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गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतर्गत एक नगर पंचायत है। गोवर्धन व इसके आसपास के क्षेत्र को ब्रज भूमि भी कहा जाता है।
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यह भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली है। यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने द्वापर युग में ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये गोवर्धन पर्वत अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाया था। गोवर्धन पर्वत को भक्तजन गिरिराज जी भी कहते हैं। गोवर्धन पर्वत का जन्म भारतवर्ष में शाल्मलीद्वीप के भीतर द्रोणपर्वत की पत्नी के गर्भ से हुआ। तब सब पर्वतों ने एक स्वर में गोवर्धन पर्वत को गिरिराज की उपाधि दी। (गर्ग संहिता, श्रीवृंदावन खण्ड, अध्याय २, श्लोक संख्या १३-१५)
सदियों से यहां दूर-दूर से भक्तजन गिरिराज जी की परिक्रमा करने आते रहे हैं। यह ७ कोस की परिक्रमा लगभग २१ किलोमीटर की है। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा,जतिपुरा राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, दानघाटी इत्यादि हैं।
परिक्रमा जहां से शुरू होती है वहीं पर एक प्रसिद्ध मंदिर भी है जिसे दानघाटी मंदिर कहा जाता है।
राधाकुण्ड से तीन मील दूर गोवर्द्धन पर्वत है। पहले यह गिरिराज 7 कोस (२१ कि·मी) में फैले हुए थे, पर अब आप धरती में समा गए हैं। इसका एक कारण गर्ग संहिता में बताया गया है।
एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलसत्य ऋषि भूतल पर आये। उन्होंने द्रोणाचल के पुत्र श्रेष्ठ पर्वत गोवर्धन को देखा। उस पर्वत पर बहुत शान्ति थी। उन्होंने द्रोणाचल से गोवर्धन को माँग लिया। श्राप के डर से द्रोणाचल ऋषि को मना नहीं कर पाएँ। ऋषि गोवर्धन पर्वत को काशी में स्थापित करना चाहते थे। ऋषि की बात सुन कर बहाना बनाने के अभिप्राय से गोवर्धन बोले - ‘मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन ऊँचा और पॉंच योजन चौड़ा है, आप मुझे कैसे ले चलेंगे।’ (गर्ग संहिता, श्रीवृंदावन खण्ड, अध्याय २, श्लोक संख्या १६-३०) परन्तु ऋषि अपने दाहिने हाथ पर रख कर चल पड़े। गोवर्धन पर्वत भगवान श्रीकृष्ण के गोलोकधाम से आये थे और उनको वहाँ पर सुनी हुई सभी बातें याद थीं। इसलिए वे वृंदावन में रहना चाहते थे, परन्तु ऋषि के क्रोध से भी डरते थे। जाते हुए रास्ते में वृंदावन को देख कर उन्होंने अपना भार बढ़ा दिया। जिस से थकावट महसूस करके ऋषि ने उन्हें वहीं वृंदावन में रख दिया। शौच-क्रिया के बाद जब ऋषि पर्वत को उठाने लगे तो वे नहीं उठा। बहुत कोशिश के बाद ऋषि पुलसत्य ने श्राप दे दिया कि तू प्रति-दिन तिल-तिल क्षीण होता जाएगा। (गर्ग संहिता, श्रीवृंदावन खण्ड, अध्याय २, श्लोक संख्या ४८) इसी कारण से गोवर्धन पर्वत क्षीण होता जा रहा है।
यहीं कुसुम सरोवर है, जो बहुत सुंदर बना हुआ है। यहां वज्रनाभ के पधराए हरिदेवजी थे पर औरंगजेबी काल में वह यहां से चले गए। पीछे से उनके स्थान पर दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई।
यह मंदिर बहुत सुंदर है। यहां श्री वज्रनाभ के ही पधराए हुए एकचक्रेश्वर महादेव का मंदिर है। गिरिराज के ऊपर और आसपास गोवर्द्धन ग्राम बसा है तथा एक मनसादेवी का मंदिर है। मानसीगंगा पर गिरिराज का मुखारविन्द है, जहां उनका पूजन होता है तथा आषाढ़ी पूर्णिमा तथा कार्तिक की अमावस्या को मेला लगता है।
गोवर्द्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान् का चरणचिह्न है। मानसी गंगा पर जिसे भगवान ने अपने मन से उत्पन्न किया था, दीवाली के दिन जो दीपमालिका होती है, उसमें मनों घी खर्च किया जाता है, शोभा दर्शनीय होती है। यहां लोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं। दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैलाकर जमीन पर लेट जाते हैं और जहाँ तक हाथ फैलते हैं, वहाँ तक लकीर खींचकर फिर उसके आगे लेटते हैं।
इसी प्रकार लेटते-लेटते या साष्टांग दण्डवत् करते-करते परिक्रमा करते हैं जो एक सप्ताह से लेकर दो सप्ताह में पूरी हो पाती है। यहाँ गोरोचन, धर्मरोचन, पापमोचन और ऋणमोचन- ये चार कुण्ड हैं तथा भरतपुर नरेश की बनवाई हुई छतिरयां तथा अन्य सुंदर इमारतें हैं।
मथुरा से दीघ को जाने वाली सड़क गोवर्द्धन पार करके जहाँ पर निकलती है, वह स्थान दानघाटी कहलाता है। यहाँ भगवान् दान लिया करते थे। यहाँ दानरायजी का मंदिर है। इसी गोवर्द्धन के पास 20 कोस के बीच में सारस्वतकल्प में वृंदावन था तथा इसी के आसपास यमुना बहती थी
गोवर्धन का इतिहास भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़ा हुआ है। द्वापरयुग में यह शूरसेन जनपद का हिस्सा था। यदु वंश की वृष्णि शाखा यहां शासन करती थी। भगवान श्री कृष्ण का सम्बंध वृष्णि यदु वंश से था। यदुवंश के प्रश्चात मित्रवंश, दत्तवंश, नागवंश, अर्जुनायन, शक, कुषाण, और गुप्तवंश, का शासन रहा है। मथुरा मेमायर्स, पृ० 376 “ मथुरा पांच भागों में बंटा हुआ था – अडींग, सोंसा, सौंख, फरह और गोवर्धन। ब्रज का वैभव में पंडित गोकुलचंद चौबे लिखते हैं ब्रज का खोया वैभव राजा हठी सिंह ने मोहम्मदपुर को पुनः गोवर्धन करके लौटा दिया उन्होंन ना केवल ब्रज की रक्षा की बल्कि मन्दिरो के संरक्षण में योगदान दिया सच्चे अर्थों ने वो ब्रज केसरी थे।[1]
अडिंग का इतिहास -
अअडिंग मथुरा जिले में गोवर्धन के निकट मुग़ल काल में एक तोमर की रियासत थी। अडिंग जो भगवान श्री कृष्ण से सम्बंधित है इसका प्राचीन नाम अरिष्टा था। ब्रज में 24 उपवन माने गए है उनमे से एक अडिंग में है अरिष्टा गाँव का नाम कुंतल/तोमर शासक की अडिंग प्रवृति के करना अडिंग पड़ा था। पड़ा क्योकि वो अपनी बात पर अड़ जाते थे यानि अडिंग रहते थे। कुछ लोग बताते है की राजा अतिराम का दूसरा नाम अडिंगपाल था जबकि ब्रज लोक कथा के अनुसार सौंख के राजा हाथी सिंह को उनकी अडिंगता के करना हठी सिंह बोला जाता था। इसलिए इस जगह को अडिंग बोलते है। अडिंग और सौंख अलग अलग रियासते थी लेकिन दोनों रियासतों (जागीरी) के राजा निकट रक्त सम्बंधि थे। हठी सिंह सौंख के राजा थे। जबकि अनूप सिंह और फौन्दा सिंह अडिंग के राजा थे।जब दिल्ली पर से तोमर का राज्य चला गया तो वो लोग इस क्षेत्र में आये उन्होंने यहां के किराडो को युद्ध में मार के यहां कब्ज़ा किया अपने पूर्वज अर्जुन के नाम पर कौन्तेय(कुंतल) कहलाये, महाराजा अनंगपाल तोमर की रानी हरको देवी के एक पुत्र जुरारदेव तोमर हुए जो सोनोठ गढ़ में गद्दी पर बैठे।
राजा फौदासिंह की वंशावली
अनंगपाल प्रथम (736-754) → वासुदेव (754-773) → गंगदेव/गांगेय (773-794) → पृथ्वीमल (794-814) → जयदेव (814-834) → नरपाल देव/वीरपाल (834-849) → उदय राज (849-875) → आपृच्छदेव → पीपलराजदेव → रघुपालदेव → तिल्हण पालदेव → गोपालदेव → सलकपाल/सुलक्षणपाल (976-1005) → जयपाल → कुँवरपाल (महिपाल प्रथम) → अनंगपाल द्वितीय (1051-1081) → सोहनपाल → जुरारदेव → सुखपाल → चंद्रपाल→ देवपाल → अखयपाल → हरपाल → हथिपाल → नाहर → प्रह्लाद सिंह (5 पुत्र, एक गोद किया) → सहजना (डूंगर सिंह ) → कर्मपाल-विजयपाल -- अजयपाल -शिशुपाल --हरपाल - अतिराम - अनूपसिंह - फौदासिंह - जैतसिंह/बालकचन्द[1]
अडिंग पर कौन्तेय/तोमरों की 22 पीढ़ी ने शासन किया [2] “जाट शासनकाल में मथुरा पांच भागों में बंटा हुआ था – अडींग, सोंसा, सौंख, फरह और गोवर्धन।” यह पांचो किले तोमरवंशी कुन्तलो के अधीन थे मुग़ल काल के इतिहास में अडिंग के इन कुंतल जाटों शासको ने मुगलो से बहुत संघर्ष किया जब भरतपुर में हिन्दुवा फ्ताका लहराने को सिनसिनवार जाट प्रयासरत थे तब इन वीरो ने गोकुला,चूड़ामन जाट की सहायता की चूड़ामण ने अडिंग के जगतपाल के सहयोग से मेवात में मुस्लिमो के हृदय में भय उत्पन्न कर दिया।
अडिंग में किले का निर्माण राजा अनंगपाल देव ने करवाया था। उस समय यह गोवर्धन का एक ही क्षेत्र था यह अपने शासको की वीरता अडिंगता के कारण अडिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ अडिंग के किले का पुनः निर्माण करवाने का श्रेय अनंगपाल के वंशज राजा अडिंग फौंदासिंह को जाता है।राजा फोदा सिंह ने अडींग के किले का पुनः निर्माण करवाकर इसे मजबूती प्रदान की थी।[3] इसके आसपास 384 गॉंव राजा अनंगपाल के वंशजो के है इस क्षेत्र को खुटेलापट्टी तोमरगढ़ बोलते है।
अडिंग पर कौन्तेय/तोमरो की 22 पीढ़ीयों ने शासन किया है।[4]मुग़ल काल के इतिहास में अडिंग के इन शासको ने मुगलो से बहुत संघर्ष किया।चूड़ामण के बाद बदन सिंह के समय में अडिंग पर अनूपसिंह का राज था। उनके पिता अतिराम सिंह थे अनूप सिंह(बुधासिंह) के 4 पुत्र थे|[5] राजा अनूप सिंह(बुधासिंह) ने भरतपुर (डीग ) राजा बदन सिंह को बहुत से युद्धओ में सैनिक सहायता पहुचाई थी।
बदनसिंह के समय में उनका वर्णन ब्रज के शक्तिशाली राजाओ में हुआ है। ठाकुर चूड़ामण ने अडिंग के जगतपाल (अनूप सिंह के छोटे भाई ) सहयोग प्राप्त किया था। अडिंग के शासको में फौंदासिंह बड़े प्रसिद्ध रहे है। फौदासिंह ने मुगलों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया था, मुग़ल काल के इतिहास में अडिंग के इन कुंतल जाटों शासको ने मुगलो से बहुत संघर्ष किया था।इन वीरो ने ग्रांडट्रंक रोड से जाने वाली मुगलो का असला और रसद लूट लेते थे। शास्त्री और पंडित अनिल भारद्वाज के अनुसार मुगल बादशाह ने फौदा सिंह का लोहा मानते हुए उनके लिए शाही फरमान भी जारी करवाए थे। अपने जीवन काल में राजा फौदा सिंह ने मुगलों से बहज का युद्ध ,गोवर्धन का युद्ध, तैती का युद्ध जैसे बहुत से युद्ध में मुगलों को मात दी थी। इतिहासकार जॉन कोहन ने लिखा है की भादों वदी संवत 1783 विक्रमी (1726 ईस्वी) को मुगलों ने अडिंग और सिनसिनी के जाट राजाओं से समझोता किया था।फौदासिंह को अडिंग का राजा स्वीकार किया गया और इस समझोते से फौदासिंह को तीन लाख का अतिरिक्त क्षेत्र मिला।
जाट मराठा युद्ध का भी गवाह रहा है अडिंग का किला
सूरजमल की मृत्यु के बाद अडिंग के तोमर कुंतल राजा और भरतपुर के नवल सिंह की सयुक्त सेना का मुकाबला मराठो मुगलों की सयुक्त सेना से हुआ इस युद्ध के बाद यहाँ से कुछ कुंतल जाट मारवाड़ क्षेत्र में चले गए थे। अडिंग ग्राम से जाने के कारण उनको अडिंग बोला जाना लगा सबसे पहले यह लोग मेड़ता क्षेत्र में बसे अडिंग गाम से निकास होने के कारन उनको अडिंग कहा जाने लगा जो समय के साथ एक गोत्र बन गया मूल गोत्र कुंतल/तोमर है अडिंग ,गोवेर्धन क्षेत्र में आज भी 384 गाँवों में तोमरवंश के कुंतल गोत्रीय जाट निवास करते है।
रुड़कली गाँव जोधपुर में 19 वि सदी में केसोजी अडिंग हुए उनके घर उदोजी नामक पुत्र का जन्म हुआ। इनका विवाह बाल्यकाल में ही हो गया था। यह विश्नोई संप्रदाय में दीक्षित हुए इनका सिर्फ 1 परिवार बिश्नोई है जो वर्तमान में हरदा जिले में निवास करता है।
जिला मुख्यालय मथुरा से मात्र २० किलोमीटर की दूरी पर है और हर समय मथुरा से जीप/बस/टेक्सी उपलब्ध रहते हैं। (किराया-३० रु) राजस्थान के अलवर शहर से १२० किलोमीटर की दूरी पर, अलवर-मथुरा मार्ग पर स्थित, अलवर से कई बसें उपलब्ध हैं। निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन- मथुरा जंक्शन है।
गोवर्धन एवं जतीपुरा में कई धर्मशालाएं एवं होटल हैं जहां रुकने एवं भोजन की व्यवस्था हो जाती है। यद्यपि भक्तों का यहां हमेशा ही आना जाना लगा रहता है परंतु पूर्णिमा के आस पास यह संख्या अत्यंत बढ़ जाती है। उस समय पर प्रदेश सरकार अतिरिक्त व्यवस्था मुहैया कराती है।
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