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यूरोप में शुरू हुआ वैश्विक युद्ध (1914-1918) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
प्रथम विश्व युद्ध (WWI या WW1 के संक्षिप्त रूप में जाना जाता है) यूरोप में होने वाला यह एक वैश्विक युद्ध था जो 28जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला था। इसे महान युद्ध या "सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध" के रूप में जाना जाता था। इस युद्ध ने 6 करोड़ यूरोपीय व्यक्तियों (गोरों) सहित 7 करोड़ से अधिक सैन्य कर्मियों को एकत्र करने का नेतृत्व किया, जो इसे इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक बनाता है। यह इतिहास में सबसे घातक संघर्षों में से एक था, जिसमें अनुमानित 9 करोड़ सिपाहियों की मौत और युद्ध के प्रत्यक्ष परिणाम के स्वरूप में 1.3 करोड़ नागरिकों की मृत्यु, जबकि 1918 के स्पैनिश फ्लू महामारी ने दुनिया भर में 1.7-10 करोड़ की मौत का कारण बना, जिसमें कि यूरोप में अनुमानित 26.4 लाख मौतें और संयुक्त राज्य में 6.75 लाख स्पैनिश फ्लू से हुई यह पूरी तरह से 1919 में खत्म हुई थी |
प्रथम विश्वयुद्ध के समय के कुछ प्रमुख घटनाओं के चित्र | |
तारीख़ | 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक |
स्थान | युरोप, अफ़्रीका और मध्य पूर्व (आंशिक रूप में चीन और प्रशान्त द्वीप समूह) |
परिणाम | गठबन्धन सेना की विजय। जर्मनी, रुसी, ओट्टोमनी और आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का अन्त। युरोप तथा मध्य पूर्व में नये देशों की स्थापना। जर्मन-उपनिवेशों में अन्य शक्तियों द्वारा कब्जा। लीग ऑफ नेशनस की स्थापना। |
लडाई में सहभागी गठबन्धन देश | लडाई में सहभागी केन्द्रीय शक्ति (Central Power) देश |
ब्रिटेन
इटली |
आस्ट्रिया-हंगरी |
मारे गए सैनिकों की संख्या: 55,25,000 |
मारे गए सैनिकों की संख्या: 43,86,000 |
घायल सैनिकों की संख्या 1,28,31,500 |
घायल सैनिकों की संख्या 83,88,000 |
लापता सैनिक संख्या 41,21,000 |
लापता सैनिक संख्या 36,29,000 |
कुल 2,24,77,500 |
कुल 1,64,03,000 |
28 जून 1914 को, बोस्निया के सर्ब यूगोस्लाव राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिपल ने साराजेवो में ऑस्ट्रो-हंगेरियन वारिस आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या कर दी, जिससे जुलाई संकट पैदा हो गया। इसके उत्तर में, ऑस्ट्रिया-हंगरी ने 23 जुलाई को सर्बिया को एक अंतिम चेतावनी जारी कर दी। सर्बिया का उत्तर ऑस्ट्रियाई लोगों को संतुष्ट करने में विफल रहा, और दोनों युद्ध स्तर पर चले गए। गठबंधनों के एक संजाल ने बाल्कन में द्विपक्षीय मुद्दे से यूरोप के अधिकांश भाग को संकट में डाल दिया। जुलाई 1914 तक, यूरोप की महाशक्तियों को दो गठबंधन में विभाजित किया गया था, ट्रिपल एंटेंटे : जिसमें फ्रांस, रूस और ब्रिटेन शामिल थे; तथा ट्रिपल एलायंस :जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली। ट्रिपल एलायंस की प्रकृति केवल रक्षात्मक था, जिससे इटली को अप्रैल 1915 तक युद्ध से बाहर रहने की अनुमति मिली, जब वह ऑस्ट्रिया-हंगरी के साथ अपने संबंधों के बिगड़ने के बाद मित्र देशों की शक्तियों में शामिल हो गया। रूस ने सर्बिया को वापस लेने की आवश्यकता महसूस की, और 28 जुलाई को ऑस्ट्रिया-हंगरी के बेलग्रेड के सर्बियाई राजधानी पर गोलाबारी के बाद आंशिक रूप से एकत्रीकरण को मंजूरी दी।
औद्योगिक क्रांति के कारण सभी बड़े देश ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहाँ से वे कच्चा माल पक सकें और सभी उनके देश में बनाई तथा मशीनों से बनाई हुई चीज़ें बेच सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दूसरे देश पर साम्राज्य स्थापित करने की चाहत रखने लगा और इसके लिये सैनिक शक्ति बढ़ाई गई और गुप्त कूटनीतिक संधियाँ की गईं। इससे राष्ट्रों में अविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया। ऑस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी का वध इस युद्ध का तात्कालिक कारण था। यह घटना 28 जून 1914, को सेराजेवो में हुई थी। एक मास के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित किया। रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन ने सर्बिया की सहायता की और जर्मनी ने आस्ट्रिया की। अगस्त में जापान, ब्रिटेन आदि की ओर से और कुछ समय बाद उस्मानिया, जर्मनी की ओर से, युद्ध में शामिल हुए।
जर्मनी ने फ़्रांस की ओर बढ़ने से पूर्व तटस्थ बेल्जियम और लक्ज़मबर्ग पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी
जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और उस्मानिया (तथाकथित केन्द्रीय शक्तियाँ) द्वारा ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस, रूस, इटली और जापान के ख़िलाफ़ (मित्र देशों की शक्तियों) अगस्त के मध्य तक लामबंद हो गए और 1917 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों की ओर शामिल हो गया था।
यह युद्ध यूरोप, एशिया व अफ़्रीका तीन महाद्वीपों और जल, थल तथा आकाश में लड़ा गया। प्रारंभ में जर्मनी की जीत हुई। 1917 में जर्मनी ने अनेक व्यापारी जहाज़ों को डुबोया। एक बार जर्मनी ने इंगलैण्ड की लुसिटिनिया जहाज़ को अपने पनडुब्बी से डूबो दी। जिसमे कुछ अमेरिकी नागरिक संवार थे इससे अमेरिका ब्रिटेन की ओर से युद्ध में कूद पड़ा लेकिन रूसी क्रांति के कारण रूस महायुद्ध से अलग हो गया। 1918 ई. में ब्रिटेन , फ़्रांस और अमेरिका ने जर्मनी आदि राष्ट्रों को पराजित किया। जर्मनी और आस्ट्रिया की प्रार्थना पर 11 नवम्बर 1918 को युद्ध की समाप्ति हुई।।
इस महायुद्ध के अंतर्गत अनेक लड़ाइयाँ हुई। इनमें से टेनेनबर्ग (26 से 31 अगस्त 1914), मार्नं (5 से 10 सितंबर 1914), सरी बइर (Sari Bair) तथा सूवला खाड़ी (6 से 10 अगस्त 1915), वर्दूं (21 फ़रवरी 1916 से 20 अगस्त 1917), आमिऐं (8 से 11 अगस्त 1918), एव वित्तोरिओ बेनेतो (23 से 29 अक्टूबर 1918) इत्यादि की लड़ाइयों को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया गया है। यहाँ केवल दो का ही संक्षिप्त वृत्तांत दिया गया है।
जर्मनी द्वारा किए गए 1916 के आक्रमणों का प्रधान लक्ष्य बिंदू था। महाद्वीप स्थित मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का विघटन करने के लिए फ़्रांस पर आक्रमण करने की योजनानुसार जर्मनी की ओर से 21 फ़रवरी 1916 ई. को बर्दूं युद्धमाला का श्रीगणेश हुआ। नौ जर्मन डिवीज़न ने एक साथ मॉज़ेल (Moselle) नदी के दाहिने किनारे पर आक्रमण किया तथा प्रथम एवं द्वितीय युद्ध मोर्चों पर अधिकार किया। फ्रेंच सेना का ओज जनरल पेतैं (Petain) की अध्यक्षता में इस चुनौती का सामना करने के लिए बढ़ा। जर्मन सेना 26 फ़रवरी को बर्दूं की सीमा से केवल पाँच मील दूर रह गई। कुछ दिनों तक घोर संग्राम हुआ। 15 मार्च तक जर्मन आक्रमण शिथिल पड़ने लगा तथा फ्रांस को अपनी व्यूहरचना तथा रसद आदि की सुचारु व्यवस्था का अवसर मिल गया। म्यूज के पश्चिमी किनारे पर भी भीषण युद्ध छिड़ा जो लगभग अप्रैल तक चलता रहा। मई के अंत में जर्मनी ने नदी के दोनों ओर आक्रमण किया तथा भीषण युद्ध के उपरांत 7 जून को वाक्स (Vaux) का किला लेने में सफलता प्राप्त की। जर्मनी अब अपनी सफलता के शिखर पर था। फ्रेंच सैनिक मार्ट होमे (Mert Homme) के दक्षिणी ढालू स्थलीय मोर्चों पर डटे हुए थे। संघर्ष चलता रहा। ब्रिटिश सेना ने सॉम (Somme) पर आक्रमण कर बर्दूं को छुटकारा दिलाया। जर्मनी का अंतिम आक्रमण 3 सितंबर को हुआ था। जनरल मैनगिन (Mangin) के नेतृत्व में फ्रांस ने प्रत्याक्रमण किया तथा अधिकांश खोए हुए स्थल विजित कर लिए। 20 अगस्त 1917 के बर्दूं के अंतिम युद्ध के उपरांत जर्मनी के हाथों में केवल ब्यूमांट (Beaumont) रह गया। युद्धों ने फ्रैंच सेना को शिथिल कर दिया था, जब कि आहत जर्मनों की संख्या लगभग तीन लाख थी और उसका जोश फीका पड़ गया था।
आमिऐं (Amiens) के युद्धक्षेत्र में मुख्यत: मोर्चाबंदी अर्थात् खाइयों की लड़ाइयाँ हुईं। 21 मार्च से लगभग 20 अप्रैल तक जर्मन अपने मोर्चें से बढ़कर अंग्रेजी सेना को लगभग 25 मील ढकेल कर आमिऐं के निकट ले आए। उनका उद्देश्य वहाँ से निकलनेवाली उस रेलवे लाइन पर अधिकार करना था, जो कैले बंदरगाह से पेरिस जाती है और जिससे अंग्रेजी सेना और सामान फ्रांस की सहायता के लिए पहुँचाया जाता था।
लगभग 20 अप्रैल से 18 जुलाई तक जर्मन आमिऐं के निकट रुके रहे। दूसरी ओर मित्र देशों ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ाकर संगठित कर ली, तथा उनकी सेनाएँ जो इससे पूर्व अपने अपने राष्ट्रीय सेनापतियों के निर्देशन में लड़ती थीं, एक प्रधान सेनापति, मार्शल फॉश के अधीन कर दी गईं।
जुलाई, 1918 के उपरांत जनरल फॉश के निर्देशन में मित्र देशों की सेनाओं ने जर्मनों को कई स्थानों में परास्त किया।
जर्मन प्रधान सेनापति लूडेनडार्फ ने उस स्थान पर अचानक आक्रमण किया जहाँ अंग्रेज़ी तथा फ़्रांसीसी सेनाओं का संगम था। यह आक्रमण 21 मार्च को प्रात: 4।। बजे, जब कोहरे के कारण सेना की गतिविधि का पता नहीं चल सकता था, 4000 तोपों की गोलाबारी से आरंभ हुआ। 4 अप्रैल को जर्मन सेना कैले-पेरिस रेलवे से केवल दो मील दूर थी। 11-12 अप्रैल को अंग्रेजी सेनापतियों ने सैनिकों से लड़ मरने का अनुरोध किया।
तत्पश्चात् एक सप्ताह से अधिक समय तक जर्मनों ने आमिऐं के निकट लड़ाई जारी रखी, पर वे कैले-पैरिस रेल लाइन पर अधिकार न कर सके। उनका अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से पृथक् करने का प्रयास असफल रहा।
20 अप्रैल से लगभग तीन महीने तक जर्मन मित्र देशों को अन्य क्षेत्रों में परास्त करने का प्रयत्न करते रहे और सफल भी हुए। किंतु इस सफलता से लाभ उठाने का अवसर उन्हें नहीं मिला। मित्र देशों ने इस भीषण स्थिति में अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रबंध कर लिए थे।
25 मार्च को जेनरल फॉश इस क्षेत्र में मित्र देशों की सेनाओं के सेनापति नियुक्त हुए। ब्रिटेन की पार्लमेंट ने अप्रैल में सैनिक सेवा की उम्र बढ़ाकर 50 वर्ष कर दी और 3,55,000 सैनिक अप्रैल मास के भीतर ही फ्रांस भेज दिए। अमरीका से भी सैनिक फ्रांस पहुंचने लगे थे और धीरे धीरे उनकी संख्या 6,00,000 पहुंच गई। नए अस्त्रों तथा अन्य आविष्कारों के कारण मित्र देशों की वायुसेना प्रबल हो गई। विशेषकर उनके टैंक बहुत कार्यक्षम हो गए।
15 जुलाई को जर्मनों ने अपना अंतिम आक्रमण मार्न नदी पर पेरिस की ओर बढ़ने के प्रयास में किया। फ्रांसीसी सेना ने इसे रोककर तीन दिन बाद जर्मनों पर उसी क्षेत्र में शक्तिशाली आक्रमण कर 30,000 सैनिक बंदी किए। फिर 8 अगस्त को आमिऐं के निकट जनरल हेग की अध्यक्षता में ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी सेना ने प्रात: साढे चार बजे कोहरे की आड़ में जर्मनों पर अचानक आक्रमण किया। इस लड़ाई में चार मिनट तोपों से गोले चलाने के बाद, सैकड़ों टैंक सेना के आगे भेज दिए गए, जिनके कारण जर्मन सेना में हलचल मच गई। आमिऐं के पूर्व आब्र एवं सॉम नदियों के बीच 14 मील के मोरचे पर आक्रमण हुआ और उस लड़ाई में जर्मनों की इतनी क्षति हुई कि सूडेनडोर्फ ने इस दिन का नामकरण जर्मन सेना के लिए काला दिन किया।
वर्साय की सन्धि में जर्मनी पर कड़ी शर्तें लादी गईं। इसका बुरा परिणाम दूसरा विश्व युद्ध के रूप में प्रकट हुआ और राष्ट्रसंघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति न हो सकी।
जब यह युद्ध आरम्भ हुआ था उस समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। यह काल भारतीय राष्ट्रवाद का परिपक्वता काल था। किन्तु अधिकतर जनता गुलामी की मानसिकता से ग्रसित थी। भारत की जनता, ब्रिटेन के दुश्मन को अपना दुश्मन मानती थी। उस समय तक सरकार को 'माई-बाप' समझने की प्रवृत्ति थी और इसलिए जो भी सहयोग ब्रिटेन की भारत सरकार ने चाहा वो भारत के लोगों ने दिया। भारत की ओर से लड़ने गए अधिकतर सैनिक इसे अपनी स्वामीभक्ति का ही हिस्सा मानते थे। जिस भी मोर्चे पर उन्हें लड़ने के लिए भेजा गया वहां वो जी-जान से लड़े। इस युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटेमिया (इराक) की लड़ाई से लेकर पश्चिम यूरोप, पूर्वी एशिया के कई मोर्चे पर और मिस्र तक जा कर भारतीय जवान लड़े।
कुल 8 लाख भारतीय सैनिक इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल 47746 सैनिक मारे गये और 65000 घायल हुए। इस युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दिवालिया हो गयी थी।
महात्मा गांधी ने भी इस युद्ध में भारतीय सैनिकों को भेजने के लिए अभियान चलाया।[1] भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन ने ब्रिटिश चिन्तकों को भी चौंका दिया था। भारत के नेताओं को आशा थी कि युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन से खुश होकर अंग्रेज भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देंगे या कम से कम स्वशासन का अधिकार देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटे अंग्रेज़ों ने जलियाँवाला बाग नरसंहार जैसे घिनौने कृत्य से भारत के मुँह पर तमाचा मारा।
युद्ध के लिए गांव-गांव शहर-शहर अभियान चला। लोगों ने भारी चन्दा भी जुटाया और इसके साथ ही बड़ी तादाद में युवा सेना में भर्ती हुए। सेना में अधिकतर जवान खुशी-खुशी शामिल हुए लेकिन जहां लोगों ने आनाकानी की वहां ब्रिटिश सरकार ने जोर जबरदस्ती से भी काम लिया। बहुत से जवानों को जबरन सेना में भर्ती कर जंग के मोर्चे पर भेजा गया। इतना ही नहीं, सेना के अन्दर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था। राशन से लेकर वेतन भत्ते और दूसरी सुविधाओं के मामले में वे ब्रिटिश सैनिकों से नीचे रखे जाते थे। एक ब्रिटिश सिपाही के खर्चे में कई-कई भारतीय सैनिक रखे जा सकते थे। जलियांवाला बाग कांड के लिए कुख्यात ब्रिटिश अधिकारी जनरल ओ डायर इस युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों को भर्ती करने की मुहिम की जिम्मेदारी निभा रहा था। अब इसे भारत की गरीबी कहिए, स्वामीभक्ति या फिर मजबूरी, लेकिन भारतीय सैनिकों ने लड़ना जारी रखा और इस भेदभाव का असर कभी अपनी सेवाओं पर नहीं पड़ने दिया।[2]
प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की भागेदारी के प्रति राष्ट्रवादियों का प्रत्युत्तर तीन अलग-अलग प्रकार का था-[3]
इस युद्ध में भारतीय सिपाही सम्पूर्ण विश्व में अलग-अलग लड़ाईयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम , एडीन, अरब, पूर्वी अफ्रीका, गाली पोली, मिस्र, मेसोपेाटामिया, फिलिस्तीन, पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े पराक्रम के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेण्ट के दो सिपाहियों को इंग्लैंड का उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
1915 के आरम्भ में भारतीय सैनिकों को पहले आराम दिया गया, लेकिन जल्द ही उनकी युद्ध में वापसी हुई। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने 9200 भारतीय सैनिकों को वीरता पदकों से सम्मानित किया। सरकार ने इस विश्वयुद्ध में शहीद हुए 74 हजार भारतीय सैनिकों की याद में दिल्ली में 1921 में इंडिया गेट की आधारशिला रखी। यह 1931 में बनकर तैयार हुआ। इसमें 13,300 हजार से ज्यादा सैनिकों के नाम हैं।
इस युद्ध में भारत से 1.72 लाख जानवर भेजे गए। इनमें घोड़े, खच्चर, टट्टू, ऊंट, बैल और दूध देने वाले मवेशी शामिल थे। इनमें 8970 खच्चर और टट्टू ऐसे भी थे, जिन्हें बाहर से भारत लाकर प्रशिक्षित किया गया था और फिर युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में भेजा जाता था।
युद्ध के शुरुआती दौर में जर्मनी नहीं चाहता था कि भारत इसमें शामिल हो। युद्ध आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में सफल हो जाएंगे।[4] किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का मत था स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए। और जब 4 अगस्त को युद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रिटेन भारत के नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की।
प्रथम विश्वयुद्ध को 'लोकतंत्र की लड़ाई' भी कहा जा रहा था। ब्रिटेन ने तो आधिकारिक तौर पर ऐलान किया था कि यह युद्ध लोकतंत्र के लिए लड़ा जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन भी यही चाहते थे। उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए 14 सूत्री मांग रखी थी। इसी कारण बहुत से उपनिवेश आजादी की उम्मीद में इस लड़ाई में इन देशों का साथ दे रहे थे। भारत में तो यह भावना बहुत मजबूत थी। इस कारण सैनिकों के जाने का समर्थन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े नेता भी कर रहे थे। उन्हें झटका तब लगा जब युद्ध खत्म होने पर ब्रिटेन ने इस बारे में बात करने से साफ पल्ला झाड़ लिया। जब रॉलैट एक्ट आया, जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ, युद्ध के तुरन्त बाद 1919 में ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट आया तो भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई।
इस युद्ध के बाद भारत को भले ही आजादी ना मिली हो लेकिन आजादी के लिए आन्दोलन में तेजी जरूर आ गई। भारत के नेताओं को अब ब्रिटेन पर से भरोसा उठ गया था। ब्रिटेन और फ्रांस ने सिर्फ उपनिवेशों को ही धोखा नहीं दिया बल्कि इस महायुद्ध में उनका साथ देने वाले देशों के साथ भी उन्होंने कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया। ओर देश के प्रतीत उन्होने अपना बलिदान दिया ओर देश को स्वाभिमान दिया ऑर देश को गुलाम होने से बचा लिया ऑर लोकतन्त्र और विश्व मे यह युद्द प्रथम विश्व युद्द के नाम से जाना जाता है
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