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कुमाऊँ की देहरी और दीवार सजाने की कला 'लिख थाप' या थापा कहलाती हैं, इनको ऐपण, ज्यूँति या ज्यूँति मातृका पट्ट भी कहा जाता है। इसकी रचना में अलग अलग समुदायों में अनेक प्रकार के प्रतीक व लाक्षणिक अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं। साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि ब्राह्मणों में चावल की पिष्ठि निर्मित घोल द्वारा धरातलीय अल्पना अनेक आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों में प्रकट होती है। साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की ठोस परम्परा है। थापा श्रेणी में चित्रांकन दीवलों या कागज में होता है। यह शैली ब्राह्मणों में नहीं के बराबर है। जिन आलेखनों या चित्रों की रचना कागज में की जाती है। उन्हें पट्टा कहते हैं। इसी प्रकार नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह लोग बनाते हैं। ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु मिट्टी से धरातल का आलेपन कर चावल के आटे के घोल से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साहों के यहाँ चावल की पिष्टि के घोल में हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं तभी ऐपणों का आलेखन होता है।[1]
कुमाऊँ की ज्यूति मातृका पट्टों, थापों तथा वर बूदों में श्वेताम्बर जैन अपभ्रंश शैली का भी स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। श्वेताम्बर जैन पोथियों की श्रृंखला में बड़ौदा के निकट एक जैन पुस्तकागार में ११६१ ई. की एक ही पुस्तक में औधनियुक्ति आदि सात ग्रंथ मिले, जिनमें १६ विद्या देवियों, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, चक्र देवी तथआ यक्षों के २१ चित्र बने हैं। इन ग्रंथ चित्रों में चौकोर स्थान बनाकर एक चौखट सी बनाई गई हैं और इनके मध्य में आकृतियाँ बिठाई गई हैं। ठीक इसी प्रकार का चित्र नियोजन कुमाऊँ के समस्त ज्यूति पट्टो, थापों व बखूदों में किया जाता है। कुमाऊँ में ज्यूति पट्टों में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली ३ देवियाँ बनाई जाती है साथ में १६ षोडश मातृकाएं तथा गणेश, चन्द्र व सूर्य निर्मित किये जाते हैं। अपभ्रंश शैली में रंग व उनकी संख्या भी निश्चित है। जैसे लाल, हरा, पीला, काला, बैगनी, नीला व सफेद। इन्हीं सात रंगों का प्रयोग कुमाऊँ की भिप्ति चित्राकृतियों अथवा थापों व पट्टों में किया जाता है।[2],
कुमाऊँ में किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर अपने अपने घरों को ऐपण द्वारा सजाने की पुराणी परंपरा रही है।[3] ऐपण शब्द का उद्गम संस्कृत शब्द अर्पण से माना जाता है।[4] इसमें घरों के आंगन से लेकर मंदिर तक प्राकृतिक रंगों जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। दीपावली में बनाए जाने वाले ऐपण में मां लक्ष्मी के पैर घर के बाहर से अन्दर की ओर को गेरू के धरातल पर विस्वार (चावल का पिसा घोल) से बनाए जाते है। दो पैरों के बीच के खाली स्थान पर गोल आकृति बनायी जाती है जो धन का प्रतीक माना जाता है। पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी की चौकी बनाई जाती है। इनके साथ लहरों, फूल मालाओं, सितारों, बेल-बूटों व स्वास्तिक चिन्ह की आकृतियां बनाई जाती है। पारंपरिक गेरू एवं बिस्वार से बनाए जाने वाले ऐपण की जगह अब सिंथेटिक रंगो से भी ऐपण बनाने लगे है।[3] २०१५ में उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री, हरीश रावत ने राज्य के सभी सरकारी कार्यालयों में ऐपण के चित्र रखवाने के निर्देश दिये थे।[4]
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