हरिद्वार
भारत के राज्य उत्तराखंड का एक शहर तथा हिन्दुओं की पवित्र नगरी विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
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हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा सनातन (हिन्दुओं) का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है।
हरिद्वार | |||||||
— शहर — | |||||||
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |||||||
देश | भारत | ||||||
राज्य | उत्तराखण्ड | ||||||
महापौर | |||||||
नगर पालिका अध्यक्ष | |||||||
जनसंख्या • घनत्व |
18,90,422 [2011 Census] (2011 के अनुसार [update]) • 801/किमी2 (2,075/मील2) | ||||||
क्षेत्रफल • ऊँचाई (AMSL) |
2360 वर्ग किमी कि.मी² • 249.7 मीटर (819 फी॰) | ||||||
विभिन्न कोड
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आधिकारिक जालस्थल: www.haridwar.nic.in |
पश्चात्कालीन हिदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब धन्वन्तरी उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं।
एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है।
हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया।
आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, SIDCUL (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं। वर्तमान संसाद डॉ0 रमेश पोखरियाल निशंक है।[1]
हरिद्वार तीर्थ के रूप में बहुत प्राचीन तीर्थ है परंतु नगर के रूप में यह बहुत प्राचीन नहीं है।[2] हरिद्वार नाम भी उत्तर पौराणिक काल में ही प्रचलित हुआ है। महाभारत में इसे केवल 'गंगाद्वार' ही कहा गया है। पुराणों में इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से वर्णित किया गया है। प्राचीन काल में कपिलमुनि के नाम पर इसे 'कपिला' भी कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ कपिल मुनि का तपोवन था।[3] पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ ने, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया। 'हरिद्वार' नाम का संभवतः प्रथम प्रयोग पद्मपुराण में हुआ है। पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के उपरोक्त प्रसंग में हरिद्वार की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए उसके सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने की बात कही गयी है:-
हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा।
तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।।
तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः।
प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।।
तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्।
कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।।
यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला।
एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।
उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्।
अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।।[4]
अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है।
महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद 'भीष्म-पुलस्त्य संवाद' के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार (हरिद्वार) को निःसन्दिग्ध रूप से स्वर्गद्वार के समान बताया गया है:-
स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः।
तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।।
पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।।
सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्।
देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।।
ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।
अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।।[5]
अर्थात् गंगाद्वार (हरिद्वार) स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है।
दोस्तो आज के इस लेख में हम आपको हरिद्वार के आस पास घूमने की सबसे अच्छी जगह के बारे में बताएंगे। दोस्तो यदि आप हरिद्वार को 3 से 4 दिनों के लिए जाते है तो इस लेख में बताई गई जगह को बिल्कुल भी मिस न करे जो की दोस्तो ये जगह हरिद्वार के पास में ही पड़ती हैं। दोस्तो यहां जाने के बाद आपका सफर बेहद सुंदर यादगार हो जायेगा।
यह स्थान बड़ा रमणीक है और यहाँ की गंगा हिन्दुओं द्वारा बहुत पवित्र मानी जाती है। कतिपय प्रमुख पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा बतायी गयी है:-
सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।।[6]
अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं।
ह्वेनसांग भी सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन उसने 'मोन्यु-लो' नाम से किया है। मोन्यू-लो को आधुनिक मायापुरी गाँव समझा जाता है जो हरिद्वार के निकट में ही है।[7] प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर यहाँ विद्यमान हैं।
हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण मिले हैं उनमें कुछ महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा पर्याप्त प्राचीन स्थल माने जाते हैं। उसके पश्चात सवाई राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि भी बतायी जाती है, वर्तमान हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के बीचोंबीच स्थित है। यह छतरी निर्मित ऐतिहासिक भवनों में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। इसके बाद इसकी मरम्मत वगैरह होती रही है। उसके बाद से विगत लगभग तीन सौ - साढ़े तीन सौ वर्षों से यहां गंगा के किनारे मठ-मंदिर, धर्मशाला और कुछ राजभवनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। वर्तमान में हर की पैड़ी विस्तार योजना के अंतर्गत जम्मू और पुंछ हाउस और आनंद भवन तोड़ दिए गए हैं। उनके स्थान पर घाट और प्लेटफार्म विस्तृत कर बनाये गये हैं। इस प्रकार हरिद्वार में नगर-निर्माण की प्रक्रिया आज से प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई; किंतु तीर्थ के रूप में यह अत्यंत प्राचीन स्थल है। पहले यहाँ पर पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते थे अथवा स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करते थे तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास निकट के कस्बों कनखल, ज्वालापुर इत्यादि में थे।[8]
यहाँ का प्रसिद्ध स्थान 'हर की पैड़ी' है जहाँ गंगा का मंदिर भी है। हर की पैड़ी पर लाखों यात्री स्नान करते हैं और यहाँ का पवित्र गंगा जल देश के प्राय: सभी स्थानो में यात्रियों द्वारा ले जाया जाता है। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री इकट्ठे होते हैं। प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं तब यहां कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला भी लगता है। इनमें कई लाख यात्री इकट्ठे होते और गंगा में स्नान करते हैं। यहाँ अनेक मंदिर और देवस्थल हैं। माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। संभवत: यह १०वीं शताब्दी का बना होगा।[9] इस मंदिर में माया देवी की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के तीन मस्तक और चार हाथ हैं।
लोगों का विश्वास है कि यहाँ मरनेवाला प्राणी परमपद पाता है और स्नान से जन्म-जन्मांतर का पाप कट जाता है और परलोक में हरिपद की प्राप्ति होती है।
प्रकृतिप्रेमियों के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शन प्रस्तुत करता है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री)। इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं -- हर अर्थात् शिव (केदारनाथ) और हरि अर्थात् विष्णु (बद्रीनाथ) तक जाने का द्वार।[10]
शहरी विकास मंत्रालय द्वारा 434 शहरों में स्वच्छता को लेकर हुए सर्वेक्षण में हरिद्वार 244 वें नंबर पर रहा।[11]
अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पाँच तीर्थों की विशेष महिमा बतायी गयी है:-
गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते।
तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत।।[12]
अर्थात् गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी,अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है।
इन स्थलों के अतिरिक्त भी हरिद्वार में अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं।
सर्वाधिक दर्शनीय और महत्वपूर्ण तो यहाँ गंगा की धारा ही है। 'हर की पैड़ी' के पास जो गंगा की धारा है वह कृत्रिम रूप से मुख्यधारा से निकाली गयी धारा है और उस धारा से भी एक छोटी धारा निकालकर ब्रह्म कुंड में ले जायी गयी है। इसी में अधिकांश लोग स्नान करते हैं। गंगा की वास्तविक मुख्यधारा नील पर्वत के पास से बहती है। 'हर की पैड़ी' से चंडी देवी मंदिर की ओर जाते हुए ललतारो पुल से आगे बढ़ने पर गंगा की यह वास्तविक मुख्य धारा अपनी प्राकृतिक छटा के साथ द्रष्टव्य है। बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आए पत्थरों के असंख्य टुकड़े यहाँ दर्शनीय है। इस धारा का नाम नील पर्वत के निकट होने से नीलधारा है।[13] नीलधारा (अर्थात् गंगा की वास्तविक मुख्य धारा) में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है।[14]
'पैड़ी' का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया।[15] यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है।
'हर की पौड़ी' हरिद्वार का मुख्य स्थान है। मुख्यतः यहीं स्नान करने के लिए लोग आते हैं। एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ धरती पर भगवान् विष्णु आये थे। धरती पर भगवान् विष्णु के पैर पड़ने के कारण इस स्थान को 'हरि की पैड़ी' कहा गया जो बोलचाल में 'हर की पौड़ी' बन गया है। इसे हरिद्वार का हृदय-स्थल माना जाता है।
मान्यता है कि दक्ष का यज्ञ हरिद्वार के निकट ही कनखल में हुआ था। लिंगमहापुराण में कहा गया है:-
यज्ञवाटस्तथा तस्य गंगाद्वारसमीपतः।
तद्देशे चैव विख्यातं शुभं कनखलं द्विजाः।।[16]
अर्थात् (सूत जी कहते हैं) हे द्विजो ! गंगाद्वार के समीप कनखल नामक शुभ तथा विख्यात स्थान है; उसी स्थान में दक्ष की यज्ञशाला थी।
यहीं सती भस्म हो गयी थी। मान्यता है कि इसके बाद शिव जी के कोप से दक्ष-यज्ञ-विध्वंस हो जाने के बाद यज्ञ की पूर्णता के लिए हरिद्वार के इसी स्थान पर भगवान विष्णु की स्तुति की गयी थी और यहीं वे प्रकट हुए थे। बाद में यह किंवदंती फैल गयी कि यहाँ पर भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं। वास्तव में वह निशान कहीं नहीं है, लेकिन इस स्थान की महिमा अति की हद तक प्रचलित है।
हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है। संध्या समय गंगा देवी की हर की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्त्वपूर्ण अनुभव है। स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं। विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार-यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं।
माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के 'नील पर्वत' के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई० में बनवाया गया था। स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया। मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं, लेकिन लंबी कतार का सामना करना पड़ता है।
माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओर हनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है।
हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ।
मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है और ढेर सारे यात्री उसके माध्यम से मंदिर तक की यात्रा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इस प्रणाली में लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से 187 सीढ़ियों के बाद लगभग 1 किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो थकावट का स्मरण भी न रहेगा और मन की प्रफुल्लता के क्या कहने ! हालाँकि धार्मिकता के ख्याल से प्रायः लोग गंगा-स्नान के बाद यहाँ की यात्रा करते हैं।
माया देवी (हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी) का संभवतः ११वीं शताब्दी[17] में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं।
हर की पैड़ी से करीब 1 किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो देवी की अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण इस मंदिर में वैष्णो देवी की गुफा की अनुकृति का प्रयत्न किया गया है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता है। पवित्र गुफा को प्राकृतिक रूप देने की चेष्टा की गयी है। मार्ग की दुर्गमता को बनाये रखने का प्रयत्न हुआ है, हालाँकि गुफा का रास्ता तय करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। हाँ अकेले नहीं जा कर दो-तीन आदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं। यह मंदिर भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
वैष्णो देवी मन्दिर से कुछ ही आगे भारतमाता मन्दिर है। इस बहुमंजिले मन्दिर का निर्माण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि के द्वारा हुआ है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर इस का लोकार्पण हुआ था। अपने ढंग का निराला यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। इसके विभिन्न मंजिलों पर शूर मंदिर, मातृ मंदिर, संत मंदिर, शक्ति मंदिर, तथा भारत दर्शन के रूप में मूर्तियों तथा चित्रों के माध्यम से भारत की बहुआयामी छवियों को रूपायित किया गया है। ऊपर विष्णु मंदिर तथा सबसे ऊपर शिव मंदिर है। हरिद्वार आने वाले यात्रियों के लिए भारत माता मंदिर के दर्शन से एक भिन्न और उत्तम अनुभूति की प्राप्ति तथा देशभक्ति की प्रेरणा अनायास हो जाती है।
'भारत माता मंदिर' से ऑटो द्वारा आगे बढ़कर आसानी से सप्तर्षि आश्रम तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने पर सड़क की दाहिनी ओर सप्त धाराओं में बँटी गंगा की निराली प्राकृतिक छवि दर्शनीय है। कहा जाता है कि यहाँ सप्तर्षियों ने तपस्या की थी और उनके तप में बाधा न पहुँचाने के ख्याल से गंगा सात धाराओं में बँटकर उनके आगे से बह गयी थी। गंगा की छोटी-छोटी प्राकृतिक धारा की शोभा बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आये पत्थरों के असंख्य टुकड़ों के रूप में स्वभावतः दर्शनीय है। यहाँ सड़क की दूसरी ओर 'सप्तर्षि आश्रम' का निर्माण किया गया है। यहाँ मुख्य मंदिर शिवजी का है और उसकी परिक्रमा में सप्त ऋषियों के छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। स्थान प्राकृतिक शोभा से परिपूर्ण है। अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और कुछ-कुछ दूरी पर सप्तर्षियों के नाम पर सात कुटिया बनी हुई है, जिनमें आश्रम के लोग रहते हैं।
सुप्रसिद्ध मनीषी श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा स्थापित गायत्री परिवार का मुख्य केन्द्र 'शांतिकुंज' हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग में विशाल परिक्षेत्र में एक-दूसरे से जुड़े अनेक उपखंडों में बँटा आधुनिक युग में धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों का एक अन्यतम कार्यस्थल है। यहां का सुचिंतित निर्माण तथा अन्यतम व्यवस्था सभी श्रेणी के दर्शकों-पर्यटकों के मन को निश्चित रूप से मोहित करता है। यह संस्थान मुख्यत: श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तकों तथा उनकी प्रेरणा से चल रही पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी करता है। शोधकार्य भी इस संस्थान के अंतर्गत चलता रहता है। हरिद्वार जाने वाले यात्रियों के लिए इस संस्थान को देखे बिना हरिद्वार-यात्रा परिपूर्ण नहीं मानी जा सकती है, ऐसा अनुभव यहां आने वाले प्रत्येक यात्री को प्रायः होता ही है।
हरिद्वार की उपनगरी कहलाने वाला 'कनखल' हरिद्वार से 3 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है। यहाँ विस्तृत आबादी एवं बाजार है। आबादी वाले तीर्थस्थलों में हरिद्वार का सबसे प्राचीन तीर्थ कनखल ही है। विभिन्न पुराणों में इसका नाम स्पष्टतः उल्लिखित है।
गंगा की मुख्यधारा से 'हर की पैड़ी' में लायी गयी धारा कनखल में पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। महाभारत के साथ-साथ अनेक पुराणों में भी कनखल में गंगा विशेष पुण्यदायिनी मानी गयी है।[18] इसलिए यहाँ गंगा-स्नान का विशेष माहात्म्य है।
कनखल में ही दक्ष ने यज्ञ किया था, यह ऊपरिलिखित विवरण में दर्शाया जा चुका है। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है।
कनखल में श्रीहरिहर मंदिर के निकट ही दक्षिण-पश्चिम में पारद शिवलिंग का मंदिर है। इसका उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 8 मार्च 1986 को किया था। यहाँ पारद से निर्मित 151 किलो का पारद शिवलिंग है। मंदिर के प्रांगण में रुद्राक्ष का एक विशाल पेड़ है जिस पर रुद्राक्ष के अनेक फल लगे रहते हैं जिसे देखकर पर्यटक आश्चर्यमिश्रित प्रफुल्लता का अनुभव करते हैं।
देवभूमि हरिद्वार के कनखल स्थित नक्षत्र वाटिका के पास हरितऋषि विजयपाल बघेल के द्वारा कल्पवृक्ष वन लगाया गया है। वैसे तो देवलोक के पेड़ कल्पतरु (पारिजात) को सभी तीर्थ स्थलों पर रोपित किया जा रहा है, परन्तु धरती पर कल्पवृक्ष वन के रूप में एकमात्र यही वन विकसित है, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु कल्पवृक्ष के दर्शन करके अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
पतंजलि योगपीठ
योगगुरु बाबा रामदेव का यह संस्थान भी कनखल क्षेत्र में ही अवस्थित है।
गहन धार्मिक महत्व के कारण हरिद्वार में वर्ष भर में कई धार्मिक त्यौहार आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं :- कवद मेला, सोमवती अमावस्या मेला, गंगा दशहरा, गुघल मेला जिसमें लगभग २०-२५ लाख लोग भाग लेते हैं। हरिद्वार में कुम्भ मेला हर 12 साल में हरिद्वार, भारत में आयोजित होने वाला एक मेला है। सटीक तिथि हिंदू ज्योतिष के अनुसार निर्धारित की जाती है: मेला तब आयोजित किया जाता है जब बृहस्पति कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। [19]
इस के अतिरिक्त यहाँ कुंभ मेला भी आयोजित होता है बार हर बारह वर्षों में मनाया जाता है जब बृहस्पति ग्रह कुम्भ राशिः में प्रवेश करता है। कुंभ मेले के पहले लिखित साक्ष्य चीनी यात्री, हुआन त्सैंग (६०२ - ६६४ ई.) के लेखों में मिलते हैं जो ६२९ ई. में भारत की यात्रा पर आया था।
भारतीय शाही राजपत्र (इम्पीरियल गज़टर इंडिया), के अनुसार १८९२ के महाकुम्भ में हैजे का प्रकोप हुआ था जिसके बाद मेला व्यवस्था में तेजी से सुधार किये गए और, 'हरिद्वार सुधार सोसायटी' का गठन किया गया और १९०३ में लगभग ४,००,००० लोगों ने मेले में भाग लिया। १९८० के दशक में हुए एक कुम्भ में हर-की-पौडी के निकट हुई एक भगदड़ में ६०० लोग मारे गए और बीसियों घायल हुए। १९९८ के महा कुंभ मेले में तो ८ करोड़ से भी अधिक तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए यहाँ आये।
वह जो अधिकतर भारतीयों व वे जो विदेश में बस गए को आज भी पता नहीं, प्राचीन रिवाजों के अनुसार हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियां हिन्दू ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है द्वारा हिन्दुओं के पवित्र नगर हरिद्वार में हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं। प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं। किसी के लिए किसी की अपितु सात वंशों की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से लेना असामान्य नहीं है।
शताब्दियों पूर्व जब हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार की पावन नगरी की यात्रा की जोकि अधिकतर तीर्थयात्रा के लिए या/ व शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में विसर्जन जोकि शव- दाह के बाद हिन्दू धार्मिक रीति- रिवाजों के अनुसार आवश्यक है के लिए की होगी। अपने परिवार की वंशावली के धारक पंडित के पास जाकर पंजियों में उपस्थित वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहों, जन्मों व मृत्युओं के विवरण सहित नवीनीकृत कराने की एक प्राचीन रीति है।
वर्तमान में हरिद्वार जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके नितांत अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं। यह खबर उनके नियत पंडित तक जंगल की आग की तरह फैलती है। आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है व लोग नाभिकीय परिवारों को तरजीह दे रहे हैं, पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवों, दादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहों, जन्मों और मृत्युओं जो कि विस्तृत परिवारों में हुई हों अपितु उन परिवारों जिनसे विवाह संपन्न हुए आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आयें। आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजी को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है। साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है।
ऋषिकेश से हरिद्वार की यात्रा करने के लिए, आप परिवहन के विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकते हैं, जैसे कि रोडवेज, रेलवे या बसें। यहाँ विकल्प हैं:
हरिद्वार जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौडी गढवाल जिला और दक्षिण में रुड़की, मुज़फ़्फ़रनगर और बिजनौर हैं। नवनिर्मित राज्य उत्तराखंड ने सम्मिलित किए जाने से पहले यह सहारनपुर डिविज़नल कमिशनरी का एक भाग था।
पूरे जिले को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बनता है और यहाँ उत्तराखंड विधानसभा की ९ सीटे हैंद जो हैं - भगवानपुर, रुड़की, इकबालपुर, मंगलौर, लांधौर, लक्सर, बहादराबाद, हरिद्वार और लालडांग।
जिला प्रशासनिक रूप से तीन तहसीलों हरिद्वार, रुड़की और लक्सर और छः विकास खण्डों भगवानपुर, रुड़की, नारसन, भद्रबाद, लक्सर और खानपुर में बँटा हुआ है। 'हरीश रावत' हरिद्वार लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद और 'मदन कौशिक' हरिद्वार नगर से उत्तराखंड विधानसभा सदस्य हैं।
हरिद्वार उन पहले शहरों में से एक है जहाँ गंगा पहाडों से निकलकर मैदानों में प्रवेश करती है। गंगा का पानी, अधिकतर वर्षा ऋतु जब कि उपरी क्षेत्रों से मिटटी इसमें घुलकर नीचे आ जाती है के अतिरिक्त एकदम स्वच्छ व ठंडा होता है। गंगा नदी विच्छिन्न प्रवाहों जिन्हें जज़ीरा भी कहते हैं की श्रृंखला में बहती है जिनमें अधिकतर जंगलों से घिरे हैं। अन्य छोटे प्रवाह हैं: रानीपुर राव, पथरी राव, रावी राव, हर्नोई राव, बेगम नदी आदि। जिले का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा है व राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्यान जिले की सीमा में ही आता है जो इसे वन्यजीवन व साहसिक कार्यों के प्रेमियों का आदर्श स्थान बनाता है। राजाजी इन गेटों से पहुंचा जा सकता है: रामगढ़ गेट व मोहंद गेट जो देहरादून से २५ किमी पर स्थित है जबकि मोतीचूर, रानीपुर और चिल्ला गेट हरिद्वार से केवल ९ किमी की दूरी पर हैं। कुनाओ गेट ऋषिकेश से ६ किमी पर है। लालधंग गेट कोट्द्वारा से २५ किमी पर है। २३६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घिरा हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है। इसके अक्षांश व देशांतर क्रमशः २९.९६ डिग्री उत्तर व ७८.१६ डिग्री पूर्व हैं। हरिद्वार समुन्द्र तल से २४९.७ मी की ऊंचाई पर उत्तर व उत्तर- पूर्व में शिवालिक पहाडियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित है।
तापमान
ग्रीष्मकाल: १५ डिग्री से- ४२ डिग्री तक
शीतकाल: ६ डिग्री से- १६.६ डिग्री तक
Haridwar के जलवायु आँकड़ें | |||||||||||||
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माह | जनवरी | फरवरी | मार्च | अप्रैल | मई | जून | जुलाई | अगस्त | सितम्बर | अक्टूबर | नवम्बर | दिसम्बर | वर्ष |
औसत उच्च तापमान °C (°F) | 20 (68) |
22 (72) |
27 (81) |
33 (91) |
36 (97) |
34 (93) |
31 (88) |
30 (86) |
30 (86) |
29 (84) |
26 (79) |
22 (72) |
28.3 (83.1) |
औसत निम्न तापमान °C (°F) | 7 (45) |
9 (48) |
13 (55) |
18 (64) |
21 (70) |
23 (73) |
23 (73) |
23 (73) |
21 (70) |
17 (63) |
11 (52) |
8 (46) |
16.2 (61) |
औसत वर्षा मिमी (इंच) | 72 (2.83) |
76 (2.99) |
78 (3.07) |
55 (2.17) |
113 (4.45) |
296 (11.65) |
599 (23.58) |
568 (22.36) |
301 (11.85) |
102 (4.02) |
23 (0.91) |
91 (3.58) |
2,374 (93.46) |
स्रोत: Sunmap |
२००१ की भारत की जनगणना के अनुसार हरिद्वार जिले की जनसँख्या २,९५,२१३ थी। पुरुष ५४% व महिलाएं ४६% हैं। हरिद्वार की औसत साक्षरता राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक ७०% है: पुरुष साक्षरता ७५% व महिला साक्षरता ६४% है। हरिद्वार में, १२% जनसँख्या ६ वर्ष की आयु से कम है। 2024 में हरिद्वार शहर की वर्तमान अनुमानित जनसंख्या 323,000 है, जबकि हरिद्वार मेट्रो की जनसंख्या 440,000 होने का अनुमान है।[20]
हरिद्वार से यमुनोत्री की कुल दूरी लगभग 238 किलोमीटर होती है।
हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में निम्नलिखित शिक्षा संस्थान है:-
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की - ३० किमी भूतपूर्व रुड़की इंजीनियरी कॉलेज, जो २००२ मे एक आई॰आई॰टी बन चुका है, यह भारत में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्च शिक्षा का एक महत्वपूर्ण संस्थान है यह स्वतंत्र भारत का पहला तकनीकी वि.वि है जिसकी स्थापना 1847 मे हुई थी, [21] यह संस्थान हरिद्वार से ३० मिनट की दूरी पर रुड़की में स्थित है।
कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग (कोएर) - १४ किमी एक निजी अभियांतिकी संस्थान जो हरिद्वार और रुड़की के बीच राष्ट्रीय महामार्ग ५८ पर स्थित है।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय - ४ किमी कनखल में गंगा नदी के तट पर हरिद्वार-ज्वालापुर बाइपास सड़क पर स्थित।
चिन्मय डिग्री कॉलेज हरिद्वार से १० किमी दूर स्थित शिवालिक नगर में बसा यह हरिद्वार के विज्ञान कोलेजों में से एक है।
विश्व संस्कृत विद्यालय संस्कृत विश्विद्यालय, हरिद्वार जिसकी स्थापना उत्तराखंड सरकार द्वारा की गई थी विश्व का एकमात्र विश्वविद्यालय है जो पूर्णतः प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, पुस्तकों की शिक्षा को समर्पित है। इसके पाठ्यक्रम के अंतर्गत हिन्दू रीतियों, संस्कृति और परंपराओं की शिक्षा दी जाती है और इसका भव्य भवन प्राचीन हिन्दू वास्तुशिल्प पर आधारित है।
दिल्ली पब्लिक स्कूल, रानीपुर क्षेत्र के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से यह एक है जो विश्वव्यापी दिल्ली पब्लिक स्कूल परिवार का भाग है। यह अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक उपलब्धियों, खेलों, पाठ्यक्रमेतर क्रियाकलापों के साथ-साथ सर्वोत्तम सुविधाओं, प्रयोगशालाओं और शैक्षणिक वातावरण के लिए जाना जाता है।
डी॰ए॰वी सैन्टेनरी पब्लिक स्कूल जगजीत्पुर में स्थित यह विद्यालय शिक्षा के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों कों नैतिकता का पाठ भी सिखाता है ताकी यहाँ से निकला हर विद्यार्थी संसार के हर कोने को प्रकाशित कर सके।
केन्द्रीय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल केन्द्रिय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल, हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना ७ जुलाई, १९७५ को की गई थी। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्धीकृत, इस विद्यालय में प्री-प्राइमरी से १२वीं तक २,००० से अधिक विद्यार्थी पढ़ते है।
राष्ट्रीय ईंटर कॉलेज ,औरंगाबाद (आन्नेकी) हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र मे स्थित यह विद्यालय हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है। यहाँ छात्रो को शिक्षा के साथ साथ संस्कार भी सिखाये जाते है।
नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र
नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र
भेल, रानीपुर टाउनशिप: भेल का परिसर, जो की एक MAHARATNA पूएसयू है। यह १२ किमी² में फैला हुआ है। जटाशंकर
हरिद्वार अच्छी तरह सड़क मार्ग से राष्ट्रीय राजमार्ग ५८ से जुड़ा है, जो दिल्ली और मानापस को आपस में जोड़ता है। १९०४ ई. में लक्सर से देहरादून तक के लिए रेलमार्ग बना और तभी से हरद्वार की यात्रा सुगम हो गयी। मुख्य रेलवे स्टेशन हरिद्वार में ही स्थित है, जो भारत के सभी प्रमुख नगरों को हरिद्वार से जोड़ता है। निकटतम हवाई अड्डा जौली ग्रांट, देहरादून में है हवाई जहाज सेवा कुछ ही शहरों से जुड़ी है और संख्या भी कम है इनकी,इसलिए नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को प्राथमिकता दी जाती है।
जबसे राज्य सरकार की सरकारी संस्था, सिडकुल (उत्तराखंड राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड) द्वारा एकीकृत औद्योगिक एस्टेट की स्थापना इस ज़िले में की गई है, तबसे हरिद्वार बहुत तेजी से उत्तराखंड के महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है, जो देशभर के कई महत्वपूर्ण औद्योगिक घरानों को आकर्षित कर रहा है, जो यहाँ विनिर्माण सुविधाओं की स्थापना कर रहे हैं।
हरिद्वार पहले से ही एक संपन्न औद्योगिक क्षेत्र में स्थित है जो बाईपास रोड के किनारे बसा है जहाँ पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, भेल की मुख्य सहायक इकाइयां स्थापित है जो यहाँ १९६४ में स्थापित की गयी थी और आज यहाँ ८,००० से अधिक लोग प्रयुक्त हैं।
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