणमाला
- लक्षणावली
- आत्मतत्त्वविवेक
- न्यायपरिशिष्ट
- न्यायवार्त्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि
- किरणावली