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भद्र, ड्यौढ़ी, द्वारमंडप या पोर्च (Porch) किसी भवन के मुखद्वार की सुरक्षा के निमित्त उसके सामने बनाई हुई संरचना है। प्राय: यह तीन ओर से खुली होती है और छत स्तंभों पर, या कभी कभी बिना स्तंभों के ही मुख्य भवन से निकली हुई बाहुधरनों पर आलंबित रहती है।
अनेक प्राचीन मंदिरों में जैसे ऐहोल के दुर्गामंदिर में (५वीं शती), खजुराहो के महादेवमंदिर में (१०-११वीं शती), ओसिया, मारवाड़ के सूर्यमंदिर में ९-१०वीं शती) या मोढेरा, गुजरात के सूर्यमंदिर में भद्र का 'द्वारमंडप' स्वरूप विशेष दृष्टिगोचर है। खुजराहो के मंदिरों में इसे 'अर्द्धमंडप' नाम दिया जाता है। मुख्य मंदिर के अतिरिक्त यह अर्धमंडप होने के कारण, 'ड्योढ़ी' भी कहा जाने लगा। कहीं-कहीं यह तीन ओर से खुला न होकर केवल सामने की ओर ही खुला रहता है, जैसे कांचीपुरम् (कांजीवरम्) के वैकुठ पेरूपल मंदिर में (८वीं शती) या भुवनेश्वर के वैताल देबल मंदिर में। कालांतर में मुख्यद्वार के सामने निकले हुए किसी प्रकार के छज्जे को और अलंकरण के लिए बनाए गए स्तंभों को भी भद्र कहा जाने लगा। पश्चिम में भी 'पोर्च' शब्द का उपयोग वास्तविक ड्योढ़ी या द्वारमंडप के अर्थ में तो होता ही है, मुख्यद्वार पर बने स्तंभों सहित छज्जे के लिए या स्तंभश्रेणी के लिए भी होता है। अमरीका में तो तीन ओर से खुली हुई छतयुक्त कोई भी उपसंरचना जो किसी भी भवन से मिली हो 'पोर्च' कही जाती है। इस प्रकार इसमें और किसी बरामदे या शयनप्रांगण में प्राय: कुछ अंतर ही नहीं रह जाता।
अति प्राचीन संरचनाओं से भी भद्र के मूल रूप का अनुमान किया जा सकता है। इस दृष्टि से बाड़ावार पहाड़ियों में लोमश ऋषि की कुटी (३री शती ई. पू.) उल्लेखनीय है। यद्यपि इसका द्वारमंडप तीन ओर से नहीं, केवल सामने से ही खुला है। स्तंभश्रेणी के रूप में भद्र नासिक की गुफाओं (३री शती) में देखे जा सकते हैं, जिनका अनुकरण बाद में बौद्ध वास्तुकला मे अबाध गति से हुआ है। मुख्यद्वार पर होने के कारण अलंकरण की दृष्टि से भी इनका महत्वपूर्ण स्थान था।
मिस्र के भित्तिचित्रों से प्रकट होता है कि वहाँ के घरों में भी कभी कभी भद्र बनाए जाते थे। एथेंस के टावर ऑव विंड्स (प्रथम शती ई. पू.) के यूनानी भद्र उल्लेखनीय हैं। पांपेई में भी ऐसे ही भद्र थे। रोम में कभी-कभी घरों के सामने सड़क की ओर लंबी स्तंभ श्रेणी होती थी, जिसे भद्र कहा जा सकता है। रोमैनेस्क (Romanesque) युग में गिरजाघरों में पश्चिमी द्वारों पर बाहर निकला हुआ सामान्य भद्र बनाया जाने लगा। इतावली रोमैनेस्क कालीन इमारतों में ऐसे ही भद्रों के नमूने वेरोना (१२ वीं शती), मोदेना (१२वीं शती) और परमा (१३वीं शती) में देखे जा सकते हैं। फ्रांस में और विशेषकर बरगंडी में भद्र के स्वरूप में और भी विकास हुआ। वहाँ पर एक ऊँची गुंबजवाली संरचना के रूप में यह इमारत का विशेष महत्वशाली अंग हो गया जो काफी चौड़ा, कभी कभी तो सारे गिरजाघर की चौड़ाई के बराबर ही, होता था।
विविधताप्रेमी इंग्लैंड ने भद्र का इस प्रकार विकास किया कि इसने 'गेलिली' नाम से एक अलग संरचना का ही रूप ले लिया। पुनरुद्धार काल में भद्र का उपयोग पोर्टिका या ओसरा के रूप में ही होने लगा। किंतु १८वीं शती के अंत तक इंग्लैंड और अमरीका में सभी घरों में दो या चार स्तंभवाले सादे भद्रों का निर्माण आम हो गया।
आजकल भी मंदिर या कलाभवन आदि जैसी प्राचीन परिपाटी की उद्धारक कतिपय विशेष इमारतों को छोड़कर प्राय: सभी महत्वपूर्ण इमारतों में भद्र का प्रयोग उपयोगमूलक हो गया है। उपयोग की दृष्टि से स्तंभ अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी समझे जाने लगे हैं और द्वार पर छाया के लिए बाहुधरनों पर आलंबति सादे भद्र ही पर्याप्त माने जाते हैं। स्तंभ होते भी हैं तो पीछे की ओर ही, ताकि द्वार पर आने वाले वाहनों के लिए तीन ओर से बिल्कुल खुला निर्बाध स्थान उपलब्ध हो सके। वर्तमान ढाँचेदार संरचनापद्धति, सादे छज्जे जैसे भद्रों के लिए विशेष अनुकूल सिद्ध हुई है। अलंकरण के नाम पर संपूर्ति सामग्री की विविधता और कुछ खड़ी तथा कुछ पड़ी सीधी रेखाओं को ही प्रमुखता दी जाती है। भारी और अलंकृत स्तंभों युक्त भद्र भारवाही संरचनापद्धति के साथ ही, बल्कि उससे भी अधिक तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं।
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