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मधुरेश (जन्म : 10 जनवरी, 1939) हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः कथालोचक के रूप में प्रख्यात हैं। आरंभ से ही हिन्दी कहानी एवं हिन्दी उपन्यास दोनों की समीक्षा से जुड़े मधुरेश के लेखन की मुख्य विशेषता प्रायः उनका संतुलित दृष्टिकोण, विवाद-रहित विश्लेषण तथा सहज संप्रेषणीय शैली रही है। अपेक्षाकृत बाद के लेखन में उन्होंने कहानी-समीक्षा से दूर हटकर कुछ विवादित आलोचनात्मक लेखन भी किया है। मौलिक लेखन के अतिरिक्त उनके द्वारा संपादित पुस्तकों की भी एक लम्बी शृंखला मौजूद है।
हिन्दी कथा-समीक्षा में लगभग पाँच दशकों से सक्रिय हिस्सेदारी निभानेवाले मधुरेश का मूल नाम रामप्रकाश शंखधार है। उनका जन्म 10 जनवरी, 1939 ई॰ को बरेली में एक निम्न-मध्यवित्त परिवार में हुआ। उनकी सारी पढ़ाई वहीं हुई। बरेली कॉलेज, बरेली से अंग्रेजी और हिन्दी में एम॰ए॰ करने के अतिरिक्त उन्होंने पी-एच॰डी॰ की उपाधि भी प्राप्त की। आजीविका के लिए उन्होंने प्राध्यापन का क्षेत्र चुना। कुछ वर्ष अंग्रेजी पढ़ाने के बाद उन्होंने लगभग तीस वर्ष शिवनारायण दास पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, बदायूँ के हिन्दी विभाग में अध्यापन किया। वहीं से 30 जून, 1999 को सेवानिवृत्त होकर पूरी तरह साहित्य में सक्रिय हैं।[1] आरम्भ में उनके कुछ लेख अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुए। उनकी अनेक रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
मधुरेश के आलोचनात्मक लेखन की शुरुआत सन् 1962 से हुई। पहली आलोचनात्मक टिप्पणी 'यशपाल : संतुलनहीन समीक्षा का एक प्रतीक' सन् 62 की 'लहर' में छपी थी। स्वयं मधुरेश जी के शब्दों में :
यद्यपि मधुरेश ने कहानी एवं उपन्यास दोनों की आलोचना में पर्याप्त श्रम तथा प्रभूत कार्य किये हैं, फिर भी कहानी-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान अधिक रही है। करीब दो दर्जन मौलिक तथा एक दर्जन से अधिक सम्पादित --गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों दृष्टियों से समृद्ध-- पुस्तकों के लेखक-सम्पादक मधुरेश की कृतियों में उनकी दो पुस्तकों हिन्दी कहानी : अस्मिता की तलाश, तथा नयी कहानी : पुनर्विचार की स्थिति 'रीढ़' की तरह है तथा ये दोनों पुस्तकें उनके यश का आधार भी हैं --सामर्थ्य एवं सीमा दोनों के लिए। विवादों से प्रायः दूर रहते हुए उन्होंने लगभग एक साधक की तरह[3] कहानियों-उपन्यासों की निष्ठापूर्ण विवेचना तथा कथाकारों-आलोचकों पर विचार के द्वारा वैयक्तिक पूर्वाग्रहों तथा आपसी उठा-पटक से साहित्य की लोकापेक्षिकता की क्षति के विरुद्ध साहित्य की सहज जनचेतना के पक्ष में अपने ढंग से एक लम्बा संघर्ष किया है। हालाँकि इस क्रम में डॉ॰ रामविलास शर्मा के प्रति वैचारिक असहमति के मुद्दे तथा डाॅ॰ शर्मा द्वारा उपेक्षित साहित्यकारों पर काफी हद तक केन्द्रित हो जाने से कुछ उनके अपने आग्रह भी प्रबल होकर उन्हें अपने को 'होलटाइमर कहानी-समीक्षक' मानने[4] के बावजूद अपने मूल आलोचनात्मक कार्य कहानी-आलोचना से दूर करते हैं और सक्रियता के बावजूद उन्होंने समकालीन कहानियों पर 1996 के बाद प्रायः कुछ खास नहीं लिखा।[5] यदि वे वास्तव में कहानी-आलोचना पर ही केन्द्रित रहते तो निस्सन्देह हिन्दी की कहानी-आलोचना काफी समृद्ध हो चुकी होती। हालाँकि इसका एक अन्य सकारात्मक पहलू यह भी है कि बहुत-कुछ इसी वजह से यशपाल के अतिरिक्त रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन एवं शिवदान सिंह चौहान पर उन्होंने व्यवस्थित लेखन किया और इन सबका अपेक्षाकृत उचित मूल्यांकन सामने आया। 'आलोचना सदैव एक संभावना है ' में संकलित रविभूषण जी का बृहत् आलेख मधुरेश के लेखन की सामर्थ्य एवं सीमा दोनों का सुचिंतित एवं संतुलित विश्लेषण है। उक्त आलेख के अंत में रविभूषण जी का निष्कर्ष द्रष्टव्य है :
किसी भी कथालोचक की तुलना में उन्होंने कहानियों का व्यापक अध्ययन किया है। उनके लेखन से उनका श्रम झाँकता है। उनमें डगमगाहट कम है। उनकी कथालोचना को पुस्तक-समीक्षाओं ने प्रभावित किया है। वे निरन्तर सक्रिय हैं। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जहाँ तक उनकी आलोचना-दृष्टि का सवाल है, वह खुली, उदार और सन्तुलित है।[6]
कहानी-समीक्षा के अतिरिक्त मधुरेश ने उपन्यास-समीक्षा के क्षेत्र में भी प्रभूत लेखन किया है। इस क्षेत्र में 'हिन्दी उपन्यास का विकास ' के अतिरिक्त उससे पहले उनकी पुस्तक 'सम्प्रति ' प्रकाशित हुई थी और बाद में 'हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान ' पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके अतिरिक्त 'राहुल का कथाकर्म ', 'अमृतलाल नागर : व्यक्तित्त्व और रचना-संसार ' तथा भैरव प्रसाद गुप्त एवं यशपाल पर केन्द्रित पुस्तकों में सम्बन्धित लेखकों के उपन्यासों का विश्लेषण-मूल्यांकन हुआ है। बाद में उपन्यास-समीक्षा की उनकी दो महत्वपूर्ण पुस्तकें 'समय, समाज और उपन्यास ' एवं 'शिनाख़्त ' का प्रकाशन हुआ। 'समय, समाज और उपन्यास ' में अज्ञेय के दो असमाप्त उपन्यासों के अतिरिक्त हिन्दी के 25 अन्य प्रायः प्रातिनिधिक महत्व के उपन्यासों की समीक्षा संकलित है।
'शिनाख़्त ' मुख्यतः ऐतिहासिक उपन्यासों पर केंद्रित समीक्षा पुस्तक है; हालाँकि इसमें 'गोदान' एवं 'देहाती दुनिया' जैसे कुछ महत्वपूर्ण इतिहासेतर (सामाजिक) पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यासों की समीक्षा भी संकलित है। हिन्दी के आरंभिक दौर के उपन्यासों से लेकर 'काशी का अस्सी' तक को समेटने वाली, कुल अड़तालीस आलेखों से युक्त इस वृहद् समीक्षा पुस्तक में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के भी दर्जनभर से अधिक उपन्यासों की समीक्षा संकलित है। मधुरेश की आलोचनात्मक सक्रियता के 50 वर्ष पूरे होने पर प्रकाशित इस पुस्तक के संदर्भ में स्वयं उनका कहना है कि :
" 'शिनाख़्त' को हिन्दी उपन्यास की शिनाख़्त के साथ ही मेरी आलोचना की शिनाख़्त के तौर पर भी लिया जा सकता है।"[7]
'शिनाख्त ' में मुख्य रूप से ऐतिहासिक उपन्यासों को लिया गया था, परंतु शिनाख्त के प्रकाशन के छह वर्ष बाद उनकी पुस्तक 'ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि ' का प्रकाशन हुआ जो स्वाभाविक रूप से अपने नाम के अनुरूप पूरी तरह से ऐतिहासिक उपन्यासों पर केंद्रित आलोचनात्मक कृति है। आंतरिक रूप से तीन अनुभागों में बँटी इस पुस्तक के प्रथम अनुभाग 'परिप्रेक्ष्य' में कुल सात आलेखों में से 'हिंदी ऐतिहासिक उपन्यास की उपलब्धियाँ' शीर्षक एक आलेख, 'मूल्यांकन' नामक दूसरे अनुभाग जो कि छह उपन्यासकारों पर केंद्रित है, में 'किशोरीलाल गोस्वामी' शीर्षक एक आलेख और उपन्यासों की समीक्षा पर केंद्रित 'आख्यान पाठ' नामक तीसरे अनुभाग में कुल छब्बीस आलेखों में से 'एक म्यान में दो तलवारें', 'आग का दरिया', 'पट्ट महादेवी शांतला', 'पर्व', 'दुर्दम्य', 'दासी की दास्तान', 'ययाति', 'कई चाँद थे सरे आसमाँ', 'सुल्ताना रजिया बेगम', 'जुझार तेजा', 'ग़दर', 'दिव्या', 'मुर्दों का टीला', 'कालिदास', 'विश्वबाहु परशुराम' तथा 'पानीपत' उपन्यास की समीक्षा के रूप में कुल सोलह आलेख 'शिनाख्त ' से यथावत् संकलित हैं।[8]
मधुरेश द्वारा की गयी ऐतिहासिक उपन्यासों की समीक्षा के संदर्भ में अमीर चन्द वैश्य का मानना है कि :
"(उन्होंने) किसी भी लेखक की पठनीय कृति का आख्यान पाठ करते हुए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है। उपन्यास में रूपायित पात्रों के चरित्रों के अंतर्विरोध उजागर किए हैं। इस प्रक्रिया में सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का प्रतिरोध किया है। प्रगतिशील विचारों और आचारों के अनुयायी चरित्रों की प्रशंसा कर उन्हें वर्तमान के लिए प्रेरणास्रोत माना है। गैर प्रगतिशील लेखकों की कृति का भी यथोचित समादर किया है और प्रगतिशील लेखक की चमत्कारप्रियता की निंदा भी की है।"[9]
'संवाद और सहकार ' नामक पुस्तक तीन अनुभागों में बँटी है। इस पुस्तक के प्रथम खंड (अनुभाग) में 'गाँधी, स्वतंत्रता आंदोलन और प्रेमचंद' शीर्षक एक आलेख तथा 'गोदान' पर केंद्रित दो आलेखों के अतिरिक्त भीष्म साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त एवं रामदरश मिश्र के उपन्यासों का विवेचन शामिल है। इनके साथ-साथ डॉ॰ देवराज के उपन्यास 'भीतर का घाव', हरिशंकर परसाई की औपन्यासिक फैंटेसी 'रानी नागफनी की कहानी' एवं मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'त्रिया हठ' की समीक्षा भी शामिल है। कहानियों पर केंद्रित इसके द्वितीय खंड में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कहानी 'ग्यारह वर्ष का समय' तथा प्रेमचंद के 'सोज़े वतन' एवं 'पंच परमेश्वर' पर केंद्रित समीक्षालेख के अतिरिक्त गुरदयाल सिंह, खुशवंत सिंह, भीष्म साहनी, यू आर अनंतमूर्ति, अरुण प्रकाश, अखिलेश, शशिभूषण द्विवेदी, नीलाक्षी सिंह एवं कुणाल सिंह तक की कहानियों का विवेचन सम्मिलित है। इसके साथ-साथ इस खंड में 'परिकथा' के नवलेखन अंक पर केंद्रित आलेख एवं 'युवा कहानी का चेहरा' शीर्षक आलेख में अनेक युवा कहानीकारों की कहानियों पर भी विचार किया गया है। जीवनी, आत्मकथा, पत्रलेखन आदि पर केंद्रित इस पुस्तक के तृतीय खंड में शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी तथा शरद दत्त लिखित कुन्दन लाल सहगल की जीवनी के साथ हरिशंकर परसाई, विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी और मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा के साथ-साथ लक्ष्मीधर मालवीय के स्मृतिलेख 'लाई हयात आरु...' एवं विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक 'नंगा तलाई का गाँव' की समीक्षा भी संकलित है। इसके अतिरिक्त इसमें सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक 'देश की बात' की समीक्षा एवं पत्रलेखन के क्षेत्र में डॉ॰ रामविलास शर्मा संपादित 'कवियों के पत्र', बिंदु अग्रवाल संपादित 'पत्राचार' एवं कमलेश अवस्थी संकलित-संपादित 'हमको लिख्यो है कहा' पर केंद्रित आलेख एवं बनारसीदास चतुर्वेदी के द्विखण्डीय पत्र-संकलन की समीक्षा भी संकलित है। इस बहुआयामी खंड में मन्मथनाथ गुप्त लिखित 'स्त्री-पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास', निर्मला जैन लिखित 'दिल्ली शहर दर शहर' एवं ममता कालिया लिखित 'कितने शहरों में कितनी बार' के अलावा प्रयाग शुक्ल संपादित तथा पुस्तक रूप में प्रकाशित 'कल्पना' के काशी अंक की समीक्षा भी शामिल है। इस प्रकार 25 वर्षों की दीर्घावधि में लिखित ये आलेख[10] मधुरेश की समीक्षा की बहुआयामी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
समीक्षा-लेखन के अतिरिक्त मधुरेश ने कुछ अच्छे संस्मरण भी लिखे हैं तथा कुछ अन्य विधाओं में भी हाथ आजमाया है। सन 2000 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'कुछ और भी ' में डायरी, समीक्षा, वैचारिक टिप्पणियां आदि का संगमन है। इससे पहले 'यह जो आईना है ' शीर्षक से उनके संस्मरणों का संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसके संबंध में अनन्त विजय का मानना है :
"हाल के दिनों में संस्मरण की जो कुछ अच्छी किताबें आयी हैं उनमें हम मधुरेश की इस पुस्तक को रख सकते हैं। इस पूरी पुस्तक में मधुरेश ने लेखकीय ईमानदारी का निर्वाह किया है।[11]
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