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मां वैष्णवी शक्तिपीठ विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
दूनागिरी भूमंडल में दक्षिण एशिया स्थित भारतवर्ष के उत्तराखण्ड प्रदेश के अन्तर्गत कुमांऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले में एक पौराणिक पर्वत शिखर का नाम है। द्रोण, द्रोणगिरी, द्रोण-पर्वत, द्रोणागिरी, द्रोणांचल, तथा द्रोणांचल-पर्वत इसी पर्वत के पर्यायवाची शब्द हैं। कालान्तर के उपरांत द्रोण का अपभ्रंश होते-होते वर्तमान में इस पर्वत को कुमांऊँनी बोली के समरूप अथवा अनुसार दूनागिरी नाम से पुकारा जाने लगा है।[1][2] यथार्थत: यह पौराणिक उल्लिखित द्रोण है।[3]
दूनागिरी | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्मਬਿਜਲੀ ਰਾਜਭਰ |
शासी निकाय | मॉं दूनागिरी सेवा समिति |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | दूनागिरी अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड |
वास्तु विवरण | |
निर्माता | अज्ञात |
भारतवर्ष के पौराणिक भूगोल व इतिहास के अनुसार यह सात महत्वपूर्ण पर्वत शिखरों में से एक माना जाता है। विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, वायु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्म पुराण, देवीभागवत पुराण आदि पुराणों में सप्तद्वीपीय भूगोल रचना के अन्तर्गत द्रोणगिरी (वर्तमान दूनागिरी) का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार यह पर्वत भारतवर्ष के उन शैलों में से है, जहाँ से निकलने वाली नदियों से भारत में रहने वाली भारती नामक प्राणी स्वयं को धन्य मानते हैं। (श्रीमद्भागवतपुराण 5,19,16)
भारतेअप्स्मिन् वर्षे सरिच्छैला: सन्ति बहव:।
पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवत:।।
एतासामपो भारत्य: प्रजा नामभिरेव पुनन्तीना मात्मना चोपस्पृशन्ति।। (श्रीमद्भागवतपुराण, 5,19,16)
श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार दूनागिरी की दूसरी विशेषता इसका औषधि-पर्वत होना है। विष्णु पुराण में भारत के सात कुल पर्वतों में इसे चौथे पर्वत के रूप औषधि-पर्वत के नाम से संबोधित किया गया है।
कुमुदश्चौन्नतश्चैव तृतीयश्च बलाहक:।
द्रोणो यत्र महोषध्य: स चतुर्थो महीधर:।। (विष्णुपुराण, 2,4,26)
दूनागिरी की पहचान का तीसरा महत्वपूर्ण लक्षण रामायण व रामलीला में लक्ष्मण-शक्ति का कथा प्रसंग है।
कौशिकी रथवाहिन्योर्मध्ये द्रोणगिरी: स्मृत:। (मानसखण्ड 36,2)
पुराणों में वर्णित महर्षि वेदव्यास के अनुसार कौशिकी (कोसी नदी) तथा रथवाहिनी (रामगंगा नदी) के इन दोनों नदियों के मध्य में स्थित पर्वत द्रोणगिरी है। द्रोण आदि आठों वसु यानि देवतागण इस पर्वतराज की आराधना करते हैं। इस पर्वत पर विभिन्न प्रकार के विलक्षित पशु पक्षियों का आवास है। नाना प्रकार की वनस्पतियॉं उगतीं है, कुछ महौषधि रूपी वनस्पतियॉं रात के अधेरे में दीपक की भॉंति चमकती है। आज भी पर्वत पर घूमने पर हमें विभिन्न प्रकार की वनस्पतियॉं दिखायी देती हैं, जो स्थानीय लोगों की पहचान में भी नहीं आती हैं।
ईशान कोण की दिशा में समुद्र सतह से लगभग 8000 फुट की ऊँचाई पर, इसी पर्वत पर, मॉं वैष्णवी का प्राचीनतम शक्तिपीठ मन्दिर है।[4] इसको अब स्थानीय कुमांऊँनी बोली-भाषा में माँ दूनागिरी के नाम से जाना जाता है। अत्यन्त प्राचीन काल से दूनागिरी के इस सिद्ध शक्तिपीठ के साथ भारतीय इतिहास और संस्कृति के अनेक महात्म्य जुड़े हुए हैं। देवी के गूढ़ रहस्यों का चिन्तन करने वाले ऋषि मुनियों ने हिमालय के इस पर्वत पर धूँनी रमाकर अष्टिधात्री के दर्शन किये। (मुन्डकोपनिषद 1,2,4)
दूनागिरी मॉं वैष्णवी शक्तिपीठ मन्दिर का पुनर्निर्माण कत्यूरी राजवंश के तत्कालीन शासक सुधारदेव ने 1318 ईसवी में करवाया था। इतना ही नहीं मन्दिर में शिव व पार्वती की मूर्तियाें की प्राण प्रतिष्ठा भी तत्कालीन ही है। दूनागिरी में अनेक वर्षों से योगसाधना करने वाले स्वामी श्री श्री सत्येश्वरानन्द गिरीजी महाराज के अनुसार भारत में वैष्णवी शक्तिपीठ दो ही हैं एक वैष्णो देवी के नाम से जम्मू-कश्मीर में तथा दूसरा गुप्त शक्तिपीठ दूनागिरी की वैष्णवी माता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। दूनागिरी माता का वैष्णवी रूप होने के कारण यहां पर किसी भी प्रकार की बलि को पूर्णता वर्जित किया गया है. साथ ही मंदिर में आने वाले श्रद्धालु केवल नारियल माता को चढ़ाते हैं. जिन्हें मंदिर परिसर में फोड़ने की इजाजत नहीं है.
द्वाराहाट दूनागिरी से लगभग 10 किमी पहले है। यह कत्यूरी सामन्तों द्वारा बसाया गया एक ऐतिहासिक व आकर्षक नगर है। इसे उत्तर द्वारिका भी कहते हैं। यह आज भी पौराणिक व धार्मिक मन्दिरों की नगरी है। यहां कत्यूरी शैली की वास्तुकला और इतिहास के गवाह तकरीबन तीस मन्दिर व 365 नौले हैं। जो अब भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित हैं।
दूनागिरी से 5 किमी आगे पांण्डव कालीन का रहस्यमयी स्थान कुकुछीना है। यहॉं से ऊपर लगभग चार-पाँच किलोमीटर की बीहड़ जंगल की खड़ी चढ़ाई के बाद पाण्डुखोली पर्वत शिखर है। यहॉं पर पॉंचों पाण्डवों ने द्रौपदी सहित अज्ञातवास व्यतीत किया था। जिनके कुछ अवशेष भी विद्यमान हैं। अब कई वर्षों से यहॉं पर एक आश्रम है जहॉं समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठानादि होते रहते हैं। इस रहस्यमयी शान्त पर्वत शिखर का भ्रमण करने काफी पर्यटक आते रहते हैं।
दूनागिरी तथा दूनागिरी की वैष्णवी शक्तिपीठ देश की चिन्तनधारा से आज भी उपेक्षित है। क्योंकि, उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों व सॉस्कृतिक अस्मिता से सरोकार रखने वाले तथा स्थानीय संगठनों ने इस महाशक्ति के प्रचार-प्रसार में विशेष उत्साह नहीं दिखाया।
इस दूनागिरी पर्वत व यहाँ की वैष्णवी शक्तिपीठ के बारे में कुछ लोकप्रचलित भ्रान्तियां भी हैं कि यह वास्तविक द्रोण पर्वत नहीं है। किंवदंती यह भी है कि जब हनुमान जी आकाश मार्ग से जा रहे थे तो द्रोणांचल का टुकड़ा टूटकर दूनागिरी कहलाया, परन्तु इसका कोई ठोस उल्लेख न तो रामायण में है और ना ही किन्हीं पौराणिक ग्रन्थों में। जो भी वर्णन व आधार मिलते हैं, उनसे यही स्पष्ट होता है कि अर्वाचीन द्रोण यही वर्तमान दूनागिरी है।
इस प्रकार दूनागिरी के विषय में प्रचलित मान्यताओं का न तो पुराणादि ग्रन्थों में पुष्टि पायी जाती है और न ही रामायण में ऐसी कोई घटना का उल्लेख मिलता है, जिससे यह ज्ञात हो जाये कि हनुमानजी जब द्रोणांचल को लेकर जा रहे थे, उसका कोई टुकड़ा मार्ग में कहीं गिर गया हो। कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि गुरु द्रोणाचार्य ने इस पर्वत पर तपस्या की थी, जिस कारण उन्हीं के नाम पर इसका नाम द्रोणागिरी पड़ा जिसका अपभ्रंश स्थानीय बोली के अनुसार दूनागिरी हो गया। अब दूनागिरी बोला जाने लगा है।
दूनागिरी अथवा द्रोणागिरी पहुंचने के लिये उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
यहॉं के लिये निकटतम हवाई अड्डा रुद्रपुर व हल्द्वानी के मध्य में स्थित पंतनगर विमानक्षेत्र नामक हवाई अड्डा है। यह सड़क द्वारा लगभग 175 से 200 किलोमीटर की दूरी पर पंतनगर में स्थित है। जहॉं से सुविधानुसार टैक्सी अथवा कार से पहुंचा जाता है।
निकटतम रेलवे स्टेशन रेलवे जंक्शन काठगोदाम है, जो लगभग 161 किलोमीटर की दूरी पर तथा दूसरा रेलवे जंक्शन 115 किलोमीटर पर रामनगर में स्थित है। दोनों स्थानों से सुविधानुसार उत्तराखण्ड परिवहन की बस अथवा टैक्सी कार द्वारा आसानी से दूनागिरी पहुँचा जा सकता है।
यह रानीखेत से लगभग 40 किलोमीटर, द्वाराहाट से 14 किमी व मॉंसी से 40-45 किमी तथा उत्तराखण्ड राज्य की प्रस्तावित स्थाई राजधानी गैरसैंण से लगभग 60-65 किलोमीटर की दूरी पर है।
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