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भारतीय गणितज्ञ व ज्योतिषी (1114-1185) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं। आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्य ने उजागर कर दिया था। भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’। उन्होने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। कथित रूप से यह उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है।
भास्कराचार्य | |
---|---|
जन्म |
१११४AD |
मौत |
११८५ AD |
भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। कुछ–कुछ जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं। निम्नलिखित श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य का जन्म विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो सहयाद्रि पहाड़ियों में स्थित है।
इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के भट्ट ब्राह्मण थे और सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जलविड नामक स्थान के निवासी थे। लेकिन विद्वान इस विज्जलविड ग्राम की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाए हैं। डॉ. भाऊ दाजी (१८२२-१८७४ ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से लगभग १६ किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी। इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर भट्ट था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी।
गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक ५८ में भास्कराचार्य लिखते हैं :
अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत १०३६, अर्थात ईस्वी संख्या १११४ में हुआ था और उन्होंने ३६ वर्ष की आयु में शक संवत १०७२, अर्थात ईस्वी संख्या ११५० में लीलावती की रचना की थी।
भास्कराचार्य के देहान्त के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना ६९ वर्ष की आयु में ११८३ ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ–साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे। अतः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे महान गणितज्ञ के संबंध में अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि गणित एवं खगोलशास्त्र पर उनका योगदान अतुलनीय है। प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्कराचार्य के नाम से भारत ने 7 जून 1979 को छोड़े उपग्रह का नाम भास्कर-1 तथा 20 नवम्बर 1981 को छोड़े प्रथम और द्वितीय उपग्रह का नाम भास्कर-2 रखा।
सन् 1150 ई० में इन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि नामक पुस्तक, संस्कृत श्लोकों में, चार भागों में लिखी है, जो क्रम से इस प्रकार है:
इनमें से प्रथम दो स्वतंत्र ग्रंथ हैं और अंतिम दो "सिद्धांत शिरोमणि" के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा करणकुतूहल और वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो छोटे ज्योतिष ग्रंथ इन्हीं के लिखे हुए हैं। इनके सिद्धान्तशिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।
६९ वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी द्वितीय पुस्तक करणकुतूहल लिखी। इस पुस्तक में खगोल विज्ञान की गणना है। यद्यपि यह कृति प्रथम पुस्तक की तरह प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी पंचांग आदि बनाने के समय अवश्य देखा जाता है।
भास्कर एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अनंत होता है।
खगोलविद् के रूप में भास्कर अपनी तात्कालिक गति की अवधारणा के लिए प्रसिद्ध हैं। इससे खगोल वैज्ञानिकों को ग्रहों की गति का सही-सही पता लगाने में मदद मिलती है।
बीजगणित में भास्कर ब्रह्मगुप्त को अपना गुरु मानते थे और उन्होंने ज्यादातर उनके काम को ही बढ़ाया। बीजगणित के समीकरण को हल करने में उन्होंने चक्रवाल का तरीका अपनाया। वह उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। छह शताब्दियों के पश्चात् यूरोपियन गणितज्ञों जैसे गेलोयस, यूलर और लगरांज ने इस तरीके की फिर से खोज की और `इनवर्स साइक्लिक' कह कर पुकारा। किसी गोलार्ध का क्षेत्र और आयतन निश्चित करने के लिए समाकलन गणित द्वारा निकालने का वर्णन भी पहली बार इस पुस्तक में मिलता है। इसमें त्रिकोणमिति के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र, प्रमेय तथा क्रमचय और संचय का विवरण मिलता है।
सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।
भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को "तात्कालिक गति" का नाम दिया और सिद्ध किया कि
भास्कर को अवकल गणित का संस्थापक कह सकते हैं। उन्होंने इसकी अवधारणा आइज़ैक न्यूटन और गोटफ्राइड लैब्नीज से कई शताब्दियों पहले की थी। ये दोनों पश्चिम में इस विषय के संस्थापक माने जाते हैं। जिसे आज अवकल गुणांक और रोल्स का प्रमेय कहते हैं, उसके उदाहरण भी दिए हैं।
न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय नामक ग्रंथ में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।
गोलाध्याय के ज्योत्पत्ति भाग में निम्नलिखित श्लोकों में Sin (a+b) = Sin a Cos b + Cos a sin b का वर्णन है-[1] [2]
न्यूटन और लैब्नीज से पाँच-छः सौ वर्ष पहले ही भास्कराचार्य ने कैलकुलस पर महत्वपूर्ण कार्य कर लिया थ। [3][4] उनका चलन-कलन (differential calculus) से सम्बन्धित कार्य (आविष्कार) तथा इसका खगोलीय समास्यों और गणनाओं में इसका उपयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यद्यपि न्यूटन और लैब्नीज को डिफरेंशियल और इन्टीग्रल कैल्कुलस का जन्मदता क दिया जाता है किन्तु इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि भास्कर ही डिफरेंशियल कैलकुलस के कुछ सिद्धान्तों के आविष्कर्ता हैं। वे ही सम्भवतः प्रथम गणितज्ञ थे जिसने डिफरेंशियल गुणांक और डिफरेंशियल कैल्कुलस की संकल्पना को सबसे पहले समझा।[5]
ब्रह्मगुप्त (७वीं शताब्दी) के खगोल के मॉडल का अनुसरण करते हुए भास्कराचार्य ने अनेकों खगोलीय राशियों का परिशुद्ध मान बताया। उदाहरण के लिये, धरती द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाला समय उन्होंने लगभग 365.2588 दिन बताये जो कि आधुनिक समय में 365.25636 दिन माना जाता है। इन दोनों का अन्तर केवल 3.5 मिनट है। भास्कराचार्य के सिद्धान्त शिरोमणि को दो भागों से बना मान सकते हैं- पहला भाग सैद्धान्तिक खगोलिकी पर है जबकि दूसरा भाग गोले पर है (गोलाध्याय देखें)।
तत्कालीन विचारधारानुसार भास्कराचार्य भी भूकेन्द्रित सिद्धान्त में विश्वास रखते थे (भुवनकोश, श्लोक ३) लेकिन पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की कल्पना में (भुवनकोश, श्लोक ६) वे अपने समय से आगे थे। भुवनकोश के १३-१४ वें श्लोक में उन्होंने "गोल पृथ्वी की परिधि का छोटा सा भाग समतल लगता है" इस महत्त्वपूर्ण नियम का प्रतिपादन किया था। उसी अध्याय के ५२ वें श्लोक में आचार्य ने पृथ्वी का व्यास १५८१ योजन लिखा है। पाँच मील के योजन से यह मान ठीक उतरता है। फिर आगे चलकर मध्यगति वासना के पहले तीन श्लोकों से पृथ्वी के चारों ओर फैले वायुमण्डल की विभिन्न सतहों की चर्चा है जो आधुनिक अंतरिक्ष ज्ञान से तुलना में सही न होने पर भी कल्पना स्वरूप विचारणीय है। ग्रहों का पीछे जाना, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के स्थानानुसार बदलने वाले समय, सम्पात बिन्दुओं का सरकना, चन्द्रमा पर से पृथ्वी के रूप की कल्पना एवं ग्रहणों का वैज्ञानिक विश्लेषण इन सभी बातों से भास्कराचार्य द्वारा प्राप्त खगोल विज्ञान की परिपक्वता का हम अनुमान कर सकते हैं।
अमरगति (perpetual motion) का सबसे पहला उल्लेख भास्कराचार्य ने ही किया है। उन्होने एक चक्र का वर्णन किया है और दावा किया है कि वह सदा घूमता रहेगा। भास्कर द्वितीय यस्तियंत्र नामक एक मापन यंत्र का उपयोग करते थे। इसकी सहायता से कोण का मापन करते थे।
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