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भारत गणराज्य में शासन करने वाली व्यवस्था विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भारत सरकार, जो आधिकारिक तौर से संघीय सरकार व आमतौर से केन्द्रीय सरकार के नाम से जाना जाता है, 28 राज्यों तथा 8 केन्द्र शासित प्रदेशों[1] के संघीय इकाई जो संयुक्त रूप से भारतीय गणराज्य कहलाता है, की नियंत्रक प्राधिकारी है। भारतीय संविधान द्वारा स्थापित भारत सरकार नई दिल्ली, दिल्ली से कार्य करती है।
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गठन | 26 जनवरी 1950 |
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देश | भारतीय गणराज्य |
विधान शाखा | |
विधान पालिका | संसद |
लोक सभा में कुल सदस्य | 543 |
राज्य सभा में कुल सदस्य | 250 |
सभा स्थान | संसद भवन |
कार्यकारिणी शाखा | |
प्रधानमंत्री | भारत का प्रधानमंत्री |
मुख्यालय | केंद्रीय सचिवालय |
विभाग | केंद्रीय मंत्रिपरिषद भारत के केंद्र सरकार के मंत्रालय |
न्यायिक शाखा | |
न्यायालय | भारत का सर्वोच्च न्यायालय |
मुख्य न्यायाधीश | भारत के मुख्य न्यायाधीश |
केन्द्र | नई दिल्ली |
भारत के नागरिकों से संबंधित बुनियादी दीवानी और फौजदारी कानून जैसे नागरिक प्रक्रिया संहिता, भारतीय दंड संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता, आदि मुख्यतः संसद द्वारा बनाया जाता है। संघ और हरेक राज्य सरकार तीन अंगो कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के अन्तर्गत काम करती है। संघीय और राज्य सरकारों पर लागू कानूनी प्रणाली मुख्यतः अंग्रेजी साझा और वैधानिक कानून (English Common and Statutory Law) पर आधारित है। भारत कुछ अपवादों के साथ अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्याय अधिकारिता को स्वीकार करता है। स्थानीय स्तर पर पंचायती राज प्रणाली द्वारा शासन का विकेन्द्रीकरण किया गया है।[2][3]
भारत का संविधान भारत को एक सार्वभौमिक, समाजवादी गणराज्य की उपाधि देता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसका द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली के संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं: न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका।
भारत की शासन व्यवस्था में केन्द्रीय और राज्यीय दोनो स्तरों की अपनी-२ सरकारें मिलकर इसे एक संघीय ढांचे का रूप देते हैं।
भारत के राष्ट्रपति, जो कि राष्ट्र के प्रमुख हैं, की अधिकांशतः औपचारिक भूमिका है। उनके कार्यों में न्यायपालिका द्वारा प्रस्तुत संविधान का अभिव्यक्तिकरण, विधायिका द्वारा प्रस्तावित कानूनों (विधेयक) पर अपनी सहमति देते हुए उनके आधार पर कार्यपालिका को आदेश अथवा अध्यादेश जारी करना आदि हैं। वह भारतीय सेनाओं के मुख्य सेनापति भी हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को एक अप्रत्यक्ष मतदान विधि द्वारा ५ वर्षों के लिये चुना जाता है। राष्ट्रपति संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उसी के नाम से किये जाते है। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति राष्ट्रपति में निहित हैं इन शक्तियों/कार्यों का प्रयोग क्रियान्वन राष्ट्रपति संविधान के अनुरूप ही सीधे अथवा प्रधानमंत्री के माध्यम से करता है। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है, सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला, युद्ध / शांति की घोषणा करने वाला होता है। वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम में उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है।
विधायिका संसद को कहते हैं जिसके दो सदन हैं - उच्चसदन राज्यसभा और निम्नसदन लोकसभा। राज्यसभा में २५० सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५५२। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है, जबकि लोकसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये। १८ वर्ष से अधिक आयु के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर लोकसभा के सदस्यों का चुनाव कर सकते हैं।
कार्यपालिका सामूहिक रूप से मंत्रिमंडल तथा सभी मंत्रालयों को कहते हैं। मंत्रिमंडल का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। मंत्रिमंडल के प्रत्येक मंत्री को संसद की सदस्यता के योग्य होना अनिवार्य है। कार्यपालिका, राष्ट्रपति के अधीन कार्य करती है। संघीय कार्यपालिका में मंत्रिपरिषद० तथा मंत्रालय आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
प्रधानमन्त्री कार्यपालिका का प्रमुख है और कार्यपालिका की सारी शक्तियां उसी के पास होती हैं। इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सांसद में प्रत्यक्ष विधि से बहुमत प्राप्त करने पर होती है। बहुमत बने रहने की स्थिति में प्रधानमंत्री का कार्यकाल ५ वर्षों का होता है। संविधान में किसी उप-प्रधानमंत्री का प्रावधान नहीं है।
1. प्रधानमंत्री के पद पर आते ही यह परिषद गठित हो जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रधानमंत्री के साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ लें। केवल प्रधानमंत्री भी मंत्रिपरिषद हो सकता है।
2 मंत्रिपरिषद की सदस्य संख्या पर मौलिक संविधान में कोई रोक नहीं थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सदस्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वहीं राज्यों में भी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नहीं होगी परंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे।
संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नहीं करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये हैं
1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक में बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
2. राज्य मंत्री द्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उन्हे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नहीं मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक में आने का अधिकार नहीं होता। 3. उपमंत्री कनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नहीं लेते है। 4. संसदीय सचिव सत्तारूढ दल के संसद सदस्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ में कार्य करने में सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव में वे मंत्री परिषद के सद्स्य नहीं होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का शीर्ष सर्वोच्च न्यायालय है, जिसका प्रमुख प्रधान न्यायाधीश होता है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। न्यायपालिका और विधायिका के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह राष्ट्रपति करता है।
प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होता है जो राष्ट्रपति द्वारा ५ वर्षों के लिए नियुक्त किया जाता हैं।
मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1, 2, या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल में मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है।
राज्य की अपनी विधायिका होती है।
राज्य की अपनी न्यायपालिका होती है।
भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्यवाही में भाग ले सकता है। वह भारत का नागरिक होना चाहिए। वह अपनी निजी वकालत कर सकता है, परन्तु वह भारत सरकार के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं लड़ सकता है।
अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है। उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की दशा में समस्त मंत्रिपरिषद को पद छोडना पड़ता है। वह अकेले ही मंत्रिपरिषद का गठन करता है। राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है। मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है, कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है, देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है, सभी नीतिगत निर्णय (विधायिका की मंजूरी से) वही लेता है, राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है, परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है, परिषद के नाम से लड़ी जाने वाली संसदीय बहसों का नेतृत्व करता है, संसद में परिषद के पक्ष में लड़ी जा रही किसी भी बहस में वह भाग ले सकता है, मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है तथा वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है। इन सब कारणों के चलते प्रधानमंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है।
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है[उद्धरण चाहिए] जिसमे प्रधानमंत्री मन्त्री परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मन्त्री परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी[उद्धरण चाहिए]
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ
इससे कुछ हानि भी है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस में नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस में प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नहीं जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नहीं होते है। 1989 के बाद देश में प्रधानमंत्री प्रकार का नहीं बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
प्रधानमन्त्री के कार्य
१- मन्त्रीपरिषद के गठन का कार्य
२- प्रमुख शासक
३- नीति निर्माता[उद्धरण चाहिए]
४- ससद का नेता[उद्धरण चाहिए]
५- विदेश निती का निर्धारक
बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रिपरिषद त्यागपत्र दे देती है तब कार्यकारी सरकार अस्तित्व में आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु / त्यागपत्र की दशा में यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है। यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नई मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले।[उद्धरण चाहिए] यह इसलिए काम करती है ताकि अनुच्छेद 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय ने माना था कि मंत्रिपरिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए। यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा, जिससे सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा, जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कार्यकारी सरकार कोई भी वित्तीय /नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नहीं रहती है। वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारत की सरकार को 1999 में कारगिल युद्ध का संचालन करना पड़ा था। किंतु विकट दशा में इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीतिगत निर्णय ले सकती है।
एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती हैं जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती हैं।[उद्धरण चाहिए]
उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान में किसी देश के शासन के बारे में पूर्ण वर्णन किया जा सकता है। संविधान निर्माता भविष्य में होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते। अतः वे उनके संबंध में संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते हैं।
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नहीं है। इस वर्णन में बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है। वही पंरपराए संविधान के प्रावधानों की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते हैं तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने में सहायक हैं।
पंरपराए इस लिए पालित की जाती हैं क्योंकि उनके अभाव में राजनैतिक कठिनाइया आ सकती हैं। इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता है। ब्रिटेन में हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते हैं।
इनके दो प्रकार हैं:-
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन में तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन में राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नहीं होते है तथा उसी के प्रति उत्तरदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति[उद्धरण चाहिए]
वही संसदीय शासन में शक्ति मन्त्री परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस में देश के सभी वर्गों के लोग मन्त्री परिषद में लिये जा सकते है[उद्धरण चाहिए]
3. इस् शासन में संघर्ष होने [विधायिका तथा मन्त्री परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है[उद्धरण चाहिए]
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है[उद्धरण चाहिए]
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है।
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