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भारत के एचएएल द्वारा बनाई गई विमान वाहक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
तेजस भारत द्वारा विकसित किया जा रहा एक हल्का व कई तरह की भूमिकाओं वाला जेट लड़ाकू विमान है। यह हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) द्वारा विकसित एक सीट और एक जेट इंजन वाला, अनेक भूमिकाओं को निभाने में सक्षम एक हल्का युद्धक विमान है। यह बिना पूँछ का, कम्पाउण्ड-डेल्टा पंख वाला विमान है। इसका विकास 'हल्का युद्धक विमान' या (एलसीए) नामक कार्यक्रम के अन्तर्गत हुआ है जो 1980 के दशक में शुरू हुआ था। विमान का आधिकारिक नाम तेजस 4 मई 2003 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रखा था।[7] यह विमान पुराने पड़ रहे मिग-21 का स्थान लेगा।
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तेजस | |
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एलसीए तेजस | |
प्रकार | बहुपयोगी लड़ाकू विमान |
उत्पत्ति का देश | भारत |
उत्पादक | हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL, हाल) |
अभिकल्पनाकर्ता | वैमानिकी विकास संस्था |
प्रथम उड़ान | 4 जनवरी 2001[1] |
परिचय | 17 जनवरी,2015[2] |
स्थिति | सेवा में |
प्राथमिक उपयोक्ता | भारतीय वायुसेना |
निर्मित | 2001 से अब तक |
निर्मित इकाई | 37, मार्च 2021 तक [3] |
कार्यक्रम लागत | US$1.2 अरब[4] |
इकाई लागत | US$310 लाख[5] US$310.9 लाख (नौसेना संस्करण)[6] |
के रूप में विकसित किया गया | एचएएल तेजस मार्क 2 हाल टीईडीबीएफ |
तेजस की सीमित श्रृंखला का उत्पादन 2007 में शुरू हुआ। दो सीटों वाला एक ट्रेनर संस्करण विकसित किया जा रहा है (नवम्बर 2008 तक उत्पादन के क्रम में था।), क्योंकि इसका नौसेना संस्करण भारतीय नौसेना के विमान वाहक पोतों से उड़ान भरने में सक्षम है। बताया जाता है कि भारतीय वायु सेना को एकल सीट वाले 200 और दो सीटों वाले 20 रूपांतरण प्रशिक्षक विमानों की जरूरत है, जबकि भारतीय नौसेना अपने सी हैरियर की जगह एकल सीटों वाले 40 विमानों का आदेश दे सकती है।[8]
१ जुलाई २०१६ को भारतीय वायुसेना की पहली तेजस यूनिट का निर्माण किया गया, जिसका नाम 'नम्बर ४५ स्क्वाड्रन आई ए एफ फ्लाइंग ड्रैगर्स' है। 1 अप्रैल 2020 में भारतीय वायुसेना की दूसरी तेजस स्क्वाड्रन का निर्माण किया। इससे स्क्वाड्रन का नाम 'नम्बर 18 स्क्वाड्रन आई ए एफ फ्लाईं बुलेट'। ये दोनो स्क्वाड्रन सुलूर में स्थापित है।
एलसीए कार्यक्रम 1983 में दो प्राथमिक उद्देश्यों के लिए शुरू किया गया था। प्रमुख और सबसे स्पष्ट लक्ष्य भारत के पुराने पड़ते जा रहे मिकोयान-गुरेविच मिग-२१ (नाटो द्वारा दिया गया नाम-'फिशबेड') की जगह लेने वाले विमान का विकास करना था। 1970 के दशक के बाद से मिग-21 भारतीय वायु सेना का मुख्य आधार रहा है, लेकिन प्रारंभिक उदाहरण 1983 में लगभग 20 साल पुराने हो गये थे। "लौंग टर्म रि-इक्विपमेंट प्लान 1981" के जरिये यह दर्ज हुआ कि 1990 के दशक के अंत तक मिग-21 के सेवा जीवन का अंत हो जायेगा और 1995 तक भारतीय वायु सेना को अपने बल की अनुमानित ढांचागत जरूरतों को पूरा करने के लिए 40% विमानों की कमी पड़ेगी।[9]
एलसीए के कार्यक्रम का अन्य मुख्य उद्देश्य भारत के घरेलू एयरोस्पेस उद्योग की चौतरफा उन्नति के वाहक के रूप में कार्य करना था।[10] 1947 में स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद, भारतीय नेताओं ने विमानन और अन्य सामरिक उद्योगों में आत्मनिर्भरता कायम करने का एक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किया। एयरोस्पेस की "आत्मनिर्भरता" की पहल का महत्व केवल एक विमान के निर्माण का ही नहीं है, बल्कि स्थानीय उद्योग को स्टेट ऑफ ऑर्ट उत्पादों के निर्माण के काबिल बनाना और वैश्विक बाजार में वाणिज्यिक पहचान से लैस करना है। एलसीए कार्यक्रम का उद्देश्य आधुनिक उड्डयन प्रौद्योगिकियों के विस्तृत दायरे में भारत के स्वदेशी एयरोस्पेस क्षमताओं को और विस्तारित करना और समुन्नत करना है।[11]
इन लक्ष्यों को बेहतर ढंग से पूरा करने के लिए सरकार ने प्रबंधन का एक अलग दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया है और एलसीए के कार्यक्रम के प्रबंधन के लिए 1984 में वैमानिकी विकास एजेंसी (ऍडा) की स्थापना की। हालांकि, तेजस को अक्सर हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (हिएलि) का उत्पाद कहा जाता रहा है, पर तेजस् के विकास की जिम्मेदारी वास्तव में एडा की है, जो 100 से अधिक रक्षा प्रयोगशालाओं, औद्योगिक संगठनों और अकादमिक संस्थानों का एक राष्ट्रीय संघ है और हिएलि जिसका मुख्य ठेकेदार है।[12] NDA औपचारिक रूप से भारतीय रक्षा मंत्रालय के रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) के तत्वावधान में आता है।
एलसीए के लिए भारत सरकार की "आत्मनिर्भरता" के लक्ष्य में तीन सबसे परिष्कृत और सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण प्रणालियां- फ्लाई बाइ वायर (FBW) उड़ान नियंत्रण प्रणाली (FCS), बहु आयामी पल्स-डॉपलर (ध्वनि व प्रकाश तरंगों को मापने वाला) रडार और आफ्टर बर्निंग टर्बो फैन इंजन शामिल हैं।[13] हालांकि भारत एलसीए कार्यक्रम में विदेशी भागीदारी को काफी सीमित रखने की नीति का पालन करता है, केवल हिएलि की प्रमुख प्रणालियों के संबंध में ऍडा ने महत्वपूर्ण विदेशी तकनीकी सहायता और परामर्श आमंत्रित किया है। इसके अलावा, इंजन और रडार ही केवल प्रमुख प्रणालियां हैं, जिनके संबंध में ऍडा ने गंभीरता से विदेशी उपकरण प्रतिस्थापन्न की बात सोची, हालांकि यह शुरुआती एलसीए विमान के लिए उठाये गये अंतरिम उपाय थे, जिसमें देशी संस्करण के पूर्ण विकास के लिए और अधिक समय की जरूरूत थी, जैसा कि एलसीए कावेरी बिजली संयंत्र के मामले में हुआ था।
विमानन प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने की दृष्टि से एलसीए कार्यक्रम की महत्वाकांक्षा इस वास्तविकता से उजागर होती है कि प्रमुख 35 उड्डयन उपकरणों और लाइन रिप्लेशेबल यूनिटों (LRUs) में से केवल तीन में विदेशी प्रणालियां शामिल हैं। इनमें मल्टी फंक्शन डिस्प्लेज (MFDs) सेक्सेंट (फ्रांस) और एल्बिट (इज़राइल) से, हेलमेट-माउंटेड डिस्प्ले एंड साइट (HMDS) सिगनल प्रणाली एल्विट से और लेसर पॉड की आपूर्ति राफेल (कंपनी) (इज़राइल) द्वारा आपूर्तित की जाती है। जब एलसीए उत्पादन के स्तर तक पहुंचेगा, यहां तक कि इन तीन में से MFDs की आपूर्ति संभवत: भारतीय कंपनियां करने लगेंगी। कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपकरणों के आइटम (जैसे बाहर निकलने में सक्षम मार्टिन बेकर सीट) का आयात किया गया है। मई 1998 में परमाणु हथियारों के परीक्षणों के बाद भारत पर लगाए गए प्रतिबंध के परिणामस्वरूप मूल रूप से कई महत्वपूर्ण मदों, जैसे लैंडिंग गियर, के आयात की योजना बनाई गई थी, इसके बावजूद इन्हें देश में ही विकसित किया गया।
एलसीए के कार्यक्रम की शुरुआत में ऍडा द्वारा पहचान की गई पांच महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों, जिनकी "पूरी तरह से स्वदेशी "लड़ाकू विमान की संरचना और निर्माण में भारत सक्षम हो सकता था, में से दो पूरी तरह सफल रहे- समुन्नत कार्बन-फाइबर कंपोजिट (CFC) संरचनाओं व स्किन (विशेष रूप से एक पंख के आकार के आदेश पर) का विकास और निर्माण और एक आधुनिक "ग्लास कॉकपिट." वास्तव में, ऍडा की एकीकृत स्वचालित सॉफ्टवेयर प्रणाली में एक लाभदायक व्यावसायिक तानाबाना है, जिसकी मदद से 3-डी आवरण वाले कंपोजिट तत्वों की संरचना व विकास (जो एयरबस व इन्फोसिस दोनों के लिए हैं) किया जा सकता है।[13] अन्य तीन प्रमुख प्रौद्योगिकी पहल के रास्ते में आई समस्याओं की छाया में इन कामयाबियों की तरफ ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं गया है। बहरहाल, भारत के घरेलू उद्योगों की कामयाबियों के परिणामस्वरूप एलसीए के 70 प्रतिशत पुर्जे भारत में बन रहे हैं और आने वाले वर्षों में आयातित उपकरणों के उपयोग पर भारत की निर्भरता धीरे-धीरे कम हो जायेगी।[14]
1955 में, HT-2 कार्यक्रम [a]इससे मिले अनुभव के आधार पर और डि हैविलैंड वैम्पायर एफबी.52 और टी.55 के लाइसेंसी उत्पादन मिलने से प्राप्त हुईं निर्माण क्षमताओं के कारण हिएलि ने एक एयर स्टाफ रिक्वायरमेंट (ASR) की चुनौती स्वीकार की। इससे कई भूमिकाओं वाले एक लड़ाकू विमान की आवश्यकता महसूस हुई जो ज्यादा ऊंचाई पर अवरोधन कर सके और कम दूरी पर रह कर जमीनी हमले के लिए उपयुक्त हो। ASR को इसकी भी आवश्यकता थी कि मूल संरचना एक उन्नत प्रशिक्षक के रूप में और जहाज़ आपरेशन अनुकूलन के लिए उपयुक्त हो, हालांकि इस विकल्प को बाद में छोड़ दिया गया। परिणामस्वरूप भारत के पहले घरेलू विकसित जेट लड़ाकू, सबसोनिक HF-24 मारुत का निर्माण हुआ, जिसने सबसे पहले जून 1961 में उड़ान भरी। एक उपयुक्त टर्बोजेट इंजन के विकास और इसे हासिल करने में समस्याओं की वजह से मारुत को 1967 तक भारतीय वायु सेना में शामिल नहीं किया जा सका. इस बीच, हिएलि ने फालैंड जीनैट एफ.1 के विकास और परीक्षण पूरा करने का अतिरिक्त अनुभव हासिल किया, जिसका 1962 से 1974 से उत्पादन लाइसेंस के तहत हुआ और जिससे इसने बाद में एक ज्यादा संशोधित संस्करण जीनैट एमकेII अजीत HJT-16 किरण टर्बोजेट प्रशिक्षक विकसित किये, जो 1968 में सेवा में शामिल किया गया।
1969 में, भारत सरकार ने अपनी एयरोनॉटिक्स समिति की इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया कि हिएलि को एक क्षमता साबित कर चुके इंजन के साथ उन्नत प्रौद्योगिकी वाले लड़ाकू विमान संरचना व विकसित करने चाहिए. 'टैक्टिकल एयर सपोर्ट एयरक्राफ्ट` के आधार पर ASR चिह्नित रूप में मारुत[15] जैसा ही था। इसके बाद हिएलि ने 1975 में संरचना का अध्ययन पूरा किया, लेकिन विदेशी निर्माताओं से चुने हुए "क्षमता सिद्ध इंजन" हासिल करने में असमर्थता के कारण यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी। चूंकि अजीत अटैक विमान का उत्पादन जारी है, जिससे हिएलि के इंजीनियरों के लिए संरचना का काम थोड़ा ही बचा, जबकि माध्यमिक हवाई समर्थन और अवरोधन क्षमता के साथ हवा में श्रेष्ठता वाले लडा़कू विमान की भारतीय वायु सेना की आवश्यकता अधूरी ही रह गई।
1983 में DRDO ने एक हल्के लड़ाकू विमान की संरचना और विकास का कार्यक्रम शुरू करने की अनुमति प्राप्त की और इस तरह केवल इस बार एक अलग प्रबंधन दृष्टिकोण अपनाया गया। 1984 में, एलसीए कार्यक्रम प्रबंधन के लिए एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी(वैमानिकी विकास एजेंसी) स्थापित की गई। ऍडा एक प्रभावी "राष्ट्रीय संघ" है, जिसका हिएलि प्रमुख भागीदार है। हिएलि प्राथमिक ठेकेदार के रूप में कार्य करता है और उसकी एलसीए की संरचना, प्रणाली एकीकरण, एयरफ्रेम विनिर्माण, विमान को अंतिम रूप से तैयार कर, उड़ान परीक्षण, सेवा से संबंधित समर्थन का अग्रणी दायित्व है।[12] स्वयं ऍडा के पास एलसीए के एवियोनिक्स सुइट (उड्डयन में लगने वाले इलेक्ट्रानिक उपकरण) और उड़ान नियंत्रण, पर्यावरण संबंधी नियंत्रण, विमान उपयोगिता प्रणाली प्रबंधन, भंडार प्रबंधन प्रणाली आदि के साथ एकीकरण की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
एलसीए के लिए एक स्वदेशी उड़ान नियंत्रण प्रणाली, रडार और इंजन के विकास को विशेष महत्व की पहल के रूप में देखा जा सकता है। नैशनल एयरोनॉटिक्स लेबोरेटरीज (NAL), जो अब नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरीज के नाम से जाना जाता है, को उड़ान नियंत्रण कानूनों के विकास का नेतृत्व करने के लिए चुना गया, जिसे एरोनोटिकल डेवेलपमेंट इस्टेब्लिसमेंट (ADE) का समर्थन हासिल था, जिसके जिम्मे एकीकृत फ्लाई बाई एयर (FCS) का विकास है। हिएलि और इलेक्ट्रॉनिक्स एंड रडार डेवलपमेंट इस्टेब्लिसमेंट (LRDE)[16] संयुक्त रूप से तेजस् के बहु आयामी रडार प्रणाली (MMR) विकसित कर रहे हैं।गैस टर्बाइन रिसर्च इस्टेब्लिसमेंट (GTRE) के पास तेजस् के लिए GTX 35VS कावेरी आफ्टर बर्निंग टर्बोफैन इंजन की संरचना व समानांतर विकास का दायित्व है, जो कावेरी के उपलब्ध होने तक जनरल इलेक्ट्रिक F404 टर्बोफैन का एक अंतरिम बिजली संयंत्र के रूप में उपयोग करेगा.
एलसीए के लिए भारतीय वायु सेना के हवाई कर्मचारियों की अक्टूबर 1985 तक पूरी नहीं हो पाई थी। इस देरी से मूल कार्यक्रम छिन्न-भिन्न हो गया और पहली उडा़न अप्रैल 1990 में हुई और अप्रैल 1995 में इसे सेवा में लिया गया, हालांकि, यह देर एक वरदान साबित हो सकती है, क्योंकि इससे ऍडा को राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास और औद्योगिक संसाधन, भर्ती कर्मियों को, बुनियादी ढांचा तैयार करने जैसे कामों को क्रमवार करने और एक स्पष्ट दृष्टिकोण हासिल करने के लिए समय मिला, जिससे कि उन्नत प्रौद्योगिकियों देश में ही विकसित किया जा सके और आयात की आवश्यकता न पड़े.
परियोजना परिभाषा (PD) अक्टूबर 1987 में शुरू हुई और 1988 के सितंबर में इसे पूरा किया गया। PD की समीक्षा करने और अपनी व्यापक विमानन विशेषज्ञता के आधार पर सलाह देने के लिए फ्रांस के डासल्ट एविएशन को सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया। विमान की संरचना और विकास की प्रक्रिया में PD चरण एक प्रारंभिक महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि इससे विस्तृत संरचना, विनिर्माण दृष्टिकोण और रखरखाव संबंधी आवश्यकताओं के प्रमुख तत्वों के परिणाम निकले. इसके अलावा, इसी बिंदु पर समग्र कार्यक्रम लागत को सबसे प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जाता है। संरचना आवश्यकताओं, क्षमताओं और सुविधाओं में बदलावों को लागू करने की लागत तेजी से बढ़ती जाती है और शुरू किये जाने के समय की तुलना में विकास का ग्राफ नीचे गिरने लगता है और जिससे कार्यक्रम को पूरा करने में अधिक समय और लागत की संभावना रहती है।
एलसीए संरचना को 1990 में अंतिम रूप दिया गया और "रिलैक्स स्टेटिक स्टेबिलिटी" (RSS) के साथ यह एक छोटे डेल्टा पंख वाली मशीन के रूप में था, जिससे कि युद्ध कौशल में भूमिका बढ़ाई जा सके. लगभग तुरंत बाद ही उड्डयन के इलेक्ट्रानिक उपकरणों और उन्नत समग्र ढांचे जैसे कुछ निर्दिष्ट कारणों से थोड़ी चिंता हुई और भारतीय वायु सेना को संदेह हुआ कि एक ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजना के समर्थन के लिए भारत के पास पर्याप्त बुनियादी ढांचा है भी या नहीं. मई 1989 में एक सरकारी समीक्षा समिति का गठन किया गया, जिसने एक आम राय यह दी कि भारत के पास परियोजना शुरू करने के लिए बुनियादी ढांचे, सुविधाओं और प्रौद्योगिकी के अधिकतर क्षेत्रों में अधिक पर्याप्तता है। हालांकि, दूरदर्शिता के एक कदम के रूप में यह निर्णय लिया गया कि कार्यक्रम के पूर्ण पैमाने पर इंजीनियरिंग के विकास (FSED) के स्तर को दो चरणों में आगे बढ़ना होगा.
चरण-एक "अवधारणा के सबूत" पर ध्यान केंद्रित करेगा और इसमें दो प्रौद्योगिकी प्रदर्शक विमानों (TD-1 और TD-2) की संरचना, विकास और परीक्षण (DDT) और एक संरचनात्मक नमूना परीक्षण (STS) एयरफ्रेम का गठन शामिल होंगे और TD विमान के सफल परीक्षण के बाद ही भारत सरकार एलसीए संरचना को अपना पूरा समर्थन देगी. इसके बाद दो प्रोटोटाइप वाहनों (PV-1 और PV-2) का निर्माण और विमान के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे और परीक्षण सुविधाओं का निर्माण शुरू होगा. दूसरे चरण में तीन और प्रोटोटाइप वाहनों (PV-3 उत्पादन संस्करण के रूप में, PV-4 नौसेना संस्करण के रूप में और PV-5 ट्रेनर उपादानों के रूप में) का निर्माण, एक कठिन परीक्षण नमूना और विभिन्न केंद्रों पर विकास व परीक्षण की सुविधाएं बहाल करना शामिल होगा.
चरण-1 1990 में शुरू किया और हिएलि ने 1991 के मध्य में प्रौद्योगिकी प्रदर्शनों पर काम शुरू कर दिया, हालांकि, वित्तीय संकट के कारण अप्रैल 1993 तक पूर्ण पैमाने पर धन अधिकृत नहीं किया गया, जिसके परिणामस्वरूप FSED के चरण-1 का काम 1 जून से शुरू हुआ। पहला प्रौद्योगिकी प्रदर्शक, TD-1, 17 नवम्बर 1995 को पूरा हुआ और उसके बाद 17 नवम्बर 1998 में TD-2 पूरा हुआ, लेकिन कई संरचनात्मक चिन्ताओं और उड़ान नियंत्रण प्रणाली के विकास में परेशानी के कारण इन्हें कई साल तक जमीन पर ही रखा गया।[17]
एलसीए के लिए सबसे महत्वाकांक्षी आवश्यकताओं में से एक विनिर्देशन था "रिलैक्स स्टेटिक स्टेबिलिटी" (RSS). हालांकि डासअल्ट ने 1988 में एक एनालॉग FCS प्रणाली का प्रस्ताव दिया था, पर ऍडा ने माना कि डिजिटल उड़ान नियंत्रण प्रौद्योगिकी जल्दी ही इसकी जगह ले लेगी.[13] जनरल डाइनेमिक्स (अब लॉकहीड मार्टिन) YF-16 पर शुरू हुई, जो संरचना के तौर पर एयरोडायनेमिक नजरिये से थोड़ा अस्थिर कहा जाने वाला दुनिया का पहला विमान था। अधिकतर विमानों की संरचना स्थैतिक स्थिरता के लिए "सकारात्मक" थी, जिसका मतलब है कि नियंत्रण जानकारी के अभाव में उनमें एक स्तर पर लौटने की प्राकृतिक प्रवृत्ति व नियंत्रित उड़ान होती है। लेकिन यह गुण पायलट की कुशल प्रयासों के विपरीत होता हैं। दूसरी तरफ "नकारात्मक" स्थैतिक स्थिरता (अर्थात् RSS) की सुविधा वाला विमान अपने स्तर व नियंत्रित उड़ान से अलग हट सकता है, जब तक पायलट लगातार इसे संतुलित करने का प्रयास नहीं करता, हालांकि यह गतिशीलता को बढ़ाता है, पर यह बहुत कुछ पायलट पर है कि वह एक यांत्रिक उड़ान नियंत्रण प्रणाली पर कितना भरोसा करता है।
FBW उड़ान नियंत्रण प्रणाली का विकास उड़ान नियंत्रण कानूनों और उड़ान नियंत्रण कंप्यूटरों के लिए सॉफ्टवेयर कोड पर हुए महंगे लेखन का व्यापक ज्ञान मांगता है, साथ ही साथ उडा़न इलेक्ट्रानिक प्रणाली और अन्य इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियों के साथ अपने एकीकरण की आवश्यकता की जानकारी होनी भी जरूरी है। जब एलसीए कार्यक्रम शुरू किया गया था, FBW एक अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी थी और यह इतनी संवेदनशील थी कि भारत को कोई देश नहीं मिला, जो इसे निर्यात करने के लिए तैयार हो. इसलिए, भारत का अपना संस्करण विकसित करने के लिए नेशनल एयरोनॉटिक्स प्रयोगशाला ने 1992 में एलसीए राष्ट्रीय नियंत्रण कानून (CLAW) टीम का गठन किया गया। CLAW की टीम के वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने अपने नियंत्रण कानूनों को विकसित करने में कामयाबी पाई, लेकिन वे उनका परीक्षण नहीं कर सके, क्योंकि भारत के पास उस समय समुन्नत "रीयल टाइम ग्राउंड स्टिमुलेटर्स" नहीं थे। तदनुसार, 1993 में ब्रिटिश एयरोस्पेस (BAe) और लॉकहीड मार्टिन को मदद के लिए बुलाया गया, पर वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान के लिए नियंत्रण कानूनों को FCS सॉफ्टवेयर में कोड करने का प्रयास पहले की गई उम्मीद से ज्यादा बड़ा काम साबित हुआ।
विशिष्ट नियंत्रण कानून की समस्याओं का BAE सिमुलेटर (और हिएलि पर, जब वे उपलब्ध हुए.) में जांच की गयी। हालांकि यह विकसित करने की प्रक्रिया में था, इसकी कोडिंग के प्रगतिशील तत्वों को क्रमश:ADE और हिएलि में "मिनीबर्ड" और "आयरनबर्ड" टेस्ट रिंग जांच की गई। एकीकृत उड़ान नियंत्रण सॉफ्टवेयर की F-16 VISTA(वैरिएबल इन-फ्लाइट स्टैबिलिटी टेस्ट एयरक्राफ्ट) पर उड़ान के दौरान दूसरी श्रृंखला का सिमुलेशन परीक्षण किया गया। जुलाई, 1996 में सिम्युलेटर, 33 परीक्षण उड़ानें भरी गईं. हालांकि, लॉकहीड मार्टिन की भागीदारी 1998 में खत्म हो गई, क्योंकि उस साल मई में भारत के दूसरे के परमाणु परीक्षणों के जवाब में अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिया था।
NAL की CLAW टीम ने एक समय स्वदेश में ही उड़ान नियंत्रण कानूनों के एकीकरण को सफलतापूर्वक पूरा करने में कामयाबी पाई और FCS साफ्टवेयर ने TD-1 पर 50 घंटे के पायलट परीक्षण को बिना किसी रुकावट के पूरा किया, इसके परिणामस्वरूप 2001 के शुरू में इस विमान को उड़ान की मंजूरी दे दी गई। जनवरी 2001 को एलसीए की पहली उड़ान TD द्वारा बंगलूर के पास बनाये गये राष्ट्रीय उड़ान परीक्षण केंद्र (NFTC) से हुई. इसके बाद 1 अगस्त 2003 को इसकी पहली सफल सुपरसोनिक उड़ान हुई. सितंबर 2001 में TD-2 को अपनी पहली उड़ान भरने का समय मिला, 6 जून 2002 तक इसे यह मौका नहीं मिल सका. तेजस् [[के स्वत: उड़ान नियंत्रण प्रणाली (AFCS) को इसके सभी परीक्षण पायलटों ने काफी सराहा, जिनमें से एक ने कहा कि वह मिराज 2000 की तुलना में इसे एलसीए के साथ आसानी से उड़ा सकता है।]][18]
ऍडा की टीम ने एक और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी क्षेत्र को स्वदेश में विकसित करने के लिए चुना, जो तेजस् का बहु आयामी रडार (MMR) है। प्रारंभ में इसकी योजना एलसीए के लिए एरिक्सन माइक्रोवेव सिस्टम PS-05/AI/J-बैंड मल्टी फंक्शन रडार[19] के प्रयोग की थी जिसे एरिक्सन और फेरेंटी रक्षा प्रणाली एकीकरण द्वारा साब JAS-39 ग्रिपेन के लिए विकसित किया गया था।[20] हालांकि, 1990 के दशक में अन्य रडारों की जांच के बाद,[21] DRDO को विश्वास हो गया कि इसका स्वदेशी विकास संभव है। हिएलि के हैदराबाद डिवीजन और LRDE को संयुक्त रूप से MMR कार्यक्रम के नेतृत्व के लिए चुना गया। हालांकि यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि कब संरचना का काम शुरू किया जायेगा, पर रडार विकास का प्रयास 1997 में शुरू हुआ।[22]
DRDO का सेंटर फॉर एयरबॉर्न स्टडीज (CABS) MMR के लिए परीक्षण कार्यक्रम चलाने के लिए जिम्मेदार है। 1996 और 1997 के बीच, CABS ने मौजूदा हिएलि/HS-748M हवाई निगरानी पोस्ट (ASP) टेस्टबेड को एलसीए के इलेक्ट्रानिक उड़ान प्रणाली और रडार के टेस्ट बेड में परिवर्तित कर दिया, जिसे 'हैक' कहा गया और रोटोडोम एसेंबली के अलावा एकमात्र बड़े संरचनात्मक परिवर्तन के रूप में जाना गया, इसके साथ एलसीए की नाक शंकु को MMR के मुताबिक अभियोजित किया गया।
2002 के तक MMR के विकास में देरी और लागत में वृद्धि का अनुभव होना बताया गया। 2005 के प्रारंभ में केवल हवा से हवा में 'लुक अप' और 'लुक डाउन' मोड (विधि)- दो अत्यंत बुनियादी मोड- के लिए सफलतापूर्वक परीक्षण की पुष्टि की गई। मई 2006 में यह खुलासा किया गया कि परीक्षण वाली कई विधियों का प्रदर्शन अभी भी "अपेक्षाओं से कम" है।[23] परिणामस्वरूप, ऍडा ने एक हथियार छोड़ने वाले पॉड के साथ उड़ान के दौरान हथियार परीक्षणों को कम कर दिया, जो एक प्राथमिक सेंसर नहीं है, जिससे कई महत्वपूर्ण परीक्षणों को स्थगित रखा गया। परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार, समस्या की जड़ रडार और LRDE द्वारा बनाये गये उन्नत सिगनल प्रोसेसर मॉड्यूल (SPM) के बीच अनुकूलता गंभीर मुद्दा है। एलटा के EL/M-2052 जैसे 'आफ द सेल्फ' विदेशी रडार को हासिल करने के अंतरिम विकल्प पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है।[22]
प्रारंभ में, प्रोटोटाइप विमान को जनरल इलेक्ट्रिक F404- GE-F2J3 आफ्टरबर्निंग टर्बोफैन इंजन से लैस करने का निर्णय लिया गया था। एक ही साथ, 1986 में, एक स्वदेशी बिजली संयंत्र के विकास के लिए समानांतर कार्यक्रम शुरू किया गया। गैस टर्बाइन अनुसंधान प्राधिकरण के नेतृत्व में GTRE GTX-35VS, जिसका नाम "कावेरी" रखा गया, के बारे में यह उम्मीद की गई कि वह पूरी तरह उत्पादित विमान F404 की जगह लेगा। हालांकि, तकनीकी कठिनाइयों के कारण कावेरी विकास कार्यक्रम की प्रगति धीमी हो गई। 2004 के मध्य में, कावेरी रूस में ऊंचाई परीक्षण में असफल हो गई और इसे तेजस् विमान के पहले उत्पादन के रूप में पेश करने की अंतिम उम्मीद समाप्त हो गई।[24]
कावेरी के आगे विकास के लिए एक निविदा जारी कर कंपनियों को आमंत्रित किया गया था। फरवरी 2006 में ऍडा ने कावेरी की समस्याओं को दूर करने के काम में तकनीकी सहायता के लिए फ्रांसीसी विमान का इंजन कंपनी स्नीस्मा से अनुबंध किया।[8] उस समय, DRDO को तेजस् में उपयोग के लिए 2009-10 तक कावेरी का इंजन तैयार होने की आशा हुई।
कावेरी के विकास में पैदा हो रही खामियों को देखते हुए 2003 में उच्च गुणवत्ता वाले जनरल इलेक्ट्रिक F404, F404-GE-IN20 इंजनों को आठ पूर्व उत्पादित LSP विमानों और दो नौसेना प्रोटोटाइप के लिए खरीदने का निर्णय किया गया। ऍडा ने फरवरी 2004 में एक अमेरिकी जनरल इलेक्ट्रिक को 17-IN20 इंजनों की अभियांत्रिकी विकसित करने व उनके उत्पादन के लिए 105 मिलियन अमेरिकी डॉलर का ठेका दिया, जिसकी आपूर्ति 2006 में शुरू हुई।
फ़रवरी 2007 में, हिएलि ने एक अतिरिक्त F404- GE-IN20 आफ्टरबर्निंग टर्बोफैन इंजन का आदेश दिया, जिससे भारतीय वायु सेना के लिए तेजस् लड़ाकू विमान के पहले परिचालन स्क्वाड्रन को ताकत दी जा सके।[25] समय पर आदेश से पहले, F404-GE-IN20 को परीक्षण के रूप में हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) में लगाया गया और यह 2007 के मध्य तक परीक्षण उड़ान के अंतिम मूल्यांकन का एक हिस्सा था। F404-GE-IN20 इंजन ने स्थापित किये जाने से पहले 19,000 पाउंड (85 kN) स्थापित किये बिना थ्रस्ट अर्जित किया, 330 घंटे का त्वरित मिशन परीक्षण पूरा किया, जो 1000 घंटे की उड़ान के बराबर था। IN20 ने F2J3 विकास इंजनों की जगह ली, जिनसे 600 उड़ानें भरी गईं और इसमें आठ इंजनों का उपयोग किया गया।
सितम्बर 2008 में, यह घोषणा की गई कि कावेरी तेजस् के लिए समय पर तैयार नहीं हो सकेगा और एक ऐसा बिजली संयंत्र चुनना होगा, जो उत्पादन प्रक्रिया में हो्.[26] ऍडा के लिए 95 से 100 किलोन्यूटन (kN) (21,000-23,000 lbf) रेंज वाले अधिक शक्तिशाली इंजन के लिए अनुरोध प्रस्ताव (RPF) जारी करने की योजना है। इसके संभावित दावेदार यूरोजेट EJ200 और जनरल इलेक्ट्रिक F414 हो सकते हैं। यूरोजेट EJ200 के प्रणोदन पेशकश को काफी जोरदार माना गया है। एकल क्रिस्टल टर्बाइन ब्लेड प्रौद्योगिकी, जिसे मूल रूप से भारतीय वैज्ञानिकों को देने से इनकार कर दिया गया था, भी यूरोजेट ने EJ200 इंजन के माध्यम से भारत को देने की पेशकश की। [27]
मई 2009 में यह घोषणा की गई कि विमान के लिए अधिक शक्तिशाली इंजन हासिल करने के लिए 3,300 करोड़ रुपए (33,000,000,000 रूपये या 750 करोड़ डॉलर) की एक वैश्विक निविदा जारी की जायेगी, क्योंकि मौजूदा जनरल इलेक्ट्रिक F404 इंजन इतना ताकत नहीं पैदा करते कि कम से कम हथियारों के भार के साथ विमान हमले करने में सक्षम हो। यूरोजेट टर्बो (Eurojet Turbo) और अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक एलसीए के लिए 100 इंजनों की आपूर्ति के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगी। यूरोजेट EJ200 और GE एफ-414 इंजन भारतीय वायुसेना की आवश्यकताओं को पूरा करेंगे क्योंकि वे 95-100 किलोन्यूटन ताकत उत्पन्न करते हैं।
भारतीय वायु सेना के सूत्रों की ओर से यह भी कहा गया कि एयरफ्रेम की संरचना इस तरह से की जायेगी कि इसमें भारी इंजन लगाये जा सकें,
जिसमें तीन-चार साल तक का समय लगने की उम्मीद है। हालांकि तेजस् विमानों के शुरूआती बैच कम शक्ति वाले जनरल इलेक्ट्रिक F404 इंजनों
द्वारा संचालित होंगे, जो 80-85 किलोन्यूटन की ताकत उत्पन्न करते हैं।
[28]
दिसम्बर 1996 में, तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार एपीजे अब्दुल कलाम ने गणना कर इसकी इकाई लागत 21 लाख अमेरिकी डॉलर बताई। 2001 के अंत में ऍडा और एलसीए कार्यक्रमों के निदेशक डॉ कोटा हरिनारायण ने एलसीए की इकाई लागत (220 विमानों के संभावित आदेश के लिए) 17 से 20 लाख अमेरिकी डॉलर आंकी और बताया कि एक बार उत्पादन शुरू हो गया तो इसकी कीमत 15 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक हो सकती है।
हालांकि, 2001 तक दूसरों का संकेत था कि एलसीए की लागत (प्रति विमान 100 करोड़ रूपये से ज्यादा) 24 मिलियन अमेरिकी डालर आयेगा। (यह एक अमेरिकी डालर बराबर 41 भारतीय रुपए की दर से था, जबकि वर्तमान दर लगभग 62 रुपये है।) वर्तमान दरों पर इसकी प्रति विमान कीमत अभी भी 21.27 मिलियन अमेरिकी डॉलर है। लागत में वृद्धि को देखते हुए कुछ विमानन विशेषज्ञों का मानना है कि जब विमान बाहर आता है, तो इसकी प्रति विमान कीमत 35 करोड़ अमेरिकी डॉलर हो सकती है।[29] 20 तेजस् विमानों के लिए 2,000 करोड़ रुपये (450 करोड़ अमेरिकी डॉलर) के आदेश से एक यूनिट की खरीद कीमत प्रत्येक के लिए 22.6 मिलियन अमेरिकी डॉलर होगी, जो अब्दुल कलाम के अनुमानों के अनुरूप होगी। करीब 20 से 30 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत दर (100 से 150 करोड़) के कारण तेजस् दूसरे 4.5 पीढ़ी के लड़ाकू विमानों से सस्ता होगा।[b] टाइम्स ऑफ इंडिया के 3 फ़रवरी 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत सरकार एलसीए परियोजना को जीवित रखने के लिए और 8000 करोड़ रुपए देगी।[30]
भारतीय नौसेना ने छह नौसैनिक एलसीए के लिए आदेश की हरी झंडी दिखा दी है। जिस पर प्रति विमान अनुमानित लागत 31.09 करोड़ अमेरिकी डॉलर (150 करोड़ ) आयेगी.[31]
एलसीए के विकास में देरी मुख्य रूप से परिष्कृत लड़ाकू विमान की संरचना तैयार करने में भारत के अनुभव की कमी को जिम्मेदार ठहराया गया था। भारत ने पहले 1950 के दशक के आखिर में केवल दूसरी पीढ़ी के लड़ाकू विमान का निर्माण (HF-24 मारुत) किया था। दूसरी पीढ़ी से 4.5 पीढ़ी की छलांग बाधा बन सकती थी। भारत के विवादास्पद परमाणु परीक्षणों पर अमेरिकी प्रतिबंध और भारतीय वायु सेना की बदलती जरूरतों ने एलसीए परियोजना में मदद नहीं की। एक मई 2006 को एक साक्षात्कार में हिएलि के अध्यक्ष अशोक बवेजा ने कहा था कि पांचवें प्रोटोटाइप वाहनों (PV-5), प्रशिक्षक प्रोटोटाइप और आठ LSP विमानों की आपूर्ति वर्ष 2006 के अंत से पहले हो जायेगी। ये विमान एलसीए के लिए प्रारंभिक परिचालन मंजूरी में तेजी लाने का काम करेंगे।
उम्मीद की गई है कि यह भारतीय वायु सेना में 2006 के अंत तक शामिल हो जायेगा, क्योंकि एलसीए प्रणाली की संरचना और विकास (SDD) का चरण अंततः 2010 में पूरा किया जा रहा है।[32] एक प्रशिक्षक संस्करण का भी विकास किया जा रहा है और नौसेना संस्करण की संरचना पूरी हो गई है और इसके 2008 में उड़ान भरने की उम्मीद है। LSP-1 ने केवल अप्रैल, 2007 में अपनी पहली उड़ान भरी, जबकि ट्रेनर प्रोटोटाइप की अभी तक आपूर्ति नहीं हुई है।
भारतीय वायुसेना के 20 विमानों के आदेश (16 एकल सीट और चार दो सीटों वाले प्रशिक्षक विमान) को 2012 के बाद परिचालन मंजूरी पाने की उम्मीद हैं।[33]
तेजस् वर्तमान में उड़ान परीक्षण के दौर से गुजर रहा है। एक बार प्रारंभिक आपरेटिंग मंजूरी (IOC) मिलने के बाद इसे सीमित संख्या में भारतीय वायु सेना में शामिल किया जाएगा. अंतिम आपरेटिंग मंजूरी (FOC) हासिल होने के बाद इसे पूर्ण पैमाने पर शामिल किया जायेगा. IOC का परीक्षण 2009 तक और 2010 तक FOC का परीक्षण पूरा होने की उम्मीद है। स्वतंत्र विश्लेषकों और अधिकारियों को उम्मीद है कि भारतीय वायु सेना में लड़ाकू विमान तेजस् की परिचालन आपूर्ति 2010 के आसपास शुरू होगी और 2010 तक इसका सेवा में प्रवेश हो सकेगा। [34][35]
भारतीय वायु सेना ने 14 सदस्यीय 'एलसीए इंडक्शन (प्रेरण) टीम बनाई है, जिसमें भारतीय वायु सेना के पायलट व अधिकारी शामिल हैं और इसका नेतृत्व एयर वाइस मार्शल बी. सी. निंजप्पा कर रहे हैं। इस टीम के उद्देश्यों में एलसीए के शामिल होने की प्रक्रिया की देखरेख, पैदा होने वाली किसी चुनौती का निदान करना और तेजस् के संचालन उपयोग की विकास प्रक्रिया को अनुकूलबनाने में मदद करने और इसके साथ सिद्धांत, प्रशिक्षण कार्यक्रम, अनुरक्षण कार्यक्रम बनाने में मदद करना शामिल है, जिससे भारतीय वायु सेना तेजस् की संचालन सेवा के लिए तेजी से तैयार हो सके। इससे भारतीय वायु सेना की इस इच्छा का खुलासा होता है कि वह एलसीए के विकास में और अधिक शामिल होने और साथ ही साथ नये विमान को शामिल करने जल्दी में है। यह टीम बंगलौर में तैनात है।[36][37]
हिएलि के वरिष्ठ अधिकारियों ने मार्च 2005 में कहा था कि भारतीय वायु सेना 20 तेजस् विमानों के लिए 2,000 करोड़ रुपये (450 करोड़ अमेरिकी डॉलर) के आदेश निर्गत करेगा और इसके बाद और 20 विमानों की खरीद होगी। सभी 40 F404-GE-IN 20 इंजनों से लैस किये जाएंगे.[38] अब तक हल्के लड़ाकू विमान के विभिन्न संस्करणों के विकास पर 4806.312 करोड़ रूपये खर्च किये गये हैं।[39]
तेजस् नाम के स्वदेशी हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) पहले स्क्वाड्रन को दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में तैनात किया जाएगा, जब 20 लड़ाकू विमानों के पहले बैच को 2009-2010 में भारतीय वायु सेना (IAF) में शामिल होने की उम्मीद हैं।
गर्म मौसम में हल्के लड़ाकू विमान का सफल परीक्षण 30 मई 2008 को किया गया। 'एलसीए' तेजस् के उत्पादन संस्करण की उड़ान 16 जून 2008 को हुई। दिसम्बर 2008 में हिएलि तेजस् का लेह में काफी ऊंचाई पर सफल परीक्षण किया गया।[40]
एलसीए तेजस् ने 22 जनवरी 2009 को[41] 1000 परीक्षण उड़ान पूरी की। तेजस् 530 घंटे का उड़ान परीक्षण पूरा कर लिया है।[42]
फ़रवरी 2009 तक वैमानिकी विकास एजेंसी के अधिकारियों ने कहा कि तेजस् ने हथियारों के साथ उड़ान शुरू कर दी है और रडार का एकीकरण मार्च 2009 तक पूरा हो जाएगा. लगभग सभी प्रणाली विकास गतिविधियां उस समय तक पूरी हो जाएंगी.[43]
भारतीय नौसेना ने छह नौसेना एलसीए के लिए एक आदेश दिया है। प्रति विमान 31.9 करोड़ अमेरिकी डालर (150 करोड़ रु) की दर से नौसेना के एलसीए कार्यक्रम में 187 करोड़ अमेरिकी डॉलर (900 करोड़) की लागत आएगी.[44]
दिसम्बर 2009 में भारत सरकार ने भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना के लिए लड़ाकू जेट का उत्पादन शुरू करने के लिए रु 8,000 करोड़ रुपये की मंजूरी दी। [45]
24 फ़रवरी 2010 को भारत सरकार द्वारा हाल ही में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि एलसीए तेजस् मार्च 2011 तक भारतीय वायु सेना में शामिल होगा। 20 एलसीए के उपरोक्त अनुबंध के अलावा, अतिरिक्त 20 एलसीए की खरीद का प्रस्ताव अंतिम आपरेशनल मंजूरी विन्यास प्रगति पर है। एलसीए के विनिर्देश भारतीय वायु सेना द्वारा तैयार वायु सेवा जरूरतों के अनुसार हैं।[46][46]
भारतीय वायु सेना के कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पूरा करने में मार्क-1 की असमर्थता के कारण तेजस् मार्क-2 को भी विकसित किये जाने की संभावना है। भारतीय वायु सेना 2005 में जारी किये जा चुके 40 विमानों के आदेश के अलावा किसी भी मार्क-1 विमानों का आदेश नहीं देगी. जब फिर से संरचना किये गये मार्क-2 विकसित होंगे तो 125 विमानों तक के एक आदेश पर विचार किया जा रहा है।[33] भारतीय वायु सेना के एक प्रवक्ता के अनुसार मार्क-2 में और अधिक शक्तिशाली इंजन, परिष्कृत वायुगतिकी और अप्रचलन वाले उपकरणों की तादाद कम करने के लिए अन्य अपकरण होंगे। [33] भारतीय नौसेना के मार्क-2 तेजस् संस्करण एक विमान वाहक पोत से बहुत कम समय में उड़ान भरने और उतरने में सक्षम होंगे। [47]
तेजस् का नौसैनिक संस्करण जल्द ही तैयार होने की उम्मीद है। नौसेना प्रमुख एडमिरल निर्मल वर्मा ने नौसेना के अपने पहले सप्ताहिक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि 2009 दिसम्बर तक DRDO ने आश्वासन दिया है कि एलसीए का नौसेना संस्करण 2013 तक वाहक परीक्षण के लिए तैयार हो जाएगा और गोर्शकोव/विक्रमादित्य और साथ ही भारतीय विमानवाहक पोतों पर तैनाती हो सकेगी। उन्होंने कहा कि नौसेना IAC-2 के लिए और अधिक सक्षम वाहक विमान के लिए एक अवधारणात्मक अध्ययन 'कर रहा था।[48]
"नौसैनिक के एलसीए संस्करण" की विशेषताओं में से कुछ :
तेजस् एकल इंजन व विविध भूमिकाओं वाला जेट लड़ाकू विमान है, जिसकी विशेषताएं हैं पूंछरहित होना और यौगिक डेल्टा विंग प्लेटफार्म वाला और यह "रिलैक्स्ड स्टेटिक्स स्टैबिलिटी"संरचना वाला है, जिससे विमान का यु्द्धकौशल बढ़ाने में मदद मिलती है। मूल रूप से इसकी सेवा जमीनी हमले की भूमिका के साथ मध्यस्तरीय "मूक बम" के रूप में हवा में श्रेष्ठता साबित करने वाले विमान के रूप में लेने का मकसद रखा गया, पर संरचना संबंधी नजरिये में लचीलेपन की वजह से यह हवा से सतह और नौवहन-विरोधी हथियार के रूप एकीकृत हो सकता है, जिससे यह कई तरह कह भूमिका और कई तरह के मिशन पूरा करने की क्षमता हासिल कर सकता है।
पूंछरहित और यौगिक डेल्टा प्लानफार्म की संरचना तेजस् को छोटा और हल्का रखने के लिए हैं।[49] इस प्लानफार्म का उपयोग नियंत्रण सतह जरूरतों को कम से कम रखता है (कोई टेलप्लेन या फोरप्लेन नहीं, केवल एक ऊर्ध्वाधर टेलफिन), व्यापक श्रेणी के बाहरी स्टोर के वहन की इजाजत देता है और क्रुसीफार्म संरचना की तुलना में बेहतर करीबी मुकाबला करने, उच्च गति और उच्च अल्फा भूमिकाओं की विशेषता वाला होता है। व्यापक पैमाने पर स्केल मॉडल पर विंग टनेल परीक्षण मॉडल और जटिल कम्प्यूटेशनल तरल गतिकी विश्लेषण से एलसीए का एरोडायनेमिक विन्यास कम से कम हुआ है, जिससे इसे न्यूनतम सुपरसोनिक ड्रैग, लो विंग लोडिंग और रोल और पिच की उच्च दर हासिल हो सका है।
सभी हथियारों को प्रत्येक शाखा में एक या एक से अधिक 4,000 किलो की कुल क्षमता के साथ सात हार्डप्वाइंट्स के साथ ढोया जाता है : हर विंग के तहत तीन स्टेशन और एक फ्यूजलेग सेंटरलाइन पर होता है। वहाँ भी एक आठवें पोर्टसाइड इनटेक ट्रंक के नीचे ऑफसेट स्टेशन होता है, जो विविध तरह के पॉड (FLIR, IRST, लेजर रेंजफाइंडर/डेजिगनेटर, या टोही) ले जा सकता है और यह अंडर-फ्यूजलेग स्टेशन को सेंटरलाइन स्टेशन और विंग स्टेशनों के इनबोर्ड जोड़े के अंतर्गत कर सकता है।
तेजस् में अभिन्न आंतरिक ईंधन टैंक होता है, जो फ्यूजलेग और विंग में 3,000 किलो ईंधन रख सकता है और आगे फ्यूजलेग स्टारबोर्ड की ओर एक निश्चित इनफाइट ईंधन भरने वाला फिक्स्ड उपकरण होता है। बाहरी तौर पर इनबोर्ड और मिडबोर्ड विंग स्टेशनों तथा सेंटरलाइन फ्यूजलेग स्टेशन में तीन 1,200 या या पांच 800-लीटर (320-या 210 अमेरिकी गैलन, 260- या 180 Imp गैलन) ईंधन टैंक तक के "वेट" हार्डप्वाइंट प्रावधान होते हैं।
एलसीए एल्यूमिनियम-लिथियम मिश्र धातु, कार्बन फाइबर कंपोजिट (C-FC) और टाइटेनियम मिश्र धातु-स्टील्स से बना है। तेजस् वजन के रूप में अपने एयरफ्रेम के 45% हिस्से तक के लिए C-FC सामग्रियां, जिसमें एक फ्यूजलेग (दरवाजा और बाहरी आवरण) पंख (आवरण, मुख्य बीम और ढांचा), इलेवन टेलफिन, रडर, एयर ब्रेक और लैंडिंग गियर दरवाजे भी शामिल होते हैं। सभी धातु संरचना की तुलना में सम्मिश्रण वाले धातुओं का उपयोग विमान को हल्का और मजबूत दोनों बनाता है और एलसीए C-FCs का नियोजन प्रतिशत अपनी श्रेणी के समकालीन विमानों में एक सर्वोच्च है।[50] विमान को बहुत हल्का बनाने के अलावा, वहां उनमें कम से कम जोड़ या कीलें होती हैं, जो विमानों की विश्वसनीयता को बढ़ाती है और संरचनात्मक कमजोरी से होनेवाली दरार की आशंका को कम करती है।
एलसीए के लिए टेलफिन एक अखंड मधुकोश के टुकड़े जैसा है, जो "सबट्रैक्टिव" या "डिडक्टिव" प्रणाली की तुलना में उत्पादन लागत को 80% तक कम कर सकती है्.जिसका शाफ्ट एक कम्प्यूटरीकृत अंक नियंत्रित मशीन द्वारा टाइटेनियम मिश्र धातु के एक ब्लॉक से निकाला जाता है। किसी अन्य निर्माता ने धातु के एक टुकड़े से बाहर के पंख बनाने में कामयाबी नहीं पाई है।[51] रडर के लिए'एक नाक' कील घुमाकर जोड़ी जाती है।
एलसीए में मिश्र धातुओं के उपयोग से धातु वाले फ्रेम के उपयोग की तुलना में कुल उपकरणों की संख्या में 40% की कमी आई. इसके अलावा, गति तेज करने वाले उपकरणों की संख्या मिश्र धातु वाले ढांचे में 10,000 से घटकर आधी हो गयी, जिसकी धातु फ्रेम संरचना में जरूरत होती थी। समग्र संरचना से एक और मदद मिली कि एयरफ्रेम में 2,000 छेद नहीं करने पड़े. कुल मिलाकर, इस विमान वजन 21% से कम है। इन कारकों में से एक उत्पादन लागत, एक अतिरिक्त लाभ - और महत्वपूर्ण लागत बचत कम हो सकते हैं - छोटे से विमान को इकट्ठा अपेक्षित समय में महसूस किया - सात महीने है एलसीए के लिए के रूप में 11 महीने के खिलाफ एक सभी धातु एयरफ्रेम का इस्तेमाल करते हैं।[52]
तेजस् के नौसैनिक संस्करण के एयरफ्रेम में नाक के झुकाव के संबंध में संशोधन किया जायेगा ताकि विमान उतारने के समय दृश्य को और बेहतर किया जा सके और उड़ने के दौरान गति और बढ़ाने के लिए और विंग लीडिंग एज वोर्टेक्स कंट्रोलर्स (LEVCON) का उपयोग किया जायेगा. LEVCON नियंत्रण सतहों पर काम करते हैं जो विंग रूट लीडिंग एज से विस्तारित होते हैं और इस तरह एलसीए को धीमी गति के दौरान बेहतर तरीके से संचालित किया जा सकता है नहीं तो खिंचाव बढ़ने के कारण थेड़ा बाधित होता है, जैसा कि डेल्टा विंग संरचना में होता है। एक अतिरिक्त लाभ यह होता है कि LEVCON भी हमले के उच्च कोण (AoA) पर नियंत्रित करने की क्षमता बढ़ाता है।
नौसैनिक तेजस् की रीढ़ वाला हिस्सा भी मजबूत, एक लंबा और मजबूत पहियेवाला और डेक पर गतिशीलता के लिए नोज ह्वील स्टीयरिंग होता है।[38][53] तेजस् का ट्रेनर संस्करण दो सीटों वाले नौसैनिक विमान संरचना के साथ "एरोडायनेमिक कॉमनलिटी (समानता)" वाला है।[54]
तेजस् में जलचाप द्वारा वापस लेने योग्य एकल आवक-मेनह्विल्स के साथ तिपहिया श्रेणी के लैंडिंग गीयर और एक घुमाने योग्य दो पहिया व आगे की ओर खिसकाने योग्य नोज गियर होता है। लैंडिंग गियर का मूल रूप से आयात किया जाना था, लेकिन व्यापार प्रतिबंध लगाने के बाद हिएलि ने स्वतंत्र रूप से पूरी प्रणाली विकसित की है।
भारत के न्यूक्लियर फ्यूल कांप्लेक्स (NFC) के नेतृत्व वाली टीम ने टाइटेनियम की आधी मिश्र धातु ट्यूब विकसित की, जिसका उपयोग हाइड्रोलिक विद्युत पारेषण के लिए किया गया है और वे एलसीए के महत्वपूर्ण घटक हैं। इस प्रोद्योगिकी का अंतरिक्ष अनुप्रयोग भी है।[55]
चूंकि तेजस् के पास रिलैक्स स्टैटिक स्टैविलिटी" संरचना है, यह चार अंगों वाली डिजिटल फ्लाई-बाई-वायर उड़ान नियंत्रण प्रणाली से सुसज्जित है, जिससे चालक को विमान के परिचालन में सुविधा होती है।[56] तेजस् का एयरोडायनेमिक विन्यास शोल्डर माउंटेड विंग्स के साथ पूरी तरह डेल्टा- विंग लेआउट पर आधारित है। इसके सभी नियंत्रण सतहों जलचाप से संचालित हैं। इसके पंख के बाहरी किनारों में तीन खंड स्लैट हैं, जबकि भीतर के वर्गों में अतिरिक्त स्लैट लगे होते हैं, जिनसे भीतरी पंख में भंवर वाला लिफ्ट पैदा हो सके और टेल फिन के साथ उच्च ऊर्जा वाला हवाई प्रवाह पैदा हो सके, जिससे उच्च AoA स्थिरता बढ़ाई जा सके और नियंत्रित उड़ान से अलग हटने की प्रक्रिया को रोका जा सके. पंख के पीछे के किनारे में विमान को ऊपर उठाने वाले दो सेगमेंट होते हैं, जो पिच और ऊपर उठने की प्रक्रिया नियंत्रित करते है। केवल पूंछ के हिस्से पर नियंत्रण वाली सतहें एकल टुकड़े वाली रडर और दो फ्यूजलेग, एक-एक पंख के दोनों ओर, के आगे के ऊपरी भाग में स्थित दो एयरब्रेक होते हैं।
तेजस् के डिजिटल FBW प्रणाली में एक शक्तिशाली डिजिटल उड़ान नियंत्रण कंप्यूटर (DFCC), चार कंप्यूटिंग चैनल, अपनी स्वतंत्र बिजली आपूर्ति व्यवस्था और सभी एक ही LRU में स्थित होते हैं। DFCC विभिन्न तरह सेंसरों से संकेत हासिल करता है और पायलट इन आदानों पर नियंत्रण करता है और उचित चैनलों के माध्यम से इन प्रक्रियाओं को सक्रिय करता है और एलेवॉन्स (विमान को ऊपर उठाने वाले) पतवार और अग्रणी किनारे वाले स्लैट हाइड्रोलिक संकेतों पर नियंत्रण रखता है। DFCC चैनल 32-बिट के आसपास के माइक्रोप्रोसेसरों से बने होते हैं और सॉफ्टवेयर कार्यान्वयन के लिए ऍडा भाषा के एक सबसेट का उपयोग करते हैं। पयलट के सामने जो कंप्यूटर होता है, उससे एसTD-1553B मल्टीप्लेक्स एवियोनिक्स डेटा बसों माध्यम से MFD और RS 422 सीरियल लिंक दिखता है।
विंग-कवच वाले, एक ओर उठे दो भागों में बंटे हुए, अचल ज्यामिति Y-वाहिनी एयर इनटेक में आप्टिमाइज किया हुआ डाइवर्टर विन्यास होता है, जो एक सुनिश्चित स्वीकार्य विरूपण स्तर पर, यहां तक कि उच्च AoA में इंजन के लिए आवाज रहित हवा की आपूर्ति करता है।
एलसीए प्रोटोटाइप विमान के लिए मूल योजना थी, उसे जनरल इलेक्ट्रिक F404- GE-F2J3 आफ्टरबर्निंग टर्बोफैन इंजन से लैस करना, जबकि उत्पादित विमान में स्वदेशी GTRE GTX-35VS कावेरी टर्बोफैन इंजन लगाया जायेगा, जिसे गैस टर्बाइन रिसर्च इस्टेब्लिसमेंट की ओर से समानांतर प्रयासों के जरिये विकासित किया जा रहा है। कावेरी के विकास में खामियां जारी रहने के कारण 2003 में आठ पूर्व उत्पादित LSP विमानों और दो नौसेना प्रोटोटाइप के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले F404-GE-IN20 इंजन की खरीद का निर्णय लिया गया। IN20 इंजन के त्वरित परीक्षण के बाद पहले 20 उत्पादित विमानों में अधिष्ठापन के लिए 24 और IN20 इंजनों के लिए आदेश जारी किया गया।
कावेरी में एक लो- बाईपास-रेसियो (BPR) आफ्टरबर्निंग टर्बोफैन इंजन है, जिसमें चर इनलेट गाइड वेंस (IGVs) सहित छह स्तरों वाले उच्च हाई प्रेशर (HP) कंप्रेशर, ट्रांसोनिक ब्लेडिंग वाले एक तीन-स्तरीय लो-प्रेशर (LP) कंप्रेशर, एक कुंडलाकार ज्वलन चैंबर और ठंडा किया हुआ एक-स्तरीय HP और एल.पी. टर्बाइन्स होते हैं। विकास मॉडल एक उन्नत अभिसरण ("CON-Di") चर नोजल से लैस है, लेकिन विभिन्न GTRE को उम्मीद है कि यह मल्टी-एक्सिस थ्रस्ट वेक्टोरिंग संस्करण के साथ तेजस् विमानों के लिए उपयुक्त है। रक्षा एवियोनिक्स अनुसंधान प्रतिष्ठान (DARE) ने कावेरी (KADECU) के लिए एक स्वदेशी पूर्ण प्राधिकरण डिजिटल इंजन कंट्रोल (FADEC) इकाई विकसित की। DRDO के केन्द्रीय वाहन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान (CVRDE) पर तेजस् के एयरक्राफ्ट-माउंटेड एसेसरी गीयर बॉक्स (AMAGB) और पावर टेक ऑफ (PTO) शाफ्ट की संरचना बनाने व उनके विकास की जिम्मेवारी है।
तेजस् में रात में दिखने वाले चश्मे (NVG) के उपयुक्त "ग्लास कॉकपिट" है, जो स्वदेशी हेड-अप डिस्प्ले (HUD), 5 इंच X 5 इंच क्षेत्रफल के 3 मल्टीफंक्शन डिस्प्ले, दो स्मार्ट स्टैंडबाई डिस्प्ले यूनिट्स (SSDU) और एक "गेट-यू-होम" पैनल (जिससे आपातकाल में पायलट को उड़ान से संबंधित जरूरी जानकारियां मिलती हैं।) से नियंत्रित होता है।[57] CSIO द्वारा विकसित HUD, एल्बिट-सुसज्जित डैश हेलमेट माउंटेड डिस्प्ले एंड साइट (HMDS) तथा हैंड्स-ऑन-थ्रॉटल-एंड-डिस्प्ले (HOTAS) नियंत्रणों से पायलट के काम का बोझ कम होता है और पायलट को कॉकपिट में नेविगेशन पाने के लिए हालात की अच्छी तरह जानकारी मिलती है, "हेड डाउन" के दौरान कम समय में हथियार के लक्ष्य की जानकारी मिलती है।
MFD जानकारी की आवश्यकता के आधार पर इंजन, जलचाप विज्ञान, विद्युत, उड़ान नियंत्रण और पर्यावरण संबंधी नियंत्रण प्रणाली और साथ में बुनियादी उड़ान और रणनीतिक जानकारी देता है। दोहरे बेकार डिस्प्ले प्रोसेसर इन डिस्प्लेज पर कंप्यूटर पर बने दृश्य दिखाते हैं। पायलट एक जटिल एवियोनिक्स प्रणाली के साथ एक सरल बहुकार्यकारी कुंजीपटल और कार्य तथा सेंसर चयन पैनलों के माध्यम के जरिये सूचना का आदान-प्रदान करता है।
लक्ष्य की प्राप्ति एक अत्याधुनिक रडार के माध्यम से-संभावित रूप में एक लेजर डेजिगनेटर पॉड,फॉरवार्ड लुकिंग इंफ्रारेड(FLIR) या अन्य आप्टो इलेक्ट्रॉनिक सेंसर, जिससे प्रहार की संभावना के लिए लक्ष्य की सटीक जानकारी हासिल होती है। एक रिंग लेजर गायरो (RLG) आधारित इनरटायल नेविगेशन प्रणाली (INS) सही नेविगेशन के लिए पायलट का मार्गदर्शन करती है। एलसीए के पास सुरक्षित और जाम प्रतिरोधी संचार प्रणाली, जैसे 'दोस्त या दुश्मन की पहचान" (IFF) करने वाले ट्रांसपोंडर/इंट्रोगेटर, VHF/UHF रेडियो और हवा से हवा और हवा से जमीन पर डाटालिंक में सक्षम संचार प्रणाली होती है। एडीए प्रणाली निदेशालय का एकीकृत डिजिटल एवियोनिक सुइट (IDAS) उड़ान नियंत्रण, पर्यावरण नियंत्रण, विमान उपयोगिताओं सिस्टम प्रबंधन, भंडार प्रबंधन प्रणाली (SMS) आदि को केंद्रीकृत 32-bit वाले तीन 1553B बसें उच्च डाटा परिचालन वाले मिशन कंप्यूटर पर एकीकृत करता है।
एलसीए के सुसंगत पल्स-डॉपलर बहु आयामी रडार की संरचना इस तरह से की गई है कि वह अधिकतम 10 लक्ष्यों का ट्रैक रखने और एक साथ कई-लक्ष्य साधने में सक्षम होता है। संयुक्त रूप से LRDE और हिएलि हैदराबाद द्वारा विकसित MMR तेजस् विमानों में लगाया जाएगा, जो प्रोटोटाइप उड़ान परीक्षण उपकरणों की जगह लेंगे. MMR कई लक्ष्यों वाले खोज, ट्रैक ह्वाइल स्कैन (TWS) और भूमि-मानचित्रण कार्य करता है। इसमें लुक-अप और लुक डाउन मोड, लो-/मीडियम-/हाई-पल्स रिपीटेशन फ्रिक्वेंसी (PRF), प्लेटफार्म मोशन कंपैसेशन, डॉपलर बीम-शार्पनिंग, मूविंग टारगेट इंडिकेशन (MTI), डॉपलर फ़िल्टरिंग, लगातार मिथ्या-अलार्म दर (CFAR) का पता लगाने, रेंज-डॉपलर अस्पष्टता संकल्प, स्कैन रूपांतरण और दोषपूर्ण प्रोसेसर मॉड्यूल्स की पहचान के ऑनलाइन निदान प्रणाली होती है। हालांकि, विकास में देरी के परिणामस्वरूपतेजस् के प्रारंभिक उत्पादन उदाहरणों के लिए विदेशी "ऑफ द सेल्फ" रडारों को हासिल करने पर विचार किया जा रहा है।
MMR के विकास में देरी के कारण सरकार को रडार के विकास के लिए IAI से सहयोग लेना पड़ा और नया रडार एल्टा का इएल/एम-२०५२ आएसा और शेष आइटम और सॉफ्टवेयर MMR और IAI के उत्पादों का संयोजन होगा। एलारडीई के निदेशक वरदराजन ने कहा है कि LRDE एयरबोर्न एप्लीकेशनों के लिए इलेक्ट्रॉनिक सरणी के रडार[58] के विकास की शुरुआत की है। और यह भी कि ये रडार हल्के लड़ाकू विमान तेजस् 2012-13 करके मार्क द्वितीय के साथ एकीकृत किया जाएगा.
एक इलेक्ट्रानिक वारफेयर सुइट इस तरह से संरचना किया गया है कि तेजस् गहरी पैठ (डीप पेनेटरेशन) और लड़ाई के दौरान तेजस के अक्षत रहने की संभावना बढ़ाई जा सके। एलसीए का EW सुइट एवियोनिक्स रक्षा अनुसंधान प्रतिष्ठान (DARE) द्वारा विकसित किया जा रहा है, जो जून 2010 तक एडवांस सिस्टम इंटेग्रेशन एंड इवैल्युएशन आर्गेनाइजेशन (ASIEO) के रूप में जाना गया और इसे इलेक्ट्रॉनिक्स रक्षा अनुसंधान प्रयोगशाला (DLRL) की सहायता से किया गया।[16] इस EW सुइट , जिसे मायावी (संस्कृत: Illusionist) के रूप में जाना जाता है, में एक रडार चेतावनी रिसीवर (RWR), स्वयं सुरक्षा जैमर, लेजर चेतावनी प्रणाली, मिसाइल अप्रोच चेतावनी प्रणाली और चाफ/फ्लेयर डिस्पेंसर शामिल है। बीच में भारतीय रक्षा मंत्रालय से पता चला है कि एलसीए प्रोटोटाइप के लिए इजरायल की एलिसरा से अनिर्दिष्ट संख्या में EW सुइट्स खरीदे गये हैं।[59]
एडीए का दावा है कि तेजस् में एक सजग मापक संरचना किया गया है। बहुत छोटी होने के नाते, उसमें दृश्यत्मक सजग अंतर्निहित डिग्री है, लेकिन उच्च स्तर के कंपोजिट्स वाले एयरफ्रेम का उपयोग (जो खुद रडार तरंगों को प्रतिबिंबित नहीं करते), एक Y-वाहिनी इनलेट, जो रडार तरंगों की जांच से इंजन कंप्रेसर मुखड़े के ढाल के रूप में काम करता है और रडार शोषक सामग्री (RAM) कोटिंग्स के प्रयोग का मकसद दुश्मन के लड़ाकू विमानों द्वारा पहचान व ट्रैकिंग की संभावना को कम से कम करने और एयरबोर्न अर्ली वार्निंग एंड कंट्रोल (AEW & C) वायुयान, सक्रिय-रडार एयर-टू-एयर-मिसाइल (AAM) और सर्फेस- टू-एयर मिसाइल (SAM) रक्षा प्रणालियों को सक्रिय रखना है।
हालांकि एलसीए के दो सीटों वाले संस्करण की योजना बनाई गई, पर अब तक जो उदाहरण हैं उनमें [[मार्टिन-बेकर जीरो-जीरो इजेक्शन सीट|मार्टिन-बेकर जीरो-जीरो इजेक्शन सीट]] पर एक ही पायलट का प्रवाधान किया गया। ब्रिटेन के मार्टिन-बेकर इजेक्शन सीट के विकल्प के लिए एक स्थानीय रूप से विकसित विकल्प की योजना बनाई गई है।[60] इजेक्शन के दौरान पायलट की सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिए आयुध अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान (ARDE), पुणे, भारत ने एक नई लाइन चार्ज्ड कॉनपाय सिवरेंस सिस्टम बनाई, जो मार्टिन द्वारा प्रमाणित की गई है।
विमान की सहायता के लिए वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान (ADE), बैंगलोर ने एक गुंबद-आधारित मिशन सिम्युलेटर का विकास किया है। इसका उद्घाटन भारतीय वायु सेना के एयर स्टाफ के डेपुटी चीफ द्वारा किया गया। इसका उपयोग विशेष रूप से एलसीए विकास के प्रारंभिक चरण में, खासकर हैंडलिंग क्वालिटी मूल्यांकन और नियोजन और मिशन प्रोफाइल अभ्यास के दौरान संरचना के रूप में समर्थन देना है।
विमान के पहले से ही निर्मित और प्रस्तावित मॉडल को बनाया जाना है। मॉडल के पद नाम, टेल नंबर और पहली उड़ान की तारीखें प्रदर्शित की गई हैं।
वर्तमान में, 28 LSP श्रृंखला विमानों के उत्पादन का आदेश है।
इन विमानों के 2010 में सेवा में प्रवेश की उम्मीद है।
tejas.gov.in,[68] DRDO Techfocus,[69] Jane's All the World's Aircraft,[70] Airforce Technology,[71] and Naval Technology[72] से डेटा
सामान्य विशेषतायें
प्रदर्शन
अस्त्र-शस्त्र
वैमानिकी
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