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प्राचीन काल से मध्यकाल तक ओड़िशा राज्य को कलिंग, उत्कल, उत्करात, ओड्र, ओद्र, ओड्रदेश, ओड, ओड्रराष्ट्र, त्रिकलिंग, दक्षिण कोशल, कंगोद, तोषाली, छेदि तथा मत्स आदि नामों से जाना जाता था। परन्तु इनमें से कोई भी नाम सम्पूर्ण ओड़िशा को इंगित नहीं करता था। अपितु यह नाम समय-समय पर ओडिशा राज्य के कुछ भाग को ही प्रस्तुत करते थे।
वर्तमान नाम ओड़िशा से पूर्व इस राज्य को मध्यकाल से ‘उड़ीसा’ नाम से जाना जाता था, जिसे अधिकारिक रूप से 04 नवम्बर, 2011 को 'ओड़िशा' नाम में परिवर्तित कर दिया गया। ओड़िशा नाम की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द 'ओड्र' से हुई है। इस राज्य की स्थापना भागीरथ वंश के राजा ओड ने की थी, जिन्होने अपने नाम के आधार पर नवीन ओड-वंश व ओड्र राज्य की स्थापना की। समय विचरण के साथ तीसरी सदी ई०पू० से ओड्र राज्य पर महामेघवाहन वंश, माठर वंश, नल वंश, विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोदभव वंश, भौमकर वंश, नन्दोद्भव वंश, सोम वंश, गंग वंश व सूर्य वंश आदि का आधिपत्य भी रहा।
प्राचीन काल में ओड़िशा राज्य का वृहद भाग कलिंग नाम से जाना जाता था। सम्राट अशोक ने 261 ई०पू० कलिंग पर चढ़ाई कर विजय प्राप्त की। कर्मकाण्ड से क्षुब्द हो सम्राट अशोक ने युद्ध त्यागकर बौद्ध मत को अपनाया व उनका प्रचार व प्रसार किया।[1] बौद्ध धर्म के साथ ही सम्राट अशोक ने विभिन्न स्थानों पर शिलालेख गुदवाये तथा धौली व जगौदा गुफाओं (ओड़िशा) में धार्मिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित लेखों को गुदवाया।[2] सम्राट अशोक, कला के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहते थे इसलिए सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को और अधिक विकसित करने हेतु ललितगिरि, उदयगिरि, रत्नागिरि व लगुन्डी (ओड़िशा) में बोधिसत्व व अवलोकेतेश्वर की मूर्तियाँ बहुतायत में बनवायीं। 232 ई०पू० सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात् कुछ समय तक मौर्य साम्राज्य स्थापित रहा परन्तु 185 ई०पू० से कलिंग पर चेदि वंश का आधिपत्य हो गया था। चेदि वंश के तृतीय शासक राजा खारवेल 49 ई० में राजगद्दी पर बैठा तथा अपने शासन काल में जैन धर्म को विभिन्न माध्यमों से विस्तृत किया, जिसमें से एक ओडिशा की उदयगिरि व खण्डगिरि गुफाऐं भी हैं। इसमें जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ व शिलालेख प्राप्त हुए हैं। चेदि वंश के पश्चात् ओड़िशा (कलिंग) पर सातवाहन राजाओं ने राज्य किया। 498 ई० में माठर वंश ने कलिंग पर अपना राज्य कर लिया था।
माठर वंश के बाद 500 ई० में नल वंश का शासन आरम्भ हो गया। नल वंश के दौरान भगवान विष्णु को अधिक पूजा जाता था इसलिए नल वंश के राजा व विष्णुपूजक स्कन्दवर्मन ने ओड़िशा में पोडागोड़ा स्थान पर विष्णुविहार का निर्माण करवाया। नल वंश के बाद विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोद्भव वंश और भौमकर वंश ने कलिंग पर राज्य किया। भौमकर वंश के सम्राट शिवाकर देव द्वितीय की रानी मोहिनी देवी ने भुवनेश्वर में मोहिनी मन्दिर का निर्माण करवाया। वहीं शिवाकर देव द्वितीय के भाई शान्तिकर प्रथम के शासन काल में उदयगिरी-खण्डगिरी पहाड़ियों पर स्थित गणेश गुफा (उदयगिरि) को पुनः निर्मित कराया गया तथा साथ ही धौलिगिरि पहाड़ियों पर अर्द्यकवर्ती मठ (बौद्ध मठ) को निर्मित करवाया। यही नहीं, राजा शान्तिकर प्रथम की रानी हीरा महादेवी द्वारा 8वीं ई० हीरापुर नामक स्थान पर चौसठ योगनियों का मन्दिर निर्मित करवाया गया।
6वीं-7वीं शती कलिंग राज्य में स्थापत्य कला के लिए उत्कृष्ट मानी गयी। चूँकि इस सदी के दौरान राजाओं ने समय-समय पर स्वर्णाजलेश्वर, रामेश्वर, लक्ष्मणेश्वर, भरतेश्वर व शत्रुघनेश्वर मन्दिरों (6वीं सदी) व परशुरामेश्वर (7वीं सदी) में निर्माण करवाया। मध्यकाल के प्रारम्भ होने से कलिंग पर सोमवंशी राजा महाशिव गुप्त ययाति द्वितीय सन् 931 ई० में गद्दी पर बैठा तथा कलिंग के इतिहास को गौरवमयी बनाने हेतु ओड़िशा में भगवान जगन्नाथ के मुक्तेश्वर, सिद्धेश्वर, वरूणेश्वर, केदारेश्वर, वेताल, सिसरेश्वर, मारकण्डेश्वर, बराही व खिच्चाकेश्वरी आदि मन्दिरों सहित कुल 38 मन्दिरों का निर्माण करवाया।
15वीं शती के अन्त तक जो गंग वंश हल्का पड़ने लगा था उसने सन् 1038 ई० में सोमवंशीयों को हराकर पुनः कलिंग पर वर्चस्व स्थापित कर लिया तथा 11वीं शती में लिंगराज मन्दिर, राजारानी मन्दिर, ब्रह्मेश्वर, लोकनाथ व गुन्डिचा सहित कई छोटे व बड़े मन्दिरों का निर्माण करवाया। गंग वंश ने तीन शताब्दियों तक कलिंग पर अपना राज्य किया तथा राजकाल के दौरान 12वीं-13वीं शती में भास्करेश्वर, मेघेश्वर, यमेश्वर, कोटी तीर्थेश्वर, सारी देउल, अनन्त वासुदेव, चित्रकर्णी, निआली माधव, सोभनेश्वर, दक्क्षा-प्रजापति, सोमनाथ, जगन्नाथ, सूर्य (काष्ठ मन्दिर) बिराजा आदि मन्दिरों को निर्मित करवाया जो कि वास्तव में कलिंग के स्थापत्य इतिहास में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं। गंग वंश के शासन काल पश्चात् 1361 ई० में तुगलक सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने कलिंग पर राज्य किया। यह वह दौर था जब कलिंग में कला का वर्चस्व कम होते-होते लगभग समाप्त ही हो चुका था। चूँकि तुगलक शासक कला-विरोधी रहे इसलिए किसी भी प्रकार के मन्दिर या मठ का निर्माण नहीं हुआ।
18वीं शती के आधुनिक काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सम्पूर्ण भारत पर अधिकार हो गया था परन्तु 20वीं शती के मध्य में अंग्रेजों के निर्गमन से भारत देश स्वतन्त्र हुआ। जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण भारत कई राज्यों में विभक्त हो गया, जिसमें से भारत के पूर्व में स्थित ओड़िशा (पूर्व कलिंग) भी एक राज्य बना।
ओड़िशा को राजा ओड् ने बसाया व अपने नाम पर ओड्वंश चलाया जो भागीरथवंश थे।
ओड़िशा का धुंधला भूत कलिंग पर अशोक महान की चढ़ाई बताता है। अशोक मगध का शक्तिशाली सम्राट था। दस लाख से अधिक लोग मारे गये, पंद्रह लाख से अधिक बंदी हुए और इतने ही लोग युद्ध के बाद में मृत्यु को प्राप्त हुए। इस महान हत्या काण्ड ने अशोक को ऐसा विचलित किया, कि उसने भविष्य में कदापि कोई युद्ध ना करने का निर्णय लिया। उसने अहिंसा की राह पर चलना आरम्भ किया, एवं बौद्ध धर्म अपनाया। बौद्ध धर्म उसके राज्य में बहुत फैला और राज्य भर में फैल गया।
कलिंग मौर्य शासन से निकल गया। वहां चेदि वंश के प्रथम राजा महामेघवाहन ने आरम्भिक प्रथम शताब्दी में राज्य किया।
तृतीय चेदि राजा खारवेल आसीन हुआ और उसने अत्यधिक सैन्य गतिविधियां आरम्भ कीं। उसकी शक्ति की महानता भारत के पूर्व से पश्चिमी छोर तक फैली। उत्तर में मथुरा से दक्षिण]] में पांड्य वंश के राज तक। उसके राज्य में जैन धर्म फला-फूला।
आरम्भिक द्वितीय शताब्दी में, सातवाहन राजा गौतमीपुत्र सातकर्णी ने पश्चिम में नासिक पर अधिकार कर लिया। यह अधिकार यज्ञश्री सातकर्णी (१७४-२०२ ई) तक चला।
यज्ञश्री सातकर्णी की मृत्यु के बाद कलिंग का इतिहास कुछ समय तक अंधकारमय है। कुछ गौण वंश, जैसे उत्तर भारत के कुषाण वंश ने कुछ राज्य किया। विदेशी इंडो-साय्थियन मुरुण्ड, फिर नागा लोगों ने इस धरती पर शासन किया, जबतक कि समुद्रगुप्त ने अपनी दक्षिण भारतीय अभियान आरम्भ नहीं किया।
मगध सम्राट समुद्रगुप्त ने दक्षिणावर्ती अभियान किये और कलिंग के भागों को अधिकृत किया। यह दावे कुछ शक के घेरे में आते हैं। ब्राह्मणधर्म ने अपनी जड़ें फिर मजबूत करनी आरम्भ कीं।
समुद्रगुप्त के आक्रमण के तुरन्त बाद ही माठर वंश का एक नयी शक्ति के रूप में उदय हुआ। उन्होंने पारलाखेमुंडी से आक्रमण करने शुरु किये। इन्होंने कलिंग पर ४९८ ई. तक राज्य किया। इस राज्य में कलिंग की समृद्धि खूब पनपी, जो कि उनके बढ़ते व्यापार, इत्यादि के कारण था। ब्राह्मणधर्म पक्का हो गया था।
पूर्वी गंग वंश का राज्य आरम्भ हुआ।
ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में एक नया वंश शैलोद्भव वंश का उदय हुआ। इनका प्रभाव उत्तर में महानदी से लेकर दक्षिण में महेंद्रगिरि तक था। शैलोद्भव राज्य में यहां का सुदूर व्यापार खूब पनपा, खासकर इनके सुवर्णद्वीप (वर्तमान म्यांमार), से राजनयिक सम्बंधों के कारण।
उत्तर भारतीय स्थानेश्वर (वर्तमान हरियाणा में) के सम्राट हर्षवर्धन ने उत्कल पर आक्रमण कर, छिलका झील तक अधिकरण किया। बौद्ध धर्म बढ़्ने लगा।
ह्वेन त्सांग ने ओड़िशा की यात्रा की।
अंतिम घोषित हिन्दू सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु।
भूआम काल आरम्भ उन्मत्त सिंह द्वारा शिवाकरदेव के शैलोद्भव राज्य पर आक्रमण से होता है। भुआमाओं ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। इस वंश के कुछ महिला शासक भी रहे, जैसे त्रिभुवन महादेवी एवं दंडी महादेवी। इस राज्य के साथ साथ ही कुछ स्वतंत्र राज्य क्षेत्र भी उपजे, जिन्हें मण्डल कहा गया।
सोमवंशी आक्रमण १११०]] ई. पू. तक चले। सोमवंशीयों के काल में मंदिर स्थापत्य कला खूब पनपी, जिसका केन्द्र भुवनेश्वर रहा। सोमवंशी राजा महाशिवगुप्त ययाति द्वितीय गद्दी पर बैठा, जिसके साथ ही ओडिआ इतिहास का सर्वाधिक उज्ज्वल काल आरम्भ हुआ। उसने कलिंग, कंगोद, [[उत्कल एवं कोशल को खारवेल के प्रकार ही संयुक्त किया। मान्यता अनुसार, उसने पुरी में भगवान जगन्नाथ के अढ़तीस (३८) मंदिर बनवाये। उसने भुवनेश्वर के प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर की भी नींव रखवायी।
पांचवी शताब्दी के अंत तक जो गंग वंश हल्का पड़ने लगा था, वह वज्रहस्त पंचम के साथ फिर उठा, जिसने सोमवंशी शासक कामदेव को हराकर कलिंग पर गंग वंश का वर्चस्व पुनर्स्थापित किया।
गंग वंश के राजा चोडगंग देव गद्दी पर बैठे।
चोडगंग देव ने उत्कल पर आक्रमण किया और अधिकृत किया। वैष्णव मत का परम भक्त, राजा जगन्नाथ मंदिर, पुरी बनवाता है। इस राजा के काल में ही प्रसिद्ध मध्यकालीन संत रामानुजाचार्य ने ओडिशा भ्रमण किया।
चोडगंग देव का देहावसान हुआ। उसके बाद पंद्रह राजाओं ने गंग वंश चलाया।
अनंग भीम देव तृतीय ने गद्दी संभाली। उस ही ने जगन्नाथ मंदिर, पुरी का निर्माण कार्य सम्पन्न कराया था। राजा अनंग ने ही एक नयी नगरी अभिनव बाराणसी कटक (वर्तमान कटक) को बसाया। यह महानदी से काठजोड़ी नदी के संगम पर था।
अनंग भीम देव तृतीय की मृत्यु। उसके पुत्र नृसिंह देव ने गद्दी संभाली। उस ही ने कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर बनवाया।
नृसिंह देव ने अंग देश पर आक्रमण किया।
सुलतान फिरोज़ शाह तुगलक ने गंग राज्य पर हमला किया और वाराणसी कटक को अधिकृत किया।
बंगाल के सुलतान, सुलेमान कर्रानी ने ओडिशा पर हमला बोला।
सारंगगढ़ के सामंत, रामचंद्र भंज, ने विद्रोह कर, स्वयं को राजा घोषित किया। मुकुंद देव की रामचंद्र भंज से युद्ध में मृत्यु हुई। सुलेमान कर्रानी के पुत्र, बयाज़िद से हार होने पर भंज की भी मृत्यु। उसकी मृत्यु के साथ ही ओडिशा पर अफग़ान शासन आरम्भ हुआ।
तत्काली अफगान शासक के मुगल अधीनता अस्वीकार करने पर, ओडिशा मुगल और अफगान युद्ध स्थली बना। यह अभियान १५९५ तक चला और अन्ततः मुगलों ने अफगानों का शसन समाप्त किया।
अकबर के राजपूत जनरल, राजा मानसिंह के आगमन के साथ ही, ओडिशा में मुगल साम्राज्य का अधिपत्य हुआ। अकबर के आदेशानुसार, ओडिशा को पांच सरकारों में बांटा गया: जलेश्वर (मेदिनीपुर सहित), भद्रक, कटक, चिक खोल, एवं राजा महेन्द्री जनपद (राजाहमुन्द्री| इस प्रकार ओडिशा बंगा सूबे के अन्तर्गत मुगल साम्राज्य का भाग बना। इसी काल में व्यापारियों ने सुदूर व्यापार बढ़ाये और यूरोपीय व्यापारियों को आकर्षित किया। पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, डच एवं अंग्रेज़ों ने ओडिशा की अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ारों में, आर्थिक सामर्थ्य को पहचाना।
अकबर के पुत्र एवं उत्तराधिकारी जहांगीर के शासन काल में, ओडिशा को प्रांतों में बांटा गया, जिसकी राजधानी कटक रही और इसका एक सूबेदार नियुक्त किया गया।
कवि सम्राट उपेन्द्रनाथ भंज, १६७० में पैदा हुए।
हैदराबाद के निजाम ने गंजाम एवं चिकाकोल (श्रीककुलम) पर अधिकार किया, एवं स्वयं को उत्तरी सरकार घोषित किया।
ओडिशा का मराठा प्रशासन आरम्भ हुआ, जिसमें रघुजी भोंसले प्रथम, क्षेत्रीय अध्यक्ष बने। मराठा राज, १८०३ तक चला, जब ब्रिटिश सेना ने उसपर अधिकार किया। मराठा राज्य सनातन हिन्दू मराठा राज में धर्म एवं धार्मिक संस्थानों को लाभ हुआ, जिससे ओडिशा तीर्थ तथा पर्यटन का आकर्षण बना। ओडिआ साहित्य ने भी काफी उत्थान किया।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हरिहरपुर एवं बालेश्वर में व्यापार केन्द्र बनाये।
१७५७ में प्लासी के युद्ध उपरांत, एवं १७६४ में बक्सर के युद्धोपरांत ब्रिटिश साम्राज्य ने अधिक भारतीय क्षेत्र अधिकृत करने का अभियान चलाया। ओडिशा बंगाल के पड़ोसी होने से, इस योजना से तुरन्त प्रभावित हुआ।
कर्नल हर्कोर्ट के अधीन, ब्रिटिश सेना ने दक्षिण में गंजाम से कूच आरम्भ किया और मुगलबन्दी जिले कटक, पुरी, बालेश्वर और अन्ततः सम्पूर्ण ओडिशा पर अधिकार किया। ओडिआ में छपी प्रथम पुस्तक “न्यू टेस्टामेण्ट” सीरमपोर बाप्टिस्ट मुद्रणालय से प्रकाशित हुई।
बक्शि जगबन्धु बिद्याधर के नेतृत्व में, खोर्द्धा के पिकास (पाइक) ब्रिटिश शासन के विरोध में उठे, जिसे प्रसिद्ध १८१७ का पिकास विद्रोह (पाइक बिद्रोह) कहा गया है। यह मूलतः भूमि अधिग्रहण के गलत प्रयासों के विरुद्ध था, जो कि ब्रिटिश राज द्वारा चलाया जा रहा था।
ओडिशा में ईसाई मिश्नरियां आयीं।
मिश्नरियों ने कटक मिशन प्रेस की स्थापना की।
फारसी भाषा के स्थान पर ओडिआ को दरबार की भाषा घोषित किया गया।
फकीर मोहन सेनापति का जन्म।
कुलब्रुद्ध मधुसूदन दास का जन्म।
मिश्नरियों ने प्रथम ओडिआ पत्रिका, ज्ञानारुण निकाली।
भक्तकवि मधुसूदन राव जन्में।
सन्त कवि भीम भोई प्रकट हुए। सम्बलपुर, पुरी के चाखी खूंटिया, पोदाहट के अर्जुन सिंह ने सिपाहियों के संग देशव्यापी सिपाही विद्रोह किया।
१८६५ में शासन की असफलता से, सामान्य फसल बर्बाद हुई और ओडिशा में भयंकर दुर्भिक्ष (नअंक दुर्भिक्ष) पड़ा, जिसमें वहां के लगभग दस लाख लोग मरे गये। भारी लापरवाही, प्रशासन का दुर्व्यवहार, संचार की कमी और अपर्याप्त ध्यान से ओडिशा के हरेक तीन में से एक वासी मृत्यु को प्राप्त हुआ। प्रांत के लोगों के पहल करने से, ओडिशा की दूसरी प्रेस, कटक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित हुई। यहां से प्रथम समाचार पत्र उत्कल दीपिका प्रकाशित हुआ। १८६६
उन्नीसवी शताब्दी के अंतिम दौर में, लोगों में नयी जागरुकता आने लगी थॊ। आधुनिक शिक्षा का उत्थान, मध्यम-वर्गीय समाज की बुद्धिमता, प्रेस का आगमन, कई सप्ताहिक, एवं अन्य आवधिक समाचार-पत्रों का मुद्रण, व अन्य कई बुद्दिजीवियों द्वारा मुद्रित सामग्री का प्रचार, जैसे फकिर मोहन सेनापति, राधानाथ रथ, सामजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ोत्तरी व कई समूहों, जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से सभी ओडिआ क्षेत्र एक प्रशासन से जुड़ने लगे।
स्वतंत्रता एवं गणतंत्रता आने से ओडिशा के, व कई पड़ोसी रजवाड़ों को अपनी सार्वभौमिकता छोड़नी पड़ी। इन रजवाड़ों व अन्य प्रांतीय गवर्नर शासित प्रेसीडेंसियों के विलयन से 19 अगस्त, 1949 को नये ओडिशा राज्य का गठन हुआ, जो कि अपने पूर्व रूप से दुगुना था।
स्वतंत्रता उपरांत दूसरी बार मंत्रीमण्डल का गठन नबकृष्ण चौधुरी के नेतृत्व में हुआ। १९५६ में ओडिशा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का गठन हुआ।
स्वतंत्रता उपरांत तीसरी बार मंत्रीमण्डल का गठन डॉ॰एच.के.महताब के नेतृत्व में हुआ। ओडिशा साहित्य अकादमी की स्थापना हुई। हीराकुद बांध पूर्ण हुआ। राउरकेला इस्पात संयंत्र की स्थापना हुई।
ओडिशा राज्य विद्युत परिषद का गठन हुआ।
कांग्रेस की पांचवी विधान-सभा चुनावों मे जीत के साथ ही बीजू पटनायक की मुख्य-मंत्री बने। उन्होने कई औद्योगिक परियोजनाएं आरम्भ कीं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण परियोजनाएं थीं, पारादीप पत्तन एवं एक्स्प्रेस हाइवे, जिससे पारादीप पोर्ट खनन क्षेत्रों से जुड़ पाया। इनके अलावा बालीमेला, तालचेर परियोजनाएं, सुनाबेडा में मिग विमान की निर्माणी भी अति महत्वपूर्ण परियोजनाएं थीं।
छठी विधान-सभा के मंत्रीमण्डल में कांग्रेस ने बीरेन मित्र को मुख्य मंत्री बनाया।
सातवीं विधान-सभा के मंत्रीमण्डल में कांग्रेस ने सदाशिव त्रिपाठी को मुख्य मंत्री बनाया।
भुवनेश्वर में ओडिशा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना। ओडिशा औद्योगिक विकास निगम एवं ओडिशा लघु उद्योग निगम की स्थापना हुई।
पारादीप पोर्ट]] पूर्ण हुआ। ब्रह्मपुर विश्वविद्यालय एवं संबलपुर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। कांग्रेस का दूसरा भाग जेना कांग्रेस श्री हरेकृष्ण महताब के नेतृत्व में अलग हुआ।
मार्च १९७१ में नौंवीं विधान सभा में, मध्यावधि चुनावों में अनिर्णायक परिणाम के चलते, स्वतंत्र पार्टी, झारखंड पार्टी एवं उत्कल कांग्रेस पार्टी ने संयुक्त सरकार बनायी, जिसके मुख्य मंत्री बने श्री बिस्वनाथ दास।
शासन कर रही गठबंधन सरकार में कई विवादों के चलते श्रीमती नंदिनी सतपथी मुख्य मंत्री बनीं। १९७३ में ओडिशा में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।
नंदिनी सतपथी ने ग्यारहवीं मुख्यमंत्री पद शपथ ग्रहण की।
श्री बिनायक आचार्य को बारहवां मुख्य मंत्री बनाया गया। यह सरकार केवल १२३ दिनों में फिर गिरी। मध्यावधि चुनावों में बीजु पटनायक, जनता पार्टी से १४७ में से ११० सीटों से विजयी हुए, व श्री. नीलमणि राउतराय मुख्य मंत्री बने। यह सरकार १९८० तक चली।
पुरी में श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।
कांग्रेस पार्टी ने चुनावॊं में जीत पायी, एवं श्री जानकी वल्लभ पटनायक चौदहवें मुख्य मंत्री बने। १९८४ में कटक में दूरदर्शन केंद्र की स्थापना।
नौंवें ओडिशा विधान-सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की अपूर्व जीत पर जानकी बल्लभ पटनायक पंद्रहवें मुख्य मंत्री बने।
श्री पटनायक के त्याग-पत्र देने पर हेमानंद बिश्वाल सोलहवें मुख्य मंत्री बने।
बीजू पटनायक के नेतृत्व में जनता दल की दसवें विधान-सभा चुनावों में जीत हासिल की।
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