पृथ्वीराज राठौड़
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कवि पृथ्वीराज राठौड़ (1549 ता, 6 नवम्बर - ई.सं. 1600) बीकानेरनरेश रायसिंहजी के भाई जो अकबर के दरबार में रहते थे। वे वीर रस के अच्छे कवि थे और मेवाड़ की स्वतंत्रता तथा राजपूतों की मर्यादा की रक्षा के लिये सतत संघर्ष करनेवाले महाराणा प्रताप के अनन्य समर्थक और प्रशंसक थे। अकबर के समय के लिखे हुए इतिहास ‘अकबरनामा’ में उनका नाम दो-तीन स्थानों पर आया है।
साहित्यक जगत में 'पीथळ' के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे पुत्र थे। इनका जन्म वि.सं. 1606 मार्गशीर्ष वदि 1 (6 नवम्बर, 1549 ) को हुआ था। वे बड़े वीर, विष्णु के परम भक्त और उंचे दर्जे के कवि थे। उनका साहित्यिक ज्ञान बड़ा गम्भीर और सर्वांगीण था। संस्कृत और डिंगल साहित्य के वे विद्वान थे। इतिहासकार कर्नल टॉड पृथ्वीराज के बारे में लिखते है-
- पृथ्वीराज अपने युग के सर्वाधिक पराक्रमी प्रमुखों में से एक थे तथा वह पश्चिम के प्राचीन ट्रोबेडूर राजाओं की भाँती युद्ध-कला के साथ ही कवित्व-कला में भी निपुण थे। चारणों की सभा में इस राजपूत अश्वारोही योद्धा को एक मत से प्रशंसा का ताल-पत्र दिया गया था। प्रताप के नाम से उसके मन में अगाध श्रद्धा थी (कर्नल टॉड कृत 'राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास', पृष्ठ 359.)
इतिहासकार डा. गोपीनाथ शर्मा, अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” के पृष्ठ-322,23. पर लिखते है-
- पृथ्वीराज, जो बड़ा वीर, विष्णु का परमभक्त और उच्चकोटि का कवि था, अकबर के दरबारियों में सम्मानित राजकुमार था। 'मुह्नोत नैणसी' की ख्यात में पाया जाता है कि बादशाह ने उसे गागरौन का किला जागीर में दिया था। वह मिर्जा हकीम के साथ 1581 ई. की काबुल की और 1596 ई. की अहमदनगर की लड़ाई में शाही सेना में सम्मिलित था"
अकबर के दरबार में रहते हुए पृथ्वीराज अकबर के सबसे बड़े शत्रु महाराणा प्रताप के परमभक्त थे। इन्होने जब आर्थिक कठिनाइयों तथा घोर विपत्तियों का सामना करते करते एक दिन राणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह के हाथ से घास की रोटी जंगली बिलाव लेकर के भाग गया {अरे घास फूस री रोटी ही, जद बन बिलावडो ले भाग्यो पीथल और पाथल के अनुसार } और अपने बेटे को बिलखता देखकर विचलित हो उठे तो उन्होंने सम्राट के पास संधि का संदेश भेज दिया। इसपर अकबर को बड़ी खुशी हुई और राणा का पत्र पृथ्वीराज को दिखलाया। पृथ्वीराज ने उसकी सचाई में विश्वास करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अकबर की स्वीकृति से एक पत्र राणा प्रताप के पास भेजा, जो वीररस से ओतप्रोत, तथा अत्यंत उत्साहवर्धक कविता से परिपूर्ण था। उसमें उन्होंने लिखा हे राणा प्रताप ! तेरे खड़े रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से रौंद सके ? हे हिंदूपति प्रताप ! हिंदुओं की लज्जा रखो। अपनी शपथ निबाहने के लिये सब तरह को विपत्ति और कष्ट सहन करो। हे दीवान ! मै अपनी मूँछ पर हाथ फेरूँ या अपनी देह को तलवार से काट डालूँ; इन दो में से एक बात लिख दीजिए।'
यह पत्र पाकर महाराणा प्रताप पुनः अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हुए और उन्होंने पृथ्वीराज को लिख भेजा 'हे वीर आप प्रसन्न होकर मूछों पर हाथ फेरिए। जब तक प्रताप जीवित है, मेरी तलवार को तुरुकों के सिर पर ही समझिए।'
पृथ्वीराज की पहली रानी लालादे बड़ी ही गुणवती पत्नी थी। वह भी कविता करती थी। युवास्था में ही उसकी मृत्यु हो गई जिससे उन्हें बड़ा सदमा बैठा। उसके शव को चिता पर जलते देखकर वे चीत्कार कर उठे: 'तो राँघ्यो नहिं खावस्याँ, रे वासदे निसड्ड। मो देखत तू बालिया, साल रहंदा हड्ड।' (हे निष्ठुर अग्नि, मैं तेरा राँ घा हुआ भोजन न ग्रहण करुँगा, क्योंकि तूने मेरे देखते देखते लालादे को जला डाला और उसका हाड़ ही शेष रह गया)। बाद में स्वास्थ्य खराब होता देखकर संबंधियों ने जैसलमेर के राव की पुत्री चंपादे से उनका विवाह करा दिया। यह भविता करती थी। इनके वंशज चूरू जिले के राजगढ़ तहसील के गांव महलाना, ददरेवा, धोलिया, सेउवा, न्यांगली,लाखलाण और मानपुरा में रहते हैं।