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उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थान विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
विश्वविद्यालय या महाविद्यालय वह संस्था है जिसमें सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा दी जाती हो, परीक्षा ली जाती हो तथा लोगों को विद्या संबंधी उपाधियाँ आदि प्रदान की जाती हों। इसके अंतर्गत विश्वविद्यालय के मैदान, भवन, प्रभाग, तथा विद्यार्थियों का संगठन आदि भी सम्मिलित हैं।
प्राचीन काल में यूरोप के देशों में मान्य अर्थ में कोई विश्वविद्यालय न थे, यद्यपि अनेक महत्वपूर्ण विद्यालय थे, जैसे एथेंस के दार्शनिक विद्यालय, अथवा रोम के साहित्य और रीतिशास्त्र के विद्यालय, जो उच्च शिक्षा संस्थाएँ थीं। मध्य युग में शिक्षा पर धार्मिक संस्थाओं का नियंत्रण रहा। धार्मिक संस्थाओं द्वारा विद्यालयों की व्यवस्था की जाती थी जिनमें पादरियों को धार्मिक, साहित्यिक एवं वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इस युग में पेरिस का धार्मिक विद्यालय धर्मशिक्षा का एक केंद्र बन गया, तथा सन् 1198 तथा 1215 ई. के बीच पेरिस विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित हो गया और उसमें धर्मविज्ञान, कला तथा चिकित्सा के प्रभाग बनाए गए। बाद में विशेषज्ञ अध्यापकों और विद्यार्थियों ने मिलकर विश्वविद्यालय चलाए। 12वीं शताब्दी के मध्य के आसपास बोलोना में कानून के विद्यार्थियों के प्रयास से एक कानून विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। सन् 1250 ई. के लगभग 'विश्वविद्यालय' (यूनिवर्सिटी) शब्द का प्रयोग नए अर्थ में होने लगा और ये पांडित्यपूर्ण विद्यार्थियों के बजाय शासकों द्वारा अपने राज्यों की राजनीतिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थापित किए जाने लगे। मध्ययुगीन विश्वविद्यालय 13वीं शताब्दी के मध्य के सर्वोत्कृष्ट समय में बौद्धिक स्वतंत्रता की अद्वितीय अवस्था को प्रकट करते हैं। धन के कारण इनकी प्रगति बाधित नहीं हुई और ये अपने स्वतंत्र अधिकारों को नष्ट करनेवाले प्रयत्नों का विरोध करने में सक्षम रहे। ये अपने युग की संस्कृति को निर्धारित करने में प्रभावशाली बने। मध्ययुगीन दर्शन का जन्म कुछ महान धार्मिक आंदोलनों के समान महाविद्यालयों में हुआ जिसने मध्य युग के यूरोप को हिला दिया और उसकी एकता को विभाजित कर दिया। इसी 13वीं शताब्दी में महाद्वीपीय यूरोप के प्रभाव से इंग्लैंड में भी ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे।
यूरोप में धर्म-सुधार-आंदोलन के साथ विश्वविद्यालय के दृष्टिकोण और विस्तार में एक निश्चित परिवर्तन हुआ। उनकी परंपरागत स्वव्यवस्था और स्वतंत्रता लुप्त हो गई; प्राचार्य, राज्य के सेवक हो गए; कठोर नियंत्रण तथा जाँच की व्यवस्था की गई। विश्वविद्यालय को राज्य तथा तत्संबंधित खर्च के लिए कार्यकर्ताओं को दीक्षित करनेवाली संस्था माना जाने लगा। ये विश्वविद्यालय धार्मिक संस्थाओं से संबंधित होते हुए भी 16वीं शताब्दी के धार्मिक संघर्षों से दूर रहे। इस शताब्दी में विश्वविद्यालय वैज्ञानिक खोजों के केंद्र बन गए। बाद में 16वीं शताब्दी में शिक्षण ही इनका मुख्य कार्य हो गया। 18वीं शताब्दी में विश्वविद्यालय समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल होते गए और उन विभिन्न विषयों की शिक्षा देने का प्रयत्न करने लगे जो व्यवसायिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक थे। फ्रांस की क्रांति के बाद विश्वविद्यालयों द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा की आयोजना (प्लानिंग) होने लगी। 19वीं शताब्दी में यह अनुभव किया गया कि विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा तथा शोधकार्य पर अपने को केंद्रित करें और माध्यमिक शिक्षा को अपने कार्यवृत्त से हटा दें। वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन पर अधिक बल दिया गया। इस काल के विश्वविद्यालय केवल विज्ञान ही नहीं बल्कि राजनीति के केंद्र भी बने और विभिन्न देशों के राष्ट्रीय उत्थान में राष्ट्रीयता के स्थायी भावों को उत्पन्न करके उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। 19वीं शताब्दी के अंत तक विश्वविद्यालय का संबंध जनता के साथ काफी घनिष्ठ हो गया। 20वीं शताब्दी में विश्वविद्यालयों के दृष्टिकोण में विस्तृत परिवर्तन हुए। बौद्धिक विकास की परंपरागत सीमाओं की उपेक्षा करके उनमें सभी प्रकार के प्राविधिक विषय आरंभ किए गए। उपयोगितावाद के प्रभाव में आकर कभी कभी तो उनमें पूर्णतया उपयोगी पाठ्यक्रम की ही प्रधानता हो गई।
आधुनिक विश्वविद्यालय अपनी उत्पत्ति तथा सामाजिक संबंध के विचार के तीन में से किसी एक प्रकार के होते हैं : या तो वे धार्मिक संस्था से संबंधित है, या राज्य की समस्याएँ हैं, या फिर व्यक्तिगत समूह द्वारा संचालित है। इस प्रकार धीरे धीरे विश्वविद्यालय प्रधानतया धार्मिक क्षेत्र से हटकर जनसाधारण से संबंधित होते गए।
भारत में वैदिक काल के गुरुकुलों को विश्वविद्यालय का प्राचीन रूप कहा जा सकता है क्योंकि उन्हीं में उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी। बाद में, उपनिषद् तथा ब्राह्मण काल में, हम "परिषदों" को विश्वविद्यालय के रूप में कार्य करते हुए पाते हैं। ये परिषदें पांडित्यपूर्ण अध्यापकों तथा विद्यार्थियों के सम्मेलन के रूप में होती थी और उपाधियाँ प्रदान करने के अधिकारिणी थीं। बौद्ध काल में शिक्षा के सुसंगाठित केंद्रों की स्थापना हुई जिनमें तक्षशिला और नालंदा अत्यंत प्रसिद्ध थे। इनमें शुल्क लिया जाता था। पाठ्यक्रम में वेद, वेदांग तथा विभिन्न कलाएँ, जैसे चिकित्सा, शल्य, ज्योतिष, नक्षत्र गणना, कृषि, बहीखाता, धनुर्विद्या आदि, सम्मिलित थे। बौद्ध तथा जैन दर्शन एवं तर्कशास्त्र भी पढ़ाए जाते थे। काठियावाड़ में वल्लभी तथा दक्षिण में कांची भी तक्षशिला और नालंदा के समान शिक्षा के बड़े केंद्र थे।
मुसलमानों के आक्रमण तथा उनके द्वारा राजस्थापन से प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय नष्ट हो गए। मुसलमान शासकों ने विभिन्न स्थानों पर उच्च शिक्षा के लिए मदरसा अथवा महाविद्यालय स्थापित किए। इस काल में लाहौर, दिल्ली, रामपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, जौनपुर, अजमेर, बीदर, आदि स्थानों के मदरसे प्रसिद्ध थे और उनमें अरबी फारसी साहित्य, इतिहास, दर्शन, रीतिशास्त्र, कानून, ज्यामिति, ज्योतिषि, अध्यात्मशास्त्र, धर्मविज्ञान आदि विषय पढ़ाए जाते थे। वस्तुत: यह मदरसे ही विश्वविद्यालयीय शिक्षा की व्यवस्था करते थे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में कलकत्ता मदरसा और बनारस संस्कृत कालेज उच्च शिक्षाकेंद्र के रूप में स्थापित हुए। सन् 1845 ई. में बंगाल काउंसिल ऑव एजूकेशन ने पहली बार कलकत्ते में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रस्ताव पास किया जिसे आगे चलकर सन् 1854 ई. के वुड के घोषणापत्र ने स्वीकार किया। इसके अनुसार कलकत्ता विश्वविद्यालय की योजना लंदन विश्वविद्यालय के आदर्श पर बनाई गई थी और उसमें कुलपति, उपकुलपति, सीनेट, अध्ययन-अध्यापन, परीक्षा, आदि की व्यवस्था की गई। सन् 1856 ई. तक कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए योजनाएँ तैयार हो गईं और 24 जनवरी 1857 ई. को तत्संबंधी बिलों को भारत के गवर्नरजनरल की स्वीकृति प्राप्त हो गई। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने पहले कार्य आरंभ किया और बाद में उसी वर्ष बंबई तथा मद्रास विश्वविद्यालय ने। प्रारंभ में इन विश्वविद्यालयों में चार प्रभाग, कला, कानून, चिकित्सा और इंजीनियरिंग के खोले गए। ये विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को संबद्ध (affiliate) करनेवाले थे। बंबई और मद्रास विश्वविद्यालयों का यह अधिकार अपने ही प्रांतों तक सीमित रहा।
सन् 1867 ई. में पंजाब प्रांत में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रस्ताव किया गया और सन् 1882 ई. में विशेषत: पूर्वी भाषाओं के अध्ययन के लिए पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। सन् 1882 ई. के शिक्षा आयोग ने महाविद्यालयीय शिक्षा तथा वित्त संबंधी परिस्थिति का पूर्णरूपेण पुनरवलोकन किया और अपने सुझाव दिए। सन् 1857 ई. में इलाहाबाद में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। सन् 1902 ई. के विश्वविद्यालय आयोग ने विश्वविद्यालयों को "शिक्षण संस्थाओं" के रूप में, तथा सीनेट, सिंडीकेट और फ़ैकल्टी" को मान्यता देने की संस्तुति की। सन् 1904 ई. के विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा सीनेट के संघटन में परिवर्तन हुआ, उसकी सदस्यसंख्या में वृद्धि हुई; सिंडीकेट को कानूनी मान्यता मिली और उसमें अध्यापकों का प्रतिनिधित्व भी रहा; प्राचार्य एवं अध्यापकों की नियुक्ति के नियम तथा शर्तें निश्चित हुईं। सन् 1913 ई. की शैक्षिक नीति के आधार पर ढाका, अलीगढ़, बनारस, पटना, नागपुर आदि में नए शिक्षण तथा सावास विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। 1916 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने स्नातकोत्तर शिक्षा विभागों को प्रारंभ किया। इस विश्वविद्यालय की दशा की जाँच के लिए 1917 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग बना जिसकी रिपोर्ट ने देश में उच्च शिक्षा के रूप एवं विकास पर विशेष प्रभाव डाला। अब विश्वविद्यालय साधारणतया माध्यमिक शिक्षा कार्य से अलग हो गए और उनका ध्यान स्नातक तथा स्नातकोत्तर अध्ययन पर केंद्रित हुआ। पाठ्य-विषयों की संख्या तथा उनके विस्तार में वृद्धि हुई और शिक्षक प्रशिक्षण, कानून, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, भवननिर्माण, कृषि आदि विषयों का अध्यापन होने लगा। सन् 1924 ई. में अंतर्विश्वविद्यालय परिषद बना जिसने विश्वविद्यालयों के कार्य को सुगठित किया। माध्यमिक शिक्षा के निरंतर विस्तार होने से विश्वविद्यालयों की संख्या भी क्रमश: बढ़ती गई जैसा कि केंद्रीय सलाहकार समिति की रिपोर्टों से प्रकट होता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1948 ई. में डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना हुई जिसने भारतीय विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय एवं जनतंत्रात्मक आधार पर पुन: संगठित करने के लिए विस्तृत सुझाव दिए। देश की दशा एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नवीन पाठ्यविषयों को प्रारंभ करने पर जोर दिया गया। इस आयोग की रिपोर्ट के बाद विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी। विश्वविद्यालयों की आर्थिक दशा की जाँच करने और उच्च शिक्षा के प्रसार हेतु उन्हें उचित अनुदान देने के लिए केंद्रीय सरकार ने एक विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grants Commission) बनाई। भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षण तथा संबंधित करनेवाले (affliliating) दोनों प्रकार के हैं। विश्वविद्यालय अनुदान समिति संस्थाओं के शिक्षण रूप धारण करने पर अधिक बल देती है।
कुछ भारतीय विश्वविद्यालय केंद्रीय सरकार पर आधारित हैं, यथा बनारस, अलीगढ़, अलीगढ़, विश्वभारती आदि। अन्य प्रांतीय विश्वविद्यालय शिक्षण करनेवाले तथा सावास हैं। इनमें विद्यार्थी छात्रावास में रहते, तथा विद्याध्ययन करते हैं। दूसरे प्रकार के विश्वविद्यालय वे हैं जो केवल परीक्षा लेते तथा महाविद्यालयों को संबंधित करते हैं। इन विश्वविद्यालयों में भी अब थोड़ा बहुत शिक्षण कार्य होने लगा है।
विश्वविद्यालयों के प्रशासन के लिए कुलपति, उपकुलपति, प्रबंध समिति (सीनेट), कोर्ट (सभा), शिक्षा समिति (Academic Council), रजिस्ट्रार और उसके सहायक आदि होते हैं। प्रदेशीय विश्वविद्यालयों के कुलपति प्राय: प्रदेश के राज्यपाल होते हैं, जो अवैतनिक हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय में राष्ट्रपति को विज़िटर (Visitor) के रूप में माना जाता है।
पाठ्यक्रमीय संघटन की दृष्टि से प्रत्येक विश्वविद्यालय अनेक प्रभाग (Faculties), यथा कला, विज्ञान, वाणिज्य, कानून, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, शिक्षा, कृषि, आदि में बँटा हुआ होता है। प्रभाग के प्रधान प्राध्यक्ष (Dean) होते हैं। प्रत्येक भाग के अंतर्गत विभिन्न विभाग होते हैं जिनके अलग-अलग अध्यक्ष होते हैं। अध्यक्ष प्राय: प्रोफेसर (प्राचार्य) कहलाते हैं। उनके सहायक अध्यापकगण रीडर, लेक्चरर अथवा असिस्टेंट प्रोफेसर आदि होते हैं। विश्वविद्यालय में एक या अनेक प्रभाग होते हैं। इन विश्वविद्यालयों द्वारा दी जानेवाली उपाधियाँ भी अनेक प्रकार की हैं। शोध कार्य के निमित्त उच्च उपाधियाँ डी. लिट्., डी. एस-सी., एल.-एल. डी., पी-एच. डी.,PhD sociology
डी. फ़िल., आदि हैं। बी. ए., एम. ए., बी. एस-सी., बी. कॉम., एम. कॉम., एल-एल. डी., पी-एच. डी., डी. फ़िल., आदि हैं। बी.ए., एम.ए., बी.एस-सी., बी.कॉम., एम.कॉम., एल-एल.बी., एल-एल. एम., वी.टी., बी.एड्., एम.एड्. आदि की उपाधियाँ प्राय: लिखित परीक्षा के उपरांत दी जाती हैं। प्रत्येक विश्वविद्यालय का प्रति वर्ष एक समावर्तन समारोह (Convocation) होता है जिसमें परीक्षोत्तीर्ण विद्यार्थियों का उपाधिदान किया जाता है।
आज के विश्वविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयीय शिक्षा की अनेक समस्याएँ हैं जिनपर शासन तथा शिक्षाविदों का ध्यान केंद्रित है। माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के प्रसार के कारण विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की सख्या बढ़ रही है और प्रश्न यह है कि क्या विश्वविद्यालय उन सभी विद्यार्थियों को स्थान दें जो आगे पढ़ना चाहते हैं, अथवा केवल उन्हीं को चुनकर लें जो उच्च शिक्षा से लाभ उठाने में समर्थ हों? शिक्षा का माध्यम क्या हो?, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शोध कार्य को प्रश्रय देने की समस्या भी ध्यान अकर्षित करती है। कुछ विश्वविद्यालयों मे विद्यालयों में विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता भी एक समस्या है। योग्य अध्यापकों को विश्वविद्यालय में आकर्षित करना तथा उन्हें बनाए रखना कम महत्वपूर्ण नहीं। देश की वर्तमान दशा को देखते हुए तथा हमारा आज व कल की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किस प्रकार के पाठ्यविषय प्रारंभ किए जाएँ और आगे के विश्वविद्यालयों का क्या रूप हो? ये प्रश्न राष्ट्रोत्थान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
परंपरागत प्राप्त मानवज्ञान का संरक्षण, नवीन ज्ञान का संरक्षण, नवीन ज्ञान का अनुसंधान, संवर्धन एवं प्रसार आधुनिक विश्विद्यालयों के प्रमुख कार्य हैं। इसीलिए वे साहित्य, कला, दर्शन, समाजविज्ञान, विज्ञान, प्रशासन, व्यवसाय, व्यापार उद्योग एव तकनीकी आदि के शिक्षण एवं अनुसंधान की अपने यहाँ व्यवस्था करते हैं और शिक्षा-सेवा-विस्तार (एज्युकेशन एवस्टेंशन) के द्वारा उनको भी लाभान्वित करने की चेष्टा करते हैं, जो विश्वविद्यालय के छात्र होकर अध्ययन नहीं कर सकते। ज्ञानानुसंधान, एवं प्रसार के लिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों में बौद्धिक स्वातंत्र्य हो। विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में सद्भावना स्थापित करने के भी शक्तिशाली माध्यम हैं।
तेरहवीं शताब्दी में स्थापित ब्रिटेन के आक्सफोर्ड एवं कैंब्रिज विश्वविद्यालय, उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी तक निर्मित बरमिंघम, लीड्स, मैनचैस्टर, लिवरपूल, न्यूकैस्ल, ग्लासगो, एडिनबरा, विक्टोरिया, डरहग, आदि विश्वविद्यालयों के समान ही ज्ञान, विज्ञान के आधुनिकतम शिक्षा संस्थानों से संपन्न होकर प्राचीन और आधुनिक युग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यूरोप के इसी प्रकार के अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों में फ्रांस के, पेरिस विश्वविद्यालय (स्थापित 1253 ई.), टाइलोज (1229 ई.), माँपेलिया (Montpellier, 1289 ई.), इटली के नेपल्स (1224 ई.), फ्लोरेंस (1321 ई.), रोम (1303 ई.) जेनाग्रा (1471 ई.); जर्मनी का म्युनिख (1472 ई.) स्पेन के वारसीलोना (1450 ई.) मैड्रिड (1508 ई), पुर्तगाल के काईब्रा (Coimbra 1290 ई.), स्वीडन का अपसाला (1477 ई.) तथा नीदरलैंड का लाइडन (1575 ई.) आदि विश्वविद्यालय अपनी प्राचीन एव नवीन शिक्षा परंपरायों के संदेशवाहक होकर विद्यमान हैं।
कोलंबिया, न्यूयार्क, ओहायो, कलीफोर्निया, फ्लोरिडा, शिकागो, हार्वर्ड, वाशिंगटन, इंडियाना, मिशीगन, येल आदि अमेरीका के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हैं।
रूस में मास्को, लेनिनग्राड जैसे विशाल केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त सोवियत संघ (अब, रूस) के विशाल भूभागों के लिए सेंट्रल एशियन लेनिन विश्वविद्यालय "फार ईस्ट विश्वविद्यालय" तथा सोवियत संघ के के विभिन्न राज्यों के अपने अलग अलग विश्वविद्यालय हैं। सोवियत संघ की अकादमी ने अनुसंधान क्षेत्र में युगपरिवर्तनकारी कार्य किए हैं।
चीन में पीपल्स यूनिवर्सिटी ऑव चाइना, पेकिंग, के नमूने पर चीन के सभी प्रमुख प्रदेशों में विश्वविद्यालय की पुन:स्थापना की गई है जिनमें साम्यवादी दर्शन और तकनीकी शिक्षा की प्रधानता है। शंघाई, पूशन, चुंकिंग, नानकिंग आदि वहाँ के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हैं।
एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया के सभी देशों के प्रमुख नगरों में विश्वविद्यालय हैं।[1] किसी किसी नगर में कई विश्वविद्यालय हैं। फिलिपींस के मनीला जैस नगर में ही पाँच विश्वविद्यालय हैं। छात्रों की संख्या की दृष्टि से एशिया में चीन, जापान और भारत में बड़े विश्वविद्यालय हैं। द्वितीय महायुद्ध के उपरात जहाँ जापान ने अन्य क्षेत्रों में पुनर्निर्माण किया , वहीं विश्वविद्यालय के शिक्षा क्षेत्र में भी वहाँ के टोकियो, हॉकाइतो, कियोटो, हिरोशाकी, तथा हिरोशिमा आदि विश्वविद्यालय ज्ञान एवं विज्ञान के क्षेत्र में उपयोगी कार्य कर रहे हैं। विश्वविद्यालय क्षेत्र की शिक्षा में अफ्रीका भी उन्नतिशील है। दक्षिणी अफ्रीका के प्रिटोरिया, नटाल, डरबन, केपटाउन, ट्रांसवाल आद उन्नतिशील विश्वविद्यालय है।
प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, नदिया, उदयंतपुरी, कांची आदि विश्वविद्यालयों ने विशेष ख्याति प्राप्त की थी। इनमें विदेशों से भी छात्र अध्ययन के लिए आते थे। भारतीय शिक्षा परंपरा में आत्मज्ञान के लिए शिक्षा गुरु और शिष्य का पिता तुल्य सबंध, शिक्षाकाल में ब्रह्मचर्यपालन का तपस्यामय जीवन, निःशुल्क शिक्षा तथा बौद्धिक स्वातंत्र्य आदि भावों की प्रधानता थी। मध्यकाल के शिक्षाकेंद्रों में लाहौर, दिल्ली, रामपुर, जौनपुर, बीदर और अजमेर आदि विशाल शिक्षाकेंद्र थे। अंग्रेजी राज्य की स्थापना के उपरात सन् 1857 में कलकत्ता, मुंबई तथा मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना तत्कालीन लंदन विश्वविद्यालय के नमूने पर हुई थी। वे केवल परीक्षा लेनेवाले विश्वविद्यालय थे। कैंब्रिज और आक्सफोर्ड के समान इनमें सहजीवन न था। सन् 1913 से सन् 1921 तक छह आवास एवं शिक्षणसमन्वित विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। सन् 1920 में सर सैयद अहमद खाँ ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन् 1918 में हैदराबाद के निजाम ने उसमानिया विश्वविद्यालय स्थापित किया। उसमें उच्च शिक्षा का माध्यम उर्दू रखा गया था।
स्वाधीनताप्राप्ति के उपरांत भारत के विश्वविद्यालयों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई। भारत के विश्वविद्यालय विशिष्ट विषयों कृषि, इंजीनियरिंग, संस्कृत, संगीत आदि के अध्ययन को प्रधानता देने की दृष्टि से स्थापित किए गए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, रुद्रपुर नैनीताल, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना, कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय भुवनेश्वर (उड़ीसा), आंध्र प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय हैदराबाद, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय तथा खैरगढ़ (मध्यप्रदेश) इंद्रा कला और संगीत विश्वविद्यालय हैं। केवल महिलाओं के लिए मुंबई में थैकरसी विश्वविद्यालय हैं।
इनके अतिरिक्त कुछ शिक्षण संस्थाओं को उनके विशिष्ट महत्व के कारण विश्वविद्यालय के समक्ष माना गया है। गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, जामेमिलीया देहली, गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार, ने स्वाधीनताप्राप्ति के पूर्व राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। अत: उन्हें विश्वविद्यालय के समकक्ष स्थान दिया गया। विज्ञान तकनीकी एवं समाजविज्ञान के शिक्षानुसंधान की विशिष्टताओं के कारण बिड़ला तकनीकी एवं विज्ञान संस्थान पिलानी, भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलौर, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान देहली, टाटा समाजविज्ञान संस्थान मुंबई तथा भारतीय अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान देहली को भी विश्वविद्यालय के समकक्ष माना गया है।
भारत में इस समय मुख्यत: चार तरह के विश्वविद्यालय हैं-
केन्द्रीय विश्वविद्यालय : संसद के अधिनियम के तहत बनाये गये देश में कुल 30 विश्वविद्यालय हैं। ये सभी मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय के तहत आती हैं। इस विश्वविद्यालयों को ज्यादा फंड आवंटित होता है, इसलिए इनमें दूसरे विश्वविद्यालयों के मुकाबले सुविधाएं भी बेहतर होती हैं। 2009 में 15 विश्वविद्यालयों को केन्द्रीय विश्वविद्याल्य का दर्जा दिया गया। कुछ प्रमुख केन्द्रीय विश्वविद्यालय ये हैं- दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय आदि।
स्टेट यूनिवर्सिटी : राज्यों की विधानसभा ऐक्ट पारित कर स्टेटयूनिवर्सिटी बनाती है। देश में कुल 251 स्टेट यूनिवर्सिटी हैं। इनमें सेकेवल 123 यूनिवर्सिटी को ही यूजीसी द्वारा बजट मिलता है। यूनिवर्सिटीऑफ कोलकता, यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास और यूनिवर्सिटी ऑफ मुंबईदेश की सबसे पुरानी स्टेट यूनिवर्सिटीज हैं।
डीम्ड यूनिवर्सिटी : यूनिवर्सिटीज के अलावा उच्च शिक्षा से जुड़े दूसरेइंस्टिट्यूट्स को यूजीसी की सलाह पर केंद्र सरकार डीम्ड यूनिवर्सिटी कादर्जा देती है। अमूमन यह दर्जा पाने के लिए संस्थान में शिक्षा का स्तरबहुत ऊंचा होना जरूरी माना जाता है। इस तरह की यूनिवर्सिटी कास्टेटस बाकी यूनिवर्सिटी की तरह ही होता है, लेकिन इन्हें स्वायत्तताअधिक हासिल होती है। ये न सिर्फ अपना कोर्स और सिलेबस खुदडिजाइन कर सकते हैं, बल्कि अपने एडमिशन और फीस संबंधी नियमभी बना सकते हैं। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ माइंस (धनबाद), इंडियनइंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (बंगलूरु) कुछ जानी - मानी डीम्ड यूनिवर्सिटीहैं।
प्राइवट यूनिवर्सिटी : उच्च शिक्षा के ऐसे संस्थान, जिनकी स्थापनाराज्य या केंद्र के कानून के तहत किसी स्पॉन्सरिंग बॉडी द्वारा की जातीहै, प्राइवेट यूनिवर्सिटी कहलाते हैं। ऐसी यूनिवर्सिटीज के पास यूजीसीकी मान्यता भी होती है, जिससे इनके द्वारा दी जा रही डिग्रियों कोमान्यता मिलती है। पिलानी स्थित बिड़ला इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजीएंड साइंस को इस कैटिगरी में रखा जा सकता है।
भारत में कुल 123 डीम्ड यूनिवर्सिटी है।[3] इनमें से 54 को पिछले पांच साल में यह दर्जा हासिल हुआ है। चूंकि इनमें से कई यूनिवर्सिटीज को मान्यता देने में पारदर्शी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई, इसलिए इनकी मान्यता को लेकर हाल में विवाद उठ खड़ा हुआ है।
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