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पालि साहित्य में मुख्यतः बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। किन्तु यह कहना कठिन है कि इसका कोई भाग बुद्ध के जीवनकाल में व्यवस्थित या लिखित रूप धारण कर चुका था या नहीं।
यद्यपि त्रिपिटक में ही कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे बुद्ध के जीवनकाल में ही धर्म के कुछ प्रकरणों के व्यवस्थित पाठ किए जाने का पता चलता है। उदाहरणार्थ, उदान में वर्णन है कि एक बार सीण नामक भिक्षु से स्वयं भगवान ने पूछा कि तुमने धर्म को कैसे समझा? इसके उत्तर में उस भिक्षु ने 16 अष्टक वर्गों को पूरे स्वर के साथ गाकर सुना दिया। इसकी भगवान ने प्रशंसा भी की। विनयपिटक आदि ग्रंथों में बहुश्रुत, धर्मधर, विनयधर, मातृकाधर तथा पंचनेकायिक, भाणक, सुत्तंतिक जैसे विशेषणों का प्रयोग मिलता है, जिनसे स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशों के धारण, पारण की परम्परा उनके जीवनकाल से ही चल पड़ी थी। इस परम्परा के आधार पर बुद्ध के उपदेशों को सुव्यवस्थित साहित्यिक रूप देने के लिए तीन बार संगीतियाँ की जाने के उल्लेख चुल्लवग्ग, दीपवंश, महावंश आदि ग्रंथों में मिलते हैं।
प्रथम संगीति बुद्धनिर्वाण के चार मास पश्चात् ही राजगृह में हुई जिनमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया, जिसके करण वह पंचशतिका नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी अध्यक्षता महाकाश्यप ने की और उन्होंने बुद्ध के साक्षात् शिष्य भिक्षु उपालि से विनय संबंधी तथा स्थविर आनंद से सुत्त संबंधी प्रश्न पूछ-पूछकर अन्य भिक्षुओं के अनुमोदन से उक्त विषयों का संग्रह किया। इसी प्रकार की दूसरी संगीति बुद्ध निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई जिसमें 700 भिक्षु सम्मिलित हुए और इसीलिए वह सप्तशतिका के नाम से विख्यात हुई। इसमें वैशाली के भिक्षुओं के आचरण में अनेक दोष दिखाकर उन्हें विनय के विरुद्ध ठहराया गया और अनुमानतः विनयपिटक में विशेष व्यवस्था लाई गई। बुद्धघोष के मतानुसार तो इसी संगीति द्वारा बुद्ध वचनों का त्रिपिटक, पाँच निकाय, नौ अंग तथा चौरासी हजार धर्मस्कंधों में वर्गीकरण किया गया। तीसरी संगीति बुद्धनिर्वाण के 226 वर्ष पश्चात् सम्राट् अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई। इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की। यह सम्मेलन नौ मास तक चला और उसमें बुद्धवचनों को अंतिम स्वरूप दिया गया। इसी बीच मोग्गलिपुत्त तिस्स ने कथावत्यु की रचना की जिसमें 18 मिथ्यादृष्टि बौद्ध संश्दायों की मान्यताओं का निराकरण किया। इस रचना को भी अभिधम्मपिटक में सम्मिलित कर लिया गया। इस संगीति का उल्लेख चुल्लवग्ग में नहीं है और न तिब्बती या चीनी महायान संप्रदाय के सहित्य में। अशोक के भाब्रू के लेख, जिसमें सात प्रकरणों के नाम भी उद्धृत हैं, उसमें, अथवा अन्य धर्मलिपियों में ऐसी किसी संगीति का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। इस कारण इसकी ऐतिहासिकता में कीथ, वैलेसर आदि विद्वानों को संदेह है। किंतु रीज़डेविड्स, विंटरनित्ज़ तथा गाइगर आदि विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता स्वीकार की है। जिस संगीति की ऐतिहासिकता के विषय में प्राचीन उल्लेख एवं आधुनि विद्वान् एकमत है, वह है वैशाली की द्वितीय संगीति। इन संगीतियों तथा अन्य प्रयत्नों के फलस्वरूप पालि त्रिपिटक का जो स्वरूप प्राप्त हुआ एवं जिस रूप में वह हमें आज उपलब्ध है, वह निम्न प्रकार है :
मूल पालि साहित्य तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें पिटक कहा गया है - "विनयपिटक", "सुत्तपिटक" और "अभिधम्मपिटक"। इनमें से प्रत्येक पिटक के भीतर अपने अपने विषय से संबंध रखनेवाली अनेक छोटी बड़ी रचनाओं का समावेश है।
पालि के इन तीन पिटकों में ई. पूर्व छठी शती में हुए भगवान बुद्ध के विचारों और उपदेशों का एक विशेष शैली में संकलन किया गया है। तीनों पिटकों में परस्पर तारतम्य है। विषय का मूलाधार सुत्तपिटक है जिसमें भगवान के उपदेशों को श्रोताओं को हृदयंगम कराने के लिए सरल से सरल, रोचक कथात्मक शैली का आलंबन लिया गया है। यहाँ वस्तु को संक्षेप में कहने का प्रयत्न नहीं किया गया। उद्देश्य है नई-नई बातों को सामान्य श्रोताओं के ग्रहण योग्य बनाना और इसीलिए यहाँ उपदेश के मुख्य भाग की बार-बार पुनरावृत्ति की गई है। प्रसंगवश इन सुत्तों में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण भी आ गया है जो प्राचीन इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ, दीघ निकाय के समंञफल सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त एवं महापरिनिब्बान सुत्त में बुद्ध के समसामयिक धर्मप्रवर्तकों जैसे मंखलिगोसाल, पकुधकच्चायन, अजित केस कंबलि, संजय बलट्ठिपुत्त निगंठनातपुत्त, आदि के आचार-विचारों तथा उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म संप्रदायों की बौद्ध दृष्टि से आलोचना पाई जाती है और साथ ही उन-उन विषयों पर बौद्ध मान्यता का प्रतिपादन भी पाया जाता है। सामाजिक चित्रण सुत्तपिटक में बिखरा पड़ा है, तथापि खुद्दक निकाय के अंतर्गत जातकों में इसकी प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। सुत्तों में स्थान-स्थान पर बुद्धकालीन मगध, विदेह, कोशल, काशी आदि 16 जनपदों के राजाओं उनके परस्पर संबंधों एवं लड़ाई-झगड़ों और दाँव-पेंचों के उल्लेख भरे पड़े हैं। सुत्तों के उपदेशों में जिस बौद्ध आचार के संकेत पाए जाते हैं, उन्हीं की भिक्षुओं के योग्य सदाचार के नियमों के रूप में विधि-निषेध-प्रणाली से व्यवस्था विनय पिटक में भी की गई है। इसी प्रकार सुत्तों में जिस तत्वचिंतन के बीज सन्निहित हैं, उनका दार्शनिक शब्दावली में सैद्धांतिक रूप से प्रतिपादन और विवेचन अभिधम्म पिटक में किया गया है। इस परस्पर आनुषंगिकता के कारण बौद्धधर्म का पूरा सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित परिज्ञान बिना त्रिपिटक के अवलोकन के नहीं हो सकता। यह पालि त्रिपिटक विषय की दृष्टि से स्वयं बुद्ध भगवान के उपदेशों पर आधारित है। उपलब्ध ग्रंथ रचना की दृष्टि से ई. पूर्व तृतीय शताब्दी से पश्चात् का सिद्ध नहीं होता। बौद्ध परंपरानुसार अशोक सम्राट् के काल में ही उनके पुत्र महेंद्र स्वयं बौद्ध भिक्षु बनकर इस साहित्य को सिंहल देश ले गए और वहाँ प्रथम शती ई. में राजा बट्टगामणी के राज्यकाल में उसे वह लिखित रूप प्राप्त हुआ जिसमें वह आज हमें मिलता है। तथापि उसमें ऐसी कोई बात हमें नहीं मिलती जो बीच की दो तीन शताब्दियों के काल में लंका की परिस्थितियों के प्रभाव के कारण उसमें आई कहीं जा सके।
अपने नामानुसार विनयपिटक का विषय भिक्षुओं के पालने योग्य सदाचार के नियम उपस्थित करना है। इसके तीन अवांतर विभाग हैं - सुत्तविभंग, खंधक और परिवार। खंधक को पुन: दो उपविभाग हैं - महावग्ग और चुल्लवग्ग। इस प्रकार अपने इन उपविभागों की अपेक्षा विनयपिटक पाँच भागों में विभक्त है।
सुत्तपिटक अपने विषय, विस्तार तथा रचना की दृष्टि से त्रिपिटक का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। इसमें ऐसे सुत्तों का संग्रह किया गया है जो परंपरानुसार या तो स्वयं भगवान बुद्ध के कहे हुए हैं या उनके साक्षात् शिष्य द्वारा उपदिष्ट हैं और जिनका अनुमोदन स्वयं भगवान बुद्ध ने किया है। सुत्त का संस्कृत रूपांतर सूत्र किया जाता है। किंतु प्रस्तुत सुत्तों में सूत्र के वे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते जो संस्कृत की प्राचीन सूत्ररचनाओं, जैसे वैदिक साहित्य के श्रौत सूत्र, गृह्म एवं धर्मसूत्र आदि में पाए जाते हैं। सूत्र का विशेष लक्षण है अति संक्षेप में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ व्यक्त करना। उसमें पुनरुक्ति का सर्वथा अभाव अविद्यमान है। किन्तु यहाँ संक्षिप्त शैली के विपरीत सुविस्तृत व्याख्यान तथा मुख्य बातों की बार-बार पुनरावृत्ति की शैली अपनाई गई है। इस कारण सुत्त का सूत्र रूपांतर उचित प्रतीत नहीं होता। विचार करने से अनुमान होता है कि सुत्त का अभिप्राय मूलत: सूक्त से रहा है। वेदों के एक एक प्रकरण को भी सूक्त ही कहा गया है। किसी एक बात के प्रतिपादन को सूक्त कहना सर्वथा उचित प्रतीत होता है।
सुत्तपिटक के पाँच भाग हैं जिन्हें निकाय कहा गया हैं - दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय।
दीर्घनिकाय तीन वर्गों में विभाजित है। प्रथम सीलक्खंधवग्ग में 13 सुत्त हैं, दूसरे महावग्ग में 10 तथा तीसरे पाटिकवग्ग में 11। इस प्रकार दीर्घनिकाय में 34 सुत्त हैं। ये सुत्त अन्य निकायों में संगृहीत सुत्तों की अपेक्षा विस्तार में अधिक लंबे है और यही इस निकाय के नाम की सार्थकता है।
मज्झिमनिकाय में मध्यमविस्तार के 152 सुत्त है जो 15 वर्गों में विभक्त हैं -
इनमें से 14वें वर्ग विभंग में 12 सुत्त हैं और शेष सब में दस-दस।
संयुत्तनिकाय में छोटे बड़े सभी प्रकार के सुत्तों का संग्रह है और यही इस निकाय के नाम की सार्थकता है। इसमें कुल 56 सुत्त या संयुत्त हैं जो इन पाँच वर्गों में विभाजित हैं -
अंगुत्तर निकाय की अपनी एक विशेषता है। इसमें सुत्तों का संग्रह एक व्यवस्था के अनुसार किया गया है। आदि में ऐसे सुत्त हैं जिनमें बुद्ध भगवान के एक संख्यात्मक पदार्थो विषयक उपदेशों का संग्रह है, तत्पश्चात् दो पदार्थों विषयक सुत्तों का और फिर तीन, चार आदि। इसी क्रम से इस निकाय के भीतर एककनिपात, दुकनिपात एवं तिक, चतुवक, पंचक, छक्क, सत्तक, अट्ठक, नवक, दसक और एकादसक इन नामों के ग्यारह निपातों का संकलन है। ये निपात पुन: वर्गों में विभाजित हैं, जिनकी संख्या निपात क्रम से 21, 16, 16, 26, 12, 9, 9, 9, 22 और 3 है। इस प्रकार 11 निपातों में कुल वर्गों की संख्या 169 है। प्रत्येक वर्ग के भीतर अनेक सुत्त हैं जिनकी संख्या एक वर्ग में कम से कम 7 और अधिक से अधिक 262 है। इस प्रकार अंगुत्तर निकाय से सुत्तों की संख्या 2308 है।
खुद्दक निकाय में विषय तथा रचना की दृष्टि से प्राय: सर्वथा स्वतंत्र 15 रचनाओं का समावेश है, जिनके नाम हैं -
पालि त्रिपिटक के तीसरे भाग अभिधम्मपिटक में भगवान बुद्ध के दर्शनात्मक विचारों का विश्लेषण और वर्गीकरण किया गया है तथा तात्विक दृष्टि से उनकी सूचियाँ और परिभाषाएँ उपस्थित की गई हैं। इस पिटक में निम्न सात ग्रंथों का समावेश है-
धम्मसंगणि उसकी मातिका (विषयसूची) के अनुसार दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में 22 तिक हैं जिनमें से प्रत्येक में तीन तीन विषयों का विवेचन किया गया हैं। दूसरे विभाग में 100 दुक हैं और प्रत्येक दुक में विधान ओर निषेध रूप से दो दो विषयों का प्ररूपण किया गया है। ये दुक 12 वर्गों में विभाजित हैं जिनके नाम हैं -
इस प्रकार धम्मसंगणि के तिकों और दुकों की संख्या 122 है। इनमें से प्रथम तिक कुशल, अकुशल तथा अव्याकृत धर्मविषयक है, जो सबसे महत्वपूर्ण है और उसके विषय का प्ररूपण (1) चित्तुपपाद (2) रूप (3) निक्क्षेप और (4) अत्थुद्धार इन चार कांडों में किया गया है।
विभंग की विषयवस्तु 18 विभागों में विभाजित है।
कथावत्थु में 23 अध्यायों के भीतर 216 प्रश्नोत्तर हैं जिनमें विरोधी संप्रदायों के सिद्धांतों का खंडन किया गया है।
पुग्गलपण्णत्ति में 10 अध्याय हैं जिनमें क्रमश: एक एक प्रकार के, दो दो प्रकार के आदि बढ़ते क्रम में दसवें अध्याय में 10, 10 प्रकार के पुद्गलों अर्थात् व्यक्तियों का निर्देश किया गया है। व्यक्तियों का विभाजन पृथग्जन, सम्यक् संबुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, शैक्ष्य, अशैक्ष्य, आर्य, अनार्य आदि रूप से किया गया है।
धातुकथा की रचना का मूलाधार विभंग है, क्योंकि उसी के प्रथम तीन अर्थात् स्कंध, आयतन और धातु विभंगों का ही यहाँ अधिक सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इसी कारण इस ग्रंथ का दूसरा नाम खंब-आयतन-धातुकथा भी पाया जाता है। ग्रंथ में इन्हीं तीन का संबंध धर्मों के साथ बैठाकर बताया गया है। मातिकानुसार इन धर्मों की संख्या 125 है जो इस प्रकार हैं -
इनका परस्पर संबध प्रश्नोत्तर की शैली से 14 अध्यायों में किया गया है।
यमक में धर्मों का संबंध विशेष विषयों के साथ परस्पर विपरीत रूप में प्रश्नोत्तर शैली से समझाया गया है और इसी युगल प्रश्नात्मक रीति के कारण इस रचना का यमक नाम सार्थक है। जैसे (1) क्या सभी कुशलधर्म कुशलमूल हैं? क्या सभी कुशलमूल कुशलधर्म हैं? इत्यादि। इसी पद्धति से यमक में अभिधम्मपिटक में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों की सुनिश्चित व्याख्या देने का प्रयत्न किया गया है। यह रचना इन 10 यमकों में विभक्त है -
पट्ठाण में बौद्ध तत्वचिंतन के आधारभूत प्रतीत्य-समुत्पाद-सिद्धांत का एक विशेष शैली में बड़े विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। ग्रंथ के मुख्य चार भाग हैं -
इन चारों भागों में धम्मसंगणि में निर्दिष्ट 22 तिकों और 100 दुकों का 24 प्रत्ययों से संबंध निम्न छह पट्ठाणों द्वारा समझाया गया है :(1) तिक पं॰ (2) दुक पं॰ (3) दुक-तिक पं॰ (4) तिक-दुक पं॰ (5) तिक-दिक पं॰ और (6) दुक-दुक प॰। इन छह पट्ठाणों का पूर्ववत् चार विभागों में प्ररूपण होने से संपूर्ण ग्रंथ 24 पट्ठाणों में विभक्त हो जाता है।
उपर्युक्त त्रिपिटक साहित्य का संकलन प्राय: ई.पू. तीसरी शती में पूर्ण हो गया था, किंतु पालि साहित्य का सृजन इसके पश्चात् भी चलता रहा। यद्यपि यह अनुपालि साहित्य विषय की दृष्टि से प्राय: पूर्णत: त्रिपिटक के अंतर्गत ज्ञान का ही अनुकरण करता है, तथापि अपन स्वरूप एवं शैली में समय की गति के अनुसार उसमें विकास दिखाई देता है। ई.पू. प्रथम शती के लगभग नेत्त्प्रिकरण नामक ग्रंथ लिखा गया जिसमें अभिधम्मपिटक के विषय का ही कुछ अधिक सूक्ष्मता से विवेचन किया गया है। इसमें 16 हार, 5 नय और 18 मूल पदों के द्वारा बौद्ध दर्शन की परिभाषाओं को समझाने का प्रयत्न किया गया है। इसके कर्ता का नाम कच्चान है। इसी प्रकार की एक दूसरी रचना इसी काल के लगभग की पेटकोपदेश है जिसमें नेत्तिप्रकरण की ही विषयवस्तु को कुछ दूसरी रीति से उपस्थित किया गया है, जिसमें प्रधानता उन चार आर्य सत्यों की है जो बुद्ध के उपदेशों के मूलाधार हैं। प्राय: इसी काल की तीसरी रचना है - मिलिंद-पंहों जो पालि साहित्य में अपनी विशेषता रखती है व ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसमें साकल (सियालकोट, पंजाब) के नरेश मिलिंद और भिक्षु नागसेन से बीच हुआ वार्तालाप वर्णित है। मिलिंद उस यवन नरेश मिनादर के नाम का ही रूपांतर माना गया है जिसने ई. पू. द्वितीय शती के मध्य में भारत पर आक्रमण किया तथा पंजाब प्रदेश में अपना राज्य जमाया था। प्रस्तुत ग्रंथ के अनुसार यह राजा बड़ा विद्वान् और दार्शनिक विषयों में रुचि रखनेवाला था। उसने भिक्षु नागसेन से बड़े पैने दार्शनिक प्रश्न किए, जिसके उत्तर भी नागसेन ने बड़ी चतुराई से सुंदर दृष्टांतों द्वारा उनकी पुष्टि करते हुए दिए हैं। ग्रंथ में सात अध्याय हैं -
इनमें से प्रथम तीन अध्याय ही ग्रंथ का मूल भाग माना जाता है। शेष चार अध्याय पीछे जोड़े गए प्रतीत होते हैं। इसके अनेक कारण हैं- एक तो तीसरे अध्याय में ग्रंथ के पुन: प्रारंभ की सूचना है; दूसरे, बुद्धघोष के अवतरण प्राय: तीन ही अध्यायों से लिए गए हैं और तीसरे इस ग्रंथ का जो चीनी अनुवाद 400 ई. के लगभग किया गया था, उसमें केवल ये तीन ही अध्याय पाए जाते हैं। यह रचना शैली में बड़ी रोचक तथा बौद्ध सिद्धांत के ज्ञान के लिए अपने ढंग की अद्वितीय है।
इन रचनाओं के पश्चात् अट्ठकथाओं का युग प्रारंभ होता है। श्रुत परंपरानुसार जब महेंद्र और संघमित्रा द्वारा पालि त्रिपिटक लंका में पहुँचा और बौद्धधर्म का प्रचर बढ़ा, उन मूल ग्रंथों पर सिंहली भाषा में टीका रूप अट्ठकथाएँ लिखी गई। ये अट्ठकथाएँ अब उपलब्ध नहीं है। अनुमानत: इसका कारण उन अट्ठकथाओं की रचना हो जाने से क्रमश: उन मूल अट्ठकथाओं का अध्ययन अध्यापन छूट जाना ही है। इन नई पालि अट्ठकथाओं के कर्ता आचार्य बुद्धघोष का नाम पालि साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने जिन सिंहली अट्ठकथाओं का उल्लेख किया है तथा जिनके अवतरण अपनी अट्ठकथाओं में लिए हैं, उनमें मुख्य हैं-
अंतिम चार अट्ठकथाएँ निकायों अथवा उनके किन्हीं विषयों के विशेष व्याख्यान के रूप में प्रतीत होते हैं। इन मूल अट्ठकथाओं के अभाव में यह कहना तो कठिन है कि कितने अंश में बुद्धघोष ने उनका अनुकरण किया और कितना मौलिक रूप से किया, तथापि उनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्होंने मूल अट्ठकथाओं को अपने त्रिपिटक के विशाल ज्ञान द्वारा बहुत ही पल्लवित किया होगा। उनकी अट्ठकथाएँ विनयपिटक, सुत्तपिटक एवं अभिधम्मपिटक के अधिकांश भागों पर मिलती हैं, जिनकी संख्या 16 है। इन अट्ठकथाओं के अतिरिक्त बुद्धघोष की एक विशिष्ट रचना है विसुद्धिमग्ग, जिसे बौद्ध दर्शन का ज्ञानकोश कहा जा सकता है। अट्ठकथाओं में स्वयं बुद्धघोष के कथनानुसार उन्होंने विसुद्धिमग्ग में दीघ, मज्झिम, संयुत्त और अंगुत्तर इन चारों निकायों का सार भर दिया है। श्रुत परंपरानुसार उन्होंने विसुद्धिमग्ग को अपनी अट्ठकथाओं से पूर्व उनकी रचना को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए ही लिखा था। इस ग्रंथ में कुल 23 परिच्छेद हैं। प्रथम दो परिच्छेदों का विषय है "समाधि" और शेष परिच्छेदों में "प्रज्ञा" का व्याख्यान किया गया है।
बुद्धघोष के पश्चात् अट्ठकथाओं की परंपरा को उनके प्राय: समसामयिक दो आचार्यों बुद्धदत्त और धम्मपाल ने परिपुष्ट किया। बुद्धदत्त ने बुद्धघोष कृत समंतपासादिका नामक विनयपिटक की अट्ठकथा का सार अपनी उत्तरविनिश्चय और विनयविनिश्चय नामक दो पद्यात्मक रचनाओं में उपस्थित किया तथा बुद्धघोष की अभिधम्म की अट्ठकथाओं के आधार पर अभिधम्मावतार नामक गद्य-पद्य-मिश्रित ग्रंथ की रचना की। इसमें मौलिकता यह है कि जहाँ बुद्धघोष ने रूप, वेदनादि पाँच स्कंधों के द्वारा धर्मों का विवेचन किया है, वहाँ बुद्धदत्त ने चित्तर, चेतसिक, रूप और निर्वाण इस चार प्रकार के वर्गीकरण को अपनाया है। इसी वर्गीकरण को उन्होंने अपनी रूपारूप विभाग नामक रचना में रखा है। बुद्धदत्त की एक और रचना है मधुरत्थ विलासिनी, जो बुद्धवंस की अट्ठकथा है। धम्मपाल ने सात अट्ठकथाएँ लिखी है। खुद्दकनिकाय के अंतर्गत जिन उदान, इतिषुत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा एव चरियापिटक नामक ग्रंथों पर बुद्धघोष ने अट्ठकथाएँ नहीं लिखीं, उनपर धम्मपाल ने परमत्थदीपनी नामक अट्ठकथा लिखी है। इसी प्रकार नेत्तिप्रकरण पर अत्थसंवण्णणा और उसी पर लीनत्थवण्णणा नामक टीका, विसुद्धिमग्ग पर परमत्थमंजूषा, बुद्धघोष की चार निकायों की अट्ठकथाओं पर लीनत्थपकासिनी नामक टीका, जातकट्ठकथा की टीका तथा बुद्धदत्त कृत मधुरत्थविलासिनी की टीका लिखी। इन सब रचनाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध है उनकी विसुद्धिमग्ग की टीका। शेष रचनाओं में कोई वैशिष्ट्य नहीं है। यद्यपि उक्त त्रिपिटक व उनकी अट्ठकथाओं की रचना के पश्चात् नहीं है। यद्यपि उक्त त्रिपिटक व उनकी अट्ठकथाओं की रचना के पश्चात् बुद्धवचन के संबंध में अधिक कुछ कहना शेष नहीं रहा, तथापि इस अट्ठकथा नामक टीका साहित्य की रचना बुद्धघोष युग (ई. 400 से 1100 तक) में बराबर होती रही। इनमें से कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं :
आनंदकृत अभिधम्म मूल टीका, चुल्लधम्मपाल कृत 'सच्च संक्षेप' (सत्य संक्षेप), उपसेन कृत सद्धम्मप्पजोतिक (निद्देस की टीका) महानाम कृत सद्षम्मप्पकासिनी (पटिसंभिदामग्ग की टीका), कस्सप कृत माहविच्छेदनी और विमतिच्छेदनी, वज्रबुद्धि कृत संमतवपासादिका की टीका, क्षेम कृत खेमप्पकरण, अनिरुद्ध कृत अभिधम्मत्थसंगहो परमत्थविनिश्चय और नामरूपपरिच्छेद, धर्मश्री कृत खुद्दकसिक्खा (विलय संबंधी अट्ठकथा) और महास्वामी कृत मूलसिक्खा।
12वीं शती से अट्ठकथाओं पर मागधी (पालि) भाषा में ही टीकाओं की रचना प्रारंभ हुई। इस कार्य की सुव्यवस्था के लिए लंका नरेश पराक्रमबाहु प्रथम (ई. 1153-86) के काल में सिंहली स्थविर महाकस्सप द्वारा एक संगीति की गई, जिसके फलस्वरूप समंतपासादिका आदि अट्ठकथाओं पर दीपानी, मंजूसा, पकासिनी आदि नामों से आठ टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से अब केवल विनयपिटक की समंतपासादिका अट्ठकथा पर लिखी गई सारत्थदीपनी टीका मात्र मिलती है। इसके कर्ता सारिपुत्त की तीन अन्य टीकाएँ भी मिलती हैं-
सुमंगल, सद्धम्मजोतिपाल, धम्मकीर्ति, बुद्धरविखत और मेघंकर - इन सभी ने भिन्न-भिन्न अट्ठकथाओं पर टीकाएँ लिखी है। इनमें अकेले वाचिस्सर थेर के मूल सिक्खा टीका आदि दस टीका ग्रंथ मिलते हैं। 13वीं शती में स्थविर विदेह, बुद्धप्रिय और धर्मकीर्ति द्वारा समंतकूटवण्णणा आदि अनेक ग्रंथों की रचना हुई। 14वीं शती की रचनाओं में चार काव्य ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-
बाद की तीन रचनाओं के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं।
14वीं शती के पश्चात् पालि-साहित्य-सृजन का क्षेत्र लंका से उठकर ब्रह्मदेश में पहुँच गया। यहाँ के साहित्यकारों ने अभिधम्म को विशेष रूप से अध्ययन का विषय बनाया। 15वीं शती की कुछ रचनाएँ हैं-
16वीं शती में सद्धम्मालंकार ने पट्ठाण प्रकरण पर पट्ठाणदीपनी नामक टीका लिखी तथा महानाम से आनंदकृत अभिधम्म-मूल-टीका पर मधुसारत्य दीपनी नामक अनुटीका लिखी। 17वीं शती में त्रिपिटकालंकार ने अट्ठसालिनी पर की बीस गाथाओं में वीसतिवण्णणा, सारिपुत्तकृत विनयसंग्रह पर विनयालंकार नामक टीका तथा यसवड्ढनवत्थु इन तीन ग्रंथों की रचना की। त्रिलोकगुरु ने चार ग्रंथ रचे-
सारदस्सी कृत धातुकथायोजना और महाकस्सप कृत अभिधम्मत्थगंठिपद (अभिधर्म के कठिन शब्दों की व्याख्या) इस शती की अन्य दो रचनाएँ हैं।
18वीं शती की ज्ञानामिवंशनामक ब्रह्मदेस के संघराज की तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-
19वीं शती की ब्रह्मदेश की कुछ रचनाएँ हैं- नलाटधातु वंस, संदेस कथा सीमाविवादविनिश्चय आदि। इस शती के छकेसधातुवंस, गंधवंस और सासनवंस नामक रचनाओं का परिचय वंस साहित्य के अंतर्गत दिया गया है। इस शती की अन्य उल्लेखनीय रचना है भिक्षु लेदिसदाव कृत अभिधम्मसंग्रह की परपत्थदीपनी टीका तथा यमक संबंधी पालि निबंध जो उन्होंने श्रीमती राइस डेविड्ज़ की कुछ शंकाओं के समाधान के लिए लिखा था।
पालि-साहित्य-रचना की अविच्छिन्न धारा के प्रमाणस्वरूप 20वीं शती की दो रचनाओं का उल्लेख करना अनुचित न होगा। ये हैं भारतवर्ष में भंदत धर्मानंद कोसांबी द्वारा रचित विसुद्धिमग्गदीपिका और अभिधम्मत्थसंग्रह की नवनीत टीका। इस परिचय के आधार से कहा जा सकता है कि पालिसाहित्य-निर्माण की धारा ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी अभी तक विच्छिन्न नहीं हुई।
लंका में जिस समय त्रिपिटक पर अट्ठकथाओं की रचना की जा रही थी, उसी समय दूसरी ओर कुछ ग्रंथकारों में ऐतिहासिक रुचि जाग्रत हुई जिसके परिणामस्वरूप दीपवंश की रचना की गई। इन ग्रंथों में लंका का इतिहास, प्राचीनतम काल से लेकर राजा महासेन के राज्यकाल (ई. 325-352) तक, वर्णन किया गया है। इस रचना का उपयोग बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में प्रचुरता से किया है और कहीं-कहीं उसके अवतरण भी दिए हैं। इस प्रकार दीपवंस का रचनाकाल ई. चौथी पाँचवीं शती के बीच सिद्ध होता है। सिंहल के राजाओं के साथ-साथ यहाँ बुद्ध के जीवन, उनके शिष्यों की परंपरा एवं तीनों संगीतियों आदि का विवरण कुछ बढ़ा चढ़ाकर किया गया है। अनुमानत: इसके विषय का आधार उपर्युक्त सिंहली अट्ठकथाएँ रही हैं। यह रचना पालि-गद्य-मिश्रित है, शैली बहुत कुछ शिथिल है, पुनरुक्तियाँ भी बहुत है और रचना भाषा, छंद आदि के दोषों से मुक्त नहीं है। ये लक्षण उसकी प्राचीनता के द्योतक हैं और इस बात के प्रमाण हैं कि उसमें विषयवस्तु अनेक स्रोतों से संकलित की गई है तथा उसमें संपादकीय व्यवस्था लाने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से लंका में आदि से ही इसका बड़ा आदर रहा है। कहा जाता है कि ई. 5वीं शती में ही सिंहल राजा धातुसेन ने एक वार्षिकोत्सव के अवसर पर राष्ट्रीय गौरव के साथ इसका पाठ कराया। भारतीय ऐतिहासिक रचनाओ में दीपवंस नि:सदेह एक प्रचीनतम रचना है।
दीपवंश की रचना से कुछ काल पश्चात् महानाम के द्वारा महावंश की रचना हुई। इसका मूलाधार भी वे ही सिंहल की अट्ठकथाएँ तथा दीपवंश है। यहाँ विषय का प्रतिपादन दीपवंश की अपेक्षा अधिक विशद और व्यवस्थित है। भाषा भी अपेक्षाकृत अधिक परिमार्जित और शैली तो कहीं कहीं महाकाव्यों की पद्धति का स्मरण कराती है। महावंश का मूल भाग 37 परिच्छेदों का है और वह दीपवंश के समान महासेन के शासनकाल पर समाप्त होता है। प्रारंभ के परिच्छेदों में, जो लंका में बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व देश की धार्मिक परिस्थितियों के उल्लेख आए हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, पांड्डकामय नरेश का राज्यकाल महेंद्र द्वारा लंका में बौद्धधर्म के प्रवेश से 60 वर्ष पूर्व तक रहा कहा गया है। इस राजा ने 70 वर्ष राज्य किया तथा राज्य के 10वें वर्ष में ही अनुराधापुर नगर की स्थापना की। इससे आगे इस रचना में समय-समय पर परिवर्धन किया गया है। 37वें परिच्छेद की 50वीं गाथा से आगे 79वें परिच्छेद तक की रचना स्थविर धर्मकीर्ति कृत है और उसमें महासेन के काल से लेकर पराक्रमबाहु प्रथम (ई. 1240-75) तक 78 राजाओं की वंशपरंपरा दी गई है। महावंश का यह तथा इससे आगे के परिच्छेद चूलवंश कहलाता है। चूलवंश 80 से 90 तक के 11 परिच्छेदों के रचयिता बुद्धरक्षित भिक्षु ने आगामी 23 राजाओं का वर्णन किया जो पराक्रमबाहु चतुर्थ तक आया। 91 से 100 तक के 10 परिच्छेद सुमंगल थेर द्वारा रचे गए और उनमें भुवनेकबाहु तृतीय से लेकर कीर्तिश्री राजसिंह के काल (लग. ई. 1785) तक के 24 राजाओं का वर्णन किया। यहाँ लंका में ईसाई धर्म के प्रचार की भी सूचना मिलती है। अगला 101वाँ परिच्छेद सुमंगलाचार्य तथा देवरक्षित द्वारा रचा गया। तत्पश्चात् वहाँ का राज्य अंग्रेजों के हाथ में चले जाने की भी सूचना है। महावंश का अंतिम परिवधर्न भिक्षु प्रज्ञानंद नायक द्वारा 1936 में प्रकाशित हुआ और इसमें 1815 से 1935 ई. तक का लंका का इतिहास समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार महावंश की रचना में छह ग्रंथकारों का हाथ है जिनके द्वारा इसमें भगवान बुद्ध से लेकर लगभग ढाई हजार वर्षों का लंका का इतिहास अविच्छिन्न रूप से अंकित किया गया है। यह ग्रंथ इस बात का भी प्रतीक है कि उक्त दीर्घ काल तक लंका में पालि भाषा को किस प्रकार जीवित रखा गया और उसमें साहित्यिक रचना की धारा को कभी सूखने नहीं दिया गया।
दीपवंश और महावंश रचनाओं ने तीव्र ऐतिहासिक वृत्ति जाग्रत की। परिणामत: अनेक अन्य वंश नामक ग्रंथ रचे गए। इसमें ऐतिहासिक तथ्य तो प्राय: उक्त दोनों ग्रंथों से ही लिए गए हैं, किंतु उनमें जो नाना विषयों की श्रुतिपरंपरा को एकत्र कर दिया गया है, वह महत्वपूर्ण है। इनमें विषय को महत्त्व देने के लिए बहुत कुछ अतिशयोक्तियों और कल्पनाओं का भी आश्रय लिया गया है, जिसके कारण कहीं कहीं इतिहासज्ञ को उद्वेग या अश्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। इस प्रकार की मुख्य रचनाएँ ये हैं -
उक्त ग्रंथों में अधिकांश भाग प्राचीन त्रिपिटक, उनकी अट्ठकथाओं तथा महावंश के अंतर्गत वार्ता की सक्षेप या विस्तार से पुनरावृत्ति मात्र है। किंतु फिर भी उनमें अपने अपने विषय की कुछ मौलिकता भी है जिसके आधार से हमें उक्त विषयों का कुछ इतिहास बुद्धकाल से लगाकर अब तक का अविच्छिन्न रूप में प्राप्त होता है। यह पालि साहित्य की अपनी विशेषता है जो संस्कृत प्राकृत में नहीं पाई जाती।
पालि में समय-समय पर शास्त्रीय ग्रंथ भी रचे गए हैं। व्याकरण के क्षेत्र में कच्चान और मोग्गल्लान कृत, व्याकरण एवं उनकी टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। सन् 1154 ई. में ब्रह्मदेश के भिक्षु अग्गवंस कृत सद्दनीति, कच्चान के व्याकरण पर आधारित पालि भाषा का व्याकरण है। इसके तीन भाग हैं- पदमाला, धातुमाला और सुत्तमाला। इसी पर आधारित जिनरत्न भिक्षु कृत धात्वर्थदीपनी नामक पद्यबद्ध धातुसूची है। पालि व्याकरण विषयक अन्य कुछ रचनाएँ हैं- सद्धम्मगुरु कृत सद्दबुत्ति, मंगलकृत गंधट्ठी और सामनेर धम्मदस्सी कृत वच्चवाचक (14वीं शती), अरियवंश कृत गंधाभरण (15वीं शती), ब्रह्मदेश के नरश क्यच्चा की पुत्री कृत विभक्त्यर्थप्रकरण (15वीं शती), जंबूध्वज कृत संवण्णणानय-दीपना और निरुत्तिसंगह (17वीं शती), राजगुरु कृत कारकपुप्फमंजरी (18वीं शती)।
पालि के "अभिधानप्पदीपिका" और "एकक्खर कोश" ये कोश ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं।
पालि छंद:शास्त्र पर भी अनेक रचनाएँ हैं, जैसे वृत्तोदय, छंदोविचिति और कविभारप्रकरण आदि। इनमें थर संघरविखत कृत (12वीं शती) वृत्तोदय ही सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसपर वचनत्वजोतिका नामक टीका भी लिखी गई। इन्हीं संघरविखत कृत पालि काव्यशास्त्र पर भी एकमात्र रचना है- सुबोधालंकार।
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