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श्रमण परम्परा से निकला एक धर्म विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
बौद्ध धर्म बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित एक भारतीय दार्शनिक परंपरा है।[1] इसे बुद्ध धर्म भी कहा जाता है।[2] गौतम बुद्ध को ६वीं सदी ईशा पूर्व से ५वीं सदी ईशा पूर्व का माना जाता है।[3] यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा धर्म है,[4][5] जिसके ५२ करोड़ से अधिक अनुयायी (बौद्ध) हैं, जो वैश्विक आबादी का सात प्रतिशत हैं। [6][7][8]
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बौद्ध धर्म एक भारतीय धर्म [9] या दर्शन है। बुद्ध ("जागृत व्यक्ति") एक श्रमण थे जो दक्षिण एशिया में छठी या पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व रहते थे।[10][11]
बौद्ध धर्म के अनुयायी, जिन्हें हिन्दी में बौद्ध कहा जाता है, प्राचीन भारत में खुद को शाक्य -एस या शाक्यभिक्षु कहते थे। [12] [13] बौद्ध विद्वान डोनाल्ड एस. लोपेज़ का दावा है कि उन्होंने भी बौद्ध शब्द का इस्तेमाल किया था, [14] हालांकि विद्वान रिचर्ड कोहेन का दावा है कि उस शब्द का इस्तेमाल केवल बाहरी लोगों द्वारा बौद्धों का वर्णन करने के लिए किया गया था। [15]
गौतम बुद्ध शाक्य कोलिय के जीवन के विषय में प्रामाणिक सामग्री विरल है। इस प्रसंग में उपलब्ध अधिकांश वृत्तान्त एवं कथानक भक्तिप्रधान रचनाएँ हैं और बुद्धकाल के बहुत बाद के हैं। प्राचीनतम सामग्री में पालि त्रिपिटक के कुछ स्थलों पर उपलब्ध अल्प विवरण उल्लेख्य हैं, जैसे - बुद्ध की पर्येषणा, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन एवं महापरिनिर्वाण के विवरण। बुद्ध की जीवनी के आधुनिक विवरण प्रायः पालि की निदानकथा अथवा संस्कृत के महावस्तु, ललितविस्तर एवं अश्वघोष कृत बुद्धचरित पर आधारित होते हैं। किंतु इन विवरणों की ऐतिहासिकता वहीं तक स्वीकार की जा सकती है जहाँ तक उनके लिए प्राचीनतर समर्थन उपलब्ध हों।
ईसा पूर्व 563 के लगभग शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी वन में गौतम बुद्ध का जन्म प्रसिद्ध है। यह स्थान वर्तमान नेपाल राज्य के अंतर्गत भारत की सीमा से 7 किलोमीटर दूर है। यहाँ पर प्राप्त अशोक के रुम्मिनदेई स्तंभलेख से ज्ञात होता है 'हिद बुधे जाते' (= यहाँ बुद्ध जन्मे थे)। सुत्तनिपात में शाक्यों को हिमालय के निकट कोशल में रहनेवाले गौतम गोत्र के क्षत्रिय कहा गया है। कोशलराज के अधीन होते हुए भी शाक्य जनपद स्वयं एक गणराज्य था। इस प्रकार के राजा शुद्धोदन बुद्ध के पिता एवं मायादेवी कोलिय उनकी माता प्रसिद्ध हैं। जन्म के पाँचवे दिन बुद्ध को 'सिद्धार्थ' नाम दिया गया और जन्मसप्ताह में ही माता के देहांत के कारण उनका पालन-पोषण उनकी मौसी एवं विमाता महाप्रजापती गौतमी कोलिय द्वारा हुआ।
बुद्ध के शैशव के विषय में प्राचीन सूचना अत्यंत अल्प है। सिद्धार्थ के बत्तीस महापुरुषलक्षणों को देखकर असित मुनि ने उनके बुद्धत्व की भविष्यवाणी की, इसके अनेक वर्णन मिलते हैं। ऐसे भी कहा जाता है कि एक दिन जामुन की छाँह में उन्हें सहज रूप में प्रथम ध्यान की उपलब्धि हुई थी। दूसरी ओर ललितविस्तार आदि ग्रंथों में उनके शैशव का चमत्कारपूर्ण वर्णन प्राप्त होता है। ललितविस्तर के अनुसार जब सिद्धार्थ को देवायतन ले जाया गया तो देवप्रतिमाओं ने स्वयं उठकर उन्हें प्रणाम किया। उनके शरीर पर सब स्वर्णाभरण मलिन प्रतीत होते थे, लिपिशिक्षक आचार्य विश्वामित्र को उन्होंने 64 लिपियों का नाम लेकर और गणक महामात्र अर्जुन को परमाणु-रजः प्रवेशानुगत गणना के विवरण से विस्मय में डाल दिया। नाना शिल्प, अस्त्रविद्या, एवं कलाओं में सहज-निष्णात सिद्धार्थ का कोलिय नरेश दंडपाणि की पुत्री गोपा यशोदारह कोलिय साथ परिणय संपन्न हुआ। पालि आकरों के अनुसार सिद्धार्थ की पत्नी सुप्रबुद्ध की कन्या थी और उसका नाम 'भद्दकच्चाना', भद्रकात्यायनी, यशोधरा, बिंबा, अथवा बिंबासुंदरी था। विनय में उसे केवल 'राहुलमाता' कहा गया है। बुद्धचरित में यशोधरा नाम दिया गया है।
सिद्धार्थ के प्रव्राजित होने की भविष्यवाणी से भयभीत होकर शुद्धोदन ने उनके लिए तीन विशिष्ट प्रासाद (महल) बनवाएँ - ग्रैष्मिक, वार्षिक, एवं हैमंतिक। इन्हें रम्य, सुरम्य और शुभ की संज्ञा भी दी गई है। इन प्रासादों में सिद्धार्थ को व्याधि और जन्म-मरण से दूर एक कृत्रिम, नित्य मनोरम लोक में रखा गया जहाँ संगीत, यौवन और सौंदर्य का अक्षत साम्राज्य था। किंतु देवताओं की प्रेरणा से सिद्धार्थ को उद्यानयात्रा में व्याधि, जरा, मरण और परिव्राजक के दर्शन हुए और उनके चित्त में प्रव्राज्या का संकल्प विरूढ़ हुआ। इस प्रकार के विवरण की अत्युक्ति और चमत्कारिता उसके आक्षरिक सत्य पर संदेह उत्पन्न करती है। यह निश्चित है कि सिद्धार्थ के मन में संवेग संसार के अनिवार्य दुःख पर विचार करने से उत्पन्न हुआ। उनकी ध्यानप्रवणता ने, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, इस दुःख की अनुभूति को एक गंभीर सत्य के रूप में प्रकट किया होगा। निदानकथा के अनुसार इसी समय उन्होंने पुत्रजन्म का संवाद सुना और नवजात को 'राहुल' नाम मिला। उसी अवसर पर प्रासाद की ओर जाते हुए सिद्धार्थ की शोभा से मुग्ध होकर राजकुमारी कृशा गौतमी ने उनकी प्रशंसा में एक प्रसिद्ध गाथा कही जिसमें 'नुबुत्त' (निर्वृत्त, प्रशांत) शब्द आता है।
सिद्धार्थ को इस गाथा में गुरुवाक्य के समान गंभीर आध्यात्मिक संकेत उपलब्ध हुआ। उन्होने सोचा कि इसने पाप और पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए मुझे संदेश दिया है। इसके साथ ही उन्होने मोतियों का अपना हार उतारकर उस युवती को दे दिया।
आधी रात के अंधकार में सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़कर सिद्धार्थ कंथक पर आरूढ़ हो नगर से और कुटुंबजीवन से निष्क्रांत हुए। उस समय सिद्धार्थ 29 वर्ष के थे। निदानकथा के अनुसार रात भर में शाक्य, कोलिय और मल्ल (राम ग्राम) इन तीन राज्यों को पार कर सिद्धार्थ 30 योजन की दूरी पर अनोमा नाम की नदी के तट पर पहुँचे। वहीं उन्होंने प्रव्राज्या के उपयुक्त वेश धारण किया और छन्दक को विदा कर स्वयं अपनी अनुत्तर शांति की पर्येषणा (खोज) की ओर अग्रसर हुए।
आर्य पर्येषणा के प्रसंग में सिद्धार्थ अनेक तपस्वियों से मिले जिनमें आलार कालाम (आराड़) एवं उद्दक रामपुत्त (रुद्रक) मुख्य हैं। ललितविस्तर में आलार कालाम का स्थान वैशाली कहा गया है जबकि अश्वघोष के बुद्धिचरित में उसे विंध्य कोष्ठवासी बताया गया है। पालि निकायों से विदित होता है कि कालाम ने बोधिसत्व को 'आर्किचन्यायतन' नाम की 'अल्प समापत्ति' सिखाई। अश्वघोष ने कालाम के सिद्धांतों का सांख्य से सादृश्य प्रदर्शित किया है। ललितविस्तर में रुद्रक का आश्रम राजगृह के निकट कहा गया है। रुद्रक के 'नैवसंज्ञानासंज्ञायतन' के उपदेश से भी बोधिसत्व असंतुष्ट रहे। राजगृह में उनका मगधराज बिंबिसार से साक्षात्मार सुत्तनिपात के पब्बज्जसुत्त, ललितविस्तर और बुद्धचरित में वर्णित है।
गया में बोधिसत्व ने यह विचार किया कि जैसे गीली लकड़ियों से अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, ऐसे ही भोगों में स्पृहा रहते हुए ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव उरुविल्व के निकट सेनापति ग्राम में निरंजना नदी के तटवर्ती रमणीय प्रदेश में उन्होंने कठोर तपश्चर्या (प्रधान) का निश्चय किया। किंतु अंततोगत्वा उन्होंने तप को व्यर्थ समझकर छोड़ दिया। इसपर उनके साथ कौंडिन्य आदि पंचवर्षीय परिव्राजकों ने उन्हें तपोभ्रष्ट निश्चित कर त्याग दिया। बोधिसत्व ने अब शैशव में अनुभूत ध्यानाभ्यास का स्मरण कर ध्यान के द्वारा ज्ञानप्राप्ति का यत्न किया। इस ध्यानकाल में उन्हें मार सेना का सामना करना पड़ा, यह प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित है। स्पष्ट ही मार घर्षण को काम और मृत्यु पर विजय का प्रतीकात्मक विवरण समझना चाहिए। आर्य पर्येषणा के छठे वर्ष के पूरे होने पर वैशाखी पूर्णिमा को बोधिसत्व ने संबोधि प्राप्त की। रात्रि के प्रथम याम में उन्होंने पूर्वजन्मों की स्मृति रूपी प्रथम विद्या, द्वितीय याम में दिव्य चक्षु और तृतीय याम में प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान प्राप्त किया। एक मत से इसके समानांतर ही सर्वधर्माभिसमय रूप सर्वाकारक प्रज्ञा अथवा संबोधि का उदय हुआ।
संबोधि के अनंतर बुद्ध के प्रथम वचनों के विषय में विभिन्न परंपराएँ हैं जिनमें बुद्धघोष के द्वारा समर्थित 'अनेक जाति संसार संघाविस्सं पुनप्पुनं' आदि गाथाएँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं। संबोधि की गंभीरता के कारण बुद्ध के मन में उसके उपदेश के प्रति उदासीनता स्वाभाविक थी। संसारी जीव उस गंभीर सत्य को कैसे समझ पाएँगे जो अत्यंत सूक्ष्म और अतर्क्य है? बुद्ध की इस अनभिरुचि पर ब्रह्मा ने उनसे धर्मचक्र-प्रवर्तन का अनुरोध किया जिसपर दुःखमग्न संसारियों को देखते हुए बुद्ध ने उन्हें विकास की विभिन्न अवस्थाओं में पाया।
सारनाथ के ऋषिपत्तन मृगदान में भगवान बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देकर धर्मचक्रप्रवर्तन किया। इस प्रथम उपदेश में दो अंतों का परिवर्जन और मध्यमा प्रतिपदा की आश्रयणीयता बताई गई है। इन पंचवर्गीयों के अनंतर श्रेष्ठिपुत्र यश और उसके संबंधी एवं मित्र सद्धर्म में दीक्षित हुए। इस प्रकार बुद्ध के अतिरिक्त 60 और अर्हत उस समय थे जिन्हें बुद्ध ने अलग-अलग दिशाओं में प्रचारार्थ भेजा और वे स्वयं उरुवेला के सेनानिगम की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में 30 भद्रवर्गीय कुमारों को उपदेश देते हुए उरुवेला में उन्होंने तीन जटिल काश्यपों को उनके एक सहस्र अनुयायियों के साथ चमत्कार और उपदेश के द्वारा धर्म में दीक्षित किया। इसके पश्चात राजगृह जाकर उन्होंने मगधराज बिंबिसार को धर्म का उपदेश दिया। बिंबिसार ने वेणुवन नामक उद्यान भिक्षुसंघ को उपहार में दिया। राजगृह में ही संजय नाम के परिव्राजक के दो शिष्य कोलित और उपतिष्य सद्धर्म में दीक्षित होकर मौद्गल्यायन और सारिपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। विनय के महावग्ग में दिया हुआ संबोधि के बाद की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण यहाँ पूरा हो जाता है।
इस प्रकार अस्सी वर्ष की आयु तक धर्म का प्रचार करते हुए उन क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश और बिहार के के अंतर्गत आते हैं। श्रावस्ती में उनका सर्वाधिक निवास हुआ और उसके बाद राजगृह, वैशाली और कपिलवस्तु में।
प्रसिद्ध महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की अंतिम पदयात्रा का मार्मिक विवरण प्राप्त होता है। बुद्ध उस समय राजगृह में थे जब मगधराज अजातशत्रु वृजि जनपद पर आक्रमण करना चाहता था। राजगृह से बुद्ध पाटलि ग्राम होते हुए गंगा पार कर वैशाली पहुँचे जहाँ प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली ने उनको भिक्षुसंघ के साथ भोजन कराया। इस समय परिनिर्वाण के तीन मास शेष थे। वेलुवग्राम में भगवान ने वर्षावास व्यतीत किया। यहाँ वे अत्यंत रुग्ण हो गए। वैशाली से भगवान भंडग्राम और भोगनगर होते हुए पावा पहुँचे। वहाँ चुंद कम्मारपुत्त के आतिथ्य ग्रहण में 'सूकर मद्दव' खाने से उन्हें रक्तातिसार उत्पन्न हुआ। रुग्णावस्था में ही उन्होंने कुशीनगर की ओर प्रस्थान किया और हिरण्यवती नदी पार कर वे शालवन में दो शालवृक्षों के बीच लेट गए। सुभद्र परिव्राजक को उन्होंने उपदेश दिया और भिक्षुओं से कहा कि उनके अनंतर धर्म ही संघ का शास्ता रहेगा। छोटे मोटे शिक्षापदों में परिवर्तन करने की अनुमति भी इन्होंने संघ को दी और छन्न भिक्षु पर ब्रह्मदंड का विधान किया। पालि परंपरा के अनुसार भगवान के अंतिम शब्द थे 'वयधम्मा संखारा अप्पमादेन संपादेथ।' (वयधर्माः संस्काराः अप्रमादेन संपादयेत - सभी संस्कार नाशवान हैं, आलस्य न करते हुये संपादन करना चाहिए।) लेखक-पीयुष कुमार शर्मा (गनेड़ी)
त्रिपिटक (तिपिटक) बौद्ध धर्म का मुख्य ग्रंथ है। यह पालिभाषा में लिखा गया है। यह ग्रंथ बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात बुद्ध के द्वारा दिया गया उपदेशों को सूत्रबद्ध करने का सबसे वृहद प्रयास है। बुद्ध के उपदेशों को इस ग्रंथ में सूत्र (पालि : सुत्त) के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सूत्रों को वर्ग (वग्ग) में बांधा गया है। वग्ग को निकाय (सुत्तपिटक) में व खंड में समाहित किया गया है। निकायों को पिटक (अर्थ : टोकरी) में एकिकृत किया गया है। इस प्रकार से तीन पिटक निर्मित है जिन के संयोजन को त्रि-पिटक कहा जाता है।
पालिभाषा का त्रिपिटक थेरवादी (और नवयान) बुद्ध परंपरा में श्रीलंका, थाइलैंड, बर्मा, लाओस, कंबोडिया, भारत आदि राष्ट्र के बौद्ध धर्म अनुयायी पालना करते है। पालि के तिपिटक को संस्कृत में भी भाषांतरण किया गया है, जिस को त्रिपिटक कहते है। संस्कृत का पूर्ण त्रिपिटक अभी अनुपलब्ध है। वर्तमान में संस्कृत त्रिपिटक प्रयोजन का जीवित परंपरा केवल नेपाल के नेवार जाति में उपलब्ध है। इस के अलावा तिब्बत, चीन, मंगोलिया, जापान, कोरिया, वियतनाम, मलेशिया, रुस आदि देश में संस्कृत मूल मंत्र के साथ में स्थानीय भाषा में बौद्ध साहित्य परंपरा पालना करते है।
भगवान बुद्ध की मूल देशना (शिक्षा) क्या थी, इसपर प्रचुर विवाद है। स्वयं बौद्धों में कालांतर में अलग-अलग संप्रदायों का जन्म और विकास हुआ और वे सभी अपने को बुद्ध से अनुप्राणित मानते हैं।
अधिकांश आधुनिक विद्वान पालि त्रिपिटक के अंतर्गत विनयपिटक और सुत्तपिटक में संगृहीत सिद्धांतों को मूल बुद्धदेशना मान लेते हैं। कुछ विद्वान सर्वास्तिवाद अथवा महायान के सारांश को मूल देशना स्वीकार करना चाहते हैं। अन्य विद्वान मूल ग्रंथों के ऐतिहासिक विश्लेषण से प्रारंभिक और उत्तरकालीन सिद्धांतों में अधिकाधिक विवेक करना चाहते हैं, जिसके विपरीत कुछ अन्य विद्वान इस प्रकार के विवेक के प्रयास को प्रायः असंभव समझते हैं।
आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिता, पंचशील आदि के रूप में बुद्ध की शिक्षाएँ समझी जा सकतीं हैं।
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं।
इस दुनिया में दुःख है। जन्म में, बूढ़े होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीजों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है।
तृष्णा, या चाहत, दुःख का कारण है और फिर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है।
दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया है। तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।
तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का आर्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। और लोगों को लगता है कि इस मार्ग के स्तर सब साथ-साथ पाए जाते है। मार्ग को तीन हिस्सों में वर्गीकृत किया जाता है : प्रज्ञा, शील और समाधि।
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलों का पालन करने की शिक्षा दी है।
गौतम बुद्ध ने जिस ज्ञान की प्राप्ति की थी उसे 'बोधि' कहते हैं। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मा में विश्वास सब गायब हो जाते हैं। बोधि के तीन स्तर होते हैं : श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं, परंतु इन सब के बहुत से सिद्धांत मिलते हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शुन्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते हैं।तृष्णा शून्य जीवन केवल विपश्यना से संभव है। आज के इस युग मे प्रतीत्यसमुत्पाद समाज से कही गायब हो ।
इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। परंतु वैदिक मत से भिन्न है।
आत्मा का अर्थ 'मैं' होता है। किन्तु, प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नहीं है। क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, 'मैं' अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज नहीं। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। आत्मा का स्थान मन ने लिया है।
बुद्ध ने ब्रह्म-जाल सुत्त में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ, ये बताया है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है। ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नहीं करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दू:ख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नहीं। पर अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा हैं।
शून्यता महायान बौद्ध सम्प्रदाय का प्रधान दर्शन है।
बौद्ध धर्म का मतलब निराशावाद नहीं है। दुख का मतलब निराशावाद नहीं है, बल्कि सापेक्षवाद और यथार्थवाद है[17]। बुद्ध, धम्म और संघ, बौद्ध धर्म के तीन त्रिरत्न हैं। भिक्षु, भिक्षुणी, उपसका और उपसिका संघ के चार अवयव हैं।[18]
दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य है संपूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं।
बौद्ध धर्म में संघ का बड़ा स्थान है। इस धर्म में बुद्ध, धम्म और संघ को 'त्रिरत्न' कहा जाता है। संघ के नियम के बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियम भिक्षुगण परिवर्तन कर सकते है। उन के महापरिनिर्वाण पश्चात संघ का आकार में व्यापक वृद्धि हुआ। इस वृद्धि के पश्चात विभिन्न क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक अवस्था, दीक्षा, आदि के आधार पर भिन्न लोग बुद्ध धर्म से आबद्ध हुए और संघ का नियम धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। साथ ही में अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर धर्म पालन करने की स्वतंत्रता दी है। अतः, विनय के नियम में परिमार्जन/परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक/भाषिक पक्ष, व्यक्तिगत धर्म का स्वतंत्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा वा कम जोड़ आदि कारण से बुद्ध धर्म में विभिन्न संप्रदाय व संघ में परिमार्जित हुए। वर्तमान में, इन संघ में प्रमुख संप्रदाय या पंथ थेरवाद, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो भीमराव आंबेडकर द्वारा निर्मित है।
भगवान बुद्ध के अनुयायीओं के लिए विश्व भर में पाँच मुख्य तीर्थ मुख्य माने जाते हैं :
यह स्थान नेपाल की तराई में नौतनवाँ रेलवे स्टेशन से 25 किलोमीटर और गोरखपुर-गोंडा लाइन के सिद्धार्थ नगर स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर है। अब तो सिद्धार्थ नगर से लुंबिनी तक पक्की सड़क भी बन गई है। ईसा पूर्व 563 में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) का जन्म यहीं हुआ था। हालाँकि, यहाँ के बुद्ध के समय के अधिकतर प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल सम्राट अशोक का एक स्तंभ अवशेष के रूप में इस बात की गवाही देता है कि भगवान बुद्ध का जन्म यहाँ हुआ था। इस स्तंभ के अलावा एक समाधि स्तूप में बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार ने भी यहाँ पर दो स्तूप और बनवाएँ हैं।
लगभग छह वर्ष तक जगह-जगह और विभिन्न गुरुओं के पास भटकने के बाद भी बुद्ध को कहीं परम ज्ञान न मिला। इसके बाद वे गया पहुँचे। आखिर में उन्होंने प्रण लिया कि जब तक असली ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, वह पिपल वृक्ष के नीचे से नहीं उठेंगे, चाहे उनके प्राण ही क्यों न निकल जाएँ। इसके बाद करीब छह साल तक दिन रात एक पीपल वृक्ष के नीचे भूखे-प्यासे तप किया। आखिर में उन्हें परम ज्ञान या बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। जिस पिपल वृक्ष के नीचे वह बैठे, उसे बोधि वृक्ष अर्थात 'ज्ञान का वृक्ष' कहा जाता है। वहीं गया को बोधगया के नाम से जाना जाता है।
बनारस छावनी स्टेशन से छह किलोमीटर, बनारस-सिटी स्टेशन से साढ़े तीन किलोमीटर और सड़क मार्ग से सारनाथ चार किलोमीटर दूर पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है और बनारस से यहाँ जाने के लिए सवारी तांगा और रिक्शा आदि मिलते हैं। सारनाथ में बौद्ध-धर्मशाला है। यह बौद्ध तीर्थ है। लाखों की संख्या में बौद्ध अनुयायी और बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले लोग हर साल यहाँ पहुँचते हैं। बौद्ध अनुयायीओं के यहाँ हर साल आने का सबसे बड़ा कारण यह है कि भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। सदियों पहले इसी स्थान से उन्होंने धर्म-चक्र-प्रवर्तन प्रारंभ किया था। बौद्ध अनुयायी सारनाथ के मिट्टी, पत्थर एवं कंकरों को भी पवित्र मानते हैं। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुओं में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का प्राचीन मंदिर, धामेक स्तूप, चौखंडी स्तूप, आदि शामिल हैं।
कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं का बहुत बड़ा पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान बुद्ध कुशीनगर में ही महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। कुशीनगर के समीप हिरन्यवती नदी के समीप बुद्ध ने अपनी आखरी साँस ली। रंभर स्तूप के निकट उनका अंतिम संस्कार किया गया। उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर से 55 किलोमीटर दूर कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं के अलावा पर्यटन प्रेमियों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है। 80 वर्ष की आयु में शरीर त्याग से पहले भारी संख्या में लोग बुद्ध से मिलने पहुँचे। माना जाता है कि लगभग 20 वर्षीय ब्राह्मण सुभद्र ने बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर संघ से जुड़ने की इच्छा जताईं। माना जाता है कि सुभद्र आखरी भिक्षु थे जिन्हें बुद्ध ने दीक्षित किया।
दीक्षाभूमि, नागपुर महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर में स्थित पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। यहीं पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को विजयादशमी / दशहरा के दिन पहले स्वयं अपनी पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और फिर अपने 5,00,000 हिंदू दलित समर्थकों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। 1956 से आज तक हर साल यहाँ देश-विदेश से 20 से 25 लाख बुद्ध और बाबासाहेब के बौद्ध अनुयायी दर्शन करने के लिए आते है। इस पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल को महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘अ’वर्ग पर्यटन एवं तीर्थ स्थल का दर्जा दिया गया हैं।
संपूर्ण विश्व में लगभग 2 अरब लोग बौद्ध हैं। इनमें से लगभग 70% महायानी बौद्ध और शेष 25% से 30% थेरावादी, नवयानी (भारतीय) और वज्रयानी बौद्ध है। महायान और थेरवाद (हीनयान), नवयान, वज्रयान के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में इनके अन्य कई उपसंप्रदाय या उपवर्ग भी हैं परंतु इन का प्रभाव बहुत कम है। सबसे अधिक बौद्ध पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में रहते हैं। दक्षिण एशिया के दो देशों में भी बौद्ध धर्म बहुसंख्यक है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और यूरोप जैसे महाद्वीपों में भी बौद्ध रहते हैं। विश्व में लगभग 8 से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ बौद्ध बहुसंख्यक या बहुमत में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी हैं जहाँ की बौद्ध जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं हैं।
देश | बौद्ध जनसंख्या | बौद्ध प्रतिशत |
---|---|---|
चीन | 22,50,87,000 | 18% |
जापान | 4,33,45,000 | 36% |
वियतनाम | 1,45,78,000 | 23% |
भारत | 79,87,899 | 0.6% |
थाईलैंड | 6,46,87,000 | 95% [19] |
म्यान्मार | 4,99,92,000 | 80% |
दक्षिण कोरिया | 2,46,56,000 | 18% |
ताइवान | 2,21,45,000 | 28% |
उत्तर कोरिया | 1,76,56,000 | 12% |
श्रीलंका | 1,60,45,600 | 75%[20] |
कंबोडिया | 1,48,80,000 | 97% |
इंडोनेशिया | 80,75,400 | 03% |
हांगकांग | 65,87,703 | 93% |
मलेशिया | 63,47,220 | 22% |
नेपाल | 62,28,690 | 22% |
लाओस | 62,87,610 | 98% |
अमेरिका | 61,49,900 | 02% |
सिंगापुर | 37,75,666 | 67% |
मंगोलिया | 30,55,690 | 98% |
फिलीपींस | 28,55,700 | 03% |
रूस | 20,96,608 | 02% |
बांग्लादेश | 20,46,800 | 01% |
कनाडा | 21,47,600 | 03% |
ब्राजील | 11,45,680 | 01% |
फ्रांस | 10,55,600 | 02% |
आज विश्व में 8 से अधिक देशों (गणतंत्र राज्य भी) में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक या प्रमुख धर्म के रूप में हैं।
विश्व में , कंबोडिया, भूटान, थाईलैंड, म्यान्मार और श्रीलंका यह देश "अधिकृत" रूप से 'बौद्ध देश' है, क्योंकि इन देशों के संविधानों में बौद्ध धर्म को ‘राजधर्म’ या ‘राष्ट्रधर्म’ का दर्जा प्राप्त है।
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