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गणित के व्यापक विभागों में से एक है। संख्या सिद्धांत, ज्यामिति और विश्लेषण आदि गणित के अन्य बड़े विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
यह लेख गणित के आधुनिक उपविषय बीजगणित (algebra) के बारे में है। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ के लिए बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) देखें।
बीजगणित (algebra) गणित के व्यापक विभागों में से एक है। संख्या सिद्धांत, ज्यामिति और विश्लेषण आदि गणित के अन्य बड़े विभाग हैं। अपने सबसे सामान्य रूप में, बीजगणित गणितीय प्रतीकों और इन प्रतीकों में हेरफेर करने के नियमों का अध्ययन है।[1] बीजगणित लगभग सम्पूर्ण गणित को एक सूत्र में पिरोने वाला विषय है। आरम्भिक समीकरण हल करने से लेकर समूह (ग्रुप्स), रिंग और फिल्ड का अध्ययन जैसे अमूर्त संकल्पनाओं का अध्ययन आदि अनेकानेक चीजें बीजगणित के अन्तर्गत आ जातीं हैं। बीजगणित के प्रगत अमूर्त भाग को अमूर्त बीजगणित कहते हैं।
गणित, विज्ञान, इंजीनियरी ही नहीं चिकित्साशास्त्र और अर्थशास्त्र के लिए भी आरम्भिक बीजगणित अपरिहार्य माना जाता है। आरम्भिक बीजगणित, अंकगणित से इस मामले में अलग है कि यह सीधे संख्याओं का प्रयोग करने के बजाय उनके स्थान पर अक्षरों का प्रयोग करता है जो या तो अज्ञात होतीं हैं या जो अनेक मान धारण कर सकतीं हैं।[2]
बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है। बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामिति व कैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली।
अर्थात् मन्दबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।
बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परन्तु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे—
बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारम्भ हुआ है; परन्तु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे।
मोटे अर्थ में बीजगणित, गणित की उस शाखा को कहते हैं जिसमें संख्याओं के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों का विवेचन सामान्य प्रतीकों (symbols) द्वारा किया जाता है। ये प्रतीक अधिकांशतः अक्षर (a, b, c,...,x, y, z) और संक्रिया चिह्न (operation signs) (+, -, *,...) और संबंधसूचक चिह्न (=, > , <...) होते हैं। उदाहरणत:, x2 +3x = 28 का अर्थ है, 'कोई ऐसी संख्या x है, जिसके वर्ग में यदि उसका तीन गुना जोड़ दिया जाए, तो फल 28 मिलता है। बीजगणितीय प्रतीकों और संख्याओं का उपयोग न केवल गणित में किन्तु विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में होने लगा है। व्यापक अर्थ में बीजगणित में निम्नलिखित विषयों का विवेचन सम्मिलित होता है :
समीकरण (equation), बहुपद (polynomial), वितत भिन्न (continued fraction), श्रेणी (series), संख्या अनुक्रम (sequence of numbers), सारणिक (determinant), समघात (form), नए प्रकार की संख्याएँ, जैसे संख्यायुग्म, मैट्रिक्स।
आज बीजगणित में केवल समीकरणों का ही समावेश नहीं होता, इसमें बहुपद, वितत भिन्न, अनन्त गुणनफल, संख्या अनुक्रम, समघात या रूप (form), नए प्रकार की संख्याएँ जैसे संख्यायुग्म, सारणिक आदि अनेक प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है।
बीजगणित को प्रायः निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
बीजगणित की उत्पत्ति प्राचीन बेबीलोनियों के लिए खोजी जा सकती है, जिन्होंने एक स्थितीय संख्या प्रणाली विकसित की जिसने उन्हें उनके आलंकारिक बीजगणितीय समीकरणों को हल करने में बहुत मदद की।[3]प्राचीन ग्रीस के गणितज्ञों ने एक ज्यामितीय प्रकार का बीजगणित बनाकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन पेश किया, जहां "शब्दों" को "ज्यामितीय वस्तुओं के किनारों" द्वारा दर्शाया गया था, आमतौर पर वे रेखाएं जिनसे वे अक्षरों को जोड़ते थे। हेलेनिक गणितज्ञ हीरो ऑफ अलेक्जेंड्रिया और डायोफैंटस के साथ-साथ ब्रह्मगुप्त जैसे भारतीय गणितज्ञों ने मिस्र और बेबीलोनिया की परंपराओं का पालन किया, हालांकि डायोफैंटस की अरिथमेटिका और ब्रह्मगुप्त की ब्रह्मस्फुटसिद्धांत बहुत उच्च विकास के स्तर पर हैं। ८२५ ई. के आसपास मुहम्मद इब्नमूसा अल ख्वारिज़्मी ने बगदाद में अपने एक ग्रंथ का नाम "अलजब्र व अल मुकाबला" रखा। 'अलजब्र' अरबी का शब्द है तथा 'मुकाबला' फारसी का, और दोनों का अर्थ समीकरण या उससे संबंधित है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के नाम पर ही यूरोप में इस विषय का नाम ऐलजेबरा (algebra) पड़ा। चीनी भाषा में इसके लिए ट्मैन-यूँ (अर्थात् दैवी अवयव), जापानी में किगेनसी हो (अर्थात् अज्ञातबोधी), इतालवी में आर्स मेग्ना (अर्थात् महान कला) प्रयुक्त हुआ। इनके अतिरिक्त भी अन्य नाम हैं, जो विषय की पुरातनता के द्योतक हैं।में १२वीं शताब्दी में भास्कर ने भी बीजगणित पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की।
यदि समस्यासाधन हेतु वैज्ञानिक ढंग से की गई अटकलबाजी को मान्यता देना स्वीकार हो, तो २,००० वर्ष ई. पू. और उससे भी पहले बीजगणित के प्रादुर्भाव का संकेत मिलता है। यदि शब्दगत समीकरण व्याख्या को और धनमूल वाले सरल समीकरणों के ज्यामितीय आरेखों पर अवलंबित हल को मान्यता दी जाए, तो कहना होगा कि ३०० ई. पू. में यूक्लिड और ऐलेक्ज़ेंड्रिया स्कूल को बीजगणित का ज्ञान था। १६वीं शताब्दी में मुद्रण कला के विकास और रुडोल्फ, राबर्ट रेकार्ड, रेफ़िल नोंवेली तथा क्रेवियस और विद्वानों के प्रयासों से इस विषय ने व्यापकीकृत अंकगणित का रूप धारण कर लिया और १७वीं शताब्दी में प्रतीक पद्धति के परिपूर्ण हो जाने पर बीजगणित का विकास बहुत जोरों से हुआ।
अंकगणित में समस्त संकेतों का मान विदित रहता है। बीजगणित में व्यापक संकेतों से काम लिया जाता है, जिसका मान आरम्भ में अज्ञात रहता है। इसलिए इन दोनों विज्ञानों के अन्य प्राचीन नाम व्यक्त गणित और अव्यक्त गणित भी हैं। अंग्रेजी में बीजगणित को 'अलजब्रा' (Algebra) कहते हैं। यह नाम अरब देश से आया है। सन् 825 ई. में अरब के गणितज्ञ ‘अल् ख्वारिज्मी’ ने एक गणित की पुस्तक की रचना की, जिसका नाम था ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’। अरबी में ‘अल-जब्र’ और फारसी में ‘मुकाबला’ समीकरण को ही कहते हैं। अतः संभवतः लेखक ने अरबी तथा फारसी भाषाओं के ‘समीकरण’ के पर्यावाची नामों को लेकर पुस्तक का नाम ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’ रखा। यूनानी गणित के स्वर्णिम युग में अलजब्रा का आधुनिक अर्थ में नामोनिशान तक नहीं था।
यूनानियों के पास बीजगणित की कई कठिन समस्याओं को हल करने की क्षमता थी, लेकिन उनके सभी समाधान ज्यामितीय थे। बीजगणित के समाधान सबसे पहले डायोफैंटस (लगभग 275 ई.) के ग्रंथों में देखे जाते हैं;[4]
भारत में, ब्रह्मगुप्त ने 7वीं शताब्दी ईस्वी में द्विघात समीकरणों और कई चर वाले समीकरणों की प्रणालियों को हल करने के तरीके की जांच की। उनके अन्य आविष्कारों में बीजगणितीय समीकरणों में शून्य और ऋणात्मक संख्याओं का उपयोग शामिल था। 9वीं शताब्दी में भारतीय गणितज्ञों महावीर और 12वीं शताब्दी में भास्कर द्वितीय ने ब्रह्मगुप्त की विधियों और अवधारणाओं को और परिष्कृत किया।[4]1247 में, चीनी गणितज्ञ किन जिउशाओ ने नौ खंडों में गणितीय ग्रंथ लिखा, जिसमें एक एल्गोरिदम के लिए बहुपदों का संख्यात्मक मूल्यांकन] शामिल है। , उच्च डिग्री के बहुपद सहित।[4]
१८०० ई. से पहले गणित का सरोकार मुख्यतः दो सामान्य समझ-बूझ की संकल्पनाओं, संख्या और आकृति से था। १९वीं शताब्दी के आरम्भ में दो नए विचारों ने गणित के क्षेत्र को एकदम विस्तृत कर दिया : पहला यह कि गणित का व्यवहार केवल संख्याओं और आकृतियों के लिए ही नहीं, वरन् किन्हीं भी वस्तुओं के लिए किया जा सकता है। दूसरे विचार के अनुसार अमूर्तीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाकर, गणित को केवल तर्कयुक्त विधान माना जाने लगा, जिसका किसी वस्तुविशेष से कोई सरोकार न था। पहला विचार वैज्ञानिकों को उपयोगी लगा और दूसरा शुद्ध गणितज्ञ को, जिसके लिए गणित केवल सुन्दर प्रतिरूपों का अध्ययन मात्र रह गया। इन दो दृष्टिकोणों में कोई वास्तविक विरोधाभास नहीं, क्योंकि प्राय: सुंदर प्रतिरूप भौतिक प्रकृति में ठीक बैठते हैं और वैज्ञानिक द्वारा प्रकृति में पाए गए गणितीय प्रतिरूप प्राय: सुंदर होते हैं।
बीजीय ज्यामिति - गणित की व शाखा है जिसमें बीजीय समीकरणों की सहायता से आरेखों और चित्रों के गुणधर्मों का विवेचन किया जाता है।
संक्षेप में बीजगणित के विकास में उसकी विषय सीमा इन स्तरों से विस्तृत होती गई :
वस्तुओं के गिनने में जो संख्याएँ प्रयुक्त होती हैं प्राकृतिक संख्याएँ (natural numbers) कहलाती हैं। अन्य संख्याओं को कृत्रिम संख्याएँ (artificial numbers) कहते हैं। कृत्रिम संख्याओं का अध्ययन अंकगणित में ही आरम्भ हो जाता है, किन्तु वहाँ केवल भिन्नों का ज्ञान पर्याप्त होता है। बीजगणित में ऋण संख्याओं, अपरिमेय, बीजातीत, मिश्र आदि संख्याओं का विवेचन आवयक हो जाता है।
2a का अर्थ है a +a, अर्थात् a का दुगुना। व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है, तो ma का अर्थ है a का m गुना। ma को m और a का गुणनफल भी कहते हैं।
a2 का अर्थ है a.a ; a3 का अर्थ है a.a.a । व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है तो am का अर्थ है
am में m को घात (exponent) और a को आधार (base) कहते हैं। आगे चलकर ma और am के अर्थ विस्तृत कर उन स्थितियों में भी बताए जाते हैं जब m ऋण, भिन्न, अपरिमेय आदि कोई भी संख्या हो।
सामान्य संख्याओं के प्रतीक एक या अधिक अक्षरों और किसी संख्या के गुणनफल को पद (term) कहते हैं, जैसे 3a2b, -4a, x (अर्थात 1x) आदि। कई एक पदों के योगफल को बीजीय व्यंजक (algebraic expression) कहते हैं। पूर्वोक्त तीन पदोंवाला व्यंजक 3a2b - 4a +x है। अकेले पद को एकपद व्यंजक (monomial), दो पदोंवाले व्यंजक को द्विपद (binomial), तीन पदवाले को त्रिपद (trinomial) कहते हैं। एक से अधिक पदवाले व्यंजक को बहुपद (polynomial) कहते हैं। दो या अधिक पदों के गुणनफल से एक पद ही प्राप्त होता है। गुणा किया जानेवाला प्रत्येक पद गुणनफल वाले पद का गुणनखण्ड (factor) कहलाता है।
वैसे तो पद के किसी एक गुणनखंड का गुणांक (coefficient) शेष गुणनखंडों का गुणनफल है, जैसे 3a3b2 में a3 का गुणांक 3b2 कहा जा सकता है, किन्तु प्रथा आरम्भवाले गुणनखंडों के गुणनफल को शेष खंडों के गुणनफल का गुणांक मानने की है। इस प्रकार b2 का गुणांक 3a३ है, a३b2 का गुणांक 3 है। यदि गुणांक संख्यामात्र हो, तो उसे संख्यात्मक गुणांक कहते हैं। कोष्ठकों में बन्द कर व्यंजक को एक पद की भाँति प्रयुक्त किया जा सकता है।
बहुपदों पर सामान्य संक्रियाओं, योग, व्यवकलन (subtraction), गुणन तथा विभाजन - के अतिरिक्त गुणनखंडन, घातक्रिया (involution), वर्गमूल निर्धारण, दो या अधिक बहुपदों के लघुतम समापवर्त्य तथा महत्तम समापवर्तक ज्ञात करने की विधियाँ प्रारंभिक बीजगणित की पुस्तकों में अच्छी तरह समझाई रहती हैं (देखें, बहुपद)। अनुपात और गुणनखंड व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की संख्याओं के लिए प्रयुक्त होते हैं।
समता मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं :
मध्यकालीन युग में समांतर (arithmetic), गुणोत्तर, आदि श्रेढियों के अध्ययन की ओर काफी रुचि थी। इसी कारण इन श्रेढियों का संकलन (योगफल ज्ञात करना) प्रारंभिक बीजगणित का रोचक विषय है। उदाहरणार्थ दो सूत्र लीजिए :
गुणोत्तर श्रेढी का अध्ययन हमें अनन्त श्रेणियों के अध्ययन पर ले जाता है। तब सीमा आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ आवश्यक हो जाती हैं और अवकलन तथा समाकलन बोधगम्य हो जाते हैं।
अंकगणित की अपेक्षा प्रतीकों का प्रयोग कर, कम श्रम से अत्यन्त व्यापक फल प्राप्त करना बीजगणित की उपलब्धि है। इसीलिए बीजगणित को भाषा की 'आशुलिपि' (short hand) कहते हैं। फ्रांसीसी गणितज्ञ बर्टैड (सन् १८२२-१९००) के अनुसार बीजगणित में संक्रियाओं (ऑपरेशन्स) और परिकल्पनात्मक क्रियाकलाप का अध्ययन, जिन संख्याओं पर वे प्रयोज्य होती हैं उनसे स्वतंत्र रहकर किया जाता है। यही इस विज्ञान की विशेषता है। विज्ञान की साधना में बीजगणित का अध्ययन आवयक है। सूत्रों के रूप में तो बीजगणित की अनिवार्यता तुरन्त प्रकट हो जाती है।
बीजगणित, व्यापकीकृत अंकगणित है और व्यापकीकरण की क्रिया बीजगणित के उत्तरोत्तर विकास में जारी रहती है। प्रारंभिक बीजगणित में ही ab, am, am. an, (am)n आदि के अर्थों को व्यापक कर a, b, m, n के सभी मानों के लिए निचित अर्थवाला बना दिया जाता है। यह सब (-१) के वर्गमूल की कल्पना के कारण ही सम्भव हुआ। दुर्भाग्य से इस राशि को 'काल्पनिक' मान लिया गया और इसके अंग्रेजी अनुवाद (imaginary) का पहला अक्षर i इसका प्रतीक बना। जब १७ वीं और १८वीं शताब्दी में समस्या समाधान हेतु i को इतना अधिक उपयोगी पाया गया, तो इसकी प्रकृति की ओर ध्यान गया। इसे संख्या न माने जाने पर, अमूर्त रूप से इसे संख्यायुग्मों पर कुछ स्वेच्छ संक्रियाओं का प्रतीक माना गया और मूर्त रूप से इसकी ज्यामितीय व्याख्या 'समतल में समकोण तक घुमाओ' दी गई। इन व्याख्याओं से प्रेरणा हुई कि क्यों न i जैसे अन्य प्रतीक खोजे जाएँ। इसी प्रयास में सन् १८४३ में हैमिल्टन ने त्रिविमी घूर्णन के संदर्भ में क्वाटर्नियंस i और j का आविष्कार किया और बताया कि ij =-ji , जो एक अत्यन्त महत्वपूर्ण खोज थी, क्येंकि अब तक के बीजगणित में सदा ही ab =ba था। अब गणितज्ञों ने नाना प्रकार की 'अतिसंमिश्र संख्याओं' और संक्रिया प्रतीकों को खोज कर डाली। अन्ततः यह प्रन उठता ही था कि क्यों न साधारण संख्याओं के स्थान में किन्हीं प्रतीकों को लेकर और उनके संयोजन के नियम निर्धारित कर, विशेष प्रकार के बीजगणित की रचना की जाए।
इस प्रकार सदिश बीजगणित और मैट्रिक्स (या व्यूह) बीजगणित की रचना हुई। बीजगणित की मूलभूत संक्रियाओं के व्यापकीकरण से नाना प्रकार के बीजीय तंत्र (algebraic systems) मिलते हैं। इन तंत्रों में अवयवों के संयोजन (combination) सम्बन्धी अलग अलग नियम होते हैं, जिनसे अन्य अवयव बनते हैं। चूँकि इन तंत्रों के अध्ययन में इस बात की विशेष महत्ता नहीं होती कि अवयव वास्तव में क्या हैं, बल्कि उनमें नियमों की प्राथमिकता होती है। इसलिए इन तंत्रों को अमूर्त बीजगणित (abstract algebra) की संज्ञा दी गई है।
अमूर्त तंत्रों के कुछ उदाहरण देने के लिए किसी संक्रियाँ * के प्रति निम्न संकल्पनाएँ आवयक हैं -
जोड़ और गुणन संक्रियाओं के प्रति
गणित की अन्य शाखाओं में विाशिष्ट समस्याओं के हल करने के प्रयास में कई नए बीजीय तंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। अवकल समीकरणों के वर्गीकरण प्रयास में ली ग्रुप का आविष्कार हुआ। इसी प्रकार स्थिति विश्लेषण (topology) की कुछ समस्याओं ने होमोलोजिकल बीजगणित को जन्म दिया। १८५० ई. के लगभग बूल (Boole) ने सांकेतिक बीजगणित का विकास किया जिसका अब महत्वपूर्ण प्रयोग टेलीफोन परिपथ और डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी में हुआ है।
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