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हिन्दी आलोचक, संस्मरण एवं जीवनी लेखक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी (16 फरवरी 1931)[1][2] हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और गद्यकार हैं। प्रगतिशील विचारधारा से सम्बद्ध कट्टरतारहित आलोचक के रूप में डॉ॰ त्रिपाठी ने मुख्यतः मध्यकालीन साहित्य से लेकर समकालीन साहित्य तक की आलोचना में गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है। जीवनी एवं संस्मरण लेखन के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण मुकाम हासिल किया है।
विश्वनाथ त्रिपाठी का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला (अब सिद्धार्थनगर) के बिस्कोहर गाँव में हुआ था। शिक्षा पहले गाँव में, फिर बलरामपुर कस्बे में, उच्च शिक्षा कानपुर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में। पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से पीएच॰डी॰। 15 नवंबर, 1958 को देवी सिंह बिष्ट महाविद्यालय नैनीताल में अध्यापक नियुक्त हुए। 8 अक्टूबर, 1959 को किरोड़ीमल कॉलेज दिल्ली में नियुक्ति हुई।[3] बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में अध्यापन। 15 फरवरी, 1996 को 65 वर्ष पूरे होने के बाद सेवानिवृत्त हो गये।[4]
त्रिपाठी जी भाषा एवं साहित्य दोनों के गम्भीर अनुसंधित्सु रहे हैं। उनकी पहली पुस्तक 'हिन्दी आलोचना' आज भी अपनी मौलिकता, प्रांजलता, ईमानदार अभिव्यक्ति तथा सटीक एवं व्यापक विश्लेषण के कारण अपने क्षेत्र में अद्वितीय है। त्रिपाठी जी ने बहुत नहीं लिखा है, परन्तु जो भी लिखा है, उसे पढ़ते हुए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनकी लिखी हर पंक्ति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और अवश्य ध्यातव्य है।
त्रिपाठी जी ने तुलसीदास तथा मीरा के काव्य पर एक-एक पुस्तक लिखी हैं।
तुलसीदास के सन्दर्भ में आचार्य शुक्ल से लेकर डाॅ० रामविलास शर्मा जी तक के विवेचन के बाद कुछ नया और सार्थक जोड़ पाना निश्चय ही एक बड़ी चुनौती जैसी बात है , जिसे त्रिपाठी जी ने बखूबी निभाया है। कवि तुलसी का जो रूप इनकी पुस्तक के प्रकाशित हो जाने के बाद बना, वह पहले नहीं बन पाया था। और यह रूप कितना प्रामाणिक तथा हृदयग्राही है, इसकी झलक इस पुस्तक पर लिखे गये राजेन्द्र यादव के पत्र से बहुत अच्छी तरह मिल जाती है। पूर्व के सारे तर्कों के बावजूद तुलसीदास को अंधविश्वासी, रुढ़िवादी, अपरिवर्तनकामी आदि तथा राम के चरित्र को परम्परापोषक एवं गिलगिले मानने वाले राजेन्द्र यादव जैसे व्यक्ति ने भी यह पुस्तक पढ़कर लिखा है :
"पुस्तक में एक ऐसी अजीब-सी ऊष्मा, आत्मीयता और बाँध लेने वाली निश्छलता है कि मैं इसे पढ़ता ही चला गया। अच्छी बात यह लगी कि आपने न राम को मुकुट पहनाए, न तुलसी को अक्षत चन्दन लगाए -- आपने तो अपने अवध को ही तुलसी के माध्यम से जिया है, वहाँ के लोगों, उनके आपसी सम्बन्धों और सन्दर्भों -- बिना उन्हें महिमान्वित किए -- को उकेरा है। सब कुछ आपने इतना मानवीय और स्पन्दनशील बना दिया है कि मैं तुलसी के प्रति अपने सारे पूर्वग्रह छोड़कर पढ़ता चला गया...।"[5]
'मीरा का काव्य' के तीन अध्यायों में ही लेखक ने वर्णव्यवस्था, नारी और भक्ति आन्दोलन के बहुआयामी (खूबियों-खामियों सहित) परिप्रेक्ष्य में 'मीरा' और उसके 'गिरधर नागर' के सम्बन्धों की -- अत्यधिक वर्जना युक्त समाज में -- यथासम्भव अभिव्यक्ति के माध्यम से यथास्थिति तथा सामाजिक गति की द्वन्द्वात्मकता की काव्यात्मकता का जो निरूपण किया है, उसे 'अनुपम' कहकर भी उसका महत्त्व रेखांकित नहीं किया जा सकता। उसे तो बस पढ़कर ही जाना जा सकता है। और पढ़ सकने के लिए किसी अतिरिक्त साहस की जरूरत नहीं है। बस शुरु कर देना है। फिर तो त्रिपाठी जी की समर्थ परन्तु सहज पारदर्शी भाषा-शैली अपनी स्वच्छ निर्झर की स्वाभाविक वेगमयी धारा में बहाये लिए चली जाती है।
त्रिपाठी जी का अधिकांश लेखन अपने समय और समाज से जुड़ा हुआ लेखन है। चाहे वह हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबन्धों की विवेचना हो या केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं के मर्म का उद्घाटन; कहानी पर केन्द्रित कहानी-आलोचना के उच्चतम सीमान्त को स्पर्श करने वाली दोनों पुस्तकें हों या संस्मरण-जीवनी का बहुआयामी-बहुरंगी संसार -- त्रिपाठी जी का लक्ष्य प्रायः विचलन की हर बिन्दुओं को पहचानते हुए, उससे बचकर तथा लक्षित लेखकों के बचने या बच पाने की कोशिश की प्रक्रिया को समझते-समझाते समाज को सही गति से उपयुक्त दिशा में अग्रसर कर सकने वाली मुकम्मल दृष्टि की सटीक पहचान ही है।
इस सबके लिए त्रिपाठी जी ने न तो पोलिमिक्स का सहारा लिया है , न ही किसी गुटबन्दी को स्वीकार किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अन्तेवासी तथा प्रियपात्र रहते हुए भी, उनका कुछ मुद्दों पर प्रखर विरोध करने वाले रामविलास शर्मा से भी -- उनकी असीम संभावनाओं, तथा युगान्तरकारी सृजनकार्यों के कारण -- लगातार हार्दिक रूप से जुड़े रहे; तथा शर्मा जी के प्रति निरन्तर आदर प्रकट करते हुए भी उनके विरोध का कोई मौका न गँवाने वाले नामवर सिंह के प्रति भी उनकी अदम्य जिज्ञासाओं के कारण बहुपठनीयता से बहुमुखी जानकारियों, साहित्य की सटीक पहचान तथा आलोचना के 'सचल विश्वविद्यालयी रूप' के कारण हमेशा हार्दिक लगाव बनाये ही रहे हैं। अन्यथा गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अथवा सहयोग-सहवर्तिता तथा मैत्री भी आज के युग में कब तक और कितना टिक पाते हैं!
संपादित कृतियों में भी डॉ॰ त्रिपाठी ने पूरी निष्ठा एवं गंभीरता से कार्य किया है। डॉ॰ रामविलास शर्मा पर केंद्रित वसुधा के विशेषांक के संदर्भ में मधुरेश का मानना है कि "उनके संपादन में वसुधा का रामविलास शर्मा पर केंद्रित अंक अरुण प्रकाश के सहयोग से, संभवतः रामविलास शर्मा का सर्वाधिक विश्वसनीय मूल्यांकन है।"[6]
हिन्दी कहानी-आलोचना के क्षेत्र में सुरेन्द्र चौधरी के बाद नि:सन्देह डाॅ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी द्वितीय शिखर आलोचक हैं। सुरेन्द्र चौधरी की तरह ही त्रिपाठी जी ने भी बहुत नहीं लिखा है, और विवेचन के लिए किसी एक पूरे दौर या एक कहानीकार को भी समग्रता में नहीं लिया है। उन्होंने उन्हीं कहानियों पर लिखा है, जिसने अपनी रचनात्मक सामर्थ्य के कारण उनसे लिखवा लिया है। यह एक दृष्टि से सीमा है तो दूसरी दृष्टि से इसी कारण वैसा लेखन सम्भव हो पाया है, जो कई मायने में अद्वितीय है। जब त्रिपाठी जी की कहानी-आलोचना की पहली पुस्तक 'कुछ कहानियाँ : कुछ विचार' प्रकाशित हुई थी तो पुस्तक-समीक्षकों द्वारा उक्त सीमा पर जोर देकर 'सीमाओं में बँधी आलोचना' के रूप में कुछ प्रशंसा, कुछ निन्दा की बहुप्रचलित पद्धति के तहत ही समीक्षा की गयी थी।[7] स्वाभाविक है कि अधिकांशतः समीक्षा देखकर पुस्तक पढ़ने वाले हिन्दी के पाठक लम्बे समय तक पुस्तक से ही वंचित रह गये, तो वैशिष्ट्य से कैसे परिचित होते! जबकि इस पुस्तक के बारे में स्वयं डाॅ॰ नामवर सिंह का स्पष्ट कथन है :
इस पुस्तक पर विचार करते हुए इसके अन्तिम दो आलेखों के संदर्भ में डॉ॰ निर्मला जैन का कहना है कि :
"अन्तिम दो 'समकालीन कहानी : कुछ विचार' और 'बदलते समय के रूप', समकालीन कथा-परिदृश्य के सम्बन्ध में विश्वनाथ त्रिपाठी की समझ और विश्लेषण-क्षमता दोनों का प्रमाण हैं। 'पूर्वकथन' में उन्होंने लिखा है कि "रचना के कुछ पोर होते हैं, जैसे बाँस या गन्ने के, जिन्हें फोड़ने में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत पड़ती है।" कहना न होगा कि लेखक के पास इन 'पोरों' को पहचानने वाली मेधा भी है और उन्हें 'फोड़ने' का कौशल भी जिसका प्रयोग व सूत्रवत् छोटे-छोटे वाक्यों में बड़े सहज गद्य-विन्यास में करते चलते हैं। इन दोनों लेखों के माध्यम से पाठक उस दौर के पूरे कहानी-परिदृश्य की खूबियों और खामियों को भलीभांति पहचान सकता है। सूत्रों में विश्वनाथ जी ने उस दौर के अधिकांश कहानीकारों पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। सार्थक सूत्रों में मूल्यांकनपरक निर्णय देते चलना उनकी आलोचना की खूबी है।"[9]
इस कड़ी की दूसरी पुस्तक 'कहानी के साथ-साथ' उसी ढंग और उसी सामर्थ्य के साथ हाल में (2016 में) प्रकाशित हुई है, जिसके अधिकांश आलेख डाॅ॰ कमला प्रसाद द्वारा प्रबल आग्रह से प्रतिश्रुत करवाकर 'प्रगतिशील वसुधा' के लिए लिखवाये गये थे, तथा उसीके विभिन्न अंकों में प्रकाशित भी हुए थे।[10]
'आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण' (उपशीर्षक) के रूप में लिखित उनकी पुस्तक व्योमकेश दरवेश वस्तुतः आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी है। यह हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अब तक लिखी गयी तीन सर्वश्रेष्ठ जीवनियों -- कलम का सिपाही, निराला की साहित्य साधना (जीवनी खण्ड) तथा आवारा मसीहा -- के बाद उसी कड़ी में चौथी श्रेष्ठ जीवनी है।[11] इस पुस्तक की एक अतिरिक्त विशेषता यह है कि इसमें 'रचना और रचनाकार' शीर्षक के अन्तर्गत द्विवेदी जी पर त्रिपाठी जी द्वारा लिखे गये आलोचनात्मक आलेख भी एकत्र संकलित हैं। इस खण्ड को डाॅ॰ नामवर सिंह द्विवेदी जी पर लिखी गयी आलोचनाओं में अद्वितीय मानते हैं;[12] तथा पूरी पुस्तक को मैनेजर पाण्डेय एक शानदार जीवनी के साथ-साथ त्रिपाठी जी की आलोचनात्मक क्षमता का प्रमाण भी मानते हैं।[13]
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