जॉन लॉक
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जॉन लॉक (1632-1704) आंग्ल दार्शनिक एवं राजनैतिक विचारक थे।
जान लॉक का जन्म 29 अगस्त 1632 ई. को रिंगटन नामक स्थान पर हुआ। इनके पिता एक साधारण स्थिति के जमींदार और प्राभिकर्ता थे। वे प्यूरिटन थे और आंग्ल गृहयुद्ध में (1641-47) सेना की ओर से लड़े थे। पिता और पुत्र का संबंध आदर्श था। इन्होंने 1646 में वेस्टमिंस्टर पाठशाला में प्रवेश लिया। यहाँ के अध्ययन के पश्चात् सन् 1652 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के क्राइस्ट चर्च कालिज में प्रविष्ट हुए। यहाँ पर स्वतंत्र विचारधारा का अधिक प्रभाव था। 1660 में वे इसी प्रख्यात महाविद्यालय में यूनानी भाषा एवं दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए। उनके दर्शन जैसे गहन विषय में रुझान उत्पन्न करने का श्रेय डेकार्ट को है। धर्मशास्त्रों में विचारस्वातंत्र्य के अभाव के कारण वे रसायन शास्त्र की ओर आकर्षित हुए और राबर्ट वोइल के मित्र बन गए।
1666 ई. में उनकी भेंट लार्ड एशली से हुई। समान विचारों ने उन्हें स्थायी मैत्री के सूत्र में बाँधा। 1667 से वे एशली के लंदन स्थित निवासस्थान एक्सेटर हाउस में रहने लगे। उन्होंने 15 वर्ष तक एशली के विश्वस्त सचिव के रूप में कार्य किया। 1675 में एशली के पतन के कारण वे उनके साथ पेरिस चले गए। यहाँ पर उनकी भेंट अनेक वैज्ञानिकों और साहित्यकारों से हुई। एशली के राजनीतिक उत्थान पतन के कारण लॉक को भी उनके साथ हालैंड भागना पड़ा। 1683 में एशली की मृत्यु हुई। चूँकि लॉक पर भी संदेहात्मक दृष्टि थी, अत: उन्हें वहाँ पर 5 वर्ष व्यतीत करने पड़े और यहाँ उनकी औरेंज के राजकुमार विलियम से मित्रता हुई। नवंबर, 1688 में विलियम को इग्लैंड का राजा घोषित किया गा। फरवरी, 1689 में लॉक ने हालैंड से उसी जलयान में यात्रा की जिसमें विलियम की पत्नी रानी मेरी यात्रा कर रही थी।
इंग्लैंड लौटने पर लॉक को राजदूत का पद प्रदान किया गया किंतु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि अब वे अपना शेष जीवन इंग्लैंड में ही विताना चाहते थे। उन्होंने पुनर्विचार आयुक्त का पद ग्रहण किया, परंतु उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। सन् 1691 में वे सर फ्रांसिस मेहाम के ग्राम्य निवासस्थान में रहने लगे। यहाँ पर 14 वर्ष तक वे उस शांत वातावरण में रहे जो उनके गिरते स्वास्थ्य के लिए आवश्यक था। 1696 में वे व्यापार आयुक्त नियुक्त हुए। स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण 1700 में इस पद को भी छोड़ना पड़ा। अपनी जीवनसंध्या धार्मिक अध्ययन एवं साधना में बिताते हुए 28 अक्टूबर 1704 को स्वर्ग सिधारे।
उनके दार्शनिक विचार "ऐसेज कंसर्निग ह्यूमन अंडरस्टैडिंग" में स्पष्ट हैं। यह पुस्तक आधुनिक प्रयोग सिद्धवाद का आधार है। "बिना विचारों के ज्ञान असंभव है, परंतु विचार न सत्य है न असत्य, वे केवल आकृति रूप हैं। सत्य अथवा असत्य विचार का दृढ़तापूर्वक स्वीकार अथवा अस्वीकार करना निषिद्ध है। विचार के पूर्व मानव मस्तिष्क गोरे कागज के समान है जिस पर अनुभव समस्त विचारों को लिखता है।"
वे ज्ञान को चार प्रकार का बताते हैं :
उनके धार्मिक विचार उनके चार पत्रों "लेटर्स कंसनिंग टालरेशन" द्वारा व्यक्त हैं। वे धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करते थे, यदि इसके द्वारा शिवम् का विकास होता हो, किंतु वे नास्तिकवाद के समर्थक न थे।
उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचार उनकी प्रख्यात पुस्तक "टू ट्रीटाइजेज ऑव गवर्नमेंट" (1690) में व्यक्त किए गए हैं।
उनके समय में प्रजातंत्र एवं सहनशीलता के सिद्धांत राजा के दैवी अधिकारों से टकरा रहे थे। राज्य संविदा का परिणाम था। मनुष्य के प्राकृतिक अवस्था से राज्य तथा समाज की व्यवस्था में आने से नैसर्गिक अधिकारों का अपहरण नहीं हुआ। इन नैसर्गिक अधिकारों में संपत्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भी सम्मिलित है। जनसमुदाय को सार्वजनिक भलाई के लिए किसी भी प्रकार से, स्वशासन करने का अधिकार है। सरकार को किसी के उन धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है जो समाज के अनुकूल हैं। ये विचार उनके राजनीतिक दर्शन की जड़ है। समाज संविदा पर आधारित है और संविदा की शर्तों में, परिस्थिति के अनुसार जनता की सर्वोच्च इच्छा द्वारा परिवर्तन किया जा सकता है। समाज के शासकों की सत्ता निरंकुश नहीं है अपितु वह एक धरोहर है। शासक उसका अधिकारी तभी तक है जब तक कि वह अपने उत्तरदायित्व को निभाता है।
विद्रोह करने की स्वाधीनता के अधिकार का लॉक ने समर्थन किया जो अमरीका, भारत तथा अन्य उपनिवेशों के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक रहा। इस प्रकार उनका प्रशासन के सिद्धांतों का विचार आज तक सुदृढ़ और प्रजातंत्र की आधारशिला बना हुआ है।
शिक्षा पर उनके विचार थॉट्स ऑन एजूकेशन (1691) में व्यक्त हैं। उनके उपयोगितावादी दृष्टिकोण से शिक्षा का उद्देश्य बुद्धि व चरित्र का विकास है और उसके साथ ही साथ एक स्वस्थ शरीर का निर्माण भी है। बच्चों को शिक्षा देते समय उनके आनंद का भी ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक में पांडित्य की अपेक्षा बुद्धि की अधिक आवश्यकता है।
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