पावर ट्रांज़िशन थ्योरी (शक्ति संक्रमण सिद्धांत) अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शक्ति के संदर्भ में, युद्ध की प्रकृति के बारे में एक सिद्धांत है।[1][2][3] इस सिद्धांत को पहली बार 1958 में इसके रचनाकार, एएफ़के ओर्गांस्की (AFK Organski) ने अपनी पाठ्यपुस्तक, वर्ल्ड पॉलिटिक्स (1958) में प्रकाशित किया था।

अवलोकन

ओर्गांस्की के अनुसार:

जब प्रतिद्वंद्वी देशों में राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य क्षमताएँ समान होती हैं, तो युद्ध होने की सम्भावना बढ़ जाती है। शांति तब होती है जब शोषक (ताक़तवर) और शोषित (कमज़ोर) देशों में अच्छी-ख़ासी असमानता हो। अथवा, ऐसे ताक़तवर देशों का छोटा सा समूह, जो यह मानते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है, युद्ध करना चाहेगा। यह सम्भावना अधिक होती है कि युद्ध कमज़ोर देश शुरू करे। [4]

अनुक्रम

जहाँ ओर्गांस्की की पदानुक्रम ने शुरू में केवल संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली को संदर्भित किया था, डगलस लेमके (Douglas Lemke) ने बाद में क्षेत्रीय पदानुक्रमों को शामिल करने के लिए इस पदानुक्रम मॉडल का विस्तार किया। इसके लिए उन्होंने यह तर्क दिया कि प्रत्येक क्षेत्र में अपने स्वयं के प्रमुख, माध्यम और कमज़ोर देश शामिल हैं। इस प्रकार क्षेत्रीय पदानुक्रम बड़े अंतरराष्ट्रीय पदानुक्रम में अंतर्निहित हैं।[5]

ऐतिहासिक उदाहरण

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दूसरा एंगलो एंग्लो-डच युद्ध का फ़ोर डेज़ फ़ाइट (11-14 जून 1666) की जहाज़ी लड़ाई का दृश्य। इस अवधि में यूरोप में डच आधिपत्य ख़तरे में आ गया।

इस सिद्धांत से युद्ध का लम्बा चक्र सिद्धांत (long cycle theory) निकलकर आता है, और इससे पिछले 500 वर्षों में युद्धरत राज्यों के बीच रुझानों की व्याख्या की जा सकती है। सामान्य प्रवृत्ति यह है कि एक राष्ट्र आधिपत्य शक्ति (hegemonic power) प्राप्त करता है और फिर उसे एक महान शक्ति (great power) द्वारा चुनौती दी जाती है। इससे फिर युद्ध होता है, जो अतीत के सामान दो शक्तियों के बीच एक संक्रमण (transition) पैदा किया है। यूजीन आर॰ विटकोफ (Eugene R. Wittkopf) ने अपनी किताब वर्ल्ड पॉलिटिक्स: ट्रेंड एंड ट्रांसफॉर्मेशन में पिछले युद्धों और पावर ट्रांजिशन सिद्धांत से उनके संबंध की पड़ताल की। वे जॉर्ज मॉडस्की के सीपॉवर कंसेंट्रेशन इंडेक्स (Seapower Concentration Index, समुद्र शक्ति संकेंद्रण सूचकांक) का इस्तेमाल करते हुए यह बताते हैं।[2]

1518 में, पुर्तगाल ने विश्व राजनीति में अपना आधिपत्य स्थापित किया। हालाँकि, नीदरलैंड के रूप में (जो डच गोल्डन एज का अनुभव कर रहा था) यूरोप में एक नई शक्ति उभरकर आई, और इसने स्पेन की शक्ति का विनाश किया और डच आधिपत्य स्थापित किया। इस कारण संघर्षों की एक श्रृंखला शुरू हुई।

1688 में फिर लुईस XIV (Louis XIV) के युद्धों के साथ डच आधिपत्य पर सवाल उठने लगे, जिसके परिणामस्वरूप "ब्रिटेन का प्रथम चक्र" (Britain I Cycle) शुरू हुआ। नेपोलियन के युद्धों ने इस चक्र को बाधित किया और ब्रिटेन द्वारा आयोजित आधिपत्य पर सवाल उठाया। हालांकि, ब्रिटेन की जीत के परिणामस्वरूप सत्ता उसके पास ही रही, और इसी से शुरू हुआ "ब्रिटेन का द्वितीय चक्र"।[2] विश्व युद्धों के साथ यह आधिपत्य भी समाप्त हुआ। विटकोफ के अध्ययन से पता चलता है कि 1914-1945 की अवधि में काफ़ी उथल-पुथल मची, और कोई एक देश निर्विरोध रूप से सुपरपॉवर के रूप में नहीं उभर पाया, यहाँ तक कि वर्साय की संधि के बाद भी कोई देश आधिपत्य नहीं रखता था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारी मात्रा में अपनी समुद्र शक्ति का संकेंद्रण किया-जिस कारण अमेरिका और सोवियत संघ विश्व की पहली महाशक्तियां बन सके।

सामान्य तौर पर, आधिपत्य की अवधि लगभग 60 से 90 वर्ष तक होती है और अंत में शक्ति वितरण में स्थिरीकरण (stabilization of power distribution) लाने वाले संघर्षों की अवधि लगभग 20 वर्षों तक की होती है।[2] यह युद्ध-थकावट (war-weariness, जब किसी देश के लोग लम्बे समय तक युद्ध चलने से थक जाते हैं) के माध्यम से समझाया जा सकता है। इसके अलावा देशों की यह प्रवृत्ति भी होती है कि शक्ति संक्रमण (के बीस साल के संघर्ष) के बाद वे युद्ध में भाग अक्सर नहीं लेते हैं, हालांकि यह तर्क केवल 19वीं शताब्दी तक के इतिहास पर ही लागू होता है।

ये भी देखें

संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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