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रुद्रप्रयाग जिला, उत्तराखण्ड, भारत में प्राचीन हिन्दू मंदिर विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम[क] और पंच केदार[ख] में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डवों के पौत्र महाराजा जन्मेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।[1]
श्री केदारनाथ मन्दिर | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | भगवान वृषभनाथ |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | केदारनाथ, उत्तराखण्ड |
वास्तु विवरण | |
शैली | कत्यूरी शैली |
निर्माता | पाण्डव |
जून २०१३ के दौरान भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश राज्यों में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा। मंदिर के आसपास की मकानें बह गई ।[2] इस ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा एवं सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे लेकिन मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया।[3]
केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे।[4] एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।
केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज ऋषि-मुनि भगवान नर-नारायण के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा करते आ रहे हैं, जिनकी संख्या उस समय ३६० थी। पांडवों के पोते राजा जनमेजय ने उन्हें इस मंदिर में पूजा करने का अधिकार दिया था, और वे तब से तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल व पुजारी मंदिर में शिव लिंग की पूजा करते हैं, जबकि यात्रियों की ओर से पूजा इन तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों द्वारा की जाती है। [4][5][6] मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर हैं ।
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, कहा जाता है कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था। मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है १.गर्भ गृह , २.मध्यभाग ३. सभा मण्डप । गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है । ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यगयोपवित और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है ।श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विधमान है इस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है स्थानीय लोक गीतों से इसकी पुष्टि होती है । श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर विशालकाय चार स्तंभ विद्यमान है जिनको चारों वेदों का धोतक माना जाता है , जिन पर विशालकाय कमलनुमा मन्दिर की छत टिकी हुई है । ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो कई हजारों सालों से निरंतर जलता रहता है जिसकी हेर देख और निरन्तर जलते रहने की जिम्मेदारी पूर्व काल से तीर्थ पुरोहितों की है । गर्भ गृह की दीवारों पर सुन्दर आकर्षक फूलों और कलाकृतियों को उकर कर सजाया गया है । गर्भ गृह में स्थित चारों विशालकाय खंभों के पीछे से स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान श्री केदारेश्वर जी की परिक्रमा की जाती है । पूर्व काल में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारो ओर सुन्दर कटवे पत्थरों से निर्मित जलेरी बनाई गई थी । श्री योगेश जिन्दल, मैनेजिक डारेक्टर, काशी विश्वनाथ स्टील ,काशीपुर वालों ने मंदिर गर्भ गृह में आठ मिमी मोटी तांबे की नई जलेरी लगवाई थी (वर्ष 2003-04 )अब वतर्मान काल में जलेरी के साथ -साथ गर्भ गृह की दीवारों और मन्दिर के सभी दरवाजों को अपने तीर्थ पुरोहित की प्रेणना से किसी और दानी दाता द्वारा रजत (चाँदी) की करवा दी गई है । इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है।
मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं।
चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य[7] ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।
मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।[8]
केदारनाथ धाम की यात्रा उत्तराखंड की पवित्र छोटा चार धाम यात्रा के महत्वपूर्ण चार मंदिरों में से एक है। छोटा चार धाम यात्रा हर वर्ष आयोजित की जाती है। केदारनाथ यात्रा के अलावा अन्य मदिर बद्रीनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री हैं। केदारनाथ यात्रा में शामिल होने के लिए हर वर्ष मदिर के खुलने की तिथि तय की जाती है। मंदिर के खुलने की तिथि हिंदू पंचांग की गणना के बाद ऊखीमठ में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर के पुजारियों द्वारा तय की जाती है।
केदारनाथ मंदिर की उद्घाटन तिथि अक्षय तृतीया के शुभ दिन और महा शिवरात्रि पर हर साल घोषित की जाती है। और केदारनाथ मंदिर की समापन तिथि हर वर्ष नवंबर के आसपास दिवाली त्योहार के बाद भाई दूज के दिन होती है। इसके बाद मंदिर के द्वार शीत काल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।[9]
भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख हैं। मन्दिर-समिति द्वारा केदारनाथ मन्दिर में पूजा कराने हेतु जनता से जो दक्षिणा (शुल्क) लिया जाता है, उसमें समिति समय-समय पर परिर्वतन भी करती है।
केदारनाथ से बद्रीनाथ की दूरी लगभग 245 किलोमीटर है। 245 किलोमीटर की दूरी में केदारनाथ से गौरीकुंड का 18 किलोमीटर का पैदल ट्रेक भी शामिल है। गौरीकुंड से 5 किलोमीटर की दूरी पर सोनप्रयाग जगह है जहाँ सभी वाहनों की पार्किंग होती है। सोनप्रयाग (केदारनाथ) से बद्रीनाथ की सड़क मार्ग दूरी तय करने में लगभग 7 से 8 घंटे का समय लग जाता है। केदारनाथ से बद्रीनाथ जाने के दो सड़क मार्ग हैं। बद्रीनाथ जाने के लिए केदारनाथ के पास फाटा, गुप्तकाशी या सिरसी हेलिपैड से हेलीकाप्टर भी बुक किया जा सकता है। [10]
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