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भारतीय संस्कृति का एक पवित्र वृक्ष विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
पीपल (संस्कृत: अश्वत्थ) भारत, नेपाल, श्री लंका, चीन और इंडोनेशिया में पाया जाने वाला बरगद, या गूलर की जाति का एक विशालकाय वृक्ष है जिसे भारतीय संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है तथा अनेक पर्वों पर इसकी पूजा की जाती है। बरगद और गूलर वृक्ष की भाँति इसके पुष्प भी गुप्त रहते हैं अतः इसे 'गुह्यपुष्पक' भी कहा जाता है। अन्य क्षीरी (दूध वाले) वृक्षों की तरह पीपल भी दीर्घायु होता है।[1] इसके फल बरगद-गूलर की भांति बीजों से भरे तथा आकार में मूँगफली के छोटे दानों जैसे होते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं। परन्तु इनसे उत्पन्न वृक्ष विशालतम रूप धारण करके सैकड़ों वर्षो तक खड़ा रहता है। यह रात मे ऑक्सीजन प्रदान करता है। पीपल की छाया बरगद से कम होती है, फिर भी इसके पत्ते अधिक सुन्दर, कोमल और चंचल होते हैं। वसंत ऋतु में इस पर धानी रंग की नयी कोंपलें आने लगती है। बाद में, वह हरी और फिर गहरी हरी हो जाती हैं। पीपल के पत्ते जानवरों को चारे के रूप में खिलाये जाते हैं, विशेष रूप से हाथियों के लिए इन्हें उत्तम चारा माना जाता है। पीपल की लकड़ी ईंधन के काम आती है किंतु यह किसी इमारती काम या फर्नीचर के लिए अनुकूल नहीं होती। स्वास्थ्य के लिए पीपल को अति उपयोगी माना गया है। पीलिया, रतौंधी, मलेरिया, खाँसी और दमा तथा सर्दी और सिर दर्द में पीपल की टहनी, लकड़ी, पत्तियों, कोपलों और सीकों का प्रयोग का उल्लेख मिलता है।[2]
पीपल Ficus religiosa | |
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पीपल वृक्ष के पत्ते और तना पत्तियों की खास बनावट देखें | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | पादप |
विभाग: | सपुष्पक |
वर्ग: | मैग्नोलियोप्सीडा |
गण: | रोज़ेलेस |
कुल: | मोरेसी |
वंश: | फाइकस |
जाति: | F. religiosa |
द्विपद नाम | |
फाइकस रेलीजियोसा एल. | |
भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं।[क] पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। भगवान कृष्ण कहते हैं- समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।[ख] स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।[ग] पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्र में पीपल की प्रार्थना का मंत्र भी दिया गया है। [घ] प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनक द्वारा इसके महत्त्व का वर्णन किया गया है। अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र, जप और ध्यान तथा सभी प्रकार के संस्कारों को शुभ माना गया है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले 'उपभृत पात्र' (दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे।[3] ग्रामीण संस्कृति में आज भी लोग पीपल की नयी कोपलों में निहित जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पडाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं।[4]
जब अमावस्या (हिंदू कैलेंडर महीने के पन्द्रहवें दिन) हिन्दू कैलेंडर वर्ष में सोमवार को पड़ती है। इस दिन पवित्र पीपल के पेड़ की १०८ बार परिक्रमा कर महिलाएं व्रत रख कर पूजन करती हैं।
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