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जर्मनी के दार्शनिक इमैनुएल काण्ट का दर्शन विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
इमानुएल कांट (1724-1804) के दर्शन, को "आलोचनात्मक दर्शन"[1] (क्रिटिकल फिलॉस्फी), "परतावाद" (ट्रैसेंडेंटलिज्म), अथवा "परतावादी प्रत्ययवाद"[2] (ट्रैसेंडेंटल आइडियलिज्म) कहा जाता है। इस दर्शन में ज्ञानशक्तियों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। साथ ही, 17वीं और 18वीं शताब्दियों के इंद्रियवाद एवं तर्कबुद्धिवाद की समीक्षा है। विचारसामग्री के अर्जन में इद्रियों की माध्यमिकता की स्वीकृति में कांट इंद्रियवादियों से सहमत था; उक्त सामग्री को विचारों में परिणत करने में बुद्धि की अनिवार्यता का समर्थन करने में वह बुद्धिवादियों से सहमत था; किंतु वह एक का निराकरण कर दूसरे का समर्थन करने में किसी से सहमत न था। कांट के मत में बुद्धि और इंद्रियाँ ज्ञान संबंधी दो भिन्न संस्थान नहीं हैं, बल्कि एक ही सस्थांन के दो विभिन्न अवयव हैं। कांट के दर्शन को "परतावाद" कहने का आशय उसे इंद्रियवाद तथा बुद्धिवाद से "पर" तथा प्रत्येक दार्शनिक विवेचन के लिए आधारभूत मानना है। उसके दर्शन में बुद्धि द्वारा ज्ञेय विषयों का नहीं, स्वयं बुद्धि का परीक्षण किया गया है और बहुत ही विशद रूप में। यूरोपीय दर्शन के विस्तृत इतिहास में, प्रथम और अंतिम बार, कांट के माध्यम से, ज्ञानशक्तियों ने स्वयं की व्याख्या इतने विस्तार से प्रस्तुत की है।
इस प्रकार की व्याख्या का प्रथम निर्देश यूनानी दर्शनकाल में सुकरात से प्राप्त हुआ था। उसने कहा था: "अपने आपको जानो", किंतु उसके बाद अपने आपको जानने के जितने प्रयत्न किए गए सबका पर्यवसान अपने से बाह्म वस्तुओं के ज्ञान में ही होता रहा। आधुनिक काल के प्रारंभ में फ्रांसीसी विचारक देकार्त (1596-1650) ने फिर बलपूर्वक कहा– (1) इंद्रियाँ विश्वास के योग्य नहीं, वे भ्रम उत्पन्न करती हैं; (2) बुद्धि भी निरपेक्ष विश्वास के योग्य नहीं, वह असत् निर्णयों को सत् सिद्ध कर देती हैं; किंतु (3) "मैं विचार करता हूँ, अतएव मैं हूँ", एक ऐसी प्रतीति है, जिसके खंडन का प्रत्येक प्रयत्न उसकी सत्यता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
पर, किसी विचारक ने उस ज्ञानधिकरण "मैं", अथवा बुद्धि के जटिल संस्थान की छानबीन नहीं की। युग की प्रवृत्तियाँ गणित और भौतिकविज्ञान के प्रभावों से आक्रांत थीं। टाइकोब्राही और कोपरनिकस ने गणित के सहारे सदा से संसार के केंद्र में बैठी हुई पृथ्वी को धकेलकर उसके स्थान पर सूर्य को बैठा दिया था। दूसरी ओर गैलीलियों ने पीसा के झुके हुए स्तंभ की चोटी से पत्थरों को गिराकर, पृथ्वी की द्विविध गति का अनुसंधान किया था। यूरोपीय विचारक इन्हीं दोनों प्रभावों के अंतर्गत दो दलों में बँटकर, ज्ञानसाम्राज्य पर बुद्धि अथवा इंद्रियों के एकाधिकार का समर्थन कर रहे थे। एक ओर जर्मन दार्शनिक गॉटफ़्रीड विल्हेल्म लीबनित्स (1646-1716) के अनुयायी थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ विचारक जॉन लॉक (1632-1714) के समर्थक थे। किंतु, युग की दशा देखकर स्काटलैंड के संदेहवादी कहे जानेवाले विचारक डेविड ह्यूम (1711-76) ने फिर पूछा, कारणता (कॉज़ैलिटी) के समर्थन का आधार कहाँ है? घटनाओं के जाल में केवल पूर्वापर संबंध, सहगमन आदि के अतिरिक्त कुछ भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं है।
इस बार, कांट की प्रतिभा जागी और उसने बुद्धि का परीक्षण प्रारंभ किया। 1770 ई. से 1781 ई. तक उसने शुद्ध बुद्धि के कार्यों पर चिंतन कर, "क्रिटीक डेर रीनेन वेरनुन्फ़ट" (क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन) के माध्यम से घोषित किया कि शुद्ध बुद्धि ऐंद्रिक प्रदत्तों का संश्लेषण करती हैं। इसीलिए प्रत्येक वैज्ञानिक निर्णय का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर बौद्धिक करने एवं ऐंद्रिक दो प्रकार के तत्व उपलब्ध होते हैं। उक्त समीक्षा के प्रथम भाग में उसने ऐंद्रिक बोध का विवेचन करते हुए, इंद्रियों द्वारा बाह्य जगत् से लाई हुई सामग्री और उसके बोध के स्वभाव में, समाविष्ट रूप में, अंतर किया। उसने बताया कि बाह्य वस्तुएँ इंद्रियों पर जो प्रभाव डालती हैं, वह देश और काल के परिच्छेदों से मुक्त होता है, किंतु, ऐंद्रिक बोध इन परिच्छेदों के बिना संभव नहीं। इस प्रकार उसने निर्णीत किया कि ये बोध के दो रूप हैं, जिन्हें प्रत्येक बोधसामग्री को इंद्रियद्वारों में प्रवेश करते ही ग्रहण करना पड़ता है। कांट ने देश और काल को अवांतर आकार स्थिर करते हुए, प्रागनुभवीय (आप्रायोरी) तत्व कहा।
बाह्य जगत् से आई हुई सामग्री में इतना रूपांतर हो चुकने पर बुद्धि का दूसरा विभाग, अर्थबोधविभाग (वरस्टैंड) अपना काम प्रारंभ करता है। इस विभाग के कार्यों का विवेचन बुद्धिसमीक्षा के दूसरे भाग, "पर विश्लेषण" (ट्रैंसेंडेंटल अनालिटिक) में किया गया है। वह देश और कालबोध से युक्त सामग्री पर 12 उपाधियों का आरोप करता है। कांट ने अर्थबोध की 12 उपाधियों को चार समूहों में विभाजित किया। एकता (यूनिटी), बहुता (प्लूरैलिटी) और समष्टि (टोटैलिटी) की उपाधियाँ परिमाणसूचक हैं; सत्ता (रीअलिटी), निषेध (निगेशन) और ससीमता (लिमिटेशन) की उपाधियाँ गुणसूचक हैं; व्याप्ति-अधि-कृतत्व (इन्हेरेंस सब्सिस्टेंस), कारणता निर्भरता (कॉज़ैलिटी डिपेंडेंस) और सामूहिकता (कम्यूनिटी) संबंधसूचक हैं; संभावना असंभावना (पॉसिबिलिटी इंपॉसिबिलिटी), अस्तित्व अनस्तित्व (एक्ज़िस्टेंस नॉनएक्ज़िस्टेंस), अनिवार्यता आकस्मिकता (नेसेसिटी कॉटिजेंसी) प्रकारता (माडलिटी) का बोध कराती हैं।
उपर्युक्त 12 उपाधियों के आरोप के फलस्वरूप 12 प्रकार के बौद्धिक निर्णय उपलब्ध होते हैं–(1) सामान्य (युनिवर्सल), (2) विशिष्ट (पर्टीक्युलर) तथा (3) एकबोधक (सिंग्युलर) परिमाण संबंधी निर्णय हैं, (4) स्वीकृतिबोधक (अफ़र्मेटिव), (5) निषेधबोधक (नेगेटिव) तथा (6) असीमताबोधक (इनफ़िनिट) निर्णय गुणबोध कराते हैं; निरपेक्ष (कैटेगॉरिकल), सापेक्ष (हाइपोथेटिकल) तथा वैकल्पिक (डिस्जंक्टिव) संबंध बोध कराते हैं समस्यामूलक (प्रॉब्लेमैटिक), वर्णनात्मक (एसर्टारिक) तथा संदेहसूचक (एपोडिक्टिक) निर्णय प्रकारता (माडलिटी) का बोध कराते हैं।
इस प्रकार कांट ने स्थिर किया कि बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि ऐंद्रिक सामग्री में इतना रूपांतर कर देती है कि इंद्रियद्वारों में प्रविष्ट होने के पश्चात् जगत् का रूप पहले जैसा नहीं रह जाता। अतएवं, उसे बुद्धिगत वस्तु और बाह्य वस्तु में भेद करना पड़ा। बुद्धि के अनुशासन से मुक्ति वस्तु की उसने "न्यूमेना" और उक्त अनुशासन में जकड़ी हुई वस्तु का "फ़ेनॉमेना" संज्ञा दी। इस अंतर का तात्पर्य यह दिखाना था कि बौद्धिक रूपांतर के पश्चात् सत्य ज्ञेय वस्तु प्रातिभासिक हो जाती है।
अब तीसरे भाग में, जिसे उसने "परद्वैतिकी" (ट्रैंसेंडेंटल डायलेक्टिक) शीर्षक दिया था, उसने बताया कि इंद्रियों की सहकारिता के अभाव में साधनहीन शुद्ध बुद्धि ईश्वर, आत्मा तथा विश्वसमष्टि का ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ है। किंतु, कांट का उद्देश्य बुद्धि को उक्त विषयों के ज्ञान में अक्षम सिद्ध कर "अज्ञानवाद" (एग्नास्टिसिज़्म) का प्रवर्तन करना नहीं था। अतएव कांट ने सात वर्ष अपने शुद्ध बुद्धि की समीक्षा के अंतिम निर्णय पर अथक चिंतन किया। अंत में उसे बुद्धि के आगे बढ़ने का मार्ग दिखाई दिया। फलत: सन् 1788 ई. में, उसने दूसरी समीक्षापुस्तक प्रकाशित की। यह "व्यावहारिक बुद्धि की समीक्षा" (क्रिटीक डेर प्रैक्टिस्केन वेरनुन्फ़्ट) थी।
सात वर्ष पूर्व शुद्ध के लिए आत्मा, परमात्मा और विश्वसमष्टि के जो अगम क्षेत्र थे, उनमें व्यावहारिक बुद्धि ने, नैतिक अनुभव का पाथेय लेकर, प्रवेश किया। कांट की व्यावहारिक बुद्धि शुद्ध बुद्धि की भाँति बाह्य प्रकृति के तथा अपने स्वभाव के नियमों से सीमित न थी। वह स्वतंत्र बौद्धिक व्यक्ति की बुद्धि थी, जो स्वतं: अपना नियमन करने में समर्थ थी। इसका तात्पर्य यह नहीं कि व्यावहारिक बुद्धि के सिद्धांत से कांट हाब्ज़ (1588-1679) के व्यक्तिवाद का समर्थन करना चाहता था। उसने व्यावहारिक बुद्धि को स्वशासन की स्वतंत्रता प्रदान की थी, किंतु ऐसे नियमों के अनुसार, जिनका अनुसरण विश्व मानव के लिए उचित हो।
कांट के दर्शन के इस स्तर को समझने के लिए एक ओर परमार्थ और व्यवहार का भेद समझने की और दूसरी ओर सैद्धांतिक और नैतिक बुद्धि के भेद को समझने की आवश्यकता है। वह परमार्थ को ज्ञानात्मक व्यापार की परिधि से "पर" मानता था, इसीलिए सैद्धांतिक चिंतन की समीक्षा प्रस्तुत, जो सत्य है, "व्यवहार" में, जो प्रातिभासिक है, परिणत हो जाता है। किंतु, उसकी दृष्टि में नैतिक चिंतन सैद्धांतिक चिंतन से दूरगामी है; क्योंकि वह सैद्धांतिक प्रतिबंधों से मुक्त है। इसलिए, नैतिक चिंतन उन विषयों तक पहुँच सकता है जो सैद्धांतिक चिंतन के लिए दुरूह हैं। कांट जिसे व्यावहारिक बुद्धि कहता है, सचमुच वह नैतिक बुद्धि है, बौद्धिक मानव की स्वतंत्र संकल्प शक्ति है। इसी प्रसंग में कांट ने आत्मा के अमरत्व की और ईश्वर के अस्तित्व की पुन: स्थापना की है। सैद्धांतिक चिंतन इन अस्तित्वों के बिना भी अपना काम चला सकता है, किंतु इनकी कल्पना के बिना नैतिक चिंतन के पैर नहीं जम सकते। अमर आत्मा की स्वीकृति में शाश्वत जीवन की स्वीकृति है; ईश्वर की स्वीकृति कर्मफलदाता की स्वीकृति है। इनका सैद्धांतिक मूल्य भले ही कुछ न हो, किंतु नैतिक मूल्य बहुत बड़ा है। नैतिक चिंतन में बुद्धि का कार्य आचरण की समस्या पर विचार करना है। इसीलिए कांट ने इसे व्यावहारिक बुद्धि कहा था। किंतु वह अनेक बुद्धियों का समर्थन नहीं कर रहा था। वह दिखाना चाहता था कि विषयभेद से बुद्धि भिन्न रूपों में विकसित होती है, भिन्न नियमों के अनुसार कार्य करती है।
प्रकृति के वैज्ञानिक विवेचन में वह इंद्रियों की सहकारिता की अपेक्षा करती है और अपने 14 नियमों का प्रयोग करती है। वहाँ वह किसी ऐसी सत्ता का समर्थन नहीं करती, जो उसके 14 अनुबंधों के अनुशासन में न आ सके। नैतिक चिंतन में प्रवृत्त होते ही वह संकल्प का रूप ले लेती है और कर्म का पोषण करनेवाली सत्ताओं में विश्वास करती है।
कांट की तीसरी समस्या "सुंदर" के आस्वाद में प्रवृत्त बुद्धि की गतिविधि के निरुपण की थी। वह कार्य करने के लिए उसने "निर्णय की समीक्षा" (क्रिटीक डेर उरथील्स्क्रैफ़्ट) प्रस्तुत की। इसके प्रकाश में आने का समय 1790 ई. था। कांट के अनुसार "सुंदर" की ओर उन्मुख होते ही बुद्धि "निर्णय" का रूप ले लेती है। वह "निर्णय" को शुद्ध बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि के बीच की कड़ी मानता था। उसने प्रकृति को शुद्ध बुद्धि का विषय ठहराया था और प्रकृति के सत्य का अवगाहन एवं अनिवार्यता का अनुसंधान उद्देश्य बताया था। व्यावहारिक बुद्धि अथवा संकल्प का विषय "शुभ" (गुड) तथा उद्देश्य स्वतंत्रता का अनुभव था। अब वह निर्णय का विषय रसानुभूति बताता है और इस अनुभूति को अनिवार्यता तथा स्वतंत्रता के मध्य की स्थिति मानता है। स्पष्टत: निर्णय में वह यथार्थ और आदर्श का गठबंधन कराना चाहता था। उसके विचार को समझने के लिए हमें सुंदर संबंधी कल्पना को ज्ञान और संकल्प के बीच रखना होगा। वह "सुदंर" को ज्ञान मात्र की वस्तु नहीं, सुखद वस्तु मानता था, किंतु उस सुख को जो "सुदंर" के प्रेक्षण से उत्पन्न होता है वह संसर्गवर्जित मानता था। उसने "सुंदर" की परिभाषा में गुण, परिमाण और प्रकारता का समावेश तथा संबंध का निषेध किया है। इस प्रकार की रसानुभूति शुद्ध बुद्धि तथा नैतिक आचरण के बिना संभव नहीं। इसीलिए, वह "सुंदर" की कल्पना को ज्ञान और संकल्प के बीच का निर्णय कहता है।
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