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दरगाह (फ़ारसी: درگاه या درگه: दरगाह)[1] एक सूफी-इस्लामी पुण्यस्थान होता है जिसे अक्सर किसी प्रतिष्ठित सूफी संत, पीर, वली या दरवेश की कब्र पर बनाया जाता है। स्थानीय मुस्लिम, तीर्थयात्रा के उद्देश्य से किसी दरगाह की यात्रा करते हैं और इस यात्रा को ज़ियारत कहा जाता है। किसी दरगाह के साथ अक्सर सूफी बैठकें और विश्राम गृह बने होते हैं जिन्हें खानक़ाह कहा जाता है। इसके अतिरिक्त आमतौर पर एक मस्जिद, बैठक (कमरे), इस्लामी धार्मिक विद्यालय (मदरसा), शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए घर, अस्पताल, सामुदायिक भवन आदि भी किसी दरगाह परिसर का हिस्सा होते हैं।
सूफी और अन्य मुस्लिमों का मानना है कि दरगाहें ऐसे मक़ाम हैं, जिनके द्वारा वे उसके संत के आशीर्वाद (तवस्सुल के अनुसार, जिसे दावत-ए-क़बूर या इल्म-ए-दावत कहा जाता है) प्राप्त कर सकते हैं। जबकि अन्य मुसलमानों के लिए दरगाहों का महत्व थोड़ा कम है, और वे दरगाहों पर केवल उस संत को अपना सम्मान पेश करने जाते हैं।[2][3]
बहरहाल दरगाहों का सूफ़ीवाद में मौलिक भूमिका है और सूफ़ी संतों के अनुयायियों के लिए वे अत्यंत धार्मिक महत्व रखते हैं। कई मुसलमानों का मानना है कि दरगाहों पर प्रार्थना या सेवा की पेशकश के बाद उनकी इच्छाएं पूरी होती हैं। भक्त दरगाहों पर प्रार्थना करते हैं, मन्नत मांगते हैं और लंगर के लिए योगदान देते हैं। दरगाहों को पंजाब के परिदृश्य में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन से पहले भी देखा जा सकता था।
उर्स, आमतौर पर किसी सूफी संत की पुण्यतिथि पर उनकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले उत्सव को कहा जाता है। प्रत्येक दरगाह में यह दिन उस दरगाह का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन होता है। समय के साथ, उर्स के अवसर पर दरगाहों में पर श्रद्धालुओं की उपस्थिति में दरवेशों और शेखों के संगीतमय गीतों ने कव्वाली और काफ़ी जैसी संगीत शैलियों को जन्म दिया, जिसमें सूफी काव्यों को संगीत के साथ किसी मुर्शिद को भेंट के रूप में गाया जाता है। आज वे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में संगीत और मनोरंजन का एक लोकप्रिय रूप बन गए हैं।[4][5]
इस्लाम में हालाँकि संतों की कोई संहिताबद्ध सिद्धांत नहीं है, फिर भी सुन्नी तथा शिया दोनों परंपराओं में संरक्षक संतों और वलीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।तथा अनेक सूफी संतों को किसी राष्ट्र, स्थान, शिल्प, वर्ग या कबीले का रक्षक माना जाता रहा है[6]
हालाँकि, सुन्नी इस्लाम के भीतर की वहाबी और सलफी पंथ संतों की वंदना (संरक्षक या अन्यथा किसी भी रूप में) पर तीव्र आलोचना और विरोध करते हैं, उनके विचारधारा के अनुसार यह दावा है की वलियों की वंदना करना तथा मज़ारों पर इबादत करना कि मूर्तिपूजा और शिर्क के रूप हैं। १८वीं शताब्दी में पहली बार वहाबीवाद के सामने आने के बाद से, तथा उसका प्रभाव बढ़ने के वजह से अधिक मुख्यधारा के सुन्नी मौलवियों ने इस तर्क की समर्थन किया है। आलोचकों द्वारा व्यापक विरोध न होने के प्रभाव से, सुन्नी दुनिया में संतों की व्यापक वंदना २०वीं सदी से वहाबी और सलफी प्रभाव के तहत घट गई है।[7]
विरोध विचारधाराओं के होने के बावजूद, आज भी इस्लामी दुनिया के कई हिस्सों में संत-वंदना का शास्त्रीय सिद्धांत जारी है, पाकिस्तान, मिस्र, तुर्की, सेनेगल, इराक, ईरान, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, और मोरक्को जैसे मुस्लिम देशों के साथ-साथ भारत, चीन, रूस और बाल्कन जैसी बड़ी इस्लामी आबादी वाले देशों में भी मुस्लिम आबादी के विशाल वर्गों के बीच धर्मनिष्ठा की दैनिक अभिव्यक्तियों में वालीयों, पीरों, और दरगाहों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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