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भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भारत का इतिहास कई सहस्र वर्ष पुराना माना जाता है।[1] 65,000 साल पहले, पहले आधुनिक मनुष्य, या होमो सेपियन्स, अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे, जहाँ वे पहले विकसित हुए थे।[2][3][4] सबसे पुराना ज्ञात आधुनिक मानव आज से लगभग 30,000 वर्ष पहले दक्षिण एशिया में रहता है।[5] 6500 ईसा पूर्व के बाद, खाद्य फसलों और जानवरों के वर्चस्व के लिए सबूत, स्थायी संरचनाओं का निर्माण और कृषि अधिशेष का भण्डारण मेहरगढ़ और अब बलूचिस्तान के अन्य स्थलों में दिखाई दिया।[6] ये धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता में विकसित हुए, दक्षिण एशिया में पहली शहरी संस्कृति, जो अब पाकिस्तान और पश्चिमी भारत में 2500-1900 ई.पू. के दौरान पनपी। मेहरगढ़ पुरातत्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है जहां नवपाषाण युग (7000 ईसा-पूर्व से 2500 ईसा-पूर्व) के बहुत से अवशेष मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता, जिसका आरम्भ काल लगभग 3300 ईसापूर्व से माना जाता है,[7] प्राचीन मिस्र और सुमेर सभ्यता के साथ विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में से एक हैं। इस सभ्यता की लिपि अब तक सफलता पूर्वक पढ़ी नहीं जा सकी है। सिन्धु घाटी सभ्यता वर्तमान पाकिस्तान और उससे सटे भारतीय प्रदेशों में फैली थी। पुरातत्त्व प्रमाणों के आधार पर 1900 ईसापूर्व के आसपास इस सभ्यता का अकस्मात पतन हो गया।
19वीं शताब्दी के पाश्चात्य विद्वानों के प्रचलित दृष्टिकोणों के अनुसार आर्यों का एक वर्ग भारतीय उप महाद्वीप की सीमाओं पर 2000 ईसा पूर्व के आसपास पहुंचा और पहले पंजाब में बस गया और यहीं ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना की गई। आर्यों द्वारा उत्तर तथा मध्य भारत में एक विकसित सभ्यता का निर्माण किया गया, जिसे वैदिक सभ्यता भी कहते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारम्भिक सभ्यता है जिसका सम्बन्ध आर्यों के आगमन से है। इसका नामकरण आर्यों के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। आर्यों की भाषा संस्कृत थी और धर्म "वैदिक धर्म" या "सनातन धर्म" के नाम से प्रसिद्ध था, बाद में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा इस धर्म का नाम हिन्दू पड़ा।
वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के तटीय क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब (भारत) और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 2000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच में मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननों से मिले अवशेषों में वैदिक सभ्यता से संबंधित कई अवशेष मिले है जिससे कुछ आधुनिक विद्वान यह मानने लगे हैं कि वैदिक सभ्यता भारत में ही शुरु हुई थी, आर्य भारतीय मूल के ही थे और ऋग्वेद का रचना काल 3000 ईसा पूर्व रहा होगा, क्योंकि आर्यों के भारत में आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननों पर अधारित प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानों से कोई प्रमाण मिला है। हाल ही में भारतीय पुरातत्व परिषद् द्वारा की गयी सरस्वती नदी की खोज से वैदिक सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता और आर्यों के बारे में एक नया दृष्टिकोण सामने आया है। हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया है, क्योंकि हड़प्पा सभ्यता की 2600 बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियाँ थीं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियाँ सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं, सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है, यह आज से 4000 साल पूर्व भूगर्भी बदलाव की वजह से सूख गयी थी। आर्य लोग खानाबदोश गड़ेरियों की भांति अपने जंगली परिवारों और पशुओं को लिए इधर से उधर भटकते रहते थे। इन लोगों ने पत्थर के नुकीले हथियारों से काम लेना सीखा। मनुष्यों की इस सभ्यता को वे 'यूलिथ- सभ्यता' कहते हैं। इस सभ्यता में कुछ सुधार हुआ तो फिर 'चिलियन' सभ्यता आई। इन हथियार औजारों की सभ्यता के समय का मनुष्य नर वानर के रूप में थे। उनमें वास्तविक मनुष्यत्व का बीजारोपण नहीं हुआ था। " मुस्टेरियन " सभ्यता के पश्चात " रेनडियन " सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। इस समय लोगों में मानवोचित बुद्धि का विकास होने लगा था। फिर इसके बाद वास्तविक सभ्यताएं आई जिसमें पहली सभ्यता नव पाषाण कालीन कही जाती है। इस सभ्यता के युग का मनुष्य अपने जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। अतः यूथिल सम्यता से लेकर नव पाषाण सभ्यता तक का काल पाषाण- युग कहलाता है। पाषाण युग के बाद मानव जाति में धातु युग का प्रादुर्भाव हुआ। धातु युग का प्रारम्भ ताम्रयुग से होता है। नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसापोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहलाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं। ताम्र सभ्यता के बाद काँसे की सभ्यता आई। काँसे की सभ्यता संभवतः सुमेरियन लोगों की थी। मैसोपोटामिया के उर- फरा- किश तथा इलाम के सुसा और तपा- मुस्यान आदि जगहों में उन्हें खुदाई में काँसे की सभ्यता के नीचे ताम्र सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मैसोपोटामिया में जहाँ जहां इस प्रोटो इलामाइट कही जाने वाली ताम्र सभ्यता के चिन्ह मिले हैं, उसके और सुमेरू जाति की कांसे की सभ्यता के स्तरो के बीच में किसी बहुत बड़ी बाढ़ के पानी द्वारा जमी हुई चिकनी मिट्टी का उसे चार फुट मोटा स्तर प्राप्त हुआ है। यूरोपिय पुरातत्ववेत्ताओं का यह मत है कि मिट्टी का यह स्तर उस बड़ी बाढ़ द्वारा बना था, जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह का प्रलय कहते हैं। ताम्रयुग की प्रोटोइलामाइट सभ्यता के अवशेष इस प्रलय के स्तर के नीचे प्राप्त हुए हैं। इसका यह अर्थ लगाया गया कि इस प्रलय के प्रथम में ही प्रोटो इलामाइट सभ्यता का अस्तित्व था। इस सभ्यता के अवशेषों के नीचे कुछ स्थानों में निम्न श्रेणी की पाषाण सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
ईसा पूर्व 7वीं और शुरूआती 6वीं शताब्दि सदी में जैन और बौद्ध राजा अजातसत्तु वह पहली बार परिषद के संरक्षक बने (492 ईसा पूर्व - 460 ईसा पूर्व) राजा अजातसत्व पहली बार त्रिपिटक परिषद के संरक्षक बने।
राजा अजातसत्व 492 ईसा पूर्व में शासन किया और 460 में उनकी मृत्यु हो गई। ईसा पूर्व या 2,516 वर्ष पहले 2,484 वर्ष पहले वापस जाएँ। इसलिए, त्रिपिटक की पहली परिषद पहले से ही 9 महीने पुरानी थी और इसलिए इसे प्रथम बौद्ध युग कहा जाता है। धर्म सम्प्रदाय लोकप्रिय हुए। अशोक (ईसापूर्व 265-241) इस काल का एक महत्वपूर्ण राजा था जिसका साम्राज्य अफगानिस्तान से मणिपुर तक और तक्षशिला से कर्नाटक तक फैल गया था। पर वो सम्पूर्ण दक्षिण तक नहीं जा सका। दक्षिण में चोल सबसे शक्तिशाली निकले। संगम साहित्य की शुरुआत भी दक्षिण में इसी समय हुई। भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व ७ वीं और शुरूआती 6 वीं शताब्दी के दौरान सोलह बड़ी शक्तियाँ (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतन्त्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, कुरु, पान्चाल, चेदि और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था। इसके बाद भारत छोटे-छोटे साम्राज्यों में बंट गया।
आठवीं सदी में सिन्ध पर अरबों का अधिकार हो गया। यह इस्लाम का प्रवेश माना जाता है। बारहवीं सदी के अन्त तक दिल्ली की गद्दी पर तुर्क दासों का शासन आ गया जिन्होंने अगले कई सालों तक राज किया। दक्षिण में हिन्दू विजयनगर और गोलकुण्डा के राज्य थे। 1556 में विजय नगर का पतन हो गया। सन् 1526 में मध्य एशिया से निर्वासित राजकुमार बाबर ने काबुल में पनाह ली और भारत पर आक्रमण किया। उसने मुग़ल वंश की स्थापना की जो अगले 300 वर्षों तक चला। इसी समय दक्षिण-पूर्वी तट से पुर्तगाल का समुद्री व्यापार शुरु हो गया था। बाबर का पोता अकबर धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात हुआ। उसने हिन्दुओं पर से जज़िया कर हटा लिया। 1659 में औरंगज़ेब ने इसे फिर से लागू कर दिया। औरंगज़ेब ने कश्मीर में तथा अन्य स्थानों पर हिन्दुओं को बलात मुसलमान बनवाया। उसी समय केन्द्रीय और दक्षिण भारत में शिवाजी के नेतृत्व में मराठे शक्तिशाली हो रहे थे। औरंगज़ेब ने दक्षिण की ओर ध्यान लगाया तो उत्तर में सिखों का उदय हो गया। औरंगज़ेब के मरते ही (1707) में मुगल साम्राज्य बिखर गया। अंग्रेज़ों ने डचों, पुर्तगालियों तथा फ्रांसिसियों को भगाकर भारत पर व्यापार का अधिकार सुनिश्चित किया और 1857 के एक विद्रोह को कुचलने के बाद सत्ता पर काबिज हो गए। भारत को आज़ादी 1947 में मिली जिसमें महात्मा गांधी के अहिंसा आधारित आन्दोलन का योगदान महत्वपूर्ण था। 1947 के बाद से भारत में गणतान्त्रिक शासन लागू है। आज़ादी के समय ही भारत का विभाजन हुआ जिससे पाकिस्तान का जन्म हुआ और दोनों देशों में कश्मीर सहित अन्य मुद्दों पर तनाव बना हुआ है।
प्राचीन भारत का इतिहास समान्यत विद्वान भारतीय इतिहास को एक संपन्न पर अर्धलिखित इतिहास बताते हैं पर भारतीय इतिहास के कई स्रोत है। सिंधु घाटी की लिपि, अशोक के शिलालेख, हेरोडोटस, फ़ा हियान, ह्वेन सांग, संगम साहित्य, मार्कोपोलो, संस्कृत लेखकों आदि से प्राचीन भारत का इतिहास प्राप्त होता है। मध्यकाल में अल-बेरुनी और उसके बाद दिल्ली सल्तनत के राजाओं की जीवनी भी महत्वपूर्ण है। बाबरनामा, आईन-ए-अकबरी आदि जीवनियां हमें उत्तर मध्यकाल के बारे में बताती हैं।
भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण १००,००० से ८०,००० वर्ष पूर्व का है।। पाषाण युग (भीमबेटका, मध्य प्रदेश) के चट्टानों पर चित्रों का कालक्रम ४०,००० ई पू से ९००० ई पू माना जाता है। प्रथम स्थायी बस्तियां ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। उत्तर पश्चिम में सिन्धु घाटी सभ्यता ७००० ई पू विकसित हुई, जो २६वीं शताब्दी ईसा पूर्व और २०वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। वैदिक सभ्यता का कालक्रम भी ज्योतिष के विश्लेषण से ४००० ई पू तक जाता है। आर्य लोग खानाबदोश गड़ेरियों की भांति अपने जंगली परिवारों और पशुओं को लिए इधर से उधर भटकते रहते थे। इन लोगों ने पत्थर के नुकीले हथियारों से काम लेना सीखा। मनुष्यों की इस सभ्यता को वे 'यूलिथ- सभ्यता' कहते हैं। इस सभ्यता में कुछ सुधार हुआ तो फिर 'चिलियन' सभ्यता आई। इन हथियार औजारों की सभ्यता के समय का मनुष्य नर वानर के रूप में थे। उनमें वास्तविक मनुष्यत्व का बीजारोपण नहीं हुआ था। " मुस्टेरियन " सभ्यता के पश्चात " रेनडियन " सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। इस समय लोगों में मानवोचित बुद्धि का विकाश होने लगा था। फिर इसके बाद वास्तविक सभ्यताएं आई जिसमें पहली सभ्यता नव पाषाण कालीन कही जाती है। इस सभ्यता के युग का मनुष्य अपने ही जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। अतः यूथिल सम्यता से लेकर नव पाषाण सभ्यता तक का काल पाषाण- युग कहलाता है। पाषाण युग के बाद मानव जाति में धातु युग का प्रादुर्भाव हुआ। धातु युग का प्रारम्भ ताम्रयुग से होता है। नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहलाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं। ताम्र सभ्यता के बाद काँसे की सम्यता आई। काँसे की सभ्यता संभवतः सुमेरियन लोगों की थी। मैसोपोटामिया के उर- फरा- किश तथा इलाम के सुसा और तपा- मुस्यान आदि जगहों में उन्हें खुदाई में काँसे की सभ्यता के नीचे ताम्र सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मैसोपोटामिया में जहाँ जहां इस प्रोटो इलामाइट कही जाने वाली ताम्र सभ्यता के चिन्ह मिले हैं, उसके और सुमेरू जाति की कांसे की सभ्यता के स्तरो के बीच में किसी बहुत बड़ी बाढ़ के पानी द्वारा जमी हुई चिकनी मिट्टी का उसे चार फुट मोटा स्तर प्राप्त हुआ है। योरोपिय पुरातत्ववेत्ताओं का यह मत है कि मिट्टी का यह स्तर उस बड़ी बाढ़ द्वारा बना था, जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह का प्रलय कहते हैं। ताम्रयुग की प्रोटोइलामाइट सभ्यताके अवशेष इस प्रलय के स्तर के नीचे प्राप्त हुए हैं। इसका यह अर्थ लगाया गया कि इस प्रलय के प्रथम ही प्रोटो इलामाइट सभ्यता का अस्तित्व था। इस सभ्यता के अवशेषों के नीचे कुछ स्थानों में निम्न श्रेणी की पाषाण सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं।
नोट : यह तिथि क्रम पाश्चात्य इतिहासकारों ने दिया है । सनातन संस्कृति का कोई तिथिक्रम नहीं है। सनातन का अर्थ शाश्वत है । यह सृष्टि के आरंभ से ही है अतः तिथिक्रम महत्वपूर्ण नहीं । तिथिक्रम पाश्चात्य अवधारणा है । हम विषगुरु लोग इसमें विश्वास नहीं रखते ।
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभु मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। ईसा से कोई चार सहस्र वर्ष पूर्व भारतवर्ष के मूल पुरुष स्वायंभुव मनु उत्पन्न हुए। इनकी तीन पुत्रियां तथा दो पुत्र हुए। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उतानपाद थे। प्रियव्रत के दस पुत्र हुए। इन्हें प्रियव्रत ने पृथ्वी बांट दी। ज्येष्ठ पुत्र अग्निन्ध्र को उसने जम्बुद्दीप( एशिया) दिया। इसे उसने अपने हाथों नौ पुत्रों में बाँट दिया। बड़े पुत्र नाभि को हिमवर्ष- हिमालय से अरब समुद्र तक देश मिला। नाभि के पुत्र महाज्ञानी- सर्वत्यागी ऋषभ देव हुए। ऋषभदेव के पुत्र महाप्रतापी भरत हुए, जिन्होने अष्ट द्वीप जय किए, और अपने राज्य को नौ भागों में बांटा। भरत के नाम पर हिमवर्ष का नाम भारत, भारतवर्ष या भरतखण्ड प्रसिद्ध हुआ। इसके अनन्तर इस प्रियव्रत शाखा में पैंतीस प्रजापति और चार मनु हुए। चारों मनुओं के नाम स्वारोचिष, उतम, तामस और रैवत थे। इन मनुओं के राज्यकाल को मन्वन्तर माना गया। चाक्षुष रैवत मन्वन्तर की समाप्ति पर छतीसवां प्रजापति और छठा मनु, स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र उतानपाद की शाखा में चाक्षुष नाम से हुआ। इस शाखा में ध्रुव, चाक्षुष मनु, वेन, पृथु, प्रचेतस आदि प्रसिद्ध प्रजापति हुए। इसी चाक्षुष मन्वन्तर में बड़ी बड़ी घटनाएं हुई। भरतवंश का विस्तार हुआ। राजा की मर्यादा स्थापित हुई। वेदोदय हुआ। इस वंश का वेन प्रथम राजा था। इस वंश का प्रथु- वैन्य प्रथम वेदर्षि था। उसने सबसे प्रथम वैदिक मंत्र रचे। अगम भूमि को समतल किया गया। उसमें बीज बोया गया। इसी के नाम पर भूमि का पृथ्वी नाम विख्यात हुआ। इसी वंश के राजा प्रचेतस ने बहुत से जंगलों को जला कर उन्हें खेती के येाग्य बनाया। जंगल साफ कर नई भूमि निकाली। कृषि का विकास किया। इन छहों मनुओं के काल का समय जो लगभग तेरह सौ वर्ष का काल है, सतयुग के नाम से प्रसिद्ध है। मन्वन्तर काल में वह प्रसिद्ध प्रलय हुआ, जिसमें काश्यप सागर तट की सारी पृथ्वी जल में डूब गई। केवल मन्यु अपने कुछ परिजनो के साथ जीवित बचा। सतयुग को ऐतिहासिक दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है। एक प्रियव्रत शाखा काल, जिसमें पैंतीस प्रजापति और पांच मनु हुए। दूसरा उतानपाद शाखा काल, जिसमें चाक्षुष मन्वन्तर में दस प्रजापति और राजा हुए। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस काल के दो भाग किए जाते हैं। एक प्राकवेद काल, उनतालीसवें प्रजापति तक एवम दूसरा वेदोदय काल। भूमि का बंटवारा, महाजल प्रलय, भूसंस्कार, कृषि, राज्य स्थापना, वेदोदय तथा भारत और पर्शिया में भरतों की विजय इस काल की बड़ी सांस्कृतिक और राजनैतिक घटनाएं है। वेदोदय चाक्षुष मन्वन्तर की सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना है। चाक्षुष मनु के पाँच पुत्र थे। अत्यराति जानन्तपति, अभिमन्यु, उर, पुर और तपोरत। उर के द्वितीय पुत्र अंगिरा थे। इन छहो वीरों ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उस काल में पर्शिया का साम्राज्य चार खण्डों में विभक्त था। जिनके नाम सुग्द, मरू, वरवधी और निशा थे। बाद में हरयू( हिरात) और वक्रित( काबुल) भी इसी राज्य में मिला लिए गए थे। यहाँ पर प्रियव्रत शाखा के स्वारोचिष मनु के वंशज राज्य कर रहे थे। जानन्तपति महाराज अत्यराति चक्रवर्ती कहे जाते थे। भारतवर्ष की सीमा के अंतिम प्रदेश और पर्शिया का पूर्वी प्रान्त सत्यगिदी के नाम से विख्यात था, उस समय इस स्थान को सत्यलोक भी कहते थे। उसी के सामने सुमेरू के निकट बैकुण्ठ धाम था, जो देमाबन्द- एलवुर्ज पर्वत पर ईरानियन पैराडाइस के नाम से अभी जाना जाता है। देमाबन्द तपोरिया प्रान्त में था। इसी प्रान्त के तपसी विकुण्ठा और उनके पुत्र का नाम बैकुण्ठ था। बैकुण्ठधाम उन्हीं की राजधानी थी।
चक्रवर्ती महाराज अत्यराति जानन्तपति के दूसरे भाई का नाम मन्यु या अभिमन्यु था। प्राचीन पर्शियन इतिहास में उन्हें मैन्यू और ग्रीक में मैमनन कहा गया है। अर्जनेम में अभिमन्यु(Aphumon) दुर्ग के निर्माता तथा ट्राय युद्ध के विजेता यही है। प्रसिद्ध पुराण काव्य 'ओडेसी' में इन्हीं अभिमन्यु महाराज की प्रशस्ति वर्णन की गई है। इन्होंने ही सुषा नाम की नगरी बसाई और उसे अपनी राजधानी बनाया। सुषा संसार भर में प्राचीनतम नगरी थी। इसी का नाम मन्युपुरी था। यह मन्युपूरी वरुण देव के समय में सुषा के नाम से विख्यात था बाद में इंद्रपुरी अमरावती के नाम से विख्यात हुआ। यह प्रसिद्ध नगरी बेरसा नदी के तट पर थी जो उस काल में सभ्यता का केंद्र थी।
चक्रवर्ती महाराज अत्यराति के तीसरे भाई का नाम उर था। इन्होंने अफ्रीका, सीरिया, बेबीलोनिया आदि देशों में विजय प्राप्त किया और ईसा से 2000 वर्ष पूर्व अब्राहम को पद से हटाकर पूर्वी मिस्र में अपना राज्य स्थापित किया था। इस बात का संकेत ईसाइयों के पुराने अहदनामें में मिलता है। उर बेबिलोनिया का ही एक प्रदेश था। प्रसिद्ध अप्सरा उर्वशी इसी उर प्रदेश की थी। ईरान के एक पर्वत का नाम भी उरल है। उरमिया प्रदेश भी हैं, जहाँ जोरास्टर का जन्म हुआ था। उर वंशियों के ईरान में उर, पुर और वन ये तीन राज्य स्थापित हुए थे। जल प्रलय से पूर्व बेबीलोनिया में मत्स्य जाति के लोगों का ही राज्य था। यह प्राचीन जाति चिरकाल से उस देश पर शासन करती थी। यह जाति प्रसिद्ध नाविक थी।
चाक्षुष मनु के चौथे पुत्र एवं जानन्तपति महाराजा अत्यराति के भाई का नाम पुर था। इनकी राजधानी एलबुर्ज पर्वत के निकट पुरसिया था। इन्हीं के नाम पर ईरान का नाम पर्शिया पड़़ा। महाराज अत्यराति के पाँचवे भाई का नाम तपोरत था। इन्होंने तपोरत नाम से अपना राज्य स्थापित किया जो तपोरिया प्रांत कहलाता था। इसी तपोरत प्रदेश में बैकुंठ था जो देमाबंद पर्वत पर है। तपसी बैकुंठ महाराज तपोरत के ही वंशज थे। इन्हीं की राजधानी बैकुंठ धाम थी। तपोरत के राजा बाद में देमाबंद कहाने लगे, जीन्हे हम देवराज कहते हैं। इस तपोरिया भूमि को मजांदिरन भी कहते हैं।
जानन्तपति अत्यराति के वंशज अर्राट थे। आरमेनिया इनका प्रान्त था। अर्राटों ने आगे असुरों से भारी भारी युद्ध किये थे। अर्राट पर्वत भी अत्यराति के नाम पर ही है। सीरिया का नगर अत्यरात (Adhraot ) इन्हीं के नाम पर था। उर के पुत्र अंगिरा ने अफ्रिका को जीतकर वहाँ राज्य स्थापित किया था। अंगिरा- पिक्यूना के निर्माता और विजेता यही थे। अंगिरा और मन्यु की विजयों और युद्ध अभियानों के वर्णन से ईरानी- हिब्रु धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। इनके सर्वग्राही और भयानक आक्रमण से पददलित होकर ईरान के लोग उन्हें अहित देव- दुखदाई अहरिमन और शैतान कह कर पुकारने लगे। अवस्ता में अंगिरामन्यु- अहरिमन कहा है। बाइबिल में उन्हें शैतान कहा गया है। मिल्टन के " स्वर्गनाश " की कथा में इसी विजेता को शैतान कहा गया है। पाश्चात्य देशों के ग्रन्थ इतिहास इन्हीं छह विजेताओं की दिग्विजय के वर्णनों से भरे पड़े हैं। पाश्चात्य साहित्य में इन्हें विकराल देव और शैटानिक-होस्ट के अधिनायक कहा गया है। ये छहों ईरान के प्राचीन उपास्यदेव हो गए थे। उन्हींकी विजय गाथा मिल्टन ने चालीस वर्ष तक गाये हैं। पाश्चात्य इतिहासवेत्ताओं ने इस आक्रमण का काल ईसा से करीब तेइस सौ वर्ष पूर्व बताते हैं। भारत के उत्तरापथ में आर्यावर्त था जिसमें दो राज्य थे सूर्य मंडल और चंद्र मंडल। ये दोनों आर्य राज्य समुह थे। सूर्य मंडल में मानव कुल और चंद्र मंडल में एल कुल का राज्य था। सूर्य कुल ने आर्य जाति का निर्माण किया उसी प्रकार वरुण ने सुमेर जाती को जन्म दिया। यह सुमेर जाती सुमेर सभ्यता की प्रस्तारक और इराक के सबसे प्राचीन शासक थी। संसार के पुरातत्वविद् डाक्टर फ्रेंक फोर्ट और लेग्डन आदि यह कहते हैं कि प्रोटो ईलामाइट सभ्यता का ही विकसित रूप सुमेरू सभ्यता है अर्थात प्रोटोइलामाइट सभ्यता से ही सुमेरू सभ्यता का जन्म हुआ है। जल प्रलय के पहले चाक्षुष मनु के वंशज का यहां राज्य था। मनु पुत्र चक्रवर्ती महाराज अत्यराति जानन्तपति यहां के राजा थे। चाक्षुष मनु का वंश ही प्रोटोइलामाइट सभ्यता का जनक था। जल प्रलय में मनु के संपूर्ण वंशज का विनाश हो गया था सिर्फ कुछ को छोड़कर।
१००० ईसा पूर्व के पश्चात १६ महाजनपद उत्तर भारत में मिलते हैं। ५०० ईसवी पूर्व के बाद, कई स्वतंत्र राज्य बन गए। उत्तर में मौर्य वंश, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक सम्मिलित थे, ने भारत के सांस्कृतिक पटल पर उल्लेखनीय छाप छोड़ी | १८० ईसवी के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में इंडो-ग्रीक, इंडो-स्किथिअन, इंडो-पार्थियन और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए | तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का "स्वर्णिम काल" कहलाया। दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न समयकाल में कई राजवंश चालुक्य, चेर, चोल, कदम्ब, पल्लव तथा पांड्य चले | विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोल शास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले |
मध्यकाल का सनातन संस्कृति में बहुत अधिक महत्व नहीं है । यह काल लुटेरों का था । इस काल में सनातन में अनेक योद्धा हुए जो हार कर भी जीते। जो सनातन रूप से विजयी है उसे हराया नहीं जा सकता । वह शाश्वत विजयी है ।
12वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारत पर इस्लामी आक्रमणों के पश्चात, उत्तरी व केन्द्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के शासनाधीन हो गया; और बाद में, अधिकांश उपमहाद्वीप मुगल वंश के अधीन। दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य शक्तिशाली निकला। हालांकि, विशेषतः तुलनात्मक रूप से, संरक्षित दक्षिण में, अनेक राज्य शेष रहे अथवा अस्तित्व में आये।
17वीं शताब्दी के मध्यकाल में पुर्तगाल, डच, फ्रांस, ब्रिटेन सहित अनेकों युरोपीय देशों, जो कि भारत से व्यापार करने के इच्छुक थे, उन्होनें देश में स्थापित शासित प्रदेश, जो कि आपस में युद्ध करने में व्यस्त थे, का लाभ प्राप्त किया। अंग्रेज दुसरे देशों से व्यापार के इच्छुक लोगों को रोकने में सफल रहे और १८४० ई तक लगभग संपूर्ण देश पर शासन करने में सफल हुए। १८५७ ई में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध असफल विद्रोह, जो कि भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम से जाना जाता है, के बाद भारत का अधिकांश भाग सीधे अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये संघर्ष चला। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप 15 अगस्त, 1947 ई को सफल हुआ जब भारत ने अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की, मगर देश को विभाजन कर दिया गया। तदुपरान्त 26 जनवरी, 1950 ई को भारत एक गणराज्य बना।
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