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भुवनेश्वर (ओड़िया: ଭୁବନେଶ୍ଵର) भारत के ओड़िशा राज्य की राजधानी और दूसरा सबसे बड़ा नगर है। प्रशासनिक रूप से यह खोर्धा ज़िले में स्थित है। कटक के साथ यह पूर्व भारत का एक महत्वतपूर्ण आर्थिक व सांस्कृतिक केन्द्र है। भुवनेश्वर महानदी से दक्षिणपश्चिम में स्थित है। नगर के दक्षिण में दया नदी और पूर्व में कुआखाई नदी बहती है।[1][2][3]
भुवनेश्वर ଭୁବନେଶ୍ବର | |
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Bhubaneswar | |
निर्देशांक: 20.179°N 85.112°E | |
देश | भारत |
राज्य | ओड़िशा |
ज़िला | खोर्धा ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 8,86,397 |
भाषा | |
• प्रचलित भाषाएँ | ओड़िया |
समय मण्डल | भारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 751xxx, 752xxx, 754xxx |
दूरभाष कोड | 0674, 06752 |
वाहन पंजीकरण | OD-02 (दक्षिण भुवनेश्वर) OD-33 (उत्तर भुवनेश्वर) |
UN/LOCODE | IN BBI |
वेबसाइट | www www |
भुवनेश्वर ओड़िशा का सबसे बड़ा नगर तथा पूर्वी भारत का आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह नगर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रूप में परिणत हो गया था। भुवनेश्वर को पूर्व का 'काशी' भी कहा जाता है। यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्थल भी रहा है। प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहाँ फलता-फूलता रहा है। बौद्ध धर्म के भाँति जैनों के लिए भी यह जगह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रथम शताब्दी में यहां चेदि वंश के एक प्रसिद्ध जैन राजा खारवेल हुए थे। इसी तरह सातवीं शताब्दी में यहां प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ था। इस प्रकार भुवनेश्वर वर्तमान में एक बहुसांस्कृतिक नगर है।
ओड़िशा की इस वर्तमान राजधानी का निमार्ण इंजीनियरों और वास्तुविदों ने उपयोगितावादी सिद्धान्त के आधार पर किया है। इस कारण नया भुवनेश्वर प्राचीन भुवनेश्वर के समान बहुत सुन्दर तथा भव्य नहीं है। यहां आश्चर्यजनक मन्दिरों तथा गुफ़ाओं के अलावा कोई अन्य सांस्कृतिक स्थान देखने योग्य नहीं है। १९७२ तक कटक शहर ओड़शा की राजधानी थी।
‘भुवनेश्वर’ नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, 'भुवन' – हिन्दू देवता शिव का रूप, जिनका नाम 'त्रिभुवन' देव है और ईश्वर।
अनुश्रुतियों के अनुसार भुवनेश्वर में किसी समय 7000 मन्दिर थे, जिनका निर्माण 700 वर्षों में हुआ था। किन्तु वर्तमान केवल 600 मन्दिर ही बचे हैं। राजधानी से 100 किलोमीटर दूर ख़ुदाई करने पर तीन बौद्ध विहारों का पता चला है। ये बौद्ध विहार थें रत्नागिरि, उदयगिरि तथा लळितगिरि। इन तीनों बौद्ध विहारों से मिले अवशेषों से अनुमान लगाया जा सकता है कि 13वीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म यहाँ उन्नत अवस्था में था। बौद्ध धर्म की तरह यहां जैन धर्म से सम्बन्धित कलाकृतियाँ भी मिलती है। राजधानी से 6 किलोमीटर दूर उदयगिरि तथा खण्डगिरि की गुफ़ाओं में जैन राजा खारवेल की बनवाई कलाकृतियाँ मिली है जोकि बहुत अच्छी अवस्था में है।
इस मन्दिर की स्थापना 11वीं शताब्दी में हुई थी। इस मन्दिर में शिव और पार्वती की भव्य मूर्ति है। इस मंदिर के नाम से ऐसा लगता है मानो इसका नाम किसी राजा-रानी के नाम पर रखा गया हो। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना कि चूँकि यह मन्दिर एक विशेष प्रकार के पत्थर से बना है जिसे राजारानी पत्थर कहा जाता है इसी कारण इस मन्दिर का नाम राजा-रानी मंदिर पड़ा। इस मंदिर के दीवारों पर सुन्दर कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। ये कलाकृतियाँ खजुराहो मन्दिर की कलाकृतियों की याद दिलाती हैं।
प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए ₹5, विदेशियों के लिए ₹100। घूमने का समय: सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक।
यह मन्दिर सभी दिन खुला रहता है। स्टील कैमरे से इस मंदिर की फोटो ख़ींचने पर कोई शुल्क नहीं लिया जाता। किन्तु इस मन्दिर की वीडियोग्राफी का शुल्क ₹25 है।
राजा-रानी मन्दिर से थोड़ा आगे जाने पर 'ब्राह्मेश्वर' मन्दिर स्थित है। इस मंदिर की स्थापना 1060 ई. में हुई थी। इस मन्दिर के चारों कानों पर चार छोटे-छोटे मन्दिर स्थित हैं। इस मन्दिर की दीवारों पर अद्भुत नक्काशी की गई है। इनमें से कुछ कलाकृतियों में स्त्री-पुरुष को कामकला की विभिन्न अवस्थाओं में दर्शाया गया है।
राजा-रानी मन्दिर से 100 ग़ज़ की दूरी पर मुक्तेश्वर मन्दिर समूह है। इस समूह में दो महत्वपूर्ण मंदिर है: परमेश्वर मंदिर तथा मुक्तेश्वर मंदिर। इन दोनों मंदिरों की स्थापना 650 ई. के आसपास हुई थी। परमेश्वर मंदिर सबसे सुरक्षित अवस्था में है। यह मंदिर इस क्षेत्र के पुराने मंदिरों में सबसे आकर्षक है। इसके जगमोहन में जाली का ख़ूबसूरत काम किया गया है। इसमें आकर्षक चित्रकारी भी की गई है। एक चित्र में एक नर्त्तकी और एक सङ्गीतज्ञ को बहुत अच्छे ढङ्ग से दर्शाया गया है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है। यह शिवलिङ्ग अपने बाद के लिंगराज मंदिर के शिवलिंग की अपेक्षा ज्यादा चमकीला है।
परमेश्वर मंदिर की अपेक्षा मुक्तेश्वर मंदिर छोटा है। इस मंदिर की स्थापना 10वीं शताब्दी में हुई थी। इस मंदिर में नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस मंदिर में की गई चित्रकारी काफी अच्छी अवस्था में है। एक चित्र में कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाया गया है। एक अन्य चित्र में पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मंदिर के दरवाजे आर्क शैली में बने हुए हैं। इस मंदिर के खंभे तथा पिलर पर भी नक्काशी की गई है। इस मंदिर का तोरण मगरमच्छ के सिर जैसे आकार का बना हुआ है।
इस मंदिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है। इसे लोग 'मारीची कुंड कहते हैं। स्थानीय लोगों का ऐसा कहना है कि इस कुंड के पानी से स्नान करने से महिलाओं का बाझंपन दूर हो जाता है।
इस मंदिर समूह का निर्माण सोमवंशी वंश के राजा ययाति ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। 185 फीट ऊंचा यह मंदिर कंलिगा स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर का प्रतिनिधित्व करता है। यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार यह ओडिशा का सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है।
इस मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही 160 मी x 140 मी आकार का एक चतुर्भुजाकार कमरा मिलता है। इस मंदिर का शहतीर इस प्रकार बना हुआ है कि यह विस्मय और कौतुहल का एक साथ बोध कराता है। इस मंदिर का आकार इसे अन्य मंदिरों से अलग रूप में प्रस्तुत करता है। इस मंदिर में स्थापित मूर्तियां चारकोलिथ पत्थर की बनी हुई हैं। ये मूर्तियां समय को झुठलाते हुए आज भी उसी प्रकार चमक रही हैं। इन मूर्तियों की वर्तमान स्थिति से उस समय के मूर्तिकारों की कुशलता का पता चलता है। इस मंदिर की दीवारों पर खजुराहों के मंदिरों जैसी मूर्तियां उकेरी गई हैं। इसी मंदिर के भोग मंडप के बाहरी दीवार पर मनुष्य और जानवर को सेक्स करते हुए दिखाया गया है। पार्वती मंदिर जो इस मंदिर परिसर के उत्तरी दिशा में स्थित है, अपनी सुंदर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
नोट: गैर हिन्दुओं को लिंगराज मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं है।
इस मंदिर के चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर हैं लेकिन 'वैताल' मंदिर इनमें विशेष महत्व रखता है। इस मंदिर की स्थापना 8वीं शताब्दी के आसपास हुई थी। इस मंदिर में चामुंडा देवी की मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति देखने में काफी भयावह प्रतीत होती है। यह मंदिर चतुर्भुजाकार है। इस मंदिर में तांत्रिक, बौद्ध तथा वैदिक परम्परा सभी के लक्षण एक साथ देखने को मिलता है।
भुवनेश्वर जाने पर यहां का राज्य संग्रहालय जरुर घूमना चाहिए। यह संग्रहालय जयदेव मार्ग पर स्थित है। इस संग्रहालय में हस्तलिखित तारपत्रों का विलक्षण संग्रह है। यहां प्राचीन काल के अदभूत चित्रों का भी संग्रह है। इन चित्रों में प्रकृति की सुंदरता को दर्शाया गया है। इसी संग्रहालय में प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक 'गीतगोविंद' है जिससे जयदेव ने 12वीं शताब्दी में लिखा था।
प्रवेश शुल्क: 1 रु. मात्र। समय: 10 बजे सुबह से शाम 5 बजे तक। सोमवार बंद। भुवनेश्वर के आसपास देखने योग्य स्थान
हीरापुर भुवनेश्वर से 15 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में भारत की सबसे छोटी योगिनी मंदिर 'चौसठ योगिनी' स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ था। इसका उत्खनन 1958 ई. में किया गया था।
यह मंदिर गोलाकार आकृति के रूप में बनी हुई है जिसका व्यास 30 फीट है। इसकी दीवारों की ऊंचाई 8 फीट से ज्यादा नहीं है। यह मंदिर भूरे बलूए पत्थर से निर्मित है। इस मंदिर में 64 योगिनियों की मूर्त्तियां बनाई गई है। इनमें से 60 मूर्त्तियां दीवारों के आले में स्थित है। शेष मूर्त्तियां मंदिर के मध्यम में एक चबूतरे पर स्थापित है। इस मंदिर का बाहरी दीवार भी काफी रोचक है। इन दीवारों में नौ आले हैं जिनमें महिला पहरेदार की मूर्त्तियां स्थापित है।
प्रवेश शुल्क: 10 रु. मात्र। समय: 10 बजे सुबह से शाम 5 बजे तक। सभी दिन खुला रहता है।
धौली भुवनेश्वर के दक्षिण में राजमार्ग संख्या 203 पर स्थित है। यह वही स्थान है जहां अशोक कलिंग युद्ध के बाद पश्चात्ताप की अग्नि में जला था। इसी के बाद उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और जीवन भर अहिंसा के सन्देश का प्रचार प्रसार किया। अशोक के प्रसिद्ध पत्थर स्तंभों में एक यहीं है। इस स्तम्भ (257 ई.पू.) में अशोक के जीवन दर्शन का वर्णन किया गया है। यहाँ का शान्ति स्तूप भी घूमने लायक है जो कि धौली पहाड़ी के चोटी पर बना हुआ है। इस स्तूप में भगवान बुद्ध की मूर्ति तथा उनके जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं की मूर्तियाँ स्थापित है। इस स्तूप से 'दया नदी' का विहङ्गम नज़ारा दिखता है।
प्रवेश शुल्क: नि:शुल्क। समय: सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक। सभी दिन खुला हुआ।
उदयगिरि और खन्डगिरि की पहाडियां भुवनेश्वर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। उदयगिरि और खन्डगिरि (प्राचीन नाम स्कंधगिरि) की पहाडियों में पत्थरों को काट कर गुफाएं बनाई हुई हैं। इन गुफाओं का निर्माण प्रसिद्ध चेदी राजा खारवेल जैन मुनियों के निवास के लिए करवाऐ थे। इन गुफाओं में की गई अधिकांश चित्रकारी नष्ट हो गई है।
गुफा संख्या 4 जिसे रानी गुफा के नाम से भी जाना जाता है, दो तल का है। यह एक आकर्षक गुफा है। इसमें बनाई गई कई मूर्त्तियां अभी भी सुरक्षित अवस्था में हैं। इस गुफा में सफाई का उत्तम प्रबंध था। ऐसा लगता है कि इसे बनाने वाले कारीगरों का तकनीकी ज्ञान काफी उन्नत था।
गुफा संख्या 10 में जिसे गणेश गुफा भी कहा जाता है वहां गणेश की मनमोहक मूर्त्ति है। इस गुफा के दरवाजे पर दो हाथियों को दरबान के रूप में स्थापित किया गया है। लेकिन खन्डगिरि गुफा में बनी हुई जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्त्तियां नष्ट प्राय अवस्था में है।
ओडिशा और बंगाली भोजन को लगभग एक समान माना जाता है लेकिन स्वाद के मामले में एक-दूसरे से बहुत भिन्न। चावल ओडिशा का प्रधान भोजन है। 'पखाळ भात' यहाँ का एक लोकप्रिय डिश है। यह भोजन एक दिन पहले के चावल को आलू के साथ तल कर बनाया जाता है। इसके साथ आम, आलू भरता, बढ़ी चूरा (एक मसालेदार व्यञ्जन), पोई-साग (यह साग ओड़िशा के तटीय क्षेत्रों में पाया जाता है) खाया जाता है।
अगर ओडिशा जाएं तो 'छतु तरकारी' जरुर खाएं। यह एक तीखा भोजन है जो मसरुम से बनता है। यहां हर खाने में पंचफोरन मिलाने का रिवाज है। यह एक खास तरह का मसाला होता है। जिसे हर भोजन में मिला दिया जाता है। इसे भोजन में मिलाने से खाना स्वादिष्ट हो जाता है। इसके अलावा यहां का तड़का, डालमा, पीठा तथा नारियल के तेल में बने पूड़ी जरुर खाएं।
ओडिशा के लोगों को बंगाली की तरह ही मछली खाने का बहुत शौक है। मछली का यहां कई डिश लोकप्रिय है। 'महूराली-चडचडी' एक प्रकार का डिश है जो छोटी मछली से बनाया जाता है। 'चिंगुडि' भी एक प्रकार डिश है जो चिलका झील में पाए जाने वाले झींगा मछली से बना होता है। यह भोजन तरकारी की तरह बनाया जाता है। इसी प्रकार का एक अन्य भोजन 'माछ-भजा' है जो मीठे पानी में पाये जाने वाले रोहू मछली से बना होता है। ओडिआ लोग 'मनसा' मछली को सरसों के तेल में तल कर भी खाते हैं।
भुवनेश्वर में कुछ व्यंजन कुछ खास स्थानों पर ही खाने चाहिए जैसे, डालमा निक्को पार्क या राजपथ में, ओडीसी बापूजी नगर, स्वास्ति प्लाजा, में फेयर लगुन तथा होटल क्राउन में। शाकाहारी व्यक्ितयों के लिए होटल हरेकृष्ण सबसे अच्छा माना जाता है।
भुवनेश्वर से 12 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 5 पर कटक जाने वाले रास्ते पर पाहाल गांव में प्रसिद्ध कलिंग स्वीट दुकान है। यहां भारत के तीन प्रसिद्ध मिठाईयां रसगुल्ला, चेन्नापोडा (छेनापोड) तथा चेन्नागाजा (छेनागजा) मिलती हैं। अगर आप भुवनेश्वर जाएं तो इन मिठाईयों का जरुर स्वाद लें। साथ ही यहां का दहीबाड़ा भी काफी प्रसिद्व है जोकि इमली की चटनी के साथ परोसा जाता है।
यहां पत्थर से बने बहुत ख़ूबसूरत सामान मिलते हैं। इन सामानों में मूर्त्तियों से लेकर बर्त्तन तक शामिल है। पत्थर के बने कुछ बर्त्तनों को जरुर खरीदना चाहिए। जैसे, पत्थर के बने कप जिसे 'पथौरी' कहा जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है यह दही जमाने के लिए सबसे अच्छा बर्त्तन है। पत्थर के बने इन सामानों को राज्य के हस्तशिल्प हाट (जोकि उत्कलिका बाजार में स्थित है) से खरीदना चाहिए। इसके अलावे अन्य उपयोगी सामानों को मंदिरों के आसपास से भी खरीदा जा सकता है। पत्थरों से बने वस्तुओं के अलावा सींग से बने वस्तुओं जैसे, पेन स्टैंड, कंघी, सिगरेट पाइप तथा अन्य सजावटी वस्तुओं को भी खरीदा जा सकता है। ओडिशा की साडि़यां भी काफी प्रसिद्ध हैं। खास कर जरीदार काम वाली साड़ी। इन साडियों को प्रियदर्शनी ओडीसी हैंडलूम,11 वेर्स्टन टॉवर, कलानिकेतन, कल्पना चौक या नया सड़क से खरीदा जा सकता है।
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