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गाहड़वाल राजवंश भारतीय उपमहाद्वीप की एक क्षत्रिय शक्ति थी,[1] जिसने ११वीं और १२वीं शताब्दी के दौरान उत्तर प्रदेश और बिहार के वर्तमान भारतीय राज्यों के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। उनकी राजधानी वाराणसी में स्थित थी, और एक संक्षिप्त अवधि के लिए उन्होंने कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज) पर भी शासन किया। गहड़वाल शासकों को 'काशी नरेश' के रूप में भी जाना जाता था, क्योंकि बनारस इनके राज्य की पूर्वी सीमा के निकट था।
इस राजवंश के पहले सम्राट, चंद्रदेव ने कलचुरी के पतन के बाद १०९० ई में एक संप्रभु राज्य की स्थापना की। चंद्रदेव ने प्रतिहार शासक को हराकर कन्नौज पर अपना आधिपत्य स्थापित किया और 1100 तक शासन किया। चन्द्रदेव ने महाराजाधिराज की उपाधि भी धारण की।
चन्द्रदेव का उत्तराधिकारी मदनचन्द्र या मदनपाल था। मदनचंद्र का उत्तराधिकारी गोविन्दचन्द्र (1114 से 1154) एक महत्वकांशी शासक था। उसने पालों से मगध को जीता तथा मालवा पर अधिकार किया। उसने इस वंश का यश चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया।
गोविन्द चंद्र के पुत्र विजयचन्द्र (1156 से 1170 ईस्वी) ने गहड़वाल साम्राज्य को सुरक्षित बनाया। जयचन्द (1170 से 1193) इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। दिल्ली पर आधिपत्य के लिए चौहान और गाहड़वालों की शत्रुता चल रही थी, जिस पर अंततः चौहानों का कब्जा हो गया।
जिन शासकों ने शासन किया उनके नाम इस प्रकार है:-
दिल्ली विजय के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक तथा मोहम्मद गोरी ने जयचंद पर आक्रमण किया ११९३ ईस्वी में चन्दावर के युद्ध में जयचन्द पराजित हो गया और उसे मार डाला गया। जयचन्द ने देवगिरि के यादव, गुजरात के सोलंकी और तुर्की को कई बार हराया। अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने राजसूय यज्ञ किया। उसके राजकवि तथा संस्कृत के प्रख्यात कवि श्रीहर्ष ने इसके शासनकाल में नैषधीयचरित एवं खंडनखाद्य की रचना की। उसका पुत्र हरीश खोये हुए क्षेत्र को फिर से मुक्त कराने में असफल रहा। इल्तुतमिश ने यहां स्थाई रूप से १२२५ ईस्वी में सत्ता स्थापित कर ली।
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