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लेंस युक्त मोतियाबिंद को हटाने और सिंथेटिक लेंस से बदलने के लिए नेत्र शल्य चिकित्सा विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मोतियाबिंद शल्यक्रिया आंख के प्राकृतिक लेन्स (मणिभ लेन्स भी कहा जाता है) जिसमें अपारदर्शन विकसित हो गया है तथा जो मोतियाबिंद कहलाता है, उसे शल्यक्रिया द्वारा हटाने की क्रिया है। समय के साथ मणिभ लेन्स तंतुओं के चयापचयी परिवर्तनों के कारण मोतियाबिंद का विकास होता है और पारदर्शिता चली जाती है, जिसके कारण दृष्टि कम या नष्ट हो जाती है। कई मरीजों के प्रथम लक्षण हैं रात्रि में प्रकाश तथा छोटे प्रकाश स्रोतों से तीव्र चमक, प्रकाश के कम स्तर पर गतिविधियों में कमी. मोतियाबिंद शल्य चिकित्सा के दौरान, एक रोगी के धुंधले प्राकृतिक लेन्स को हटा कर उसके स्थान पर एक कृत्रिम लेन्स लगा दिया जाता है ताकि लेन्स की पारदर्शिता को बहाल किया जा सके.[1]
शल्यक्रिया से प्राकृतिक लेन्स को हटाने के बाद एक कृत्रिम आंतराक्षि लेन्स निवेशित किया जाता है (नेत्र शल्य चिकित्सक इसे "लेन्स प्रत्यारोपण” कहते हैं). मोतियाबिंद शल्यक्रिया सामान्यतः एक नेत्र रोग विशेषज्ञ (नेत्र सर्जन) द्वारा शल्य चिकित्सा केंद्र या चिकित्सालय में एक चलनक्षम (अंतः रोगी की बजाय) व्यवस्था में स्थानीय निश्चेतना (या तो स्थानिक, परिनेत्रगोलकीय या पश्चनेत्रगोलकीय) का उपयोग करते हुए, आमतौर पर रोगी को बहुत कम या जरा भी कष्ट दिए बिना की जाती है। बहुत कम जटिलता दर के साथ 90% से काफी अधिक शल्यक्रियाएं उपयोगी दृष्टि बहाल करने में सफल रहती हैं।[2] शीघ्र शल्यकर्मोत्तर स्वास्थ्यलाभ के साथ दिन की देखभाल, भारी संख्या, न्यूनतम प्रसार, छोटा चीरा, लेन्स पायसीकरण (फेकोइमल्सीफिकेशन) दुनिया भर में मोतियाबिंद शल्यक्रिया में देखभाल के मानक बन गए हैं।
वर्तमान में, नेत्ररोग विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले मोतियाबिंद के शल्यक्रिया द्वारा निष्कर्षण के दो मुख्य प्रकार हैं, लेन्स पायसीकरण (फेको) और पारंपरिक बहिर्सम्पुटीय मोतियाबिंद निष्कर्षण (ईसीसीई (ECCE)) . दोनों प्रकार की शल्यक्रिया में एक आंतराक्षि लेन्स का निवेशन किया जाता है। आमतौर पर फेको विधि में वलनीय लेन्स तथा पारंपरिक ईसीसीई (ECCE) विधि में अवलनीय लेन्स का उपयोग किया जाता है। लेन्स पायसीकरण में एक छोटे आकार का चीरा (2-3 एमएम) लगाया जाता है और टांकारहित घाव बंद किया जाता है। ईसीसीई (ECCE) में एक बड़े चीरे (10-12एमएम) का उपयोग होता है और इसलिए आमतौर पर टांकों की आवश्यकता होती है, हालांकि टांकारहित ईसीसीई (ECCE) भी उपयोग में है।
मोतियाबिंद निष्कर्षण की अंतर्सम्पुटी मोतियाबिंद निष्कर्षण (आईसीसीई (ICCE)) विधि का अब बहुत कम इस्तेमाल होता है, उसका स्थान फेको और ईसीसीई (ECCE) ने ले लिया है।
लेन्स पायसीकरण विकसित दुनिया में सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली मोतियाबिंद शल्यक्रिया है। हालांकि, एक लेन्स पायसीकरण मशीन और संबद्ध प्रयोज्य उपकरणों की उच्च लागत के कारण ईसीसीई (ECCE) विकासशील देशों में सबसे अधिक अपनाई जाने वाली प्रक्रिया बनी हुई है।
बहिर्सम्पुटी मोतियाबिंद निष्कर्षण में लगभग समूचे प्राकृतिक लेन्स को हटाया जाता है जबकि लचीले लेन्स सम्पुट (पश्च सम्पुट) को आंतराक्षि लेन्स के प्रत्यारोपण के लिए सुरक्षित छोड़ दिया जाता है।[3] मोतियाबिंद शल्यक्रिया के दो मुख्य प्रकार हैं:
एक दूसरा छोटा यंत्र (कभी कभी इसे एक पटाखा या छुरा भी कहते हैं) का उपयोग पार्श्व पोर्ट से नाभिक के छोटे-छोटे डुकड़े करने के लिेए किया जा सकता है। छोटे टुकड़ों में विखंडन पायसीकरण के साथ ही वल्कुटीय सामग्री (नाभिक के चारों ओर लेन्स का नरम भाग) के चूषण को आसान बना देता है। लेन्स नाभिक और वल्कुटीय सामग्री का पायसीकरण पूर्ण होने के बाद, एक दोहरी धावन-चूषण (आई-ए (I-A)) एषणी या एक द्विहस्तक आई-ए (I-A) प्रणाली का उपयोग शेष परिधीय वल्कुटीय सामग्री के चूषण हेतु किया जाता है।
शीतनिष्कर्षण आईसीसीई (ICCE) का एक रूप है जिमें तरल नाइट्रोजन जैसे शीतक पदार्थ से लेन्स को जमाया जाता है।[4] इस तकनीक में एक शीतनिष्कर्षक के माध्यम से मोतियाबिंद को निकाला जाता है- एक शीतएषणी जिसकी प्रशीतित टिप लेन्स से चिपक जाती है और उसके तंतुओं को जमा देती है जिससे लेन्स को हटाना आसान हो जाता है। हालांकि इसका इस्तेमाल अब मुख्य रूप से आंशिक संधिभ्रंशित लेन्स को हटाने के लिेए ही किया जाता है, यह 1960 के दशक से 1980 के दशक के आरंभ तक मोतियाबिंद निष्कर्षण की पसंदीदा विधि थी।[5]
इसके अतिरिक्त, अमेरिकी (US) एफडीए (FDA) द्वारा अनुमोदित और आइयोनिक्स द्वारा निर्मित[6], अब बॉश एवं लॉम्ब द्वारा निर्मित एक समंजक लेन्स है। क्रिस्टालेन्स (आर) (Crystalens (R)) struts पर है इसे आंख की लेन्स सम्पुटी में प्रत्यारोपित किया जाता है, इसका डिजाइन ऐसा है कि लेन्स की फोकसन मांसपेशियां इसे आगे और पीछे सरकाती हैं, जिससे रोगी को प्राकृतिक फोकसन क्षमता मिलती है।
कृत्रिम आंतराक्षि लेन्स का उपयोग आंख के प्राकृतिक लेन्स को बदलने के लिए किया जाता है, जिसे मोतियाबिंद शल्यक्रिया के दौरान हटा दिया जाता है। इन लेन्सों की लोकप्रियता 1960 के बाद से बढ़ती रही है लेकिन यह तब तक नहीं हुआ जब 1981 में इस प्रकार के उत्पादों के लिए पहला एफडीए (FDA) अनुमोदन जारी नहीं कर दिया गया। आंतराक्षि लेन्स के विकास से दृष्टि की दुनिया में एक नवप्रवर्तन हुआ क्योंकि इनके आने से पूर्व रोगियों के प्राकृतिक लेन्स बदले नहीं जाते थे जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मोटे-मोटे चश्मे लगाने पड़ते थे या विशेष प्रकार के संस्पर्श लेन्स बगवाने होते थे। आजकल आईओएल (IOLs) रोगियों की विभिन्न दृष्टि समस्याओं के लिए विशेष रूप से डिजाइन किए जा रहे हैं। आ़जकल उपलब्ध आईओएल (IOLs) को मुख्य रूप से एकलफोकस और बहुफोकस लेन्सों में विभाजित किया जा सकता है।
एकलफोकस आंतराक्षि लेन्स पारंपरिक लेन्स हैं, जो एक दूरी पर ही दृष्टि प्रदान कर सकते हैं: दूर, मध्यवर्ती, या निकट.[7] वे रोगी जो अधिक विकसित प्रकार के लेन्सों की तुलना में इन लेन्सों को चुनते हैं, तो उन्हें पढ़ने या कंप्यूटर पर काम करने के लिेए चश्मा पहनना पड़ता है या संस्पर्श लेन्स लगवाने होते हैं। ये आंतराक्षि लेन्स आमतौर पर गोलाकार होते है और उनकी सतह समान रूप से मुड़ी होती है।
बहुफोकस आंतराक्षि लेन्स इस प्रकार के लेन्सों के आधुनिकतम प्रकार हैं। वे अक्सर "प्रीमियम" लेन्स के रूप में संदर्भित होते हैं क्योंकि वे बहुफोकस और समंजक होते हैं तथा मरीज को चश्मा पहनने या संस्पर्श लेन्स लगाने की आवश्यकता को समाप्त करते हुए, एकाधिक दूरियों पर वस्तुओं को देखने की सुविधा देते हैं। प्रीमियम आंतराक्षि लेन्स वे लेन्स हैं जिनका उपयोग जरादूरदृष्टि या दृष्टिवैषम्य के सुधार के लिए किया जाता है। प्रीमियम आंतराक्षि लेन्सों को आम तौर पर बीमा कंपनियों द्वारा कवर नहीं किया जाता क्योकि उनके अतिरिक्त लाभों को एक चिकित्सकीय आवश्यकता न मान कर विलासिता माना जाता है।[7] एक समंजक आंतराक्षि लेन्स प्रत्यारोपण का केवल एक फोकस केंद्र होता है, लेकिन यह एक बहुफोकस की भांति कार्य करता है। आंतराक्षि लेन्स को एक चलसंधि के साथ आंख के प्राकृतिक लेन्स की यांत्रिकी के अनुरूप डिजाइन किया गया था।[8]
दृष्टिवैषम्य को सुधारने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आंतराक्षि लेन्स को टॉरिक कहा जाता है और यह एफडीए (FDA) द्वारा 1998 से अनुमोदित है। स्टार सर्जिकल आंतराक्षि लेन्स संयुक्त राज्य अमेरिका में विकसित इस प्रकार का पहला लेन्स था जो 3.5 डाइऑप्टर तक संशोधन कर सकता था। टॉरिक लेन्स का एक भिन्न मॉडल एलकॉन द्वारा बनाया गया है जो दृष्टिवैषम्य को 3 डाइऑप्टर तक संशोधित कर सकता है।
दोनों आंखों की दृष्टि समस्याओं के संशोधन हेतु मोतियाबिंद शल्यक्रिया की जा सकती है और इन मामलों में आम तौर पर रोगियों को एकलदृष्टि पर विचार करने की सलाह दी जाती है। इस प्रक्रिया में एक आंख में एक आंतराक्षि लेन्स निवेशित किया जाता है जो निकट दृष्टि प्रदान करता है तथा दूसरी आंख का आईओएल (IOL) दूर की दृष्टि प्रदान करता है। हालांकि अधिकांश रोगी दोनों आंखों में एकलफोकस लेन्सों के प्रत्यारोपण को समायोजित कर सकते हैं, जबकि कई लोग समायोजन न कर पाने के कारण निकट व दूर की दोनों धुंधली दृष्टियां अनुभव कर सकते हैं। संशोधित एकलदृष्टि प्राप्त करने के लिए दूर दृष्टि आईओएल (IOLs) को मध्यवर्ती दृष्टि वाले आईओएल (IOL) के साथ मिला देना चाहिए. 2004 में बॉश और लॉम्ब ने पहला अगोली आईओएल (IOL) विकसित किया जो लेन्स के मध्य भाग की तुलना में परिधि के सपाट होने के कारण बेहतर विपर्यास संवेदनशीलता प्रदान करता है। हालांकि, कुछ मोतियाबिंद शल्य चिकित्सक अगोली आईओएल (IOL) के लाभों पर बहस करते है, क्योंकि विपर्यास संवेदनशीलता बड़ी उम्र के रोगियों में अधिक समय तक नहीं रहती.[7]
नए आरंभ किए गए कुछ आईओएल (IOL) पराबैंगनी और नीले प्रकाश से सुरक्षा प्रदान करते हैं। आँख के मणिभ इन हानिकारक किरणों को छान देते हैं और कई प्रीमियम आईओएल (IOLs) इस कार्य को करने के लिए अच्छी तरह से डिजाइन किए गए हैं। हालांकि कुछ अध्ययनों के अनुसार, इन लेन्सों को दृष्टि की गुणवत्ता में गिरावट के साथ संबद्ध किया जाता है।
आंतराक्षि लेन्स का एक अन्य प्रकार प्रकाश समायोज्य है जो अभी एफडीए के नैदानिक परीक्षण के दौर से गुजर रहा है। इस विशेष प्रकार के आईओएल (IOL) को आंखों में प्रत्यारोपित किया जाता है और फिर लेन्स की वक्रता में परिवर्तन करने के लिए एक निश्चित तरंग दैर्घ्य के प्रकाश के साथ इसे उपचारित किया जाता है।
कुछ मामलों में, शल्य चिकित्सक पहले से प्रत्यारोपित लेन्स पर एक अतिरिक्त लेन्स लगाने का विकल्प भी चुन सकते हैं। इस प्रकार की आईओएल (IOL) प्रक्रिया को "पिगीबैक" आईओएल (IOL) कहा जाता है और आमतौर पर जब पूर्व लेन्स प्रत्यारोपण के परिणाम इष्टतम नहीं होते है तब इसे एक विकल्प माना जाता है। ऐसे मामलों में, पूर्व में प्रत्यारोपित लेन्स को बदलने की अपेक्षा विद्यमान आईओएल (IOL) लेन्स के ऊपर एक और आईओएल (IOL) लेन्स प्रत्यारोपित करना अधिक सुरक्षित माना जाता है। इस विधि का उपयोग उन रोगियों में भी किया जा सकता है जिन्हें उच्च स्तरीय दृष्टि सुधार की आवश्यकता है।
सांख्यिकीय रूप से, जब आंखों की देखभाल की बात आती है तो मोतियाबिंद शल्यक्रिया और आईओएल (IOL) प्रत्यारोपण सबसे सुरक्षित और सर्वोच्च सफलता दर वाली शल्यक्रियाएं हैं। शल्य चिकित्सा के किसी भी अन्य प्रकार के अनुरूप इसमें भी कुछ खतरे तो हैं ही. लागत इन लेन्सों का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। यद्यपि अधिकांश बीमा कंपनियां आईओएल (IOLs) की पारंपरिक लागत को कवर करती है, प्रीमियम लेन्स जैसे और अधिक उन्नत लेन्स का चुनाव करने वाले रोगियों को कीमतों में अंतर का भुगतान करना पड़ सकता है।[9]
मोतियाबिंद की मौजूदगी की पुष्टि करने तथा शल्यक्रिया के लिए मरीज की उपयुक्तता तय करने के लिए एक नेत्र-सर्जन द्वारा नेत्र-परीक्षण और शल्यकर्मपूर्व मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है। रोगी को कुछ आवश्यकताएं पूर्ण करनी होंगी जैसे:
मोतियाबिंद को हटाने के लिए लेन्स पायसीकरण की शल्य प्रक्रिया में कई चरण शामिल है। वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए हर कदम सावधानी से और कुशलता से क्रियान्वित होना चाहिए. चरणों का वर्णन निम्न प्रकार है:
मोतियाबिंद को अच्छी तरह देखने के लिए दवा की बूंदें डाल कर फैलाया जाता है (यदि आईओएल को परितारिका के पाछे रखा जाना है). पुतली संकुचन दवा की बूंदें परितारिका के सामने आईओएल (IOL) के द्वित्तीयक प्रतायारोपण के लिए सुरक्षित रख दी जाती है (यदि प्राथमिक आईओएल (IOL) के प्रत्यारोपण के बिना ही मोतियाबिंद पहले निकाला जा चुका है). निशचेतना स्थानिक (आंख की दवा की बूंदें) या आंख के आगे (परिनेत्रगोलकीय) अथवा पीछे (पश्चनेत्रगोलकीय) इंजेक्शन द्वारा दी जा सकती है। तनाव को कम करने के लिए मौखिक या अन्तःशिराभ शमन का उपयोग भी किया जा सकता है। सामान्य निश्चेतना की शायद ही कभी आवश्यकता होती है, लेकिन बच्चों और विशेष चिकित्सा या मनोरोग मामलों के वयस्कों के लिए नियोजित की जा सकती है। शल्यक्रिया एक स्ट्रेचर या एक अधलेटी परीक्षण कुर्सी पर हो सकती है। पलकों और आसपास की त्वचा को निस्संक्रामक के साथ फाहे से पोंछा जाएगा. शल्यक्रियाधीन आँख के लिए खुला छिद्र छोड़कर चेहरे को एक कपड़े या चादर से ढक दिया जाता है। शल्यक्रिया के दौरान पलक ना झपकें इसके लिए वीक्षक की सहायता से पलकों को खुला रखा जाता है। आमतौर पर सही ढंग से निश्चेतन आंख में दर्द न्यूनतम होता है, हालांकि एक दबाव की अनुभूति, सूक्ष्मदर्शी के चमकदार प्रकाश के कारण कुछ असुविधा अनुभव होना आम है। निर्जीवाणुकृत लवणयुक्त बूंदें या मिथाइलसेलुलोज आंख की ड्रॉप्स का उपयोग करके आंख की सतह को नम रखा जाता है। आँख के लेन्स में जहां नेत्रपटल और श्वेतपटल मिलते हैं वहां चीरा लगाया जाता है। छोटे चीरे का लाभ यह है कि टांके या तो लगते ही नहीं या बहुत कम लगते हैं तथा ठीक होने में समय कम लगता है।[3][11] सम्पुटछेदन (शायद ही कभी मूत्राशयछिद्रीकरण रूप में जाना जाता है) लेन्स सम्पुट के एक भाग को मूत्राशयछेदक नामक उपकरण का उपयोग करके खोलने की प्रक्रिया है।[12] अग्रभाग सम्पुटछेदन लेन्स सम्पुट के सामने का भाग खोलने को तथा पश्च सम्पुटछेदन लेन्स सम्पुट का पिछला भाग खोलने को कहते हैं। लेन्स पायसीकरण में, शल्यचिकित्सक अग्रभाग में एक सतत गोलाकार चीरा लगाकर एक गोल चिकना मुख बनाया जाता है जिसमें से लेन्स नाभिक को पायसीकृत किया जाता है और आंतराक्षि लेन्स प्रत्यारोपित किया जाता है।
मोतियाबिंद हटाने (ईसीसीई (ECCE) या लेन्स पायसीकरण के द्वारा, जैसा कि ऊपर वर्णित है) के बाद, आमतौर पर एक आंतराक्षि लेन्स का निवेशन किया जाता है। आईओएल (IOL) डालने के बाद, शल्यचिकित्सक जांच करता है कि घाव में से तरल पदार्थ रिस तो नहीं रहा है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि घाव से रिसाव अवांछित सूक्ष्मजीवों के आंख तक पहुंच के खतरे को बढ़ा देता है तथा अंतर्नेत्रशोथ का खतरा बढ़ जाता है। एक प्रतिजैविक/स्टेरॉयड संयोजन की बूंदें आंख में डाली जाती हैं और शल्यक्रिया वाली आंख पर कवच लगा दिया जाता है, कभी कभी आंख को एक पर्दे से ढक दिया जाता है।
प्रतिजैविक दवाएं शल्यक्रिया-पूर्व, अंतर-शल्यक्रिया और/या शल्यकर्मोत्तर दी जा सकती हैं। अक्सर एक स्थानिक कोर्टिकोस्टेरॉयड स्थानिक प्रतिजैविक के साथ संयोजन में शल्यकर्मोत्तर दिया जाता हैं।
अधिकतर मोतियाबिंद शल्यक्रियाएं स्थानीय निश्चेतक के अधीन की जाती हैं, जिससे रोगी उसी दिन अपने घर जा सकता है। सामान्यतः कुछ घंटों के लिए आंख पर पर्दे का उपयोग करने के लिए कहा जाता है, जिसके बाद मरीज को सूजन रोकने के लिए आंख में डालने की दवा तथा संक्रमण रोकने के लिए प्रतिजैविक का उपयोग शुरू करने के लिए कहा जाता है।
कभी कभी, पुतली अवरोधक कांचबिंदु के खतरे को न्यूनतम करने के लिए एक परिधीय परितारिका-उच्छेदन निष्पादित किया जाता है। परितारिका में से एक छिद्र हाथ से बनाया जा सकता है (शल्य परितारिका-उच्छेदन) या एक लेजर के साथ (जिसे वाईएजी-लेजर परितारिकाछेदन (YAG-laser iridotomy)) कहा जाता है। लेजर परिधीय परितारिकाछेदन मोतियाबिंद शल्यक्रियासे पहले या मोतियाबिंद शल्यक्रिया के बाद किया जा सकता है।
लेजर की बजाय हाथ से किए गए परितारिका उपच्छेदन का छिद्र बड़ा होता है। जब शल्य प्रक्रिया हाथ से की जाती है तो कुछ नकारात्मक पक्षीय प्रभाव, जैसे कि परितारिका का खुला मुख दूसरों के द्वारा देखा जा सकता है (सौंदर्यशास्त्र) और नए छेद के माध्यम से प्रकाश आंख में जा सकता है जिससे कुछ दृष्टि संबंधी गड़बड़ी पैदा हो सकती है। दृष्टि संबंधी गड़बड़ियों के मामले में, आँख और मस्तिष्क अक्सर क्षतिपूर्ति करना सीख जाते हैं और दो महीने बाद गड़बड़ियों को अनदेखा करने लगते हैं। कभी कभी परिधीय परितारिका का छिद्र भर जाता है, जिसका अर्थ है कि अब छिद्र का अस्तित्व ही नीं रहा. इस कारण सर्जन कभी कभी दो छेद बना देते हैं, ताकि कम से कम एक छेद खुला रहे.
शल्यक्रिया के बाद, रोगी को (आंख की सूजन की स्थिति तथा कुछ अन्य कारकों के आधार पर) शोथरोधी तथा प्रतिजैविक आंख की ड्रॉप्स का दो सप्ताह तक उपयोग करने के लिए कहा जाता है। नेत्र सर्जन, प्रत्येक रोगी के प्रकृतिवैशिष्ट्य के आधार पर निर्णय करेगा कि ड्रॉप्स का उपयोग कब तक करना है। आंख ज्यादातर एक सप्ताह के अंदर ठीक हो जाती है और पूरी तरह से एक महीने के अंदर ठीक हो जानी चाहिए. जब तक नेत्र सर्जन द्वारा ऐसा करने की मंजूरी न दे दी जाए, संपर्क/जोखिम वाले खेलों में भाग नहीं लेना चाहिए.
मोतियाबिंद शल्यक्रिया के उपरांत जटिलताओं का होना अपेक्षाकृत असामान्य हैं।
मोतियाबिंद सर्जरी का पहली बार उल्लेख बेबीलोनियन कोड हम्मुराबी 1750 ईसा पूर्व में किया गया था।[14][15]
भारतीय चिकित्सक सुश्रुत को मोतियाबिंद शल्यक्रिया का ज्ञान था (छठी शताब्दी ई.पू.) जिन्होंने अपनी पुस्तक सुश्रुत संहिता में इस का वर्णन किया था। इस पाठ में एक शल्यक्रिया “काउचिंग” का वर्णन है, जिसमें एक मुड़ी हुई सूई का उपयोग लेन्स को दृष्टि क्षेत्र से बाहर, आंख के पिछले भाग में धकेलने के लिए किया जाता था इसके बाद आँख में शुद्ध गर्म घी लगाकर पट्सेटी कर दी जाती थी। सुश्रुत ने इस विधि के साथ सफलता का दावा किया था लेकिन चेताया भी था कि इस प्रक्रिया का उपयोग चरम आवश्यकता होने पर ही किया जाना चाहिए.[16][17][verification needed] चीन में शल्यक्रिया द्वारा मोतियाबिंद को हटाने की विधि भारत से पहुंची थी।[18]
पश्चिमी दुनिया में मोतियाबिंद शल्यक्रिया में काम आने वाले कुछ कांस्य उपकरण बेबीलोनिया, मिस्र और यूनान में खुदाई में प्राप्त हुए हैं। पश्चिम में मोतियाबिंद और इसके इलाज के पहले संदर्भ 29ई. में लैटिन विश्वकोष संकलनकर्ता ऑलस कॉर्नेलिअस सेल्सस की पुस्तक डि मेडिसिने में मिलते हैं, जिसमें काउचिंग शल्यक्रिया का भी वर्णन है।[19]
संपूर्ण मध्य युग में काउचिंग का उपयोग होता रहा था और अफ्रीका के कुछ भागों तथा यमन में अभी भी इसका उपयोग होता है।[20][21] हालांकि, काउचिंग मोतियाबिंद चिकित्सा की एक अप्रभावी तथा खतरनाक विधि है और इसके परिणाम में मरीज अक्सर अंधे या आंशिक दृष्टि के साथ रह जाते हैं।[21] अधिकांश रूप से, यह अब परिसम्पुटछेदन मोतियाबिंद शल्यक्रिया और विशेष रूप से, लेन्स पायसीकरण द्वारा प्रतिस्थापित हो चौकी है।
लेन्स को एक खोखले उपकरण के माध्यम से चूषण द्वारा भी हटाया जा सकता है। कांस्य मौखिक चूषण उपकरण पाए गए हैं, संभवतः जिनका उपयोग दूसरी शताब्दी ईस्वी में मोतियाबिंद निष्कर्षण की इस विधि में किया जाता था।[22] इस तरह की एक प्रक्रिया का वर्णन 10वीं शताब्दी के पारसी चिकित्सक मोहम्मद इब्न जकारिया अल-रजी ने किया है, जिन्होंने इसका श्रेय दूसरी शताब्दी के यूनानी चिकित्सक एंटाइलस को दिया. इस प्रक्रिया में "आंख में एक बड़े चीरे, एक खोखली सूई और फेफड़ों की असाधारण क्षमता वाले एक सहायक की आवश्यकता होती थी”.[23] मोसुल के इराकी नेत्र चिकित्सक अम्मार इब्न अली ने भी 10वीं शताब्दी में लिखी अपनी पुस्तक नेत्र रोग चिकित्सा के विकल्प में किया था।[23] उसने अनेक रोगियों में इसकी सफलता का दावा करते हुए व्यक्ति वृत्त भी प्रस्तुत किए.[23] लेन्स निकालने का लाभ लेन्स के दृष्टि क्षेत्र में पलायन की संभावना को दूर करना है।[24] 14वीं शताब्दी में मिस्र में, नेत्र विशेषज्ञ अल-शाधिली के अनुसार मोतियाबिंद सुई के एक बाद के रूपांतरण में चूषण के लिए एक पेच का उपयोग किया जाता था। यह तथापि, यह स्पष्ट नहीं है, कि इस पद्धति का कितना इस्तेमाल हुआ क्योंकि अबू अल-कासिम अल-जवाहिरी और अल-शाधिली सहित अन्य लेखकों ने इस प्रक्रिया में अनुभव की कमा बताई और दावा किया कि यह अप्रभावी थी।[23][verification needed]
1748 में, जैक डेविअल पहले आधुनिक यूरोपीय चिकित्सक थे जिन्होंने सफलतापूर्वक आँख से मोतियाबिंद निकाला था। 1940 के दशक में हेरोल्ड रिडले ने आंतराक्षि लेन्स के प्रत्यारोपण की अवधारणा प्रस्तुत की जिसके कारण मोतियाबिंद शल्यक्रिया के बाद अधिक कुशल तथा सहज दृश्य पुनर्वास संभव हुआ। वलनीय आंतराक्षि लेन्स के प्रत्यारोपण को अत्याधुनिक विधि माना जाता है।
1967 में, चार्ल्स केलमैन ने बड़े चीरे के बिना मोतियाबिंद को हटाने के लिए मणिभ लेंस के नाभिक के पायसीकरण हेतु पराध्वनि किरणों का उपयोग करने वाली तकनीक लेंस पायसीकरण पेश की. शल्य चिकित्सा की इस नई विधि ने अस्पताल में लंबे समय तक ठहरने की आवश्यकता को कम किया है और शल्य चिकित्सा को चलनक्षम बनाया है। मोतियाबिंद शल्यक्रिया से गुजरने वाले रोगी मुश्किल से ही प्रक्रिया के दौरान दर्द या बेचैनी की शिकायत करते हैं। हालांकि परिकंदीय अवरोध के बजाय, जो स्थानिक निश्चेतना के रोगियों को कुछ परेशानी का अनुभव हो सकता है।
मोतियाबिंद और अपवर्तक शल्यक्रिया की अमेरिकन सोसायटी के सदस्यों के सर्वेक्षण के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में 2004 के दौरान लगभग 28.5 लाख तथा 2005 में 27.9 लाख मोतियाबिंद शल्यक्रियाएं की गईं.[25]
भारत शल्यक्रिया के पुराने तरीकों को सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रायोजित नेत्र शल्यचिकित्सा शिविरों में आंतराक्षि लेन्स प्रत्यारोपण की आधुनिक तकनीक ने प्रतिस्थापित कर दिया है।
सबसे कम उम्र के व्यक्ति की शल्यक्रिया 31 अक्टूबर 1995 को उत्तरी अमेरिका में वैंकूवर, ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा में हुई थी।
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