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कल्पेश्वर केदार विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कल्पेश्वर मन्दिर उत्तराखण्ड के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मन्दिर उर्गम घाटी में समुद्र तल से लगभग 2134 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस मन्दिर में 'जटा' या हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेवों में से एक भगवान शिव के उलझे हुए बालों की पूजा की जाती है। कल्पेश्वर मन्दिर 'पंचकेदार' तीर्थ यात्रा में पाँचवें स्थान पर आता है। वर्ष के किसी भी समय यहाँ का दौरा किया जा सकता है। इस छोटे-से पत्थर के मन्दिर में एक गुफ़ा के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।
कल्पेश्वर मन्दिर | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | शिव |
अवस्थिति जानकारी | |
राज्य | उत्तराखण्ड |
देश | भारत |
भौगोलिक निर्देशांक | 30°34′37.35″N 79°25′22.49″E |
वास्तु विवरण | |
प्रकार | उत्तर भारतीय स्थापत्य कला |
निर्माता | पांडव |
निर्माण पूर्ण | अज्ञात |
कल्पेश्वर मन्दिर काफ़ी ऊँचाई पर स्थित है। भगवान शिव को समर्पित यह स्थान पवित्र धाम माना जाता है। कल्पेश्वर उत्तराखण्ड के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों मे से एक है। यह उत्तराखण्ड के असीम प्राकृतिक सौंदर्य को अपने मे समाए हिमालय की पर्वत शृंखलाओं के मध्य में स्थित है। कल्पेश्वर सनातन हिन्दू संस्कृति के शाश्वत संदेश के प्रतीक रूप मे स्थित है। एक कथा के अनुसार, एक लोकप्रिय ऋषि अरघ्या मन्दिर में कल्प वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे। यह भी माना जाता है की उन्होंने अप्सरा उर्वशी को इस स्थान पर बनाया था। कल्पेश्वर मन्दिर के पुरोहित दक्षिण भारत के नंबूदिरी ब्राह्मण हैं। इनके बारे में कहा जाता है की ये आदिगुरु शंकराचार्य के शिष्य हैं।
मुख्य मन्दिर 'अनादिनाथ कल्पेश्वर महादेव' के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के समीप एक 'कलेवरकुंड' है। इस कुंड का पानी सदैव स्वच्छ रहता है और यात्री लोग यहाँ से जल ग्रहण करते हैं। इस पवित्र जल को पी कर अनेक व्याधियों से मुक्ति पाते हैं। यहाँ साधु लोग भगवान शिव को अर्घ्य देने के लिए इस पवित्र जल का उपयोग करते हैं तथा पूर्व प्रण के अनुसार तपस्या भी करते हैं। तीर्थ यात्री पहाड़ पर स्थित इस मन्दिर में पूजा-अर्चना करते हैं। कल्पेश्वर का रास्ता एक गुफ़ा से होकर जाता है। मन्दिर तक पहुँचने के लिए गुफ़ा के अंदर लगभग एक किलोमीटर तक का रास्ता तय करना पड़ता है, जहाँ पहुँचकर तीर्थयात्री भगवान शिव की जटाओं की पूजा करते हैं।[1]
कल्पेश्वर में भगवान शंकर का भव्य मन्दिर बना है। कल्पेश्वर के बारे में पौराणिक ग्रंथों में विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है। इस पावन भूमि के संदर्भ में कुछ रोचक कथाएँ भी प्रचलित हैं, जो इसके महत्व को विस्तार पूर्वक दर्शाती हैं। माना जाता है कि यह वह स्थान है, जहाँ महाभारत के युद्ध के पश्चात् विजयी पांडवों ने युद्ध में मारे गए अपने संबंधियों की हत्या करने की आत्मग्लानि से पीड़ित होकर इस क्षोभ एवं पाप से मुक्ति पाने हेतु वेदव्यास से प्रायश्चित करने के विधान को जानना चाहा। व्यास जी ने कहा की कुलघाती का कभी कल्याण नहीं होता है, परंतु इस पाप से मुक्ति चाहते हो तो केदार जाकर भगवान शिव की पूजा एवं दर्शन करो। व्यास जी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर पांडव भगवान शिव के दर्शन हेतु यात्रा पर निकल पड़े। पांडव सर्वप्रथम काशी पहुँचे। शिव के आशीर्वाद की कामना की, परंतु भगवान शिव इस कार्य हेतु इच्छुक न थे।
पांडवों को गोत्र हत्या का दोषी मानकर शिव पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। पांडव निराश होकर व्यास द्वारा निर्देशित केदार की ओर मुड़ गये। पांडवों को आते देख भगवान शंकर गुप्तकाशी में अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर जाकर महादेव ने दर्शन न देने की इच्छा से 'महिष' यानि भैसें का रूप धारण किया व अन्य पशुओं के साथ विचरण करने लगे। पांडवों को इसका ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा प्राप्त हुआ। अत: भीम ने विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिये, जिसके निचे से अन्य पशु तो निकल गए, पर शिव रूपी महिष पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक भैंसे पर झपट पड़े, लेकिन बैल दलदली भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की पीठ को पकड़ लिया। भगवान शंकर की भैंसे की पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव भैंसे के रूप में पृथ्वी के गर्भ में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू में प्रकट हुआ, जहाँ पर 'पशुपतिनाथ' का मन्दिर है। शिव की भुजाएँ 'तुंगनाथ' में, नाभि 'मध्यमेश्वर' में, मुख 'रुद्रनाथ' में तथा जटा 'कल्पेश्वर' में प्रकट हुए। यह चार स्थल पंचकेदार के नाम से विख्यात हैं। इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को 'पंचकेदार' भी कहा जाता है।[1]
शिवपुराण के अनुसार ऋषि दुर्वासा ने इसी स्थान पर वरदान देने वाले कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी, तब से यह 'कल्पेश्वर' कहलाने लगा। केदार खंड पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है कि इस स्थल में दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर घोर तपस्या की थी, तभी से यह स्थान 'कल्पेश्वरनाथ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इसके अतिरिक्त अन्य कथानुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायणस्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था।
कल्पेश्वर कल्पगंगा घाटी में स्थित है। कल्पगंगा को प्राचीन काल में हिरण्यवती नाम से पुकारा जाता था। इसके दाहिने स्थान पर स्थित तट की भूमि 'दुरबसा' भूमि कही जाती है। इस जगह पर ध्यानबद्री का मन्दिर है। कल्पेश्वर चट्टान के पाद में एक प्राचीन गुहा है, जिसके भीतर गर्भ में स्वयंभू शिवलिंग विराजमान है। कल्पेश्वर चट्टान दिखने में जटा जैसी प्रतीत होती है। देवग्राम के केदार मन्दिर के स्थान पर पहले कल्प वृक्ष था। कहते हैं कि यहाँ पर देवताओं के राजा इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने हेतु शिव-आराधना कर कल्पतरु प्राप्त किया था।[1]
यहाँ का सबसे नजदीकि रेलवे स्टेशन रामनगर है, जो यहाँ से 233 किलोमीटर की दूरी पर है। ऋषिकेश रेलवे स्टेशन 247 किलोमीटर की दूरी पर है। नजदीकि हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्राण्ट है, जो लगभग 266 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कल्पेश्वर तक पहुँचने के लिए ऋषिकेश, देहरादून और हरिद्वार से बस सेवा भी उपलब्ध है।
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