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पानी के पौधें विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कमल (वानस्पतिक नाम:नीलंबियन न्यूसिफ़ेरा (Nelumbian nucifera)) वनस्पति जगत का एक पौधा है जिसमें बड़े और सुन्दर फूल खिलते हैं। यह भारत का राष्ट्रीय पुष्प है। संस्कृत में इसके नाम हैं - कमल, पद्म, पंकज, पंकरुह, सरसिज, सरोज, सरोरुह, सरसीरुह, जलज, जलजात, नीरज, वारिज, अंभोरुह, अंबुज, अंभोज, अब्ज, अरविंद, नलिन, उत्पल, पुंडरीक, तामरस, इंदीवर, कुवलय, वनज आदि आदि। फारसी में कमल को 'नीलोफ़र' कहते हैं और अंग्रेजी में इंडियन लोटस या सैक्रेड लोटस, चाइनीज़ वाटर-लिली, ईजिप्शियन या पाइथागोरियन बीन।
भारत के राष्ट्रीय प्रतीक | |
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ध्वज | तिरंगा |
राष्ट्रीय चिह्न | अशोक की लाट |
राष्ट्रभाषा | कोई नहीं |
राष्ट्र-गान | जन गण मन |
राष्ट्र-गीत | वन्दे मातरम् |
मुद्रा | ₹ (भारतीय रुपया) |
पशु | बाघ |
जलीय जीव | गंगा डालफिन |
पक्षी | मोर |
पुष्प | कमल |
वृक्ष | बरगद |
फल | आम |
खेल | मैदानी हॉकी |
पञ्चांग |
शक संवत |
संदर्भ | "भारत के राष्ट्रीय प्रतीक" भारतीय दूतावास, लन्दन Retreived ०३-०९-२००७ |
कमल का पौधा (कमलिनी, नलिनी, पद्मिनी) पानी में ही उत्पन्न होता है और भारत के सभी उष्ण भागों में तथा ईरान से लेकर आस्ट्रेलिया तक पाया जाता है। कमल का फूल सफेद या गुलाबी रंग का होता है और पत्ते लगभग गोल, ढाल जैसे, होते हैं। पत्तों की लंबी डंडियों और नसों से एक तरह का रेशा निकाला जाता है जिससे मंदिरों के दीपों की बत्तियाँ बनाई जाती हैं। कहते हैं, इस रेशे से तैयार किया हुआ कपड़ा पहनने से अनेक रोग दूर हो जाते हैं। कमल के तने लंबे, सीधे और खोखले होते हैं तथा पानी के नीचे कीचड़ में चारों ओर फैलते हैं। तनों की गाँठों पर से जड़ें निकलती हैं।
कमल प्रायः संसार के सभी भागों में पाया जाता है। यह झीलों, तालाबों और गड़हों तक में होता है। यह पेड़ बीज से जमता है। रंग और आकार भेद से इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं, पर अधिकतर लाल, सफेद और नीले रंग के कमल देखे गए हैं। कहीं कहीं पीला कमल भी मिलता है। कमल की पेड़ी पानी में जड़ से पाँच छः अँगुल के ऊपर नहीं आती। इसकी पत्तियाँ गोल गोल बड़ी थाली के आकार की होती हैं और बीच के पतले डंठल में जड़ी रहती हैं। इन पत्तियों को 'पुरइन' कहते हैं। इनके नीचे का भाग जो पानी की तरफ रहता है, बहुत नरम और हलके रंग का होता है। कमल चैत बैसाख में फूलने लगता है और सावन भादों तक फूलता है। फूल लंबे डंठल के सिरे पर होता है तथा डंठल या नाल में बहुत से महीन महीन छेद होता हैं। डंठल का नाल तोड़ने से महीन सूत निकलता है जिसे बटकर मंदिरों में जलाने का बत्तियाँ बनाई जाती हैं। प्राचीन काल में इसके कपड़े भी बनते थे। वैद्यक में लिखा है कि इस सूत के कपड़े से ज्वर दुर हो जाता है। कमल की कली प्रातःकाल खिलती है। सब फूलों की पंखड़ियों या दलों का संख्या समान नहीं होती। पंखड़ियों के बीच में केसर से घिरा हुआ एक छत्ता होता है। कमल की गंध भौंरे को बड़ी प्यारी लगती है। मधुमक्खियाँ कमल के रस को लेकर मधु बनाती हैं जो आँख के राग के लिये उपकारी होता है।
भिन्न-भिन्न जाति कमल के फूलों की आकृतियाँ भिन्न-भिन्नभी होती हैं। उमरा (अमेरिका) टापू में एक प्रकार का कमल होता है जिसके फूल का व्यास १५ इंच और पत्ते का व्यास साढ़े छह फुट होता है। पंखड़ियों के झड़ जाने पर छत्ता बढ़ने लगता है और थोड़े दिनों में उसमें बीज पड़ जाते हैं। बीच गोल गोल लंबोतरे होते हैं तथा पकने और सूखने पर काले हो जाते हैं और 'कमलगट्टा' कहलाते हैं। कच्चे कमलगट्टे को लोग खाते हैं और उसकी तरकारी बनाते हैं, सूखे दवा के काम आते हैं। कमल की जड़ मोटी और सूराखदार होती हैं और भसीड़ मिस्सा या मुरार कहलाती है। इसमें से भी तोड़ने पर सूत निकलता है। सूखे दिनों में पानी कम होने पर जड़ अधिक मोटी और बहुतायत से होती है। लोग इस तरकारी बनाकर खाते हैं। अकाल के दिनों में गरीब लोग इसे सुखाकर आटा पीसते हैं और अपना पेट पालते हैं। इसके फूलों के अंकुर या उसके पूर्वरूप प्रारभिक दशा में पानी से बाहर आने से पहले नतम और सफेद रंग के होते हैं और 'पौनार' कहलाते हैं। पौनार खाने में मीठा होता हैं। एक प्रकार का लाल कमल होता है जिसमें गंध नहीं होती और जिसके बीज से तेल निकलता है। रक्त कमल भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मिलता है। इससे संस्कृत में कोफनद, रक्तोत्पल, हल्लक इत्यादि कहते हैं। श्वेत कमल काशी के आसपास और अन्य स्थानों में होता है। इसे शतपत्र, महापद्म, नल, सीतांबुज इत्यादि कहते है। नील कमल विशेषकर कश्मीर के उत्तर और कहीं कहीं चीन में होता है। पीत कमल अमेरिका, साइबेरिया, उत्तर जर्मनी इत्यादि देशों में मिलता है।
विश्व में कमलों की दो प्रमुख प्रजातियाँ हैं। इनके अलावा कई जलीय कुमुदिनियों (वाटर लिलि) को भी कमल कहा जाता है, जो की वास्तविक नही है। कमल का पौधा धीमे बहने वाले या रुके हुए पानी में उगता है। ये दलदली पौधा है जिसकी जड़ें कम ऑक्सीजन वाली मिट्टी में ही उग सकती हैं। इसमें और जलीय कुमुदिनियों में विशेष अंतर यह कि इसकी पत्तियों पर पानी की एक बूँद भी नहीं रुकती और इसकी बड़ी पत्तियाँ पानी की सतह से ऊपर उठी रहती हैं। एशियाई कमल का रंग हमेशा गुलाबी होता है। नीले, पीले, सफ़ेद और लाल "कमल" असल में जल-पद्म होते हैं जिन्हें कमलिनी कहा गया हैं। यह उष्ण कटिबंधी क्षेत्र पौधा है जिसकी पत्तियां और फूल तैरते हैं, इनके तने लंबे होते हैं जिनमें वायु छिद्र होते हैं। बड़े आकर्षक फूलों में संतुलित रूप में अनेक पंखुड़ियाँ होती हैं। जड़ के कार्य रिजोम्स द्वारा किए जाते हैं जो पानी के नीचे कीचड़ में समानांतर फैली होती हैं।
कमल और कुमुदिनी (निम्फ़ेसिए) दोनों एक जैसे दिखने वाले जलीय पौधे है। अक्सर लोग धोखा खा बैठते हैं। किंतु इनमें निम्नलिखित फर्क है।
कमल के पौधे के प्रत्येक भाग के अलग-अलग नाम हैं और उसका प्रत्येक भाग चिकित्सा में उपयोगी है-अनेक आयुर्वेदिक, एलोपैथिक और यूनानी औषधियाँ कमल के भिन्न-भिन्न भागों से बनाई जाती हैं। चीन और मलाया के निवासी भी कमल का औषधि के रूप में उपयोग करते हैं।
कमल के फूलों का विशेष उपयोग पूजा और शृंगार में होता है। इसके पत्तों को पत्तल के स्थान पर काम में लाया जाता है। बीजों का उपयोग अनेक औषधियों में होता है और उन्हें भूनकर मखाने बनाए जाते हैं। तनों (मृणाल, बिस, मिस, मसींडा) से अत्यंत स्वादिष्ट शाक बनता है।
कमल के फूल अपनी सुंदरता के लिए जाने जाते हैं। कमल से भरे हुए ताल को देखना काफी मनोहारी होता है क्योंकि ये तालाब की ऊपरी सतह पर खिलते हैं। भारत में पवित्र कमल का पुराणों में भी उल्लेख है और इसके बारे में कई कहावतें और धार्मिक मान्यताएं भी हैं। हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों में इसकी ख़ासी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता है। इसीलिए इसको भारत का राष्ट्रीय पुष्प होने का गौरव प्राप्त है।
भारत की पौराणिक गाथाओं में कमल का विशेष स्थान है। पुराणों में ब्रह्मा को विष्णु की नाभि से निकले हुए कमल से उत्पन्न बताया गया है और लक्ष्मी को पद्मा, कमला और कमलासना कहा गया है। चतुर्भुज विष्णु को शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाला माना जाता है। भारतीय मंदिरों में स्थान-स्थान पर कमल के चित्र अथवा संकेत पाए जाते हैं। भगवान् बुद्ध की जितनी मूर्तियाँ मिली हैं, प्राय: सभी में उन्हें कमल पर आसीन दिखाया गया है। मिस्र देश की पुस्तकों और मंदिरों की चित्रकारी में भी कमल का प्रमुख स्थान है। कुछ विद्वानों की राय है कि कमल मिस्र से ही भारत में आया।
भारतीय कविता में कमल का निर्देश और वर्णन बड़ी प्रचुरता से पाया जाता है। सुंदर मुख की, हाथों की और पैरों की उपमा लाल कमल के फूल से और आँख की उपमा नील-कमल-दल से दी जाती है। कवियों का यह भी विश्वास है कि कमल सूर्योदय होने पर खिलता है और सूर्यास्त होने पर मुंद जाता है। कमल के तने (मृणाल, बिस) का वर्णन हंसों और हाथियों के प्रिय भोजन के रूप में किया गया है। कमल के पत्तों से बने हुए पंखे तथा मृणाखंड विरहिणी स्त्रियों की संतापशांति के साधन वर्णित किए गए हैं। कामशास्त्र में स्त्रियों का विभाजन चार वर्गों में किया गया है जिनमें सर्वश्रेष्ठ वर्ग 'पद्मिनी' नाम से अभिहित है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में कमल को महत्वपूर्ण स्थाम प्राप्त है। विष्णु पुराण में इन्द्र द्वारा लक्ष्मी की स्तुति करते हुए कहा गया है- कमल के आसन वाली, कमल जैसे हाथों वाली, कमल के पत्तों जैसी आँखों वाली, हे पद्म (कमल) मुखी, पद्मनाभ (भगवान विष्णु) की प्रिय देवी, मैं आपकी वन्दना करता हूँ।[क] इससे पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में कमल के सौंदर्य को कितना आकर्षक और पवित्र माना गया है। एक पुराण का नाम ही पद्म पुराण है ऐसा कहा जाता है कि पदम का अर्थ है-‘कमल का पुष्प’। चूंकि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पदम पुराण की संज्ञा दी गई है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पदम पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान रखा जाता है।[1]
धार्मिक चित्रों, व मंदिरों की दीवारों, गुंबदों और स्तंभों में कमल के सुंदर अलंकरण मिलते हैं। अधिकांश हिन्दू देवी-देवताओं को हाथ में कमल के साथ चित्रित किया जाता है, लक्ष्मी और ब्रह्मा ऐसे प्रमुख देवता हैं। खजुराहो के देवी जगदम्बी मंदिर में हाथ में कमल लिये हुए, ५ फीट ८ इंच ऊंची खड़ी हुई चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है। यहीं स्थित एक सूर्य मंदिर में सूर्य को एक पुरष के रूप में स्थापित किया गया है। मूर्ति ५ फीट ऊंची है और उसके दोनों हाथों में कमल के पुष्प हैं।[2] उदयपुर में पद्मावती माता जल कमल मन्दिर नामक मंदिर को कमल के आकार में बनाया गया है। संगमरमर से निर्मित देवी पद्मावती के इस मन्दिर में देवी लक्ष्मी, सरस्वती एवं अम्बिका की भव्य प्रतिमाएँ विराजमान हैं।[3] राजस्थान के धौलपुर जिले में मचकुण्ड तीर्थ स्थल के नजदीक ही कमल के फूल का बाग हैं। चट्टान काटकर बनाये गये कमल के फूल के आकार में बने इस बाग का ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व हैं। प्रथम मुगल बादशाह बाबर की आत्मकथा तुजके-बाबरी (बाबर नामा) में जिस कमल के फूल का वर्णन हैं वह धौलपुर का यही कमल के फूल का बाग हैं।[4] बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित देव सूर्य मंदिर में गर्भ गृह के ऊपर का शिखर कमल का आकार में है जिसके ऊपर सोने का कलश है।[5] अशोक की लाट में भी अधोमुखी कमल का प्रयोग किया गया है। भारत की राजधानी दिल्ली में बने बहाई उपासना मंदिर का स्थापत्य पूरी तरह से खिलते हुए कमल के आकार पर आधारित है जिसके कारण इसे लोटस टेंपल भी कहते हैं।
योग में वर्णित मूलाधार इत्यादि शरीर के सात प्रमुख ऊर्जा केन्द्रों को भी कमल या पद्म कहा गया है। जिसमें पंखुड़ियों की संख्या अलग अलग है।
यदि उद्यान में कमल लगाने की इच्छा हो तो सबसे अधिक संतोषजनक रीति यह है कि सीमेंट की बावली बनाई जाए। प्रबलित (reinforced) कंक्रीट, या प्रबलित ईटं और सीमेंट, से पेंदा बनाया जाए। इसमें लंबाई और चौड़ाई दोनों दिशा दिशा में लोहे की छड़ें रहें जिसमें इसे चटखने का डर न रहे। दीवारें भी प्रबलित बनाई जाएँ। तीन फुट गहरी बावली से काम चल जाएगा। लंबाई, चौड़ाई जितनी ही अधिक हों उतना ही अच्छा होगा। प्रत्येक पौधे को लगभग 100 वर्ग फुट स्थान चाहिए। इसलिए 100 वर्ग फुट से छोटी बावली बेकार है। बावली की पेंदी में पानी की निकासी के लिए छेद रहें तो अच्छा है जिसमें समय-समय पर बावली खाली करके साफ की जा सके। तब इस छेद से नीची भूमि तक पनाली भी चाहिए।
बावली की पेंदी में 9 से 12 इंच तक मिट्टी की तह बिछा दी जाए और थोड़ा बहुत दिया जाए। इस मिट्टी में सड़े गोबर की खाद मिली हो। मिट्टी के ऊपर एक इंच मोटी बालू डाल दी जाए। यदि बावली बड़ी हो तो पेंदी पर सर्वत्र मिट्टी डालने के बदले 12 इंच गहरे लकड़ी के बड़े-बड़े बक्सों का प्रयेग किया जा सकता है। तब केवल बक्सों में मिट्टी डालना पर्याप्त होगा। इससे लाभ यह होता है कि सूखी पत्ती दूर करने, या फूल तोड़ने के लिए, जब किसी को बावली में घुसना पड़ता है तब पानी गंदा नहीं होता और इसलिए पत्तियों पर मिट्टी नहीं चढ़ने पाती। कमल के बीज को पेंदी की मिट्टी में, मिट्टी के पृष्ठ से दो तीन इंच नीचे, दबा देना चाहिए। बसंत ऋतु के आरंभ में ऐसा करना अच्छा होगा। कहीं से उगता पौधा जड़ सहित ले लिया जाए तो और अच्छा। बावली सदा स्वच्छ जल से भरी रहे।
नई बनी बावली को कई बार पानी से भरकर और प्रत्येक बार कुछ दिनों के बाद खाली करके स्वच्छ कर देना अच्छा है, क्योंकि आरंभ में पानी में कुछ चूना उतर आता है जो पौंधों के लिए हानिकारक होता है। पेंदी की मिट्टी भी चार, छह महीने पहले से डाल दी जाए और पानी भर दिया जाए। पानी पले हरा, फिर स्वच्छ हो जाएगा। बावली में नदी का, अथवा वर्षा का, या मीठे कुएँ का जल भरा जाए। शहरों के बंबे के जल में बहुधा क्लोरीन इतनी मात्रा में रहती है कि पौधे उसमें पनपते नहीं। बावली ऐसे स्थान में रहनी चाहिए कि उसपर बराबर धूप पड़ सके। छाँह में कमल के पौधे स्वस्थ नहीं रहते।
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