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पद्मावती या पद्मिनी चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह (रतनसेन) [1302-1303 ई०] की रानी थी। यह एक राजपूत रानी थी [1] और इनका ऐतिहासिक अस्तित्व तो प्रायः इतिहासकारों द्वारा काल्पनिक स्वीकार कर लिया गया है।[2] इस नाम का मुख्य स्रोत मलिक मुहम्मद जायसी कृत 'पद्मावत' नामक महाकाव्य है।[3] अन्य जिस किसी ऐतिहासिक स्रोतों या ग्रंथों में 'पद्मावती' या 'पद्मिनी' का वर्णन हुआ है वे सभी 'पद्मावत' के परवर्ती हैं।[4][5]
पद्मिनी | |
---|---|
मेवाड़ की रानी | |
जन्म | पुगल गांव जैसलमेर |
निधन | चित्तौड़ |
जीवनसंगी | राजा रत्न सिंह |
पिता | पुनमाल जी भाटी |
माता | रानी चंपावती (परंपरागत) |
धर्म | हिन्दू |
इतिहास ग्रंथों में अधिकतर 'पद्मिनी' नाम स्वीकार किया गया है, जबकि जायसी ने स्पष्ट रूप से 'पद्मावती' नाम स्वीकार किया है। जायसी के वर्णन से स्पष्ट होता है कि 'पद्मिनी' से उनका भी तात्पर्य स्त्रियों की उच्चतम कोटि से ही है। जायसी ने स्पष्ट लिखा है कि राजा गंधर्वसेन की सोलह हजार पद्मिनी रानियाँ थीं[6], जिनमें सर्वश्रेष्ठ रानी चंपावती थी, जो कि पटरानी थी। इसी चंपावती के गर्भ से पद्मावती का जन्म हुआ था।[7] इस प्रकार कथा के प्राथमिक स्रोत में ही स्पष्ट रूप से 'पद्मावती' नाम ही स्वीकृत हुआ है।
जायसी के अनुसार पद्मावती सिंहल द्वीप[8] के राजा गंधर्वसेन[9] की पुत्री थी और चित्तौड़ के राजा रतन सिंह योगी के वेश में वहाँ जाकर अनेक वर्षों के प्रयत्न के पश्चात उसके साथ विवाह कर के उन्हे चित्तौड़ ले आये थे। वह अद्वितीय सुन्दरी थी और रतनसेन के द्वारा निरादृत कवि-पंडित-तांत्रिक राघव चेतन[10] के द्वारा उनके रूप का वर्णन सुनकर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया था। 8 माह के युद्ध के बाद भी अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर विजय प्राप्त नहीं कर सका तो लौट गया और दूसरी बार आक्रमण करके उस ने छल से राजा रतनसिंह को बंदी बनाया और उन्हे लौटाने की शर्त के रूप में पद्मावती को मांगा। तब पद्मावती की ओर से भी छल का सहारा लिया गया और गोरा-बादल की सहायता से अनेक वीरों के साथ वेश बदलकर पालकियों में पद्मावती की सखियों के रूप में जाकर राजा रतनसिंह को मुक्त कराया गया। परंतु इस छल का पता चलते ही अलाउद्दीन खिलजी ने प्रबल आक्रमण किया, जिसमें दिल्ली गये प्रायः सारे राजपूत योद्धा मारे गये। राजा रतन सिंह चित्तौड़ लौटे परंतु यहाँ आते ही उन्हें कुंभलनेर पर आक्रमण करना पड़ा और कुंभलनेर के शासक देवपाल के साथ युद्ध में देवपाल मारा गया परंतु राजा रतन सिंह भी अत्यधिक घायल होकर चित्तौड़ लौटे और स्वर्ग सिधार गये।
कर्नल टॉड ने अपने राजस्थान के इतिहास में जायसी के उक्त कथानक में कुछ हेर-फेर के साथ प्रायः उसी कहानी को दोहराया है। मुख्यतः भाटों की कथाओं के आधार पर लिखने के कारण कर्नल टॉड का वर्णन ऐतिहासिक बहुत कम रह गया है। उन्होंने राजा रत्नसिंह या रतनसेन के बदले भीमसी (भीमसिंह) का नाम दिया है और वह भी वस्तुतः राणा नहीं बल्कि राणा लखमसी (लक्ष्मण सिंह) के चाचा थे जो कि लक्ष्मण सिंह के बच्चे होने के कारण शासन संभाल रहे थे। कर्नल टॉड ने लक्ष्मण सिंह और उसके संरक्षक के रूप में भीमसिंह के शासन का आरंभ 1275 ईस्वी में माना है; जबकि यह सर्वज्ञात बात है कि अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण 1303 ईस्वी में हुआ था। इसी प्रकार कर्नल टॉड ने पद्मिनी को सिंहल द्वीप के चौहान वंशी हमीर शंख की लड़की बतलाया है। इन परिवर्तनों के सिवा शेष कहानी अपवादों को छोड़कर प्रायः पद्मावत वाली ही है।[11]
14 वीं और 16 वीं शताब्दी के बीच जैन ग्रंथ- नबीनंदन जेनुधर, चितई चरित्रा और रायन सेहरा ने रानी पद्मिनी का उल्लेख किया है।[12]
तेजपाल सिंह धामा ने अपने चर्चित शोधपरक उपन्यास अग्नि की लपटें में इन्हें जाफना से प्रकाशित ग्रंथों के आधार पर श्रीलंका की राजकुमारी सिद्ध किया है। [13] [14] [15] [16]इनकी कहानी जायसी के पद्मावत से थोड़ी अलग है।
रानी पद्मिनी, राजा रत्नसिंह तथा अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण को लेकर इतिहासकारों के बीच काफी पहले से पर्याप्त मंथन हो चुका है।[17] इस संदर्भ में सर्वाधिक उद्धृत तथा प्रमाणभूत महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत माना गया है। ओझा जी ने पद्मावत की कथा के संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि "इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसेन (रत्नसिंह) चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी या पद्मावती उसकी राणी और अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था, जिसने रतनसेन (रत्नसिंह) से लड़कर चित्तौड़ का किला छीना था। बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिए कल्पित खड़ी की गई है; क्योंकि रत्नसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं पाया, ऐसी दशा में योगी बन कर उस की सिंहलद्वीप (लंका) तक जाना और वहाँ की राजकुमारी को ब्याह लाना कैसे संभव हो सकता है। उसके समय सिंहलद्वीप का राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिश्शंक देव पराक्रमबाहु (चौथा) या भुवनेक बाहु (तीसरा) होना चाहिए। सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। उस समय तक कुंभलनेर (कुंभलगढ़) आबाद भी नहीं हुआ था, तो देवपाल वहाँ का राजा कैसे माना जाय ? अलाउद्दीन ८ बरस तक चित्तौड़ के लिए लड़ने के बाद निराश होकर दिल्ली को नहीं लौटा किंतु अनुमान छः महीने लड़ कर उसने चित्तौड़ ले लिया था, वह एक ही बार चित्तौड़ पर चढ़ा था, इसलिए दूसरी बार आने की कथा कल्पित ही है।"[18]
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी रचित पद्मावत महाकाव्य की कथा में ऐतिहासिकता ढूँढना बहुत हद तक निरर्थक ही है। कुछ नाम ऐतिहासिक अवश्य हैं, परंतु घटनाएं अधिकांशतः कल्पित ही हैं। कुछ घटनाएँ जो ऐतिहासिक हैं भी उनका संबंध 1303 ईस्वी से न होकर 1531 ईस्वी से है।[19] इसी प्रकार कर्नल टॉड का वर्णन भी काफी हद तक अनैतिहासिक ही है। इस संदर्भ में ओझा जी का स्पष्ट कथन है कि "कर्नल टॉड ने यह कथा विशेषकर मेवाड़ के भाटों के आधार पर लिखी है और भाटों ने उसको 'पद्मावत' से लिया है। भाटों की पुस्तकों में समर सिंह के पीछे रत्नसिंह का नाम न होने से टाड ने पद्मिनी का संबंध भीमसिंह से मिलाया और उसे लखमसी (लक्ष्मणसिंह) के समय की घटना मान ली। ऐसे ही भाटों के कथनानुसार टाड ने लखमसी का बालक और मेवाड़ का राजा होना भी लिख दिया, परन्तु लखमसी न तो मेवाड़ का कभी राजा हुआ और न बालक था, किंतु सिसोदे का सामंत (सरदार) था और उस समय वृद्धावस्था को पहुंच चुका था, क्योंकि वह अपने सात पुत्रों सहित अपना नमक अदा करने के लिए रत्नसिंह की सेना का मुखिया बनकर अलाउद्दीन के साथ की लड़ाई में लड़ते हुए मारा गया था, जैसा कि विक्रम संवत १५१७ (ई० स० १४६०) के कुंभलगढ़ के शिलालेख से ऊपर बतलाया गया है। इसी तरह भीमसी (भीमसिंह) लखमसी (लक्ष्मणसिंह) का चाचा नहीं, किन्तु दादा था, जैसा कि राणा कुंभकर्ण के समय के 'एकलिंगमाहात्म्य' में पाया जाता है। ऐसी दशा में टाड का कथन भी विश्वास के योग्य नहीं हो सकता। 'पद्मावत', 'तारीख़ फिरिश्ता' और टाड के राजस्थान के लेखों की यदि कोई जड़ है तो केवल यही कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर छः मास के घेरे के अनंतर उसे विजय किया; वहाँ का राजा रत्नसिंह इस लड़ाई में लक्ष्मणसिंह आदि कई सामंतो सहित मारा गया, उसकी राणी पद्मिनी ने कई स्त्रियों सहित जौहर की अग्नि में प्राणाहुति दी; इस प्रकार चित्तौड़ पर थोड़े-से समय के लिए मुसलमानों का अधिकार हो गया। बाकी बहुधा सब बातें कल्पना से खड़ी की गई है।"[20]
ओझा जी के बहु उद्धृत उपर्युक्त मत को प्रायः सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। डॉ० लाल ने भी अपनी पुस्तक 'History of the Khaljis, में लिखा है कि कहानी के परंपरागत वर्णन को ताक पर रखने के पश्चात् नग्न सत्य यह है कि सुल्तान अलाउद्दीन ने 1303 ईस्वी में चित्तौड़ पर आक्रमण किया और आठ माह के विकट संघर्ष के पश्चात् उसे अधिकृत कर लिया। वीर राजपूत योद्धा आक्रांताओं से युद्ध करते हुए खेत रहे और वीर राजपूत स्त्रियाँ जौहर की ज्वालाओं में समाधिस्थ हो गयीं। जो स्त्रियाँ समाधिस्थ हुईं, उनमें संभवतः रत्नसिंह की एक रानी भी थी, जिसका नाम पद्मिनी था। इन तथ्यों के अतिरिक्त और सब कुछ एक साहित्यिक संरचना है और उसके लिए ऐतिहासिक समर्थन नहीं है।[22] इसी प्रकार का मत डॉ० एस० एल० नागोरी एवं जीतेश नागोरी का भी है।[23] यह चित्तौड़ का प्रथम शाका माना गया है। कहा जाता है कि खिलजी ने किले पर अपनी विजय पताका फहराकर वहाँ के 30,000 नागरिकों को मौत के घाट उतारा।[24]
अनेक इतिहासकारों ने पद्मिनी के नाम तथा अस्तित्व दोनों को अस्वीकारा है; परंतु पर्याप्त विचार के बाद डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव[25] तथा डॉ० गोपीनाथ शर्मा जैसे अनेक इतिहासकारों ने कहानी की बहुत सी बातों को अप्रामाणिक मानते हुए भी पद्मिनी के अस्तित्व को स्वीकृत किया है, जैसा कि ओझा जी के भी उपर्युक्त मत में व्यक्त हुआ है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि "हमारे विचार से यह मानना की पद्मिनी की कथा परंपरा जायसी के पद्मावत से आरंभ होती है वह सर्वथा भ्रम है। छिताईचरित में जो जायसी से कई वर्षों पूर्व लिखा गया था, पद्मिनी तथा अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन है। हेमरतन के गोरा-बादल चौपाई में; तथा लब्धोदय के पद्मिनी चरित्र में इस कथा को स्वतंत्र रूप से लिखा गया है।... यह कथा एक राजपूत प्रणाली के अनुरूप विशुद्ध तथा स्वस्थ परंपरा के रूप में चली आयी है उसे सहज में अस्वीकार करना ठीक नहीं। हो सकता है कि कई बातें पाठ भेद से तथा वर्णन शैली से विभिन्न रूप में प्रचलित रही हों, किन्तु उनका आधार सत्य से हटकर नहीं ढूँढा जा सकता। स्थापत्य इस बात का साक्षी है कि चित्तौड़ में पद्मिनी के महल हैं और पद्मिनी ताल है जो आज भी उस विस्तृत तथा विवादग्रस्त महिला की याद दिला रहे हैं। पद्मिनी के संबंध में दी गयी सभी घटनाएँ सम्भवतः सत्य की कसौटी पर ठीक नहीं उतरें, किन्तु पद्मिनी की विद्यमानता, आक्रमण के समय उसकी सूझबूझ, उसके द्वारा जौहर व्रत का नेतृत्व आदि घटनाओं का एक स्वतंत्र महत्व है।"[26]
वस्तुतः अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण एवं युद्ध का प्रमुख कारण अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा एवं चित्तौड़ की सैनिक एवं व्यापारिक उपयोगिता थी। गुजरात, मालवा, मध्य प्रदेश, संयुक्त प्रांत, सिन्ध आदि भागों के व्यापारिक मार्ग चित्तौड़ से होकर गुजरते थे।[27] स्वाभाविक है कि अलाउद्दीन खिलजी जैसा सुल्तान ऐसे क्षेत्र पर अवश्य अधिकार प्राप्त करना चाहता। इसमें कोई संदेह नहीं कि चित्तौड़ आक्रमण के लिए अलाउद्दीन का प्रमुख आशय राजनीतिक था, परंतु जब पद्मिनी की सुंदरता का हाल उसे मालूम हुआ तो उसको लेने की उत्कंठा उसमें अधिक तीव्र हो गयी।[28]
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