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मोहन सिंह मेहता (1895-1986) देश के जाने माने शिक्षाविद, राजस्थान विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति, सेवा मंदिर[1][2] और विद्या भवन उदयपुर[3] के संस्थापक, भूतपूर्व विदेश सचिव पद्मविभूषण जगत मेहता के पिता थे।
मोहन सिंह मेहता का जन्म 20 अप्रैल 1895 को भीलवाड़ा में एक प्रतिष्ठित ओसवाल जैन परिवार में हुआ था।
"डॉ॰ मोहन सिंह मेहता का परिवार मेवाड़ रियासत में महत्वपूर्ण था। इनके पूर्वज रामसिंह मेहता मेवाड़ राज्य में प्रधान थे। उनके पुत्र जालिम सिंह भी मेवाड़ सरकार में बड़े पदों पर रहे। जालिम सिंह की तरह ही उनका पुत्र अक्षय सिंह जहाजपुर जिले का हाकिम रहा। इनके दो पुत्र हुए- जीवन सिंह और जसवन्त सिंह। जीवन सिंह के तीन पुत्र हुए- तेजसिंह, मोहनसिंह और चन्द्रसिंह। मोहन सिंह बचपन से ही कुशाग्र था। छः वर्ष की अवस्था में ही उसकी कुशाग्रता को देखते हुए उसे अजमेर में डी.ए. वी. हाई स्कूल में दाखिल कराया गया।"
"उस समय उदयपुर में शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी।" (जीवनी : डॉ॰ मोहन सिंह मेहता-लेखक :अब्दुल अहद पृ. 30-36) "सन् 1912 में मोहन सिंह ने हाई स्कूल की परीक्षा डी.ए.वी से तथा इन्टरमीडियेट की परीक्षा सन् 1914 में राजकीय महाविद्यालय, अजमेर से उर्त्तीण की। यहां से उच्च शिक्षा के लिये उसे आगरा जाना पड़ा जहां से उसने सन् 1916 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे के अध्ययन के लिये उन्हें इलाहाबाद जाना पड़ा।" (वही पृ. 39)
" इलाहाबाद में उनका सम्पर्क रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुआ था। उनके जीवन से उसे बड़ी प्रेरणा मिली। यहीं वह स्काउट गतिविधियों से जुड़े| 1918 के स्काउट के शिविर में उन्हें बेडन पावेल की पुस्तकों के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ। इसी स्काउट के कार्यक्रम के माध्यम से आपका सम्पर्क पं॰ श्रीराम वाजपेयी, हृदयनाथ कुंजरू व पं॰ मदन मोहन मालवीय से भी हुआ।"
"सन् 1918 में मोहन सिंह ने एम.ए. अर्थशात्र और एलएल. बी. की डिग्री हासिल की। उन दिनों एक ही वर्ष में दो परीक्षाएं दी जा सकती थी।" (वही 39-40) सन् 1920 में सेवा समिति स्काउट एसोसियेशन में आप कमिश्नर नियुक्त किये गये। इस समिति में प्रारंभ में तो बड़ा उत्साह रहा पर धीरे-धीरे इस समिति से जुड़े लोगों में जोश ठण्डा पड़ता चला गया। केवल पं॰ मदन मोहन मालवीय और मोहन सिंह मेहता ही इस समिति के शुभचिंतक के रूप में बचे रहे। पर वे पारिवारिक कारणों से उदयपुर चले आये पर इस समिति की गतिविधियों से वे अगले तीन वर्ष तक जुड़े रहे।" (वही पृ 43-44)
"उदयपुर आने पर मेवाड़ सरकार ने इनकी योग्यता को देखते हुए इन्हें कुम्भलगढ़ का हाकिम बना दिया। बाद में उन्हें उदयपुर बुला कर एक अंग्रेज अधिकारी के अन्तर्गत भूमि बंदोबस्त विभाग में लगा दिया। सन् 1922 में उन्हें जगतसिंह के रूप में पुत्र प्राप्त हुआ, पर बेटे को माता का सुख लिखा न था।"
"सन् 1924 में टीबी रोग के कारण उनकी पत्नी का देहावसान हो गया। उस समय उनकी आयु मात्र 29 वर्ष की थी। घर वालों ने उन्हें दूसरा विवाह करते का प्रस्ताव रखा पर उन्होंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया। इस निर्णय को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने पुत्र के लालन-पालन और उसके शिक्षा की दृष्टि से पिता का फर्ज तो निभाया ही, साथ ही बच्चे के परवरिश में मां की कमी का भी एहसास नहीं होने दिया। उनकी सारी व्यवस्था कर वे इंगलैण्ड चले गये। उदयपुर में स्काउट का काम मन्द न पड़ जाय इसकी भी व्यवस्था करके गये। (वही पृ. 48-49) वे इंगलैण्ड में ढाई वर्ष तक रहे वहां बेरेस्ट्री के अध्ययन के साथ-साथ डॉ॰ बर्न के मार्गदर्शन में आपने अर्थशात्र में पीएच. डी. का कार्य पूर्ण किया। इस अन्तराल में आपने डेनमार्क के फॉक हाई स्कूल का अवलोकन भी किया। इंग्लैण्ड में रहते हुए आपने केम्ब्रिज व ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी सेटलमेण्ट के बारे में विशेष जानकारी ली। यहीं के अनुभव के आधार पर डॉ॰ मेहता ने उदयपुर में सेवा मन्दिर[4] की स्थापना की।" (वही. पृ. 49)
"सन् 1928 में अपना अध्ययन समाप्त कर डॉ॰ मेहता उदयपुर लौट आये। उनके यहाँ आ जाने पर सरकार ने उन्हें पुनः रेवेन्यू कमिश्नर के पद पर नियुक्ति दे दी। 35 वर्ष तक आते-आते उनका सम्पर्क विश्व की कई विभूतियों से हो गया। सन् 1930 तक उन्होंने मेवाड़ की शिक्षा का अध्ययन किया तो मेवाड़ में उन्होंने शिक्षा की दृष्टि से दुर्दशा देखी। उनके सतत चिन्तन का परिणाम था कि 21 जुलाई 1930 को विद्या भवन की स्थापना की। उस समय यह विद्यालय किराये के भवन में (वर्तमान में उस भवन में आर.एन.टी. मेडिकल कालेज के अधीक्षक का निवास है) चलता था। बाद में कठिन परिश्रम से नीमच माता की तलहटी में चार एकड़ भू-भाग लिया गया।"[5]
उन्होंने उच्च शिक्षा भारत में- अजमेर, आगरा और भीलवाडा में ली और स्नातकोत्तर उपाधि के बाद पीएच डी की डिग्री अर्थशास्त्र में लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से प्राप्त की।
स्वाधीनता से पूर्व डॉ॰ मोहन सिंह मेहता राजस्थान में डूंगरपुर राज्य के दीवान, मेवाड़ के राजस्व मंत्री और भारत की संविधान सभा के सदस्य रहे। १९५१ में वह पाकिस्तान में भारतीय हाई कमिश्नर भी रहे।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी- १९६० में जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय की स्थापना- जिसके वह संस्थापक-उपकुलपति थे | राजस्थान विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का भारत सरकार का प्रस्ताव भी आया था पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया वे अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समाजसेवा के कार्यों में लग गये। शिक्षा और समाज-कार्यों के प्रति आजीवन समर्पित रहे दूरदृष्टिवान डॉ॰ मेहता ने अपने गृह नगर उदयपुर में कई संस्थाओं और उनके माध्यम से ग्रामीण विकास और प्रौढ़-शिक्षण परियोजनाओं का सफल संचालन किया। [6] मेवाड़ में महाराणा प्रताप जयंती मनाने का सिलसिला सन 1914 में जिस प्रताप सभा संस्था ने शुरू किया था, उस संस्था के भी संरक्षक डॉ॰ मेहता रहे।[7]
उनकी महती सामजिक सेवाओं के सम्मानस्वरूप उन्हें 1969 में भारत सरकार ने दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण प्रदान किया। [8]
डॉ॰ मोहन सिंह मेहता का निधन 25 जून सन् 1985 को में उदयपुर में हुआ।
इनकी स्मृति में इनके नाम से उदयपुर में एक ट्रस्ट भी[3] गठित है और विद्या भवन प्रतिवर्ष डॉ॰ मोहनसिंह मेहता मेमोरियल व्याख्यान का आयोजन करता है। [9]
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