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भारतीय फ़िल्म अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
राज कपूर (१९२४-१९८८) हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित[1] अपनी शुरूआती फ़िल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, इस पर उनके बाद कई फ़िल्मकार चले। भारत में अपने समय के सबसे बड़े 'शोमैन' थे। सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन चुकी है। उनकी फ़िल्मों खासकर श्री ४२० में बंबई की जो मूल तस्वीर पेश की गई है, वह फ़िल्म निर्माताओं को अभी भी आकर्षित करती है। राज कपूर की फ़िल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से जुड़ी होती थीं और अपनी ज्यादातर फ़िल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे।
राज कपूर | |
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जन्म |
रणबीर राज कपूर 14 दिसम्बर 1924 पेशावर, पश्चिमोत्तर सीमांत ब्रिटिश भारत (वर्तमान में खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) |
मौत |
2 जून 1988 63 वर्ष) नयी दिल्ली, भारत | (उम्र
राष्ट्रीयता | भारतीय |
उपनाम | शोमैन, भारतीय सिनेमा का महान् शोमैन, भारतीय सिनेमा का चार्ली चैप्लिन, राज साहब |
नागरिकता | भारतीय |
पेशा | अभिनेता, फिल्म-निर्माता, निर्देशक |
कार्यकाल | 1935–1988 |
जीवनसाथी | कृष्णा मल्होत्रा (वि॰ 1946–88) |
बच्चे |
रणधीर कपूर ऋतु नंदा ऋषि कपूर रीमा कपूर जैन राजीव कपूर |
संबंधी | द्रष्टव्य कपूर परिवार |
पुरस्कार |
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हस्ताक्षर |
सन् 1935 में मात्र 11 वर्ष की उम्र में राजकपूर ने फ़िल्म 'इंकलाब' में अभिनय किया था। उस समय वे बॉम्बे टॉकीज़ स्टुडिओ में सहायक (helper) का काम करते थे। बाद में वे केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वाॅय का कार्य करने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को विश्वास नहीं था कि राज कपूर कुछ विशेष कार्य कर पायेगा, इसीलिये उन्होंने उसे सहायक या क्लैपर ब्वाॅय जैसे छोटे काम में लगवा दिया था।[2] परन्तु, पृथ्वीराज कपूर के साथ रहने वाले एवं बाद के दिनों में राज कपूर के निजी सहायक एवं सहयोगी निर्देशक वीरेन्द्रनाथ त्रिपाठी का कहना है : "पापा जी (पृथ्वीराज) हमेशा कहते थे राज पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, पर फिल्मी दुनिया में शानदार काम करेगा। आज केदार ने उसे मेरा बेटा होने के कारण काम दिया है, लेकिन एक दिन वह भी होगा जब लोग राज को पृथ्वीराज का बेटा नहीं बल्कि पृथ्वीराज को राज कपूर का बाप होने के कारण जानेंगे।"[3] उस समय के प्रसिद्ध निर्देशक केदार शर्मा ने राज कपूर के भीतर के अभिनय क्षमता और लगन को पहचाना और उन्होंने राज कपूर को सन् 1947 में अपनी फ़िल्म 'नीलकमल' में नायक (Hero) की भूमिका दे दी।[2]
नायक के रूप में राज कपूर का फ़िल्मी सफ़र 'हिन्दी सिनेमा की वीनस' मानी जाने वाली सुप्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला के साथ आरंभ हुआ। 1946-47 में प्रदर्शित केदार शर्मा की 'नीलकमल' तथा मोहन सिन्हा के निर्देशन में बनी 'चित्तौड़ विजय' और 'दिल की रानी' तथा 1948 में एन॰एम॰ केलकर द्वारा निर्देशित 'अमर प्रेम' में भी मधुबाला ही राज कपूर की नायिका थी। नरगिस के अतिरिक्त मधुबाला के साथ ही राज कपूर ने सबसे अधिक फिल्मों में नायक की भूमिका की है। परंतु, इनमें सफल केवल 'नीलकमल' ही हुई। अन्य फिल्मों की असफलता के कारण उन्हें भुला दिया गया। 1948 में प्रदर्शित 'आग' वह पहली फिल्म थी जिसमें अभिनेता के साथ साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में भी राज कपूर सामने आये। हालाँकि यह फिल्म सफल नहीं हो पायी। 'आग' के प्रदर्शन के साथ ही राज कपूर की छवि एक विवाद ग्रस्त व्यक्तित्व के रूप में बनी। 'आग' स्थापित परम्पराओं का अनुकरण नहीं करती थी, किन्तु वह अपनी अलग पहचान भी नहीं बना सकी। 'आग' के बाद 1949 में राज कपूर 'बरसात' फिल्म में अभिनेता के साथ-साथ निर्माता-निर्देशक के रूप में भी पुनः उपस्थित हुए और इस फिल्म ने सफलता का नया मानदंड कायम कर दिया। इस फिल्म की लगभग पूरी टीम ही नयी थी। संगीतकार नये थे-- शंकर-जयकिशन। गीतकार नये थे-- हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र। लेखक नया था-- रामानन्द सागर। फिल्म की नायिका भी नयी थी-- निम्मी। इतना ही नहीं राधू कर्मकार, एम॰आर॰ अचरेकर और जी॰जी॰ मायेकर जैसे नये टैक्नीशियनों की पूरी टीम थी। इन कारणों से लोग कहते थे 'आग' में जो कुछ जलने से रह गया है वह 'बरसात' में बह जाएगा।[4] लेकिन राज कपूर ने किन्हीं की बातों पर ध्यान नहीं दिया। सिर्फ एक वर्ष के समय में 'बरसात' पूरी हो गयी और 1949 में 'बरसात' के प्रदर्शन के साथ ही हिन्दी सिनेमा में विस्मय का विस्फोट हुआ। शंकर-जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, रामानन्द सागर, निम्मी और सारे टैक्नीशियन रातों-रात चोटी पर पहुँच गये। 'बरसात' का संगीत देश-काल की सीमाओं को लाँघ गया। चारों ओर मुकेश और लता के गाये हुए गीतों की धुन थी। गायिका लता मंगेशकर की पहचान भी 'बरसात' फिल्म में ही मुख्यतः बन पायी। 'बरसात' पूरी तरह एक नयी फिल्म थी जिसकी नसों में पूरा का पूरा नया खून था। इतनी ताजगी और स्वनिर्मिती के साथ जुड़कर इस तरह सफल होने का दूसरा कोई उदाहरण आजादी के बाद के हिन्दी सिनेमा के पास नहीं है।[5]
'बरसात' की ही प्रचंड सफलता का यह परिणाम था कि इसके अगले वर्ष अर्थात् सन् 1950 में नायक के रूप में राज कपूर की छह फिल्में आयीं। राज कपूर के पूरे नायक युग में एक वर्ष में इससे अधिक फिल्में कभी नहीं आयीं। इस वर्ष नरगिस के साथ उनकी 'जान पहचान' और 'प्यार' फिल्में आयीं। केदार शर्मा के निर्देशन में गीता बाली के साथ 'बावरे नयन', ए॰आर॰ कारदार के निर्देशन में सुरैया के साथ 'दास्तान', जी॰ राकेश के निर्देशन में निम्मी के साथ 'भँवरा', और रेहाना के साथ पी॰एल॰ सन्तोषी के निर्देशन में 'सरगम' सन् 1950 में रिलीज होने वाली फिल्में थीं। इनमें कारदार की 'दास्तान' सबसे अधिक सफल रही। यह एकमात्र फिल्म है जिसमें राज कपूर, सुरैया के साथ नायक बने। 'सरगम', 'दास्तान' और 'बावरे नयन' का संगीत अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। 'सरगम' और 'बावरे नयन' भी टिकट-खिड़की पर सफल रहीं।
इसके बाद तो महबूब, केदार शर्मा, नितिन बोस, विमल राय, महेश कौल, वी शांताराम जैसे महामहिमों के रहते नौसिखए राज कपूर ने अपनी फिल्म 'आवारा' से साबित कर दिया कि वह हर मोर्चे पर बड़े-बड़े दिग्गजों के हौसले पस्त कर सकता है।[5]
सन् 1951 में प्रदर्शित 'आवारा' हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इसने राज कपूर को नायक के रूप में नयी और अलग पहचान दी। 'आवारा' ने ही फिल्मकार के रूप में एक दृष्टिकोण दिया; और 'आवारा' ने ही उनकी फिल्मों को सामाजिक यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। सुप्रसिद्ध फिल्म-समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
" 'आवारा' ने इस सत्ताइस साल के नौजवान को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया, जहाँ तक पहुँचने के लिए बड़े-से-बड़ा कलाकार लालायित हो सकता है। 'आवारा' ने ही उसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। यहाँ तक कि वह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गया-- सोवियत रूस में। रूस और अनेक समाजवादी देशों में 'आवारा' को सिर्फ प्रशंसा ही नहीं मिली, वरन् वहाँ की जनता ने भी बेहद आत्मीयता के साथ इसे अपनाया।"[6]
लेखक-पत्रकार विनोद विप्लव के शब्दों में :
"भारत ने विश्व स्तर पर चाहे जो छवि बनायी हो और उसके जो भी नये प्रतीक हों, लेकिन इतना तय है कि चीन, पूर्व सोवियत संघ और मिस्र जैसे देशों में राजकपूर हमेशा के लिए भारत का प्रतीक बने रहेंगे। चीन के सबसे बड़े नेता माओ त्से तुंग ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि 'आवारा' उनकी सर्वाधिक पसंदीदा फिल्म थी। शायद यही कारण है कि आज भी पेइचिंग और मास्को की सड़कों पर घूमते-टहलते हुए 'आवारा हूं' गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। यह राज कपूर की लोकप्रियता के विशाल दायरे का एक उदाहरण मात्र है।"[7]
सन् 1952 में नायक के रूप में राज कपूर की चार फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'अम्बर', 'अनहोनी', 'बेवफ़ा' और 'आशियाना'। इन चारों में ही उनकी नायिका नरगिस थीं। इतना ही नहीं सन् '51से '56 के बीच राज कपूर की जितनी भी फिल्में आयीं, उनमें नायिका नरगिस ही थीं। यह भी अपने-आप में एक रिकॉर्ड है। इस वर्ष की जयन्त देसाई निर्देशित 'अम्बर' सबसे सफल फिल्म थी और ख़्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित 'अनहोनी' सबसे असफल। एम॰एल॰ आनन्द के निर्देशन में बनी 'बेवफा' इस वर्ष की एक महत्त्वपूर्ण फिल्म थी, जिसमें राज-नरगिस के साथ अशोक कुमार भी थे। अशोक कुमार ने बेवफा में एक भावुक चित्रकार की भूमिका में मर्मस्पर्शी अभिनय किया था।
सन् 1953 राज कपूर के लिए दुर्भाग्यपूर्ण वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उनकी आर॰के॰ फिल्म्स की तीन फिल्में रिलीज हुईं-- 'आह' 'धुन' और 'पापी'। ये तीनों ही फिल्में असफल हो गयीं। हालाँकि इनमें से 'आह' की असफलता एक आश्चर्यजनक बात थी। इसमें राज कपूर ने टीबी के मरीज के रूप में एक निराश प्रेमी की भूमिका निभायी थी, जिसे दर्शक स्वीकार नहीं कर पाये। सुप्रसिद्ध फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के अनुसार :
"अपने दौर की सभी विशेषताओं को लिए हुई थी 'आह'। इसका संगीत तो बेहद लोकप्रिय हुआ था। उसकी गुरुता और मोहनी-शक्ति 'बरसात' और 'आवारा' से उन्नीस नहीं, बीस थी। 'राजा की आएगी बारात, रंगीली होगी रात, मगन मैं नाचूँगी', 'आजा रे अब मेरा दिल पुकारा' और 'जाने न नज़र पहचाने जिगर' आदि गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे।... फिर भी 'आह' इसलिए असफल हो गयी, क्योंकि 'आवारा' ने राज कपूर की इमेज एक बिल्कुल अलग किस्म के मस्तमौला, फक्कड़ नौजवान की बना दी थी। उस फ्रेम में राज कपूर का यह निराशावादी व्यक्तित्व कहीं नहीं अँटता था।"[8]
सन् 1953 की उक्त तीनों फिल्मों की असफलता से राज कपूर की लोकप्रियता को गहरा धक्का लगा। राज कपूर के पास उस समय कोई फिल्म नहीं थी। लेकिन वे हार मानने वाले व्यक्तित्व नहीं थे। 'आह' की असफलता के तुरंत बाद आर॰के॰ फिल्म्स के अंतर्गत एक ऐसी फिल्म बनायी गयी जिसने पूरे फिल्म उद्योग को चौंका दिया। यह फिल्म थी 'बूट पॉलिश', जिसमें राज कपूर स्वयं नायक भी नहीं थे और नरगिस भी नहीं थी। इसमें थे दो बाल कलाकार-- बेबी नाज और रतन कुमार और प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता अब्राहम डेविड। बाल फिल्मों की सफलता हमेशा ही संदिग्ध रही है। परन्तु राज कपूर के महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के अनुरूप 'बूट पॉलिश' एक ऐसा करिश्मा साबित हुई जिसने उनकी प्रतिष्ठा पर लगे धक्के के एहसास तक को नष्ट कर दिया। इसकी रजत-जयंती सफलता ने पूरे फिल्म उद्योग को अचंभे में डाल दिया।
सन् 1955 में आर॰के॰ फिल्म्स की 'श्री 420' ने फिर से राज कपूर को सबसे बढ़कर बना दिया। इस फिल्म को सफलता तो मिली ही, देश-विदेश में सराहना भी हुई। और इन दोनों से बढ़कर यह कि 'श्री 420' अपने समय की सबसे अलग फिल्म थी बिल्कुल नए मिजाज की। दर्शकों को इसमें नया स्वाद मिला। उन्होंने इसकी संवेदनशील भाषा में सामाजिक जिन्दगी का नया अर्थ पहचाना। तब देश आजाद हुए कुल 8 वर्ष हुए थे। जनमानस पर आजादी का नशा छाया हुआ था। उस समय 'श्री 420' में सभ्यता और प्रगति की आड़ में पनप रही खोखली नैतिकता को पहचानने की कोशिश के साथ ही उसके संभावित खतरों से आगाह किया गया था। इस फिल्म में राज कपूर का अभिनय बेमिसाल है। इसमें वे मजाक ही मजाक में बहुत बड़ी बातें कहते हैं। यह एक ऐसी फिल्म थी जो अपने समय की जरूरत को पूरा करती है। हर वर्ग के दर्शक के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है।
सन् 1956 राज कपूर के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष रहा। इसी वर्ष वे एक ओर कलात्मक ऊँचाइयों के चरमोत्कर्ष तक पहुँचे और दूसरी ओर लोकप्रियता के उच्चतम शिखर तक भी। वे हिन्दी सिनेमा में अपने ढंग का अलग व्यक्तित्व बन गये, जिसका कोई मुकाबला नहीं। इस वर्ष उनकी दो फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'जागते रहो' और 'चोरी-चोरी'। इनमें से व्यावसायिक दृष्टि से 'चोरी-चोरी' अधिक सफल रही थी तथा अत्यधिक लोकप्रिय भी। 'जागते रहो' को आरंभ में अधिक व्यवसायिक सफलता नहीं मिली; परंतु यह एक महान फिल्म थी। इस फिल्म को कार्लोरीवेरी अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का 'ग्रैंड प्रीं' पुरस्कार मिला। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के उपरान्त हिन्दी दर्शक इस फिल्म का नाम सुनकर चौंके और दोबारा प्रदर्शित होने पर पहले की अपेक्षा 'जागते रहो' को अधिक सफलता प्राप्त हुई। उस समय तक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय फिल्म को इतना बड़ा पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ था। यह पुरस्कार मिलने के बाद हिन्दी जगत ने 'जागते रहो' का भरपूर स्वागत किया। कला समीक्षकों ने इसे हिन्दी सिनेमा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना। फिल्म विशेषज्ञ एवं लेखक प्रदीप चौबे के अनुसार :
"ऑस्कर अवार्ड यदि सचमुच ही वैश्विक श्रेष्ठता का मापदण्ड हो तो जागते रहो आज भी उसकी हकदार है। हालांकि भारतीय सिनेमा के वातावरण को इस सबकी जरूरत नहीं क्योंकि पुरस्कारों की नियति खुद भी बहुत दरिद्र होती आयी है। उधर राजकपूर को भी शायद ही कभी पुरस्कारों की ऐषणा रही हो। जनता की लगातार तालियों से बड़ा और कौन-सा पुरस्कार हो सकता है! जागते रहो सिर्फ अपने समय का नहीं बल्कि हर समय का विराट सच है और आधुनिक समाज के परिदृश्य में तो इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ती जाती है! इसीलिए मैं इसे कालजयी फिल्म स्वीकार करता हूं। इसके निर्माण के 53 वर्ष बाद भी यह फिल्म एक ताजा गुलाब की तरह जहनो दिल में महकती है।"[9][10]
सन् 1957 में दक्षिण भारत के प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक एल॰ वी॰ प्रसाद की पहली हिन्दी फिल्म 'शारदा' में राज कपूर के साथ नायिका रूप में मीना कुमारी आयीं। यह फिल्म भी सफल हुई तथा इसने रजत जयन्ती मनायी। 'शारदा' में मीना कुमारी ने उस त्यागमयी भारतीय नारी की भूमिका निभायी है जो परिस्थितिवश उसी व्यक्ति के पिता से विवाह करने के लिए मजबूर हो जाती है, जिससे वह प्यार करती है। जिसे पति के रूप में पाना चाहिए था उसे बेटे के रूप में पाती है। वह दृश्य जिसमें राज कपूर मीना कुमारी को पहली बार माँ कह कर संबोधित करते हैं, दिल को दहला देने वाला है।
सन् 1958 में राज कपूर की दो फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'परवरिश' और 'फिर सुबह होगी' इन दोनों ही फिल्मों में उनकी नायिका माला सिन्हा थीं। ये दोनों ही फिल्में व्यावसायिक दृष्टि से सफल नहीं हो पायीं। 'परवरिश' एक सामान्य फिल्म थी भी, परन्तु दोस्तोयेव्स्की के सुप्रसिद्ध उपन्यास 'अपराध और दण्ड' पर आधारित 'फिर सुबह होगी' वस्तुतः एक उत्तम फिल्म थी। प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
" '58 में ही प्रदर्शित होने वाली रमेश सहगल की 'फिर सुबह होगी' निश्चित ही एक उम्दा फिल्म थी, लेकिन टिकिट-खिड़की पर बुरी तरह असफल हो गयी। हिन्दी सिनेमा में कभी-कभी कुछ चमत्कार भी होते हैं। 'फिर सुबह होगी' की असफलता एक ऐसा ही चमत्कार थी। इसमें राज कपूर और माला सिन्हा ने उत्कृष्ट अभिनय किया था। रमेश सहगल का निर्देशन भी सक्षम था और इसके साथ ही साहिर लुधियानवी के सारगर्भित भावनापूर्ण गीतों को संगीतकार खय्याम ने मधुर धुनों से सजाया था।... 'फिर सुबह होगी' में राज कपूर ने अपनी प्रचलित छवि से हटकर संजीदा भूमिका की थी। पर इस फिल्म की असफलता ने उन्हें बाद में पुनः अपने छवि के दायरे में वापस कर दिया।"[11]
सन् 1959 में राज कपूर अभिनीत पाँच फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'अनाड़ी', 'दो उस्ताद', 'कन्हैया', 'मैं नशे में हूँ', तथा 'चार दिल चार राहें'। इनमें से किसी के निर्माता-निर्देशक स्वयं राज कपूर नहीं थे। इनमें से ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित 'चार दिल चार राहें' असफल हो गयी तथा 'अनाड़ी' को छोड़कर शेष तीन फिल्में औसत रूप में ही सफल रहीं। 'अनाड़ी' का निर्माण एल॰बी॰ लछमन तथा निर्देशन सुप्रसिद्ध निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने किया था। यह फिल्म राज कपूर के लिए एक सुखद घटना बन गयी। 1956 में नरगिस के अलग हो जाने के बाद 1959 में आकर 'अनाड़ी' ने राज कपूर को फिर अनोखे रूप में प्रस्तुत किया। निराशा का एक दौर समाप्त हुआ और सृजनात्मकता का नया अध्याय आरंभ। इसमें उत्कृष्ट अभिनय के लिए राज कपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का 'फिल्मफेयर पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ।
सन् 1960 में राज कपूर की तीन फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'छलिया', 'श्रीमान् सत्यवादी' तथा 'जिस देश में गंगा बहती है'। इनमें से 'श्रीमान् सत्यवादी' असफल साबित हुई, जबकि भारत-पाक-विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित 'छलिया' सफल हुई। 'जिस देश में गंगा बहती है' का निर्माण भी राज कपूर ने ही किया था। यह फिल्म काफी उत्तम तथा सफल सिद्ध हुई। इसमें उत्तम अभिनय के लिए राज कपूर को तो सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का 'फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार' मिला ही, इस फिल्म को भी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फिल्म फेयर पुरस्कार' प्राप्त हुआ।
सन् 1961 में राज कपूर की एकमात्र फिल्म प्रदर्शित हुई 'नज़राना' तथा 1962 में 'आशिक'। 'नज़राना' मद्रास के सुप्रसिद्ध निर्माता निर्देशक श्रीधर की पहली हिन्दी फिल्म थी। इसमें राज कपूर की नायिका थी वैजयन्ती माला। प्रेम और कर्तव्य के अंतर्द्वंद को प्रस्तुत करने वाली 'नज़राना' में राज कपूर ने लम्बे समय के बाद गंभीर भूमिका निभाई थी। यह अभिनय की दृष्टि से उनकी महत्त्वपूर्ण फिल्म है। 'आशिक' हृषिकेश मुखर्जी के निर्देशन के बावजूद अस्त-व्यस्त पटकथा के कारण अधिक सफल साबित नहीं हो पायी।
सन् 1963 में प्रदर्शित 'दिल ही तो है' तथा 'एक दिल सौ अफ़साने' एवं 1964 में प्रदर्शित 'दूल्हा-दुल्हन' सामान्य रूप से ही सफल हुईं। 'दिल ही तो है' में ही मन्ना डे की आवाज में गाया गया सुप्रसिद्ध गीत था 'लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे'।
26 जून 1964 को अखिल भारतीय स्तर पर 'संगम' प्रदर्शित हुई। इसके 100 से अधिक प्रिंट एक साथ रिलीज किये गये थे। यह निर्माता, निर्देशक तथा अभिनेता सभी रूपों में राज कपूर की पहली रंगीन फिल्म थी। 'संगम' में राज कपूर अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ उपस्थित हुए। 'संगम' के निर्माता, निर्देशक, संपादक और नायक वे स्वयं थे।[12] इस फिल्म के लिए उन्हें 'फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार' और 'फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार' भी प्राप्त हुए। यद्यपि यह राज कपूर की पहली फिल्म थी जिसमें कोई संदेश नहीं था; फिर भी रागात्मक सम्मोहन, नयनाभिराम दृश्यांकन और मधुर संगीत ने मिलकर इसे घनघोर लोकप्रिय बना दिया। भारत में ही नहीं, यूरोप के अनेक देशों में भी 'संगम' को बहुत सफलता मिली। 'संगम' ने राज कपूर को एशिया का सबसे बड़ा शो मैन बना दिया।[13] 'संगम' में राज कपूर की नायिका सुप्रसिद्ध नर्तकी-अभिनेत्री वैजयन्ती माला थी तथा सह अभिनेता राजेन्द्र कुमार थे, जिनकी भूमिका को अपने उदार स्वभाव के अनुरूप ही राज कपूर ने स्वयं की भूमिका से भी अधिक महत्व दिया था।
सन् 1966 में राज कपूर तथा वहीदा रहमान अभिनीत 'तीसरी कसम' प्रदर्शित हुई। यह हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' रचित इसी नाम की लम्बी कहानी पर केंद्रित थी। इसका निर्माण कवि-गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म होने से आरंभ में इसे मुश्किल से वितरक मिले और बॉक्स ऑफिस पर भी आरंभ में इसे सफलता नहीं मिली। इसी दुःख में शैलेन्द्र दुनिया से चल बसे। परंतु बाद में लोगों ने इसका महत्व समझा और सिनेमा हॉल हाउसफुल रहने लगे। यह वह फिल्म थी जिसमें राज कपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की;[14][15] हालाँकि इस फिल्म के लिए पारिश्रमिक स्वरूप उन्होंने अपने मित्र कवि-गीतकार शैलेन्द्र से मात्र एक रुपया लिया था। 'तीसरी कसम' यदि एकमात्र नहीं तो चन्द उन फिल्मों में से है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया हो। 'तीसरी कसम' को बाद में 'राष्ट्रपति स्वर्ण पदक' मिला, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की काफी प्रशंसा की गयी।[14]
1967 में राज कपूर अभिनीत 'अराउंड द वर्ल्ड' और 'दीवाना' तथा 1968 में 'सपनों का सौदागर' प्रदर्शित हुईं। ये तीनों ही फिल्में असफल हो गयीं। इनमें से किसी के निर्माता-निर्देशक राज कपूर नहीं थे। 'दीवाना' और 'सपनों का सौदागर' के निर्देशक महेश कौल थे। सक्षम निर्देशक होने के बावजूद इन फिल्मों में वे अपनी सक्षमता का परिचय नहीं दे पाये और राज कपूर की उत्तम अभिनय क्षमता का सटीक उपयोग नहीं कर पाये।[16]
सन् 1970 के दिसंबर में आर॰के॰ फिल्म्स की अपने समय की सबसे महँगी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' अखिल भारतीय स्तर पर एक साथ प्रदर्शित हुई। यह राज कपूर के जीवन की सबसे महत्त्वाकांक्षी फिल्म थी। फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
"...निश्चय ही राजकपूर इसके माध्यम से (बाजार) लूटने के लिए नहीं, अपने कलाकार की मुक्ति की उद्दाम आकांक्षा से उद्वेलित होकर निकले थे।... एक निर्देशक और एक कलाकार के रूप में राजकपूर ने अपनी जिन्दगी का सब-कुछ 'जोकर' को दिया। एक निर्माता के रूप में उन्होंने अंगरेजी की 'लेफ्ट नो स्टोन अनटर्न्ड' कहावत चरितार्थ की। 'मेरा नाम जोकर' राजकपूर के सपनों का एक ऐसा तमाशा था जिसे वह एक साथ कलात्मक और व्यावसायिक ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहते थे।... 'जोकर' असफल हो गयी। राजकपूर की जिन्दगी का सबसे बड़ा सपना मिट्टी में मिल गया। वह सपना जिसके लिए उसने अपना पूरा अस्तित्व दाँव पर लगा दिया था। इस सब के बावजूद 'जोकर' राजकपूर की महानतम कलाकृति है जिसमें उसने अपने व्यक्तित्व, अपने रचनात्मक कौशल और कलाकार की पीड़ा को अत्यन्त मार्मिक और सघन अभिव्यक्ति दी है।"[17]
फिल्म विशेषज्ञ एवं लेखक प्रदीप चौबे ने संस्मरणात्मक शैली में लिखा है कि "...1970 में मेरा नाम जोकर देख चुका था। वह भी मजबूरी में। ..जोकर के साथ ही बाजार में उतरी थी-- जॉनी मेरा नाम। ठीक ..जोकर के साथ ही रिलीज हुई थी। जॉनी.. की धूम मची हुई थी। फिर देव हमारा सुपर हीरो। जॉनी.. ने ..जोकर को पछाड़ दिया था। रायपुर (छत्तीसगढ़) में दोनों फिल्में आमने-सामने लगी थीं। जॉनी मेरा नाम का टिकिट जब ब्लैक में भी नहीं मिला तो मन मारकर दोस्तों का टोला ..जोकर में घुसा। टिकिट खिड़की खाली पड़ी थी। टिकिट लेकर हॉल में घुसे तो वह भी खाली पड़ा था, बहुत निराशा हुई।... बहुत अन्यमनस्क मूड में हम लोग ..जोकर में घुसे थे परंतु पौने चार घंटे की यह फिल्म देखने के बाद जब हम लोग हॉल से बाहर निकले तो राजकपूर लगातार मेरे भीतर-बाहर थे। रायपुर से अपने कस्बे की दो घंटों की बस यात्रा में ..जोकर मेरे भीतर से निकलने को तैयार न था। फिल्म की कहानी, विदूषक का जीवन-दर्शन, भव्य फिल्मांकन, महान करुणा प्रधान संगीत, उदासी भर देने वाली टेक्नीकल रंग-प्रस्तुति आदि सभी तत्वों ने मुझे झकझोर दिया। ..जोकर के माध्यम से राजकपूर ने मेरी फिल्म चेतना पर हमला कर दिया था। लगभग सप्ताह भर मैं ..जोकर की खुमारी में रहा। राज कपूर एक झटके में मेरी समझ में आ गए। वह अचानक ही मेरे लिए दिलीप और देव से बहुत बड़े हो गए।... रायपुर में ..जोकर देखने के एक सप्ताह बाद यह मेरे लिए एक सुखद प्रसंग हुआ कि रायपुर के सिनेमा हॉल से उतरकर फिल्म मेरे छोटे से कस्बे की टूरिंग टॉकीज में लगी।... फिल्म वहाँ सिर्फ दस दिनों के लिए आई थी।... आप इसे मेरा अतिरेक कहें या पागलपन कि लगातार मैंने और दोस्तों ने हर रात वह फिल्म, टाइटल्स से लेकर दी एण्ड तक बिलानागा देखी। हर शो उसी तन्मयता से, उसी मुग्धता से और हर बार किसी नयी खोज के साथ। संक्षेप में यह कि यहीं से, बिल्कुल यहीं से राजकपूर मेरा महानायक बना।"[18][19]
'आवारा', 'श्री 420' तथा 'मेरा नाम जोकर' राज कपूर के सृजन के तीन शिखर भी हैं तथा उनके जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने के महत्वाकांक्षी माध्यम भी। यही कारण है कि राज कपूर ने 'आवारा' तथा 'श्री 420' इन दोनों फिल्मों को किसी न किसी रूप में मेरा नाम जोकर से सम्बद्ध किया है। 'मेरा नाम जोकर' में 'आवारा' का प्रसिद्ध गीत 'आवारा हूँ' दोहराया गया है तथा 'श्री 420' के कई दृश्यों की झलक दिखलायी गयी है। इसलिए 'मेरा नाम जोकर' को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसे देखने से पहले 'श्री 420' को अवश्य देख लिया गया हो।
'मेरा नाम जोकर' जब रिलीज हुई तो इसका रनिंग टाइम 4 घंटे 43 मिनट था।[20] दो सप्ताह बाद ही इसे संपादित कर 4 घंटे 9 मिनट का किया गया और बाद में इसे काफी छोटा कर लगभग 3 घंटे (178 मिनट) का संस्करण तैयार किया गया। 1986 में पुनः संपादित यह संस्करण व्यवसाय की दृष्टि से बहुत सफल रहा। इसमें सबसे अधिक फुटेज तीसरे भाग के ही काटे गये थे।[21] कहानी तो वही थी, सिर्फ दूसरे और तीसरे भाग की लंबाई कम हो गयी थी। इन सोलह सालों में 'जोकर' की महानता और तकनीकी गुणवत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका था और जनता को लगा कि हमने अपने प्रिय राजू के साथ इंसाफ नहीं किया है। फिल्मों से प्रत्यक्षतः जुड़े सुप्रसिद्ध लेखक जयप्रकाश चौकसे के अनुसार :
"युवा पीढ़ी के दर्शकों ने तुलना कर देखा और उन्हें अपनी पीढ़ी के फिल्मकार इस 'प्यारे बूढ़े जोकर' के सामने बहुत फीके लगे।"[21]
हिन्दी सिनेमा में दो असफलताओं की बड़ी हसरत से चर्चा की जाती है। गुरुदत्त की 'कागज के फूल' और राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर'। ये दोनों ही फिल्में इनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी फिल्में थीं जिन्हें दर्शकों ने नकार दिया। लेकिन दो-दो पीढ़ियाँ गुजर जाने के बावजूद वे आज भी मौजूद हैं। उन्हीं दर्शकों को, उनकी अगली पीढ़ी को अचंभित कर रही हैं। आनंदित कर रही हैं।[22]
'मेरा नाम जोकर' के साथ ही राज कपूर ने नायक के रूप में फिल्मों से विदा ले ली। इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में भूमिकाएँ निभायीं। वे पहली बार आर॰के॰ फिल्म्स के ही बैनर तले निर्मित 'कल आज और कल' में चरित्र अभिनेता के रूप में प्रस्तुत हुए। इसके निर्देशक थे उन्हीं के ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर। बाद में रणधीर कपूर निर्देशित 'धरम-करम' के अलावा उन्होंने दारा सिंह की फिल्म 'मेरा देश मेरा धर्म', दुलाल गुहा निर्देशित 'खान दोस्त', ऋषिकेश मुखर्जी की 'नौकरी', संजय खान की 'चाँदी सोना' तथा 'अब्दुल्ला' में भी चरित्र अभिनय किया। नरेश कुमार के 'दो जासूस' तथा 'गोपीचंद जासूस' में अपेक्षाकृत उन्होंने मुख्य भूमिका निभायी। प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
"लेकिन उनके बारे में इतना ही कहना काफी है कि राजकपूर ने ये फिल्में स्वीकार न की होतीं तो वही ज्यादा उपयुक्त होता। पर राजकपूर ईमानदारी से दोस्ती निभाने वाले लोगों में-से हैं। उन्होंने किसी का एहसान कभी नहीं भुलाया। मुहब्बत की हमेशा कद्र की। प्यार के एक कतरे से बढ़कर अजीज तो उनकी जिन्दगी में कुछ है ही नहीं। इसीलिए दोस्ती की खातिर, मुहब्बत की खातिर उन्होंने कई ऐसी फिल्मों में भूमिकाएँ कीं जिनमें उन्हें कतई काम नहीं करना चाहिए था।"[23]
'वकील बाबू' उनके द्वारा अभिनीत अंतिम फिल्म थी।
'मेरा नाम जोकर' जैसी क्लासिक फिल्म की व्यावसायिक असफलता तथा अपनी व्यावसायिक क्षमता के प्रति लोगों की आशंकाओं को निराधार साबित करते हुए राज कपूर ने स्वनिर्मित 'बॉबी' फिल्म के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि यदि बॉक्स ऑफिस ही उनके ध्यान में हो तो वे बड़े-बड़े सितारों के बिना भी बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा देने में पूरी तरह सक्षम हैं। बॉबी सन् 1973 में प्रदर्शित हुई जो बॉक्स आफिस पर सुपरहिट हुई। अपनी इस फ़िल्म में उन्होंने अपने बेटे ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया जैसे बिल्कुल नये कलाकारों को मुख्य भूमिका में लिया और दोनों ही सुपरहिट स्टार साबित हुए। इस फ़िल्म ने उस समय व्यावसायिक सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये।
बॉबी फ़िल्म की सफलता के बाद राज कपूर ने अगली फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम' बनायी जो कि फिर एक बार हिट हुई। इस फिल्म ने यद्यपि रजत जयंती मनायी, परंतु इसने दर्शकों और कला पारखियों को निराश ही किया। जितनी आकांक्षाएँ इसको लेकर पैदा की गयी थीं, उन पर यह पूरी नहीं उतरी। हालाँकि उन्होंने इस फिल्म पर पानी की तरह पैसा बहाया। एक-एक दृश्य को चरम सीमा तक खूबसूरत बनाने के लिए उन्होंने कड़ा परिश्रम किया था। इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स में बाढ़ का दृश्य था जिसे फ़िल्माने के लिये उन्होंने अपने खर्च से नदी पर बांध बनवाया और नदी में भरपूर पानी भर जाने के बाद बांध को तुड़वा दिया जिससे कि बाढ़ का स्वाभाविक दृश्य फ़िल्माया जा सके। जयप्रकाश चौकसे के शब्दों में :
" 'सत्यम्' के बाढ़-दृश्य इतने प्रामाणिक इसलिए लगते हैं कि वे असली बाढ़ के दृश्य हैं और कमर तक पानी में खड़े रह कर लिए गए हैं। दरअसल वे दृश्य बहुत खतरा उठा कर लिए गए हैं, क्योंकि बाढ़ का तेज बहाव यूनिट के सदस्यों को मुसीबत में डाल सकता था। स्वयं राज कपूर कमर तक पानी में खड़े रहकर काम कर रहे थे। जब बाढ़ का पानी उतर गया, तब देखा कि 'सत्यम्' के लिए लगाया पूरा गाँव बह गया-- मन्दिर का विशाल सेट लगभग नष्ट हो गया है। राज कपूर ने उस समय भी शूटिंग की जब बाढ़ का पानी उतार पर था, क्योंकि फिल्म में उन दृश्यों की भी आवश्यकता थी।"[24]
'सत्यम् शिवम् सुंन्दरम्' के बाद राज कपूर ने 'प्रेम रोग' का निर्माण किया। इसका निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया। इसमें नायक रूप में ऋषि कपूर एवं नायिका के रुप में पद्मिनी कोल्हापुरे को लिया गया। आरंभ में इस फिल्म की सफलता की गति काफी धीमी रही। इसके विरुद्ध प्रचार भी खूब हुआ था, परंतु धीरे-धीरे यह सँभलती चली गयी तथा सफल हो गयी। अनेक स्थानों पर इसने रजत जयंती मनायी। यद्यपि इसकी व्यापारिक सफलता चामत्कारिक नहीं थी, परंतु अनेक दृष्टियों से इस फिल्म को काफी महत्वपूर्ण माना गया है। यह न केवल विधवा-विवाह की समस्या पर आधारित थी, वरन् मूलतः यह औरत के बारे में तत्कालीन सामंती सोच पर बहुत से सूक्ष्मता से प्रहार करने वाली फिल्म थी। स्त्री के अक्षत कौमार्य की रुढ़िगत महत्ता को अत्यंत कलात्मकता के साथ इसमें तोड़ा गया है।[25]
सन् 1985 में रणधीर कपूर द्वारा निर्मित तथा राज कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' प्रदर्शित हुई। यह वह समय था जब पिछले कुछ वर्षों में फिल्म उद्योग के प्रायः सभी हिन्दी फिल्म निर्माता चमत्कारी सफलता का मुंह देखने के लिए तरस गये थे। इस फिल्म के भी रिलीज होने के एक दिन पहले तक किसी को अनुमान भी नहीं था कि राज कपूर का जादू फिर लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा। वैसे भी फिल्म में कोई स्टार नहीं था जिसका सम्मोहन दर्शकों को खींचता। राजीव कपूर की इससे पहले की सारी फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं। लेकिन जब यह फिल्म रिलीज हुई तो इसने सफलता का नया कीर्तिमान रच दिया। फिल्म के एक दृश्य में पहाड़ों में रहने वाले एक लड़की के निर्द्वन्द्व तथा उन्मुक्त जीवन को दर्शाने के लिए दिखलाये गये छोटे से उन्मुक्त दृश्य पर कुछ लोगों ने काफी हो हल्ला मचाया; परंतु इस फिल्म को देखने के लिए उमरी पारिवारिक दर्शकों की भारी भीड़ तथा उसमें भी महिलाओं की प्रभूत संख्या[26] ने सबके मुंह बंद कर दिये।
राम तेरी गंगा मैली बनाने के बाद वे 'हिना' के निर्माण में लगे थे जिसकी कहानी भारतीय युवक और पाकिस्तानी युवती के प्रेम-सम्बन्ध पर आधारित थी। 'हिना' के निर्माण के दौरान राज कपूर की मृत्यु हो गयी और उस फ़िल्म को उनके बेटे रणधीर कपूर ने पूरा किया।
राज कपूर को संगीत की बहुत अच्छी समझ थी। साथ ही साथ वे यह भी अच्छी तरह से जानते थे कि किस तरह के संगीत को लोग पसंद करते हैं। यही कारण है कि आज तक उनके फ़िल्मों के गाने लोकप्रिय हैं। शंकर जयकिशन जैसे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचनेवाले संगीतकार को उन्होंने ही अपनी फ़िल्म 'बरसात' में पहली बार संगीत-प्रस्तुतीकरण का अवसर दिया था। फ़िल्म बरसात से राज कपूर ने अपनी फल्मों के गीत-संगीत के लिए एक प्रकार से एक टीम बना लिया था जिसमें उनके साथ गीतकार शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और संगीतकार शंकर जयकिशन शामिल थे। ये सभी एक-दूसरे के अच्छे मित्र थे और बहुत लम्बे अरसे तक एक साथ मिल कर काम करते रहे।
चार्ली चैप्लिन से राज कपूर की तुलना अनेक बार की गयी है। इस सन्दर्भ में प्रहलाद अग्रवाल की स्पष्ट मान्यता है कि :
"निस्संदेह चार्ली विश्व सिनेमा का एक महान स्तंभ है। उससे यदि राजकपूर की तुलना की जाए तो यह भी बड़ी बात ही होगी। पर है यह गलत। इनमें बाह्य साम्य देखकर इनके मूल ध्येय को भुला देना गड़बड़ी होगी। चार्ली चेप्लिन ने अपनी फिल्मों में मनुष्य के भौतिक जीवन के प्रति आग्रही व्यक्तित्व के बाह्य संकट की ओर अधिक ध्यान केंद्रित किया है, जबकि राजकपूर का क्षेत्र अधिकांशतः आदमी का मानसिक यातना-संसार है। चार्ली चेप्लिन और राजकपूर इसी धरातल पर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। हाँ, अपने समय से आगे दोनों देखते हैं-- सार्थक कलात्मक दृष्टि से। 'मॉडर्न टाइम्स' में चार्ली इशारा करता है कि मशीनीकरण की अन्धी दौड़ स्वयं मनुष्य को मशीन बना देगी। इस बात को बहुत बाद में महसूस किया गया। इसी तरह 'श्री 420' में राजकपूर शिक्षित बेरोजगारी की आगत भविष्य में भयावहता की ओर संकेत करता है। जिस ताकत से उसने यह बात सन् 1955 में कही थी, भारतीय समाज और उसके नियामकों ने उसकी शिद्दत को सन् 1970 के बाद ही समझा।"[27]
फिल्म समीक्षक डॉ० सी० भास्कर राव के अनुसार :
"उन्होंने चार्ली की नकल नहीं की, बल्कि उन्हें भारतीय रंग में कुछ इस कदर, इतने मौलिक रूप में रंग दिया कि वे विश्व के दूसरे चैप्लिन बन गये।"[28]
दिलीप कुमार और राज कपूर हिन्दी सिनेमा के दो महान स्तम्भ हैं। अपने अपने ढंग के महारथी। दोनों ने हिन्दी सिनेमा के चार दशकों को प्रभावित किया है। इतनी लम्बी और जबरदस्त लोकप्रियता इनके अतिरिक्त किसी और के हिस्से में नहीं आयी। देव आनन्द भी इनके समानान्तर उतने ही लम्बे समय तक छाये रहे, किन्तु उन ऊँचाइयों तक वे नहीं पहुँच सके, जिन्हें राजकपूर और दिलीप कुमार ने स्पर्श किया।[29] हिन्दी सिनेमा में यह हमेशा विवाद का विषय रहा है कि राज कपूर बड़े हैं या दिलीप कुमार? हालाँकि इन दोनों व्यक्तित्वों की तुलना की ही नहीं जा सकती। तुलनाएँ अक्सर गलत मन्तव्यों तक ले जाती हैं और किसी हद तक वे बेमतलब भी होती हैं। सुप्रसिद्ध फिल्म समालोचक प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों में :
"हिन्दी सिनेमा में इन दोनों की स्थिति ठीक उसी प्रकार की है जैसी हिन्दी साहित्य में तुलसी और सूर की है। आज तक यह निर्णय नहीं हो सका कि इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है। यह निर्णय हो भी नहीं सकता, क्योंकि वे दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में अनुपम हैं। तुलसी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने अपने काव्य में लोकमंगल को प्रधानता दी। उनकी दृष्टि की परिधि में सम्पूर्ण मानव-जीवन समाहित हो जाता है। सूर के व्यक्तित्व में सघनता है। उनकी दृष्टि जीवन के अनिर्वचनीय सौंदर्य का सन्धान करती है। वे प्रेम और सौन्दर्य के महासागर में डूब जाते हैं। जीवन के एक ही भाव की अनन्त गहराइयों में उतरते हैं। ठीक उसी तरह राजकपूर और दिलीप कुमार हैं। जहाँ राजकपूर का सपना एक सम्पूर्ण फिल्म होती है, वहीं दिलीप कुमार अपने अभिनेता व्यक्तित्व के प्रति इतने सतर्क हैं कि वे पूरी फिल्म की उत्तमता का पर्याय बन जाते हैं। राजकपूर अपनी निजता को फिल्म से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति में प्रसारित करते हैं। वह प्रत्येक सहयोगी कलाकार और तकनीशियन के भीतर की क्षमता का अधिक-से-अधिक उपयोग कर लेते हैं। वह अपने व्यक्तित्व को प्रत्येक पक्ष में बाँट देते हैं और फिल्म निर्माण के साथ जुड़े हुए हर व्यक्ति की क्षमता को अधिक से अधिक विकसित करने में सहयोगी बनते हैं।"[29]
दिलीप कुमार के भीतर भी निर्देशक बनने का सपना आजीवन पलता रहा लेकिन वे अंततः खुलकर सामने कभी नहीं आये।[30][31]
राजकपूर की फिल्मों की दीर्घकालिक महत्ता एवं लोकप्रियता के संबंध में जयप्रकाश चौकसे ने लिखा है कि :
"राजकपूर के जीवनकाल में उनके द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्मों ने, उनके लिए जितना लाभ कमाया, उससे हजार गुना अधिक धन, उनकी मृत्यु के बाद विगत इक्कीस वर्षों में कमाया है। प्रति तीन वर्ष सैटेलाइट पर प्रदर्शन के अधिकार अकल्पनीय धन में बिकते रहे हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। उनके समकालीन किसी भी फिल्मकार की रचनाओं को ये दाम नहीं मिले हैं।"[32]
उनकी प्रासंगिकता के संबंध में उदाहरणस्वरूप जयप्रकाश चौकसे ने लिखा है कि :
"सूरज बड़जात्या की पहली फिल्म 'मैंने प्यार किया' का सफल प्रदर्शन हुआ और फिल्म के लिए श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार लेते हुए बड़जात्या ने कहा कि राजकपूर की फिल्मों ने उन्हें प्रेरित किया है और पाठ्यक्रम की तरह, वे इन फिल्मों को बार-बार देखते हैं। युवा पीढ़ी के करण जौहर और आदित्य चोपड़ा भी राजकपूर की फिल्मों से प्रेरणा लेते हैं।"[33]
राजकपूर की बहुआयामिता एवं सार्वकालिक महत्ता के संदर्भ में सिनेमा संबंधी अनेक पुस्तकों के लेखक डॉ॰ सी॰ भास्कर राव ने लिखा है कि :
"वे भारतीय सिनेमा के एक ऐसे कलाकार थे, जिनकी तुलना अन्य किसी कलाकार से नहीं की जा सकती है। सिनेमा का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसका ज्ञान और अनुभव उन्हें नहीं रहा हो। सिनेमा उनमें बसता था और वे खुद सिनेमा को जीते थे, यही कारण है कि वे एक मिसाल बन गए।... उनकी कामयाबी और ऊँचाई तक कोई भी पहुँच नहीं पाया है। ...उन्हें अपने अभिनय के लिए दस सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में एक माना गया।... उन्हें सदी के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सदी के सर्वश्रेष्ठ शो मैन का सम्मान भी प्रदान किया गया।... उन्हें सिनेमा का सबसे बड़ा शो मैन माना जाता है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे सिर्फ व्यावसायिक फिल्में ही बनाते थे। उनकी अधिकांश फिल्मों में व्यावसायिकता, कलात्मकता, साहित्यिकता और सामाजिकता का सम्मोहक सम्मिश्रण मिलता है। वास्तव में वे एक हरफनमौला सिने व्यक्तित्व थे। उनकी फिल्मों का हर पक्ष इतना सधा हुआ होता था कि हिन्दी सिनेमा का हर दर्शक उससे मुग्ध हो जाता था। वे हिन्दी और भारतीय सिनेमा के वैसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसे एक विश्वमंच प्रदान किया।... नायक तो सिनेमा के क्षेत्र में बहुतेरे हुए, पर राज जैसे नायक सदियों में कोई एक ही होता है।"[34]
राज कपूर को सन् 1987 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
वर्ष | फ़िल्म | चरित्र | टिप्पणी |
---|---|---|---|
1982 | वकील बाबू | वकील माथुर | |
1982 | गोपीचन्द जासूस | ||
1981 | नसीब | ||
1980 | अब्दुल्ला | अब्दुल्ला | |
1978 | सत्यम शिवम सुन्दरम | अभिनय नहीं; प्रस्तुतकर्ता, पार्श्व स्वर | |
1978 | नौकरी | स्वराज सिंह 'कैप्टेन' | |
1977 | चाँदी सोना | ||
1976 | ख़ान दोस्त | ||
1975 | धरम करम | ||
1975 | दो जासूस | ||
1973 | मेरा दोस्त मेरा धर्म | ||
1971 | कल आज और कल | ||
----------------------------- | --------------- | ||
1946 | वाल्मीकि | ||
1943 | गौरी | ||
1943 | हमारी बात | ||
1935 | इन्कलाब | ||
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