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भारत में रंग कला का स्वरूप विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है।[1] अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केन्द्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है।
रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं।[2] अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।
रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है।[3] तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। अल्पना जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं। आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सज्जा के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्रायः सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं। और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं। हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है।[4]
रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना[5], महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण,[6] आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', कुमाऊँ में लिखथाप या थापा[7], तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके।[8] भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है।[5] दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के 'कोलम' में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है।[9] राजस्थान का मांडना जो मंडन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है।[10] कुमाऊँ के'लिख थाप' या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है।[11] आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर।
रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतीक पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। नई पीढी पारंपरिक रूप से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है।[12] रंगोली के प्रमुख प्रतीकों में कमल का फूल, इसकी पत्तियाँ, आम, मंगल कलश, मछलियाँ, अलग अलग तरह की चिड़ियाँ, तोते, हंस, मोर, मानव आकृतियाँ और बेलबूटे लगभग संपूर्ण भारत की रंगोलियों में पाए जाते हैं। विशेष अवसरों पर बनाई जाने वाली रंगोलियों में कुछ विशेष आकृतियाँ भी जुड़ जाती हैं जैसे दीपावली की रंगोली में दीप, गणेश या लक्ष्मी। रंगोली का दूसरा प्रमुख तत्त्व प्रयोग आने वाली सामग्री है। इसमें वही सामग्री प्रयुक्त होती है जो आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला अमीर-गरीब सभी के घरों में प्रचलित है। सामान्य रूप से रंगोली बनाने की प्रमुख सामग्री है- पिसे हुए चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी, लकड़ी का बुरादा आदि। रंगोली का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पृष्ठभूमि है। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफ़ या लीपी हुई ज़मीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आँगन के मध्य में, कोनों पर, या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्यद्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप के आधार, पूजा की चौकी और यज्ञ की वेदी पर भी रंगोली सजाने की परंपरा है। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है। अतिथि सत्कार और पर्यटन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इसका व्यावसायिक रूप भी विकसित हुआ है। इसके कारण इसे होटलों जैसे स्थानों पर सुविधाजनक रंगों से भी बनाया जाने लगा है पर इसका पारंपरिक आकर्षण, कलात्मकता और महत्त्व अभी भी बने हुए हैं।
रंगोली दो प्रकार से बनाई जाती है। सूखी और गीली। दोनों में एक मुक्तहस्त से और दूसरी बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाती है। बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाने वाली रंगोली के लिए पहले सफेद रंग से जमीन पर किसी विशेष आकार में निश्चित बिंदु बनाए जाते हैं फिर उन बिंदुओं को मिलाते हुए एक सुंदर आकृति आकार ले लेती है। आकृति बनाने के बाद उसमें मनचाहे रंग भरे जाते हैं। मुक्तहस्त रंगोली में सीधे जमीन पर ही आकृति बनाई जाती है।[13] पारंपरिक मांडना बनाने में गेरू और सफ़ेद खड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाज़ार में मिलने वाले रंगोली के रंगों से रंगोली को रंग बिरंगा बनाया जा सकता है। रंगोली बनाने के झंझट से मुक्ति चाहने वालों के लिए अपनी घर की देहरी को सजाने के लिए 'रेडिमेड रंगोली' स्टिकर भी बाज़ार में मिलते हैं, जिन्हें मनचाहे स्थान पर चिपकाकर रंगोली के नमूने बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी हुई आकृतियाँ भी मिलती हैं, जिसे जमीन पर रखकर उसके ऊपर रंग डालने से जमीन पर सुंदर आकृति उभरकर सामने आती है। अगर रंगोली बनाने का अभ्यास नहीं है तो इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ साँचे ऐसे भी मिलते हैं जिनमें आटा या रंग का पाउडर भरा जा सकता है। इसमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। इन्हें ज़मीन से हल्का सा टकराते ही निश्चित स्थानों पर रंग झरता है और सुंदर नमूना प्रकट हो जाता है। रंगोली बनाने के लिए प्लास्टिक के स्टेंसिल्स का प्रयोग भी किया जाता है।[14] गीली रंगोली चावल को पीसकर उसमें पानी मिलाकर तैयार की जाती है। इस घोल को ऐपण, ऐपन या पिठार कहा जाता है। इसे रंगीन बनाने के लिए हल्दी का प्रयोग भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त रंगीन रंगोली बाज़ार में मिलने वाले पोस्टर, क्रेयॉन, फ़ेब्रिक और एक्रिलिक रंगों से भी बनाई जाती हैं।[15]
आजकल रंगोली के लिए कलाकारों ने पानी को भी माध्यम बना लिया है। इसके लिए एक टब या टैंक में पानी को लेकर स्थिर व समतल क्षेत्र में पानी को डाल दिया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि पानी को हवा या किसी अन्य तरह के संवेग से वास्ता न पड़े। इसके बाद चारकोल के पावडर को छिड़क दिया जाता है। इस पर कलाकार अन्य सामग्रियों के साथ रंगोली सजाते हैं। इस तरह की रंगोली भव्य नजर आती है।[16] भरे हुए पानी पर फूलों की पंखुडियों और दियों की सहायता से भी रंगोली बनाई जाती है। पानी सतह पर रंगों को रोकने के लिए चारकोल की जगह, डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ रंगोलियाँ पानी के भीतर भी बनाई जाती हैं। इसके लिए एक कम गहरे बर्तन में पानी भरा जाता है फिर एक तश्तरी या ट्रे पर अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में इसपर हल्का सा तेल स्प्रे कर के धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। तेल लगा होने के कारण रंगोली पानी में फैलती नहीं। महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली वंदना जोशी को रंगोली बनाने में महारत हासिल है। वह पानी के ऊपर रंगोली बनाने वाली विश्व की पहली महिला हैं और वह ७ फरवरी २००४ को दुनिया की सबसे बड़ी रंगोली बनाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं।[17] पानी पर रंगोली बनाने वाले दूसरे प्रमुख कलाकार राजकुमार चन्दन हैं। वे देवास में मीता ताल के १७ एकड़ जल पर विशालकाय रंगोली बनाने का अद्भुत काम कर चुके हैं।[18]
तमिल नाडु में यह मिथक प्रचलित है कि मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने भगवान तिरुमाल से विवाह की विनती की। लम्बी साधना के बाद वो भगवान तिरुमाल में विलीन हो गईं। इसलिए इस महीने में अविवाहित लड़कियाँ सूर्योदय से पहले उठकर भगवान तिरुमाल के स्वागत के लिए रंगोली सजाती हैं।[19] रंगोली के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय ग्रंथ 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है- एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा कि वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना या रंगोली की शुरुआत हुई। इसी सन्दर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संबंध में और भी पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी रंगोली का उल्लेख है। दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ।[20] चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे यह मान्यता है कि चींटी को खाना खिलाना चाहिए। यहाँ यह माना जाता है कि कोलम के बहाने अन्य जीव जन्तु को भोजन मिलता है जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है।[9] रंगोली को झाडू या पैरों से नहीं हटाया जाता है बल्कि इन्हें पानी के फव्वारों या कीचड़ सने हाथों से हटाया जाता है। मिथिलांचल में ऐसा कोई पर्व-त्योहार या (उपनयन-विवाह जैसा कोई) समारोह नहीं जब घर की दीवारों और आंगन में चित्रकारी नहीं की जाती हो। प्रत्येक अवसर के लिए अलग ढँग से "अरिपन" बनाया जाता है जिसके अलग-अलग आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। विवाह के अवसर पर वर-वधू के कक्ष में दीवारों पर बनाए जाने वाले "कोहबर" और "नैना जोगिन" जैसे चित्र, जो वास्तव में तंत्र पर आधारित होते हैं, चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान हैं।[21]
रंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन।[22] इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है। इसमें विभिन्न अवसरों पर शुभ चिह्नों के साथ अनेक प्रकार के चित्रों से दीवारों की सजावट की जाती है। तीसरे प्रकार के चित्रांकन कागज़ों अथवा कपड़ों पर होते हैं। कुमाऊँ में इसे ज्यूँति, राजस्थान में फड़ या पड़क्यें कहा जाता है। ज्यूँति में जहाँ जीवमातृकाओं और देवताओं के चित्र बने होते हैं वहीं फड़ में राजाओं और लोकदेवताओं की वंशावली चित्रित होती है। आंध्र-प्रदेश की कलमकारी और उड़ीसा के पट्टचित्र भी इसी लोक कला के उदाहरण हैं इससे पता चलता है कि लोक संस्कृति हाथ से चित्रित करने की यह परंपरा अत्यंत व्यापक और प्राचीन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के मूल में कितनी कलात्मकता और लालित्य निहित है।[23]
यह कलात्मकता और लालित्य आज भी रूप बदलकर शुभ अवसरों पर दिखाई पड़ता है। सम्पन्नता के विकास के साथ आजकल इसे सजाने के लिए शुभ अवसरों के आने की प्रतीक्षा नहीं की जाती बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को रंगोली सजाकर शुभ बना लिया जाता है। चाहे किसी चीज का लोकार्पण हो या होटलों के प्रचार-प्रसार की बात हो, रंगोली की सजावट आवश्यक समझी जाती है। इसके अतिरिक्त आजकल कलाकारों ने रंगोली प्रर्दशनी और रंगोली प्रतियोगिताएँ भी शुरू कर दी है। कुछ रंगोलियाँ ऐसी भी होती हैं जो देखने में एक कलाकृति की भाँति दिखाई देती हैं। इनमें आधुनिकता और परंपरा का समावेश आसानी से लक्षित किया जा सकता है। रंगोली बनाने की प्रतियोगिताएँ और रेकार्डों का भी अद्भुत क्रम शुरू हुआ है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड तक रंगोली पहुँचाने वाली पहली महिला विजय लक्ष्मी मोहन थीं, जिन्होंने सिंगापुर में ३ अगस्त २००३ को यह रेकार्ड बनाया।[24] २००९ तक यह रेकार्ड हर साल टूटता रहा है। इसके अतिरिक्त पानी पर रंगोली बनाने के रेकार्ड भी गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल हो चुके हैं।
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