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अंबर के महाराजा (1681-1743) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
सवाई जयसिंहजी' या जयसिंह जी (द्वितीय) (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743)[1] अठारहवीं सदी में भारत में राजस्थान के आमेर राज्य के सूर्यवंशी कछवाहा राजवंश के सर्वाधिक प्रतापी शासक थे। सन १७२७ में आमेर से दक्षिण छः मील दूर एक बेहद सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुविधापूर्ण और शिल्पशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर आकल्पित नया शहर 'सवाई जयनगर', बाद में (जयपुर) बसाने वाले नगर-नियोजक के बतौर उनकी ख्याति भारतीय-इतिहास में अमर है।
जय सिंह द्वितीय | |
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जन्म |
विजय सिंह (मूल जन्म नाम) बाद में महाराजा जय सिंह द्वितीय आमेर |
मौत | जयपुर |
मौत की वजह | वृद्धावस्था |
आवास | आमेर, जयपुर, दिल्ली, औरंगाबाद, अहमदनगर, दौलताबाद, उज्जैन आदि |
उपनाम | सवाई जयसिंहजी (द्वितीय) |
जाति | कछवाहा सूर्यवंशी |
शिक्षा | पारम्परिक पद्धति से |
शिक्षा की जगह | संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, मराठी, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, धर्मशास्त्र, वैदिक-कर्मकांड आदि |
पेशा | महाराजा आमेर/जयपुर |
कार्यकाल | सन 1699 से 1743 ईस्वी |
संगठन | आमेर के परंपरागत उनतीसवे राजा |
गृह-नगर | आमेर/ सवाई जयनगर उर्फ़ जयपुर |
पदवी | सरामद-ए-राजा-ए-हिंदुस्तान श्री राजराजेश्वर राजराजेंद्र महाराजाधिराज |
प्रसिद्धि का कारण | नगर-नियोजन, कूटनीति, राजनीति, हिंदुत्व, परंपरा-अनुरक्षण, शासन-विस्तार, पुस्तक-प्रेम, विज्ञान-प्रेम |
धर्म | हिन्दू (वैष्णव) |
जीवनसाथी |
रानी गौड़जी केसर कँवरजी श्योपुर-बड़ौदा रानी खींचन सुख कँवर राघौगढ़ रानी राणावत चँद्र कँवर उदयपुर-मेवाड़ रानी सिसोदनी फूल कँवर बनेड़ा रानी राठौड़ आनंद कँवर किशनगढ़ रानी चूँडावत अमृत कँवर देवगढ़ रानी जादौन इँद्र कँवर करौली रानी हाड़ीजी उमेद कँवरजी बूंदी रानी राठौड़ चंदन कँवर बांदनवाड़ा-अजमेर रानी तंवर लाड कँवर लक्खासर-बीकानेर रानी राठौड़ सूरज कँवर जोधपुर-मारवाड़ रानी सोलंकिनी गुलाब कँवर अलीगढ़ (रामपुरा)-टोंक रानी राठौड़ बख्त कँवर अमझेरा-मालवा |
बच्चे |
पुत्र :- युवराज शिव सिंह महाराजा सवाई ईश्वरी सिंह महाराजा सवाई माधो सिंह पुत्रियां :- बाईजी लाल विचित्र कँवरजी जोधपुर में विवाह बाईजी लाल किशन कँवरजी बूंदी में विवाह |
काशी, दिल्ली, उज्जैन, मथुरा और जयपुर में, अतुलनीय और अपने समय की सर्वाधिक सटीक गणनाओं के लिए जानी गयी वेधशालाओं के निर्माता, सवाई जयसिह एक नीति-कुशल महाराजा और वीर सेनापति ही नहीं, जाने-माने खगोल वैज्ञानिक और विद्याव्यसनी विद्वान भी थे।[2] उनका संस्कृत , मराठी, तुर्की, फ़ारसी, अरबी, आदि कई भाषाओं पर गंभीर अधिकार था। भारतीय ग्रंथों के अलावा गणित, रेखागणित, खगोल और ज्योतिष में उन्होंने अनेकानेक विदेशी ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक पद्धतियों का विधिपूर्वक अध्ययन किया था और स्वयं परीक्षण के बाद, कुछ को अपनाया भी था। देश-विदेश से उन्होंने बड़े बड़े विद्वानों और खगोलशास्त्र के विषय-विशेषज्ञों को जयपुर बुलाया, सम्मानित किया और यहाँ सम्मान दे कर बसाया। [3]
जयसिंह की गणित, वास्तुकला और खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर सहित भारत के कई स्थानों पर जंतर मंतर वेधशालाओं का निर्माण किया। उनके पास यूक्लिड के "एलीमेंट्स ऑफ़ ज्योमेट्री" का संस्कृत में अनुवाद था [4] [5]
अपने पिता महाराजा बिशन सिंह के असामयिक देहान्त के बाद २५ जनवरी १७०० को ११ वर्ष की लगभग बाल्य-अवस्था में वे आमेर की गद्दी बैठे।[6] औरंगजेब ने उन्हें 'सवाई' की [मौखिक] उपाधि दी थी - जिसका प्रतीकात्मक-अर्थ यही है कि वे अपने समकालीनों से 'सवाया' (या सवा-गुना अधिक बुद्धिमान और वीर) थे। सुना जाता है जब दिल्ली बादशाह औरंगजेब के दरबार में युवा सवाई जयसिंह पहले-पहल हाजिर हुए, तो औरंगजेब ने एकाएक बालक जयसिंह के दोनों हाथ पकड़ लिए और पूछा "अब बताइये, आप क्या करेंगे?" इस पर प्रत्युत्पन्नमति जयसिंह होठों पर मुस्कान लिए निहायत शांत स्वर से बोले, "आलमपनाह ! हमारे यहां हिन्दुओं में विवाह पर एक परम्परा है। वर, वधू का एक हाथ अपने हाथ में लेकर इस बात की प्रतिज्ञा करता है कि वह उसका हाथ जिन्दगी भर नहीं छोड़ेगा, उम्र भर उसका साथ निबाहेगा! आज बादशाह सलामत खुद मेरा एक हाथ नहीं, मेरे दोनों ही हाथ जब अपने हाथ में ले चुके हैं, फ़िर मुझे किस बात की परवाह?" औरंगजेब को इस चतुराई भरे जबाब की उम्मीद न थी, लेकिन इस बुद्धिमत्तापूर्ण हाज़िरजवाबी से वह बहुत प्रसन्न हुआ।[7],[8]यदुनाथ सरकार ने अपने जयपुर इतिहास में इस 'उपाधि' के बारे में जो शब्द लिखे हैं-अविकल रूप से ये हैं-"
The new Rajah also gained the title of Sawai, which means 'one and a quarter', because Aurangzeb was so pleased with this youthful prince's feats before Khelna that he cried out," You are more than a man, you are sawa- i.e.,a hundred and twenty five per cent hero'
कुछ दूसरे स्रोत बतलाते हैं 'सवाई' की उपाधि औरंगजेब द्वारा नहीं बल्कि बादशाह फर्रुख़ सियर द्वारा इन्हें दी गयी थी। [10] पर यह बात (जो शायद किंवदंती का रूप ले चुकी है) अधिकांश ग्रंथों में औरंगजेब के साथ जुडी मिलती है।
महाराजा सवाई जयसिंह जी द्वितीय का जन्म मार्गशीर्ष वदी 7 वि० सं० १७४५ ई० [दिनांक 4 नवम्बर, 1688][11] को मिर्ज़ा राजा बिशन सिंह की रानी राठौड़,अजमेर में खरवा के जागीरदार राव केसरी सिंहजी की जेष्ठ पुत्री इँद्र कँवर की कोख से हुआ। इनके छोटे भाई कुंवर विजय सिंह और बहन बाई लाल अमर कँवर थीं,जिनका विवाह पिता के मृत्युपरांत महाराजा सवाई जय सिंहजी द्वितीय ने बूंदी के महाराव बुद्ध सिंहजी के साथ उनकी पटरानी के रूप में सामोद (आमेर राज्य) में संपन्न करवाया।
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== सवाई जयसिंह के शासन का सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास ==
=== सत्ता का अधिग्रहण और नाम-परिवर्तन ===
राजा विष्णुसिंह की [[काबुल]] में रविवार ३१ दिसम्बर [[१६९९]] (रजब १९, जुलुसी वर्ष ४३) को मृत्यु<ref>Akhabarat : Jadunath Sarkar :'A History of Jaipur' : Page 147 :</ref> होने पर मार्गशीर्ष सुदी ७ वि० सं० १७५६, जनवरी २५, १७०० ई० को ये आमेर की गद्दी पर बैठे। मृत्यु के प्रायः डेढ़ माह बाद १८ फ़रवरी १७०० को महाराष्ट्र के शाही-शिविर में मिर्ज़ा राजा बिशन सिंहजी का काबुल में हुए निधन की खबर पहुँची, तो दो दिन बाद (अर्थात २० फरवरी,१७०० को) बादशाह औरंगजेब ने उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम विजय सिंह से बदल कर जयसिंह करते हुए, उन्हें आमेर की गद्दी का वारिस स्वीकार किया। बादशाह ने जयसिंह के छोटे भाई चीमा जी का नाम विजयसिंह रखा। [13]
यदुनाथ सरकार के अनुसार "...जुलाई १६९८ में दक्षिण से लौटने के बाद से जयसिंह आमेर में ही बने रहे, जब कि बादशाह ने इन्हें हाजिरी देने के लिए कई 'कड़े बुलावे' भी भेजे| इनके पिता के समय से ही दिल्ली-बादशाह इनको अपनी सैनिक 'सेवा' में लेने के लिए हेतु दक्षिण में बुलाना चाहते थे। परन्तु राजा बिशन सिंहजी अपने पुत्र को दक्षिण में नहीं भेजना चाहते थे। लेकिन बादशाह के ज्यादा दबाव देने पर ई० १६९८ में ये महाराष्ट्र (दक्षिण) गये। (वहां पहली भेंट में बादशाह ने इनकी तीव्र बुद्धि देख कर इन को 'सवाई' कहा था। तभी से इनके नाम के पहले सवाई की उपाधि लग गई, जो अभी तक जयपुर के भूतपूर्व राजाओं के नाम के साथ जुड़ी हुई है।) आठ महीने मुग़ल शिविर में रह कर ये वापस अपनी राजधानी [आमेर] लौट आये।
गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद, जैसा ऊपर लिखा गया है, इन्हें नवम्बर १७०० में दक्षिण में अपनी सेना के साथ मुग़ल बादशाह की फ़ौज के रूप में लड़ने के लिए बुलाया गया था, पर किसी न किसी तरह जयसिंह बराबर टालमटोल करते रहे। वह जब कई शाही-आदेशों की अवहेलना कर चुके, तो अंततः इन्हें 'जबरन' ले आने को बादशाह ने कुछ हरकारे आमेर तक भी भेजे| इनकी अनुपस्थिति से नाराज़ बादशाह औरंगजेब ने इन से आमेर राजा का खिताब तो नहीं छीना, पर १३ सितम्बर १७०१ को इन्हें 'पदावनत' करते हुए मात्र ५०० जात, १०० सवार का मामूली मनसबदार बना दिया। कठिन मार्ग और वर्षा से अवरुद्ध रास्तों से जूझते बुरहानपुर में पड़ाव डाल कर अक्टूबर १७०१ में इनके दक्षिण में पहुँचने पर इन्हें औरंगजेब के पोते (सेना-अधिकारी और पुत्र आलम शाह के पुत्र) शाह बिदरबख्त के पास पन्हाला की सुरक्षा के लिए उनका सैन्य-सहयोगी नियुक्त किया गया।[14]
औरंगजेब के पोते शाह बिदरबख्त के नेतृत्व में बादशाही सेना ने 11 मई ई० 1702 को खिलना के किले पर भारी हमला किया। इसमें आमेर और मुग़ल संयुक्त-सेना की बहुत जनहानि हुई, पर दीवारों को तोड़ कर सबसे पहले जयसिंह की कछवाहा सेना ही खिलना-दुर्ग में प्रविष्ट हुई। उसकी बुर्ज पर आमेर का 'पंचरंगा झंडा' फहराया गया। (इस समय जयसिंह की उम्र केवल १४ वर्ष थी)। खिलना-युद्ध में इनका वीर और भरोसेमंद दीवान बुद्धसिंह मारा गया। इस खिलना-विजय पर बादशाह औरंगजेब द्वारा इनका मनसब बढ़ा कर पहले एक हज़ार, फिर शाह बिदरबख्त के अनुरोध के बाद २००० (दो हजार जात) का कर दिया गया। बादशाह की छः साल की 'कठिन सेवा' का महज़ यह प्रतिदान जयसिंह को मिला! इसके बाद जब शाहजादा बिदरबख्त मालवे का सूबेदार हुआ, तब उसने जयसिंह की सेवाओं का सम्मान करते उन को वहाँ का नायब सूबेदार बना दिया, जिसे औरंगजेब ने तत्काल ही 'नामंजूर' कर दिया तथा एक फरमान लिखा कि आइन्दा किसी हिन्दू भी को मामूली फौजदार तक भी नहीं बनाया जाए।'[15]
विडम्बना हैरतंगेज़ है कि जिस औरंगजेब ने कभी इन्हें 'सवाई' कह कर सम्मान दिया वही बाद में वस्तुतः इनसे इस कदर नाराज़ और पूर्वाग्रहग्रस्त था कि उसने ये अपमानजनक आज्ञा जारी की- "जयसिंह को मसनद पर आसन न दे कर, नीचे ज़मीन पर बिछी 'सुजनी' पर बैठने को कहा जाय!"[16]
इसी बीच ई० 1704 में दो बादशाही फौजदारों ने स्थानीय मदद ले कर ठाकुर कुशल सिंहजी राजावत से सवाई माधोपुर में आज स्थित झिलाय ठिकाने की जागीर छीन कर १३ नवम्बर 1704 को जयसिंह (आमेर राज्य) को सौंप दी। दूसरे साल ई० 1705 में शाह बिदरबख्त ने अपनी तरफ से इनके पक्ष में फिर से कोशिश करके जयसिंह को मालवा का भी नायब सूबेदार बनवा दिया।[17] पर जब तक औरंगजेब जीवित रहा, मुग़ल खेमे में इनका प्रभाव मद्धम सा ही रहा।
ई० १७०७ में २१ फ़रवरी को औरंगजेब के देहांत के बाद मुग़ल-गद्दी के लिए उसके बेटों में विकट-संघर्ष शुरू हो गया। शाह आजम ने आगरा व दिल्ली पर चढ़ाई की। उस समय तक उसने इनका मनसब ५००० जात ५०० सवार का कर दिया था। जून १८, १७०७ ई० को मौजम (मुअज्जिम) और आज़म की सेनाओं के बीच आगरा के २० मील दक्षिण में जाजू का युद्ध हुआ। जयसिंह मौजम (मुअज्जिम) के साथ थे तथा इनके सगे छोटे भाई चीमाँ जी (विजयसिंह) आज़म की सेना की तरफ। इस युद्ध में मौजम और उनके पुत्र मारे गये। जाजू की लड़ाई में आज़म की विजय हुई। इसी युद्ध में जयसिंह तथा अखेसिंह टोरड़ी भी घायल हुए | इनके कई सरदार- बिहारीदास (दांतरी), केशरीसिंह (हरसोली), सूरसिंह (हरमाड़ा) आदि मारे गये। युद्ध के आखरी समय में जयसिंह बूंदी के राजा अपने बहनोई महाराव बुधसिंहजी हाड़ा के मारफत युद्ध में विजयी आज़म से जा मिले, परन्तु उसने इनका खास स्वागत नहीं किया।[17],[18]
जयसिंहजी के छोटे भाई विजयसिंहजी, बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन बाईजीलाल अमर कँवरजी का विवाह बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) से करवाना चाहते थे। उन्होंने इसकी खबर दिल्ली भेज दी तथा महाराव बुद्धसिंहजी हाड़ा को छुट्टी जाते समय जय सिंहजी ने रास्ते में रोक कर उनसे सामोद में यह विवाह करवा दिया। नये बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) ने इसके बाद राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी १७०८ ई० में वह आमेर पहुँचा और उसे खालसा कर लिया। जयसिंहजी से आमेर की जागीर जब्त करके बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) द्वारा १० जनवरी १७०८ को उनके छोटे भाई विजयसिंहजी (चीमाजी) को अनेकानेक महंगे उपहारों सहित दे दी गयी। सवाई जयसिंहजी का राजनैतिक कद घटा कर एक मामूली 'मनसबदार' के रूप में कर दिया गया। [19]
बादशाह इसके बाद अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई कामबक्श से मुकाबला करने को बढ़ा। आमेर और जोधपुर के दोनों राजा मंडलेश्वर के इलाके तक उसके साथ ही गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके उन्हें वापस लौटाएगा तो उन्होंने दुर्गादासजी राठौड़ की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ, २० अप्रैल १७०८ वैशाख सुदी १३ को बादशाही-शिविर छोड़ दिया और वे राजपूताना की ओर वापस रवाना होकर मेवाड़ उदयपुर पहुँचे।
यहाँ महाराणा प्रताप के पर-पर-पर-पर पौत्र और उस समय के महाराणा अमरसिंहजी द्वितीय ने इनका स्वागत किया,इनकी सहायता हेतु एवं राजपूत संघ को पुनः जागृत करने के लिए अपनी पुत्री बाईजी लाल चँद्र कँवरजी जयसिंह को 25 मई सन् 1708 में ब्याही और यह वचन लिया की वो मुगल सत्ता से कोई संबंध नहीं रखेंगे खास कर कोई भी कन्या विवाह हेतु नहीं देंगे तथा मेवाड़ी रानी से उत्पन्न पुत्र को आमेर-जयपुर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाएंगे और एक जुट होकर राजपूत संघ का नवनिर्माण करेंगे। यहाँ से तीन राजाओं की ३० हजार सेना ने संयुक्त-रूप से जोधपुर पर हमला करके ८ जुलाई १७०८ ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अजीत सिंहजी ने जोधपुर में जयसिंहजी का टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध एकत्र होने संबंधी पत्र भी लिखे।[18]
जोधपुर से विजय सिंह शासित आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी गयीं। एक दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में, जिसका सैयदों से काला डेरा के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह के अधीन २० हजार घुड़सवार थे। इनका रतनपुरा के पास आमेर के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ, जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अपना अधिकार कर लिया।[18]
इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध मेवात के फौजदार सैयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को सांभर भेजा गया । दोनों राजाओं के इन फौजदारों से सांभर में ३ अक्टूबर ई० १७०८ को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंहजी उनियारा के नेतृत्व में नरुका लड़ाके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े, जिसके नीचे सैयद आदि शराब की महफिल कर रहे थे। नरुकों ने उन पर एकाएक बन्दूकों और तीरों से भयानक हमला किया। उसमें सब मुग़ल फौजदार मारे गये तथा मुगलों की जीती हुई बाजी हाथ से निकल गई।
फिर जयसिंह ने एक पत्र बादशाह के विरुद्ध दुर्गादास को लिखा कि "उदयपुर महाराणा से बात की जाए ...मराठों को मिला कर मुग़लों के विरुद्ध राजपूतों को वही करना चाहिए जो 'हिन्दुस्तान' के लिए गौरव की बात हो।"[18]
बादशाह बहादुरशाह जब दक्षिण से वापस लौटा, तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह जोधपुर और आमेर (जयपुर) दोनों राजाओं से समझौता किया जाए। इन्हें लाने के लिए उसने बुधसिंह हाड़ा राजा बून्दी को भेजा, जिनके मारफत २१ जून ई० १७१० को ये अजमेर के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके जब्त किये राज्य वापस लौटा दिए और इन दोनों को ४००० जात ४००० सवार के मनसब भी दिये। उस समय तक भी राजपूतों का मुगलों पर बिल्कुल विश्वास नहीं था, इसलिए जब सवाई जयसिंह अजमेर में बादशाह के शिविर में गये तब अजमेर के तमाम पहाड़ तथा घाटियाँ राजपूत-सैनिकों से भरी हुई थीं। मनसब बढ़ने और इलाके वापस आने पर भी उन्हें बहादुरशाह की नीयत पर कभी भी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ।[18]
जयसिंह के भाई विजयसिंह के साथ भी कुछ ऐसा हुआ कि (जन्म चैत सुदी ६ वि. १७४७) निराश होकर अन्त में मुगल दरबार छोड़ कर हिन्डौन आ गए। जयसिंह को भाई विजयसिंह की तरफ से सशस्त्र विद्रोह खतरा तो बना हुआ था ही। इन्होंने १७१३ ई० में विजयसिंह से समझौता करने और 'राजमाता से भेंट' करने के नाम पर अपने सशस्त्र सैनिकों एवं सरदारों समेत सांगानेर जा कर धोखे से उनको कैद करवा दिया[20] और जयगढ़ किले में भेज दिया। (वहीं वे अन्त में मारे भी गये।) विजयसिंह के इस 'हत्याकाण्ड' में श्यामसिंह खंगारोत विशेष सहायक रहा।
बहादुर शाह (प्रथम) की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी जहाँदरशाह ने आमेर और मारवाड़ दोनों राजाओं को फिर अपने पक्ष में करना चाहा। उसने दोनों को ७००० जात व ७००० सवार का मनसब भी दिया, परन्तु इस बार इन्होंने मुग़ल-उत्तराधिकारी के आपसी संघर्ष में औरंगजेब के पुत्रों से दूर ही रहने का फैसला किया। फ़र्रुख सियर के मुग़ल बादशाह बनने के बाद हुसैन अली सैयद ने श्यामसिंह खंगारोत को बुलवाया तथा उनसे बात करके जयसिंह को बादशाह से ५००० जात ४५०० सवार का मनसब दिलवाया। जब अतसिंह का बादशाह के साथ मतभेद हो गया, तब बादशाह ने सैयद हुसैन अली को सेना लेकर अजमेर भेजा जहाँ अतसिंह ने कब्जा कर लिया था। उस समय जयसिंह भी हुसैन अली सैयद के साथ थे। अन्त में अतसिंह से सन्धि हुई।[18]
अक्टूबर १७१३ ई० में इन्हें बादशाह फ़र्रुख सियर ने मालवा की सूबेदारी प्रदान की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी कुचले। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने पलसूद के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी सेना के लोग भाग कर पलसूद में ठहरे थे। जयसिंह ने रात में ही उन पर हमला कर दिया। इनकी सेना को देखते ही वे भाग निकले व नर्वदा नदी पार कर गये। उनकी लूट का सब माल वहीं रह गया। मालवा में छत्रसाल बुन्देला भी इनके साथ थे। १७१५ ई० में इनको दिल्ली बुला लिया गया। तब इनकी अनुपस्थिति में इनके धाभाई रुपाराम को इन्होंने वहां नायब बना कर रखा। १७१७ तक ये मालवा के सूबेदार रहे। बादशाह फ़र्रुख सियर ने भीमसिंह हाडा राजा कोटा को बून्दी की रियासत दे दी थी और उसने बून्दी पर कब्जा भी कर लिया था। जयसिंह ने प्रयास करके बादशाह से बून्दी वापस राजा बुधसिंह हाडा को दिलवायी।[18]
दिल्ली से बादशाह ने इनको भरतपुर के चूड़ामन जाट पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी, जिसने आगरा के इलाके में लूटमार से बड़ा उपद्रव मचा रखा था। इनके साथ बून्दी के बुद्धसिंह, कोटा के भीमसिंह, नरवर के गजसिंह, दुर्गादास राठौड़ व कई अन्य मनसबदार भी नियुक्त किये गये। १५ सितम्बर १७१६ को ये अपनी फौज ले कर मथुरा के लिए रवाना हुए। नवम्बर में चूड़ामन के प्रसिद्ध किले थूण का घेरा शुरू किया। वर अब्दुल्ला खां सैयद, जयसिंह के विरुद्ध था तथा चूड़ामन को मदद दे रहा था। इससे इन्हें इस अभियान में सफलता नहीं मिल पाई। वर अब्दुल्ला खां सैयद ने अन्त में बीच में पड़ कर थून का घेरा उठवा लिया। मई १७१८ में जयसिंह की वापसी दिल्ली हुई। चूडामन के इलाके में इस असफलता के बावजूद बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया।[18]
सैयदों और बादशाहों के बीच तलवारें खिंच चुकी थी। जयसिंह ने बादशाह फ़र्रुख सियर को बहुत समझाया कि सैयदों से युद्ध करके उन्हें हमेशा के लिए साफ कर देना चाहिए। उस समय उनके पास २० हजार राजपूत सवार दिल्ली में मौजूद थे तथा बून्दी के बुद्धसिंह हाडा भी उन्हीं के साथ थे। परन्तु बादशाह की यह सैन्य कार्यवाई करने की हिम्मत नहीं हुई। वह सैयदों को किसी तरह खुश करने में लगा रहा। अन्त में सैयदों ने बादशाह से जयसिंह को दिल्ली से जाने को कहलवा दिया। जयसिंह ने बादशाह को सचेत किया कि उनके जाने से बादशाह की जान को खतरा हो जाएगा लेकिन यह सलाह बादशाह की समझ में नहीं आई। १३ फ़रवरी १७१९ ई० को जयसिंह दिल्ली से रवाना हुए। उसके कुछ ही घंटों बाद भींमसिंह कोटा राजा ने बुधसिंह बूंदी पर आक्रमण कर दिया। उनके स्वामिभक्त सरदार जैतसिंह ने बड़ी वीरता से कोटा की सेना को रोका तथा बुधसिंह को सुरक्षित वहाँ से निकाल दिया। वे भाग कर सवाई जयसिंह के पास पहुँचे। १७- १८ अप्रैल को सैयद भाइयों, अतसिंह जोधपुर और भीमसिंह कोटा ने मिल कर दिल्ली में बादशाह फर्रूखशियर को मार डाला।[18]
जयसिंह ने इलाहाबाद के सूबेदार छबीला राम और निजाम से सैयदों के विरुद्ध भी पत्र-व्यवहार किया। वे चाहते थे कि सब मिल कर सैयदों को अपदस्थ कर दें। इन्होंने छत्रसाल बुन्देला को भी युद्ध के लिए बुलाया। सैयदों ने कई सेनाएँ इनके विरुद्ध कई तरफ से घेरने के लिए भेजीं| वर अब्दुल्ला खां ने ५ जुलाई को नाममात्र के बादशाह रफीउदुल्ला को साथ लेकर जयसिंह पर चढ़ाई की और मथुरा होता हुआ वह आगरा पहुँचा, जहाँ सैयदों के विरुद्ध बगावत हो रही थी। जयसिंह ने भी सैयदों से पूरे तौर से मुकाबला करने की तैयारी कर ली थी पर युद्ध में रवाना होने के पहले उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर आमेर राज्य दान में दे दिया और केसरिया बाना धारण करके वे सैयदों से लड़ाई के लिए रवाना हुए। ये आमेर से आगे बढ़ कर टोडा रायसिंह तक पहुँच गये थे। पर निजाम और छबीलाराम दोनों ही वायदे के अनुसार इनके पक्ष में कायम नहीं रहे।[18] जयसिंह को निराशा हाथ लगी।
अन्त में राजा अजीत सिंहजी जयसिंहजी को अपने साथ जोधपुर ले गये जहाँ उन्होंने 20 मई सन् 1720 में अपनी पुत्री बाईजी लाल सूरज कँवरजी का शुभ विवाह जय सिंहजी के साथ करवा दिया। सैयदों ने जयसिंहजी को २० लाख रुपये दिये, जिससे वे आमेर वापस ब्राह्मणों से वापस खरीदें। उस समय भी जयसिंहजी को राजा अजीतसिंहजी जोधपुर पर विश्वास नहीं था इसलिए वे अपने विवाह में भी जिरहबख्तर पहन कर गये थे।[18]
सैयदों की दो सेनाएँ जब दक्षिण में निजाम से परास्त हो गई, तब हुसैन अली खां सैयद, बादशाह मोहम्मद शाह को साथ ले कर, एक बड़ी सेना के साथ निजाम को दबाने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर ८, १७२० ई० को टोडाभीम में उसने हुसैन अली को धोखे से मार डाला। अब बादशाह ने तैयारी करके सैयद अब्दुल्ला खां पर चढ़ाई की जो दिल्ली में था। इस युद्ध के लिए महाराणा ने जयसिंह से पूछा कि 'उसे क्या करना चाहिए?' जयसिंह ने उदैपुर के महाराणा को बादशाह की मदद करने के लिए पत्र लिखा तथा साथ में ही महाराणा के अलावा बीकानेर, कोटा और राव इन्द्रसिंह नागौर को भी बादशाह की मदद करने के लिए पत्र भेजे। सवाई जयसिंह ने खुद बादशाह मोहम्मद शाह की मदद के लिए राव जगराम के साथ एक अच्छी सेना भेजी। इस सेना में सवाई राम (नरुका), गढ़ी गजसिंह, नरुका जावली, जसवन्तसिंह, सवाईराम के पुत्र, प्रतापसिंह कल्यणोत, बुद्धसिंह कल्यणोत, गुलाब सिंह कल्यणोत, छीतरसिंह कल्यणोत, अमरसिंह राजावत, बहादुर सिंह खंगोरात और सरदारसिंह नरुका आदि सरदार थे। ३ और ४ नवम्बर १७२० को युद्ध हुआ जिसमें सैयद अब्दुल्ला खां पकड़ा गया। विजय के बाद बादशाह ने जयपुर के सरदारों को अपने हाथ से खिलअतें दीं।[18]
मोहम्मद शाह ने दिल्ली पहुंचते ही जयसिंह को दिल्ली आने का फरमान भेजा जिसमें लिखा कि उनसे अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर सलाह लेनी है। उसने दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ने अपने नये वर मुहम्मद अमीन खां को उनके डेरे पर लेने भेजा। दरबार में आने पर बादशाह ने उनका बड़ा सत्कार किया और अनेक तोहफे दिए। उनके मनसब में ४००० सवार और बढ़ा दिए गए। इसी मौके पर इन्हें दो करोड़ रुपये इन्हें इनाम/ बख्शीश में दिये जिनको इन्होंने नम्रतापूर्वक लेने से मना कर दिया। पर बादशाह ने सवाई जयसिंह और राजा गिरधर बहादुर के अनुरोध पर हिदुओं पर लगाया जाने वाला कठिन जजिया कर माफ कर दिया। महाराणा मेवाड़ ने जजिया हटवा देने की सफलता पर सवाई जयसिंह को अपनी और से प्रसन्न हो कर लिखित बधाई भेजी।[18]
सैयदों के पतन के बाद जयसिंह का राजनैतिक महत्त्व तेज़ी से बढ़ने लगा। राजस्थान, मालवा और बुन्देलखण्ड के राजा हर मुसीबत में उनसे सहायता और सलाह चाहते थे। इन इलाकों में इनकी राय के बगैर कुछ भी नहीं होता था। १७३५ ई० के बाद तो मरहठे भी इनकी सलाह लेने तथा इनको आदर देने लग गए।[18]
इन्हें सवाई के अलावा मुग़ल बादशाहों ने जो अन्य उपाधियाँ समय समय पर दीं वे थीं - सरमदे –राजा-ए- हिन्द'/ 'राजराजेश्वर'/ 'श्रीराजाधिराज आदि।
सितम्बर १७२२ ई० में जयसिंह को आगरा का सूबेदार बना कर जाटों को दबाने को भेजा गया। इनके साथ ५० हजार सैनिकों की बड़ी फौज थी तथा अनेक मनसबदार भी इनके साथ थे। शाही तोपखाना भी इनके साथ था। चूड़ामन जाट का पुत्र मोहकमसिंह इस समय जाटों का नेता था। परन्तु चूड़ामन का भतीजा बदनसिंह जो उससे नाराज था, जयसिंह से आ कर मिला। इन्होंने उसका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। एक बार फिर इन्होंने थूण के किले पर घेरा डाला। अतसिंह जोघपुर ने एक सेना मोहकमसिंह की मदद के लिए भेजी, परन्तु वह जोबनेर से आगे नहीं बढ़ी। विभीषण की तरह बदनसिंह की सलाह से थूण के किले का विजय होना निश्चित दिख रहा था। तब मोहकमसिंह निराश होकर गुप्त मार्ग से किला छोड़ कर अतर सिंह के पास जोधपुर पहुँचा। किन्तु जाटों के थून स्थित किले पर सवाई जयसिंह का अधिकार हो गया। इन्होंने सूरजमल के पिता बदनसिंह को भरतपुर की जागीर दी तथा राजा के रूप में उनके पगड़ी बाँधी। जून १९, १७२३ ई० को ठाकुर बदनसिंह जाट ने 'जयपुर दरबार की सेवा करने' व ८३ हजार रुपये बतौर सालाना पेशकश देना स्वीकार करके इस आशय की लिखावट पर दस्तखत किये। बदनसिंह जयपुर के दशहरा दरबार में हर साल आया करते थे। जयपुर में जहाँ जाट सेना सहित डीग के राजा का पड़ाव लगता था, वह स्थान अब भी बास बदनपुरा कहलाता है।[18]
महाराजा सवाई जयसिंह के कार्यकाल का संभवतः सबसे बड़ा और कीर्तिवान कार्य था - सन १७२७ में जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। राजगुरु सम्राट जगन्नाथ ने नए नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा भूमि पूजा करवाई थी। महाराजा की आज्ञा के अनुसार नए नगर का नक्शा दीवान विद्याधर ने बनाया जो बहुत प्रतिभाशाली बंगाली ब्राह्मण था और इनके लेखा-विभाग की सेवा में नायब-अंकेक्षक था। सन १७३३ ई० में यह नगर, जिसका नाम सवाई जयसिंह ने ' सवाई जयनगर' रखा बन कर तैयार हुआ।[18]
जयसिंह को मुग़ल बादशाह द्वारा मालवा का दुबारा सूबेदार बनाया गया। वे २३ अक्टूबर १७२९ ई० को उज्जैन के लिए रवाना हुए। जयसिंह अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विद्रोही मरहठों से समझौता करना चाहते थे। इनके इस समझौता-प्रस्ताव को बादशाह ने भी स्वीकार कर लिया था। इनकी इस विजय पर साहू से लिखा पढ़ी हुई। साहू इसके लिए तैयार हो गया था, किन्तु पेशवा लोग इस समझौते के ज्यादा पक्ष में नहीं था। इन्होंने दीपसिंह कुम्भाणी को साहू के पास सतारा भेजा। लौटते समय दीपसिंह निजाम से भी मिला, परन्तु सितम्बर १७३० ई० में इनके मालवा की सूबेदारी से हट जाने से वह समझौता नहीं हो सका।[18]
बुद्धसिंह बून्दी और उनकी कछवाही रानी के आपस में गंभीर मतभेद पैदा होने पर जयसिंह के सम्बन्ध भी बूंदी नरेश बुद्धसिंह से बहुत खराब हो गये। अन्त में सम्बन्ध इतने बिगड़े कि जयसिंह ने बादशाह को कह कर बुद्धसिंह के स्थान पर करवाड़ के सालिम सिंह हाडा के पुत्र दलेलसिंह को बून्दी का राजा बनवा दिया और बाद में अपनी पुत्री भी उसे ब्याह दी। इससे राजस्थान में जयपुर और बूंदी के बीच लम्बे समय तक बड़ा दु:खद संघर्ष चला। इस आपसी मनमुटाव से मरहठों को फिर राजस्थान में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। जयसिंह को १७३० ई० में मालवा में इत्तला मिली कि बुद्धसिंह फिर से बून्दी पर अधिकार करने जा रहे हैं। इन्होंने एक सेना दलेलसिंह की मदद को भेजी| ६ अप्रैल १७३० को कुशत्तल पंचोलास में बुधसिंह से जयपुर सेना का युद्ध हुआ जिसमें जयपुर के पांच राजावत सरदार फतहसिंह सारसोप (बरवाड़ा) खोजूराम (ईसरदा), सांवलदास (शिवाड), अचलसिंह (नानतोड़ी) और घासीराम अचरे मारे गए।। इस युद्ध में बुद्धसिंह को विजय नहीं मिली। मालवा से लौटते समय महाराजा सवाई जयसिंह कुशत्तल पांचोलास गये। उन्होंने वहाँ मारे गये सरदारों की मातमी करके उनके पुत्रों को सिरोपाव आदि दिये।[18]
जयसिंह दिसम्बर १७३२ में तीसरी बार मालवा प्रान्त के सूबेदार बनकर उज्जैन गये। इस बार मालवा में भी मरहठों का उत्पात इतना बढ़ गया था कि मालवा से मरहठों को निकालने के इनके तमाम प्रयास विफल रहे। १७३४ ई० में खानदौरा एक बड़ी सेना लेकर राजपूताना होता हुआ मालवा में मैराथन के विरुद्ध आगे आया। जयसिंह, अभयसिंह (जोधपुर) आदि अनेक राजा उनके साथ थे। जब यह विशाल सेना रामपुरा पहुँची तो उसे मरहठा मिले। पर वे छुटपुट लड़ाइयों के बाद इन्हें छका कर पीछे से राजस्थान में घुस गये। वहाँ उनको रोकने वाला कोई नहीं था और वे मराठे जयपुर राज्य में साँभर तक लूटपाट करते चले गये। १७३५ ई० में पेशवा बाजीराव की माँ उत्तर में तीर्थ करने आई। महाराजा जयसिंह ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा महाराणा से भी उसका सत्कार करवाया। आगरा में इनके नायब सूबेदार ने अपने दीवान आयामल के भाई नारायणदास को उसका स्वागत करने व पूना तक साथ जाने की आज्ञा भेजी। जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे। उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फ़रवरी को महाराजा जयसिंह मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले। उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी। बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया। बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ। नया पेशवा बालाराव बना। १७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे। इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई। इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी।[18]
जब नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई। पेशवा, महाराणा अन्य राजाओं व बुन्देलों को मिला कर जयसिंह, नादिरशाह का संगठित मुकाबला करना चाह रहा था। हालांकि 24 फरवरी 1739 को करनाल में वह (नादिरशाह) मुग़ल सेना को बुरी तरह पराजित कर चुका था। यह भी अफवाह थी कि नादिरशाह जयपुर होता हुआ अजमेर जाएगा। यह जयसिंह के लिए भी बड़ा खतरा था। सब चौकन्ने थे, लेकिन अन्त में वह मथुरा से ही वापस अपने देश लौट गया।
"नादिरशाह ने जब भारत पर हमला (फरवरी-मार्च १७३९) किया तब दिल्ली की सहायतार्थ जयसिंह नहीं गए। इस का कारण यह था- तब निजाम और कमरुद्दीन उस समय साम्राज्य में उच्च पदों पर थे और नादिरशाह के हमले के लिए वे लोग इनके उत्तरदायी होने का शक कर सकते थे, किन्तु सम्राट बराबर इनमें विश्वास रख कर इनसे आवश्यक परामर्श करता रहा।"[18]
महाराजा सवाई जयसिंह के दरबार में संस्कृत और ब्रजभाषा साहित्य, स्थापत्य, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, खगोल, इतिहास-लेखन, आदि क्षेत्रों में अनेक मौलिक रचनाएं की गयीं और सम्पूर्ण भारतीय मनीषा की इस अकादमिक-योगदान से बड़ी उन्नति हुई। अनेक नए धर्मशास्त्र भी रचे गये क्यों कि इनकी कर्मकांड और धर्मशास्त्र में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय के सबसे प्रसिद्ध विद्वान पंडित जगन्नाथ सम्राट, पंडित पुण्डरीक रत्नाकर, विद्याधर चक्रवर्ती, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि(एवं दैवज्ञ भूषण स्वास्तिश्री राज ज्योतिषी श्री मंत नोपाराम भार्गव जो बारहं ठिकानों के राज ज्योतिषी थे ओर तंवरावाटी के बिहार ग्राम के रहने बाले थे अश्वमेध यज्ञ के दोरान श्री मंत नोपाराम भार्गव को दक्षिणा में बारहं ठिकानों का राज ज्योतिषी न्युक्त किया गया था इसके उपरांत श्रीमंत साहब बिहार गाँव छोडकर सन् 1640ई. में डाबला ग्राम में आकर रहने लगे ) [21] मूलतः आन्ध्र से आये तैलंग पूर्वजों के वंशज ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध कवि विद्वानों में से थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि ने इनके समय में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें मुख्य 'ईश्वर विलास[22]- महाकाव्य भी है, जिसमें सवाई जयसिंह द्वारा 'अश्वमेध यज्ञ' करवाने का 'आँखों देखा हाल' वर्णित है।[23] जेम्स टॉड ने लिखा है " सवाई जयसिंह ने बहुत-सा धन खर्च कर के यज्ञशाला बनवाई थी और उसके स्तंभों और छत को चांदी के पत्तरों से मंडवाया था|[24]
पुण्डरीक रत्नाकर (मृत्यु वि. १७७६ में) ने इनसे व्रात्यस्तोम यज्ञ चैत वदी ३ वि॰सं॰ १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में करवाया। इन्होंने और दूसरे यज्ञ-जैसे श्रौत यज्ञ आदि भी सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह से पुरुषमेध यज्ञ करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। इन्होंने सम्राट यज्ञ भी कराया, जिसके पुरोहित इनके महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गुरु, जगन्नाथ सम्राट थे। १७३४ ई० में जयसिंह ने जो पहला अश्वमेध यज्ञ किया[25], २९ मई १७३४ को सम्पूर्ण हुआ।[26] इस अश्वमेध यज्ञ के समय, जो राजसी-घोड़ा छोड़ा गया था, उसे कुछ कुम्मणियों ने जलमहल से आगे, जयपुर के एक और प्रवेशद्वार (जिसका नाम बाद में जोरावर सिंह गेट रखा गया) के पास ही पकड़ लिया और अन्त में जयसिंह के अश्व के साथ जा रहे सरदार जोरावर सिंह घोड़ा पकड़ने वालों से युद्ध करके मारे गये।[27]
दूसरा अश्वमेध यज्ञ बड़े पैमाने पर जयसिंह ने वर्ष १७४२ ई० में करवाया। इन यज्ञों के अलावा जयपुर में पुरुषमेध यज्ञ, सर्वमेध यज्ञ, सोम यज्ञ आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण देश के पंडित-जगत में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा सम्पूर्ण हिन्दू-समाज ने इनकी इस सांस्कृतिक-पहल की प्रशंसा की।[28]
आसपास की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद जयपुर नगर उस समय विभिन्न विद्याओं, साहित्य और भारतीय-संस्कृति का आगार बन गया था। इसी कारण इसे दूसरी काशी भी कहा गया | कर्नल जेम्स टॉड ने भी माना है कि "महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दूविद्याओं का शरणस्थल बना दिया था। इस तरह भारत में सदियों से यज्ञादि की जो परम्परा लगभग बन्द हो चुकी थी, उन्हें महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर राज्य में फिर से प्रारम्भ किया।"[29]
महाराजा सवाई जयसिह ने एक नया राजधानी-नगर बसाने का विचार आमेर से दक्षिण में छ: मील दूर पौष वदी १ वि. सं. १७८४ तदनुसार नवम्बर २९ ई० १७२७ को पं० जगन्नाथ सम्राट के माध्यम से शिलान्यास करते हुए क्रियान्वित किया। सम्पूर्ण नगर-योजना दरबार के प्रमुख वास्तुविद विद्याधर चक्रवर्ती की तकनीकी सलाह से निर्मित हुई। नक्शा पहले कपड़े पर अमिट काली स्याही से तैयार किया गया। सवाई ने तालकटोरा तालाब बनवाया, मानसागर झील में 'जलमहल' निर्मित करवाया, प्राचीन कछावा किले जयगढ़ का पुनरुद्धार किया, आमेर के जो महल-भाग जयसिंह (प्रथम) ने बनवाए थे, उन सब का विस्तार किया तथा सुदर्शनगढ़ का महल भी बनवाया जिसको आज नाहरगढ़ का किला भी कहते हैं। विविध कला-कौशल विकास हेतु '६४ कारखाने' अर्थात् अलग-अलग विभाग स्थापित किये, नगर के बाहर आगरा रोड पर इनके द्वारा अपनी सिसोदिया रानी के लिए एक ग्रीष्मकालीन बाग़ और महल बनवाया गया। शहर में कल्कि का मंदिर और यज्ञस्तम्भ के पास भगवान विष्णु का मंदिर भी इन्होनें बनवाया। मथुरा में सीतारामजी का और गोवर्धन में गोवर्धनधारी के मंदिर भी इन्होनें ही बनवाये।[30]
नए नगर को ९ सामान क्षेत्रफल वाले खंडों (चौकड़ियों) में बांटा गया था, जिसके दो खण्ड मुख्य राजमहल 'चन्द्रमहल', विभिन्न राजकीय कारखानों, कुछ खास मंदिरों तथा वेधशाला के लिए आरक्षित रखे गये थे। सूरजपोल दरवाज़े से चांदपोल दरवाज़े तक सड़क की लम्बाई दो मील और चौड़ाई १२० फीट रखी गयी। इसी महामार्ग पर मध्य में तीन सुन्दर चौपड़ों का निर्माण भी प्रस्तावित किया गया जो यहाँ लगे हुए फव्वारों के लिए भूमिगत जलस्रोतों से जुड़े थे। शहर के चौतरफ बनाये गए परकोटे की दीवार २० से २५ फुट ऊंची तथा ९ फीट चौड़ी रखी गयी। इस परकोटे में (शहर में आने - जाने के लिए) सात सुन्दर प्रवेशद्वारों का निर्माण भी किया गया। रात को नगर-सुरक्षा हेतु इन्हें बंद कर दिया जाता था। सुन्दर राजसी राजमहल, भव्य-पाठशालाएं, बड़ी बड़ी, चौड़ी और एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करती एकदम सीधी सड़कें, एक सी रूप-रचना के आकर्षक बाज़ार, जगह-जगह कलात्मक मंदिर, (राजा राम की अयोध्या के वास्तु से प्रभावित) आम-भवन-संरचनाएं, सड़कों के किनारे लगे घने छायादार पेड़, पीने के पानी का समुचित प्रबंध, व्यर्थ-जल-निकासी की उपयुक्त व्यवस्था, उद्यान, नागरिक-सुरक्षा, आदि इन सब बातों का पूर्व-नियोजन सवाई जयसिंह ने अपने नगर-कौशल में सफलतापूर्वक किया।
कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने सन 1947 में 476 पृष्ठों में प्रकाशित अपना एक यशस्वी काव्य-ग्रन्थ जयपुर-वैभवम तो जयपुर के नगर-सौंदर्य, दर्शनीय स्थानों, देवालयों, मार्गों, यहाँ के सम्मानित नागरिकों, उत्सवों और त्योहारों आदि पर ही केन्द्रित किया था। [31]
जयपुर के पुराने राजमहल' चन्द्र महल' के उत्तर में जयपुर नरेशों के आराध्य देव गोविन्ददेव जी का मन्दिर है, दुनिया भर में जंतर मंतर के नाम से मशहूर विशाल वेधशाला भी यहीं मौजूद है[32]
पत्थर के विशाल यंत्र और ग्रह नक्षत्रों की गणना के लिए बने [33],[34] इन गणना-उपकरणों के निर्माता सवाई जयसिंह को बचपन से ही गणित और खगोल ज्योतिष में बड़ी गहरी दिलचस्पी थी[35]
किन्तु महाराजा जयसिंह को खगोलविद्या में 'दीक्षित' करने का बड़ा श्रेय पंडित जगन्नाथ सम्राट को है। राजा को वेद पढ़ाने के लिए नियुक्त मराठी सम्मानित विद्वान भारतीय ज्योतिर्विज्ञान को योगदान देते हुए सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' की रचना की तथा यूक्लिड के रेखागणित का अरबी से संस्कृत में अनुवाद किया।
सवाई जयसिंह ने अपने गुरु ही के अनुसरण में यह अनुभव किया कि न्यूटन [Newton] और फ्लेमस्टीड []John Flamsteed]] FRS (19 August 1646 – 31 December 1719) आदि द्वारा उल्लेखित यूरोपीय वैज्ञानिकों के पीतल या धातु के खगोल-यंत्रों से मौसम, तापमान, घिसाई, आदि कई कारणों से गणना फलावट में अक्सर अन्तर आ जाया करता है, इसलिए इन्होंने सबसे पहले १७२४ ईस्वी में दिल्ली की वेधशाला में धातु को छोड़ कर चूने और तराशे गए पत्थर से बड़े-बड़े गणना यंत्र बनवाये।
फिर इसी तरह इन्होंने जयपुर में १७३४ में और सन १७३२ से १७३४ के बीच मथुरा, बनारस और उज्जैन में भी अपने वास्तुविद विद्याधर के मार्गदर्शन में सम्राट जगन्नाथ द्वारा विकसित उन्नत यंत्रों- सम्राट-यन्त्र (लघु), नाडी-वलय-यन्त्र, कांति-वृक्ष-यन्त्र, यंत्रराज, दक्षिनोदक-भित्ति-यन्त्र, उन्नतांश-यन्त्र, जयप्रकाश-यन्त्र, सम्राट-यन्त्र (दीर्घ), शषतांश यंत्र, कपालीवलय यन्त्र, राशिवलय यन्त्र, चक्र यंत्र, राम यन्त्र, त्रिगंश यन्त्र आदि से युक्त नई वेधशालाएँ बनवाई।[36],[37] मथुरा की वेधशाला नष्ट हो चुकी, काशी और उज्जैन की वेधशालाएं नष्ट होने के कगार पर हैं; अब केवल जयपुर और थोड़ी बहुत दिल्ल्ली की वेधशाला इनके वैज्ञानिक-व्यक्तित्व का स्मरण कराती हैं।
जब इनको मालूम हुआ कि पश्चिम के ज्योतिषीगण द्वारा खासतौर पर पुर्तगाल में पिछले कुछ वर्षों में खगोलविद्या पर काफी काम हुआ है, इन्होंने गोवा के पुर्तगाली-गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल के बादशाह को अनेक तोहफे भेजे तथा गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल से खगोल विद्वान Padre Manoel Figueiredo को जयपुर बुलवाया।[38] जयसिंह ने १७२७ में उसे (Manoel Figueiredo को) योरोप में इस विषय की सारी उपलब्ध नवीनतम पुस्तकें / रचनाएँ तथा दूर्वीक्षण यंत्र (टेलीस्कोप) लाने भेजा। वह जब नवम्बर १७३० में वापस आया तो अपने साथ खगोलज्ञ जेवियर डीसिल्वा को और कुछ दूरबीनें साथ लाया। जेवियर डीसिल्वा Pere de la Hire (1640-1718) की सारणी 'Tabulae Astronomicae' लिस्बन से अपने साथ लाया था। इन्होंने अपने विद्वानों की सहायता से उन सारणियों का अध्ययन किया और व्यावहारिक उपयोग के बाद उनमें त्रुटियाँ पाईं| अंततः इन्होंने अपने यंत्रों की गणना से पुनः नई सारिणी बनाई, जिसका बादशाह के नाम पर नाम जिज़-ए-मुहम्मदशाही रखा गया।[39]
इनके दरबार में चन्द्रनगर से आया फ्रांसीसी खगोलज्ञ क्लाड बोडियर था। इनके दरबार में जर्मनी से फादर ऐन्टोइन गेवेल्स परगुइर व आद्रें स्टोब्ल भी आये थे। एक और हिन्दुस्तानी विद्वान, इनके यहाँ केवलराम था, जो गुजरात से आया था। उसने खगोल सम्बन्धी आठ ग्रन्थ लिखे थे। उसको सवाई जयसिंह ने 'ज्योतिषराय' की उपाधि भी दी।[40]
महाराजा सवाई जयसिंह ने युद्ध और राजनीति में उलझे रहने के बावजूद, नगर-निर्माण और खगोलशास्त्र में बड़ा काम किया। इन्होंने भारतीय खगोलविद्या के साथ यूनान, मध्य एशिया और योरोप में जो ग्रन्थ लिखे गये थे तथा जो यंत्र बने थे, उनको मंगवा कर उनका परीक्षण व उपयोग किया।
282 साल पहले लकड़ी, चूने, पत्थर और धातु से निर्मित यंत्रों के माध्यम से आकाशीय घटनाओं के अध्ययन की भारतीय विद्या को 'अद्भुत' मानते हुए इस स्मारक को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है| इन्हीं यंत्रों के गणना के आधार पर आज भी जयपुर के स्थानीय पंचांग का प्रकाशन होता है और हर बरस आषाढ़ पूर्णिमा को खगोलशास्त्रियों द्वारा 'पवन धारणा' प्रक्रिया से आने वाली वर्षा की भविष्यवाणी की जाती है।
भारत में जयसिंह से पूर्व, खगोलशास्त्र में अनेक दशकों यहाँ तक कि सदियों से कोई 'बड़ा' या उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ था, सवाई ने इस सांस्कृतिक-निर्वात की पूर्ति की। [41][42]
जयपुर (राजस्थान, भारत) की 'बड़ी चौपड़' से आमेर की ओर जाने वाली सड़क सिरेड्योढ़ी बाज़ार में हवामहल के लगभग सामने भगवान कल्कि का प्राचीन मन्दिर अवस्थित है। जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने पुराणों में वर्णित कथा के आधार पर कल्कि के मन्दिर का निर्माण सन् 1739 ई. में दाक्षिणात-शिखर-शैली में कराया था। संस्कृत विद्वान आचार्य देवर्षि कलानाथ शास्त्री के अनुसार, "सवाई जयसिंह संसार के ऐसे पहले महाराजा रहे हैं, जिन्होंने जिस देवता का अभी तक अवतार हुआ नहीं, उसके बारे में कल्पना कर कल्कि की मूर्ति बनवाकर मन्दिर में स्थापित करायी।" सवाई जयसिंह के तत्काली दरबारी कवि श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि ने अपने ”कल्कि-काव्य“ में मन्दिर के निर्माण और औचित्य का वर्णन किया है। तद्नुसार ऐसा उल्लेख है कि सवाई जयसिंह ने अपने पौत्र ”कल्कि प्रसाद“ (सवाई ईश्वरी सिंह के पुत्र) जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी, उसकी स्मृति में यह मन्दिर स्थापित कराया। यहाँ श्वेत अश्व की प्रतिमा संगमरमर में उत्कीर्ण है जो बहुत सुन्दर, आकर्षक और सम्मोहक है। अश्व के चबूतरे पर लगे बोर्ड पर यह इबारत अंकित है- ”अश्व श्री कल्कि महाराज-मान्यता- अश्व के बाएँ पैर में जो गड्ढा सा (घाव) है, जो स्वतः भर रहा है, उसके भरने पर ही कल्कि भगवान प्रकट होगें।“[43]
अनेक स्थानों पर इस दुर्ग जयगढ़ का वर्णन किया जा चुका है, अतः पुनरावृत्ति अनावश्यक होगी।
सवाई जयसिंह ने सभी समाजों के लिए परंपरा संबंधी सुधार-कार्य किये। ब्राह्मण समाज में कई सुधार करते हुए वैरागी साधुओं में व्याप्त व्यभिचार मिटाने के लिए इन्होंने उनको पुनर्विवाह कर अपनी पत्नी साथ रखने (गृहस्थ आश्रम में प्रवेश) का विधान किया। बादशाह से फकीरों व सन्यासियों की मृत्यु के बाद, उनकी सम्पत्ति राज्य के पक्ष में जब्त नहीं करने की आज्ञा जारी करवाई, किन्तु सन्यासियों को 'निजी सम्पत्ति' रखने से रोका। बादशाह से अनुरोध के बाद हिन्दुओं पर लगाया गया पुराना भयंकर टैक्स जजिया कर समाप्त करवाया, ब्राह्मणों और राजपूतों के शादीब्याह आदि में हैसियत से बाहर जा कर दहेज़ देने और मृत्युभोज आदि सामाजिक अवसरों पर धन की बर्बादी रोकने की कोशिश भी की। जगह-जगह धर्मशालाएं, कई संस्कृत पाठशालाएं और विद्यालय खोले, विधवा-विवाह का पक्ष लिया, स्त्री-हत्या, कन्या-वध रोका, 'सर्वधर्म समभाव' की भावना को बढ़ावा दिया, विशेषतः जयपुर में जैन संप्रदाय को प्रोत्साहित किया, दिल्ली, आगरा, अन्य स्थानों से बड़े २ व्यापारियों को ला कर जयपुर में बसाया, देश में घूम-घूम कर विद्वानों की खोज की, उन्हें राज-सम्मान बक्शा, बड़ी २ जागीरें दीं और उत्तर भारत के समूचे हिन्दू-समाज को ऐसे कठिन वक़्त बाहरी आक्रान्ताओं से मुक्त रखा, जब राजनैतिक उठापटक, केंद्र में प्रशासनिक अराजकता और अनेक राजपूताना राज्यों के बीच सर-फुट्टवल अपने चरम पर थी। [44]
दिन प्रतिदिन का शासन राजा की आज्ञा से उनके दीवान चलाते थे। दीवानों या मंत्रियों की संख्या राजा की मर्जी के मुताबिक परिवर्तनशील थी। सेना संबंधी सारा काम बख्शी के अधिकार-क्षेत्र में था। जब सवाई जयसिंह गद्दी पर बैठे तब उनके तीन दीवान रामचन्द्र, किशनदास और बिहारीदास थे। वि. सं. १७५७ में इन्होने एक दीवान और बढ़ा कर चार कर दिये थे। वि. सं. १७७३-७४ में आठ दीवान थे।[18] पहले आमेर-दरबार के लेखा-विभाग में 'जूनियर ऑडिटर' का काम कर चुके महान वास्तुविद विद्याधर चक्रवर्ती इनके राजस्व मंत्री (या देश-दीवान) थे।
कुंवर नटवर सिंह ने लिखा है-"यदि जाटों का अभ्युदय न हुआ होता, तो जयपुर का राज्य यमुना-नदी तक फैल गया होता।"[45]
जयसिंह के प्रमुख सेनापतियों में कुशलसिंह राजावत (झिलाय), कोजूरामती राजावत (ईसरदा), दलेलसिंह राजावत (धूला), रावल शेरसिंह नाथावत (सामोद), मोहनसिंह नाथावत (चौमू), बखतसिंह नाथावत (मोरीजा), पदमसिंह चतुरभुजोत (बगरु), श्यामसिंह खंगारोत (डिग्गी), केशरीसिंह नरुका (लदाणा), जोरावरसिंह नरुका (मानपुर-मांचेडी), संग्रामसिंह नरुका (उनियारा), गजसिंह नरुका (जावली), दीपसिंह शेखावत (कासली), शार्दूलसिंह शेखावत (झुंझुनूं), शिवसिंह शेखावत (सीकर), दीपसिंह कुम्भाणी (भांडारेज) जोरावरसिंह, श्योब्रह्मा (पोता) आदि थे।
सेना दो प्रकार की होती थी जागीरदारों की सेना, जिसके एकत्र होने पर सवार और प्यादा आदि के हिसाब से रोजाना का खर्च दिया जाता था। खुद राज्य की ऐसी सेना बहुत छोटी होती थी जिसको मासिक तनख्वाह दी जाती थी। फौज में घुड़सवार सेना भी अपेक्षकृत कम होती थी। मुख्य अंगरक्षक, 'रिसाला' ही होता था जिसमें एक हजार घुड़सवार होते थे। बाकी पैदल सेना अधिक थी। जयसिंह ने अपनी सेना में तोड़ेदार बंदूकें शामिल कर दी थी, जिससे उनकी सेना की मारक-शक्ति बहुत बढ़ गई थी। यदुनाथ सरकार के शब्दों में-
"
Jai Singh's regular army did not exceed 40,000 men, which would have cost about 60 lakhs a year, but his strength lay in the large number of artillery and copious supply of munitions, which he was careful to maintain and his rule of arming his foot with matchlocks instead of the traditional Rajput sword and shield - He had the wisdom to recognize early the change which firearms had introduced in Indian warfare and to prepare for himself for the new war by raising the fire-power of his army to the maximum
इनका तोपखाना भी बड़ा प्रभावी तथा शक्तिशाली था। जयगढ़ में ही तोपें निर्मित की जाती थीं। तोपें ढालने का वह 'यंत्र' और सांचे अभी भी जयगढ़ किले की फाउंड्री में मौजूद है। जयगढ़ में रखी जो बड़ी तोप 'जैबाण' है, उसके मुकाबले की देशज तोपें देश में बहुत कम है। (चित्र)
सेना की भर्ती, वेतन, रसद आदि आवश्यक कार्यों के लिए बख्शी का (बहुत महत्वपूर्ण पद) होता था।[18]
इनके समकालीन राजदरबार के कवि श्रीकृष्णभट्ट ने लिखा है कि 'यह अन्तिम दिनों में गोविन्ददेव के ध्यान में लीन रहने लग गए थे।'[46]
सवाई जयसिंह की मृत्यु जयपुर में में आश्विन सुदी १४ वि॰सं॰ १८००, सितम्बर २१, सन १७४३ ई० को वृद्धावस्था और बीमार रहने के बाद हुई। [47] उन्हें गैटोर में अग्नि दी गयी। इनके सत्ताईस रानियां थी, जिनमें से तीन इनकी चिता के साथ सती हुईं | उन रानियों की छतरी जयपुर-आमेर मार्ग पर (जलमहल से पहले) है। [48]
जेम्स टॉड ने लिखा है-
चवालीस साल तक राज्य करके संवत १७९९ (सन १७४३) में सवाई जयसिंह की जयपुर में मृत्यु हो गयी
– उसकी तीन विवाहित रानियाँ और अनेक उप पत्नियाँ उसके शव के साथ जल कर सती हुईं, उसने जिस विज्ञान की अपने जीवन भर उन्नति की थी, उसकी मृत्यु के बाद वह (जयपुर से) एकाएक लोप हो गई, ...जयसिंह की यज्ञशाला के रजत-पत्तरों को उसके वंशज जगतसिंह ने निकलवा कर, उनके स्थान पर साधारण चांदी के पत्तर लगवा दिए
इनसे इनके तीन पुत्र थे-सबसे बड़े, दो लड़कों के पिता (२२ वर्षीय) शिवसिंह, मंझले ईश्वरसिंह और सब से छोटे माधोसिंह |[52]
शिवसिंह की मृत्यु का कारण 'वंश भास्कर ' के ख्यात-लेखक ने यह बताया है कि मंझले पुत्र ईश्वरसिंह के उकसाने पर सवाई जयसिंह ने ज़हर दे कर अपनी रानी के सहयोग से स्वयं अपने टीकाई पुत्र की हत्या कर दी थी, पर यदुनाथ सरकार जैसे इतिहासकार इसे 'गप्प' मानते हैं और स्वीकार नहीं करते| उनके अनुसार " (अपने पिता की अनुपस्थिति में बादशाह द्वारा बनाये गए आगरा के सूबेदार) शिवसिंह की हैजे (कॉलेरा) से मथुरा में अकाल-मृत्यु १७२४ ईस्वी में हुई थी, जहाँ वह फौजदार पद पर थे|"[53] जब कि १९ वीं सदी के अंत में लिखे ग्रन्थ वीर विनोद (जिसे उदयपुर राज्य के शासक महाराणा सज्जन सिंह ने मेवाड़ के प्रामाणिक इतिहास लेखन का उत्तरदायित्व कविराज श्यामलदास को सौंपा था) में यह लिखा गया है "माधोसिंह ने अपने बड़े भाई शिवसिंह को विष दे कर मार डाला था|"[53]
सवाई जयसिंह इन तीन पुत्रों के अलावा दो पुत्रियां भी थीं पहली - विचित्र कंवर, जिनका विवाह अभयसिंह (जोधपुर) और छोटी किशन कंवर, जिनका विवाह बून्दी के राजा दलेलसिंह के साथ हुआ।[46]
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