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भारत में लोकतांत्रिक चुनाव विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
चुनाव- लोकतंत्र & राजनीति का आधार स्तम्भ हैं। आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है।
1951-52 को हुए आम चुनावों में मतदाताओं की संख्या 17,32,12,343 थी, जो 2014 में बढ़कर 81,45,91,184 हो गई है।[1] 2004 में, भारतीय चुनावों में 670 मिलियन मतदाताओं ने भाग लिया (यह संख्या दूसरे सबसे बड़े यूरोपीय संसदीय चुनावों के दोगुने से अधिक थी) और इसका घोषित खर्च 1989 के मुकाबले तीन गुना बढ़कर $300 मिलियन हो गया। इन चुनावों में दस लाख से अधिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया गया।[2] 2009 के चुनावों में 714 मिलियन मतदाताओं ने भाग लिया[3] (अमेरिका और यूरोपीय संघ की संयुक्त संख्या से भी अधिक).[4]
मतदाताओं की विशाल संख्या को देखते हुए चुनावों को कई चरणों में आयोजित किया जाना आवश्यक हो गया है (2004 के आम चुनावों में चार चरण थे और 2009 के चुनावों में पांच चरण थे)। चुनावों की इस प्रक्रिया में चरणबद्ध तरीके से काम किया जाता है, इसमें भारतीय चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथि की घोषणा, जिससे राजनैतिक दलों के बीच "आदर्श आचार संहिता" लागू होती है, से लेकर परिणामों की घोषणा और सफल उम्मीदवारों की सूची राज्य या केंद्र के कार्यकारी प्रमुख को सौंपना शामिल होता है। परिणामों की घोषणा के साथ चुनाव प्रक्रिया का समापन होता है और नई सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त होता है।
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव 5 साल के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। इसके लिए निर्वाचन मंडल का प्रयोग किया जाता है जहां लोक सभा व राज्य सभा के सदस्य और भारत के सभी प्रदेशों तथा क्षेत्रों की विधान सभाओं के सदस्य अपना वोट डालते हैं।
भारतीय संसद में राष्ट्रप्रमुख- भारत के राष्ट्रपति - और दो सदन शामिल हैं जो विधानमंडल होते हैं। भारत के राष्ट्रपति का चुनाव पांच वर्ष की अवधि के लिए निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें संघ और राज्य के विधानमंडलों के सदस्य शामिल होते हैं।
भारत की संसद के दो सदन हैं। लोक सभा में 545 सदस्य होते हैं, 543 सदस्यों का चयन पांच वर्षों की अवधि के लिए एकल सीट निर्वाचन क्षेत्रों से होता है और दो सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना जाता है (भारतीय संविधान में उल्लेख के अनुसार, अब तक लोक सभा में 545 सदस्य होते हैं, 543 सदस्यों का चयन पांच वर्षों की अवधि के लिए होता है और दो सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना जाता है)। 550 सदस्यों का चयन बहुमत निर्वाचन प्रणाली के तहत होता है।
राज्य सभा के सदस्यों का चयन अप्रत्यक्ष रूप से होता है और ये लगभग पूरी तरह से अलग-अलग राज्यों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं, जबकि 12 सदस्यों का नामांकन भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है, इसमें आमतौर पर भारत के प्रधानमंत्री की सलाह और सहमति शामिल होती है। राज्य सभा के बारे में अधिक जानकारी http://rajyasabha.nic.in/rsnew/about_parliament/rajya_sabha_introduction.asp पर पायी जा सकती है।
राज्यों की परिषद (राज्य सभा) में 245 सदस्य होते हैं, जिनमें 233 सदस्यों का चयन छह वर्ष की अवधि के लिए होता है, जिसमें हर दो साल में एक तिहाई अवकाश ग्रहण करते हैं। इन सदस्यों का चयन राज्य और केंद्र (संघ) शासित प्रदेशों के विधायकों द्वारा किया जाता है। निर्वाचित सदस्यों का का चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत एकल अंतरणीय मत के माध्यम से किया जाता है। बारह नामित सदस्यों को आमतौर पर प्रख्यात कलाकारों (अभिनेताओं सहित), वैज्ञानिकों, न्यायविदों, खिलाड़ियों, व्यापारियों और पत्रकारों और आम लोगों में से चुना जाता है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व पहली बार 1977 में टूटा जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पार्टी को अन्य सभी बड़े दलों के गठबंधन से हार का सामना करना पड़ा, ये सभी दल 1975-1977 में विवादित आपातकाल लागू करने का विरोध कर रहे थे। इसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में के एक गठबंधन ने 1989 में भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे राजीव गांधी को हराकर सत्ता में प्रवेश किया। इसे भी 1990 में सत्ता से हटना पड़ा।
1992 में, भारत में अब तक चली आ रही एक पार्टी के प्रभुत्व वाली राजनीति ने गठबंधन प्रणाली को रास्ता दिया, जिसमें कोई एक पार्टी सरकार बनाने के लिए संसद में बहुमत की उम्मीद नहीं कर सकती थी, लोकिन उसे अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन करना होता था और सरकार बनाने के लिए बहुमत सिद्ध करना होता था। इससे मजबूत क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ गया जो अब तक केवल क्षेत्रीय आकांक्षाओं तक ही सीमित थे। एक तरफ जहां तेदेपा और अन्नाद्रमुक जैसे दल पारंपरिक रूप से मजबूत क्षेत्रीय दावेदार बने हुए थे वहीं दूसरी ओर 1990 के दशक में लोक दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और जनता दल जैसे अन्य क्षेत्रीय दलों का भी उदय हुआ। ये दल पारंपरिक रूप से क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर आधारित होते थे, (जैसे तेलंगाना राष्ट्र समिति) या पूरी तरह से जाति आधारित होते थे, (जैसे बहुजन समाज पार्टी जो दलितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है)।
भारत में चुनावों का आयोजन भारतीय संविधान के तहत बनाये गये भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा किया जाता है। यह एक अच्छी तरह स्थापित परंपरा है कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद कोई भी अदालत चुनाव आयोग द्वारा परिणाम घोषित किये जाने तक किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। चुनावों के दौरान, चुनाव आयोग को बड़ी मात्रा में अधिकार सौंप दिए जाते हैं और जरुरत पड़ने पर यह सिविल कोर्ट के रूप में भी कार्य कर सकता है।
भारत की चुनावी प्रक्रिया में राज्य विधानसभा चुनावों के लिए कम से कम एक महीने का समय लगता है जबकि आम चुनावों के लिए यह अवधि और अधिक बढ़ जाती है। मतदाता सूची का प्रकाशन एक महत्वपूर्ण चुनाव पूर्व प्रक्रिया है और यह भारत में चुनाव के संचालन के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो भारत का नागरिक है और जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है, वह मतदाता सूची में एक मतदाता के रूप में शामिल होने के योग्य है यह योग्य मतदाता की जिम्मेदारी है कि वे मतदाता सूची में अपना नाम शामिल कराए। आमतौर पर, उम्मीदवारों के नामांकन की अंतिम तिथि से एक सप्ताह पहले तक मतदाता पंजीकरण के लिए अनुमति दी गई है।
चुनाव से पहले नामांकन, मतदान और गिनती की तिथियों की घोषणा की जाती है। चुनावों की तिथि की घोषणा के दिन से आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है।
किसी भी पार्टी को चुनाव प्रचार के लिए सरकारी संसाधनों को उपयोग करने की अनुमति नहीं होती है। आचार संहिता के नियमों के अनुसार मतदान के दिन से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद कर दिया जाना चाहिए। भारतीय राज्यों के लिए चुनाव से पहले की गतिविधियां अत्यंत आवश्यक होती हैं। आचार संहिता के अनुसार चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशी १० चौपिहया वाहन ही रख सकता है, जबकि मतदान वाले दिन तीन चौपहिया वाहनों की अनुमति है।
मतदान के दिन से एक दिन पहले चुनाव प्रचार समाप्त हो जाता है। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को मतदान केंद्रों के रूप में चुना जाता है। मतदान कराने की जिम्मेदारी प्रत्येक जिले के जिलाधिकारी की होती है। बहुत से सरकारी कर्मचारियों को मतदान केंद्रों में लगाया जाता है। चुनाव में धोखाधड़ी रोकने के लिए मतदान पेटियों के बजाय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है, जो भारत के कुछ भागों में अधिक प्रचलित है। मैसूर पेंट्स और वार्निश लिमिटेड द्वारा तैयार एक अमिट स्याही का प्रयोग आमतौर पर मतदान के संकेत के रूप में मतदाता के बाईं तर्जनी अंगुली पर निशान लगाने के लिए किया जाता है। इस कार्यप्रणाली का उपयोग 1962 के आम चुनाव के बाद से फर्जी मतदान रोकने के लिए किया जा रहा है। Yeh Galatians hai
चुनाव के दिन के बाद, ईवीएम को भारी सुरक्षा के बीच एक मजबूत कमरे में जमा किया जाता है। चुनाव के विभिन्न चरण पूरे होने के बाद, मतों की गिनती का दिन निर्धारित किया जाता है। आमतौर पर वोट की गिनती में कुछ घंटों के भीतर विजेता का पता चल जाता है। सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को निर्वाचन क्षेत्र का विजेता घोषित किया जाता है।
सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाले पार्टी या गठबंधन को राष्ट्रपति द्वारा नई सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। किसी भी पार्टी या गठबंधन को सदन में वोटों का साधारण बहुमत (न्यूनतम 50%) प्राप्त करके विश्वास मत के दौरान सदन (लोक सभा) में अपना बहुमत साबित करना आवश्यक होता है।
भारत के कुछ शहरों में, ऑनलाइन मतदाता पंजीकरण फार्म प्राप्त किए जा सकते हैं और निकटतम चुनावी कार्यालय में जमा किए जा सकते हैं। [www.jaagore.com] जैसी कुछ सामाजिक रूप से प्रासंगिक वेबसाइटें, मतदाता पंजीकरण की जानकारी प्राप्त करने के लिए अच्छा स्थान हैं।
अब तक, भारत में दूरस्थ मतदान प्रणाली नहीं है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए) -1950 के अनुच्छेद 19 के तहत एक व्यक्ति को अपने मत का पंजीकरण कराने का अधिकार है यदि उसकी उम्र 18 साल से अधिक है और वह निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाला 'आम नागरिक’ है, अर्थात छह महीने या उससे अधिक समय से मौजूदा पते पर रह रहा है।[6] उक्त अधिनियम की धारा 20 किसी अप्रवासी भारतीय (एनआरआई) को मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराने के लिए अयोग्य ठहराती है। इसलिए, संसद और राज्य विधानसभा के चुनाव में एनआरआई को वोट डालने की अनुमति नहीं दी गई है।
अगस्त 2010 में, जन प्रतिनिधित्व बिल (संशोधित)-2010 को लोक सभा में 24 नवम्बर 2010 की बाद की राजपत्र अधिसूचनाओं के साथ पारित कर दिया गया, इस बिल में एनआरआई को वोट डालने का अधिकार दिया गया है।[7] इसके साथ ही अब एनआरआई भारतीय चुनावों में वोट करने के योग्य हो जाएंगे, लेकिन उनके लिए मतदान के समय शारीरिक रूप से उपस्थित होना आवश्यक है। बहुत से सामाजिक संगठनों ने सरकार से आग्रह किया था कि दूरस्थ मतदान प्रणाली के द्वारा एनआरआई और दूर स्थित लोगों द्वारा मतदान करने के लिए आरपीए में संशोधन करना चाहिए।[8][9] पीपल फॉर लोक सत्ता Archived 2019-01-22 at the वेबैक मशीन, सक्रियता से इस बात पर बल देती रही है कि इंटरनेट और डाकपत्र मतदान का एनआरआई मतदान के एक व्यवहार्य साधन के रूप में प्रयोग किया जाए.[10]
लोकसभा जनता के प्रतिनिधियों से मिलकर बनी होती है जिन्हें वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा चुना जाता है। संविधान में उल्लिखित सदन की अधिकतम क्षमता 552 सदस्यों की है, जिनमें 530 सदस्य राज्यों के व 20 सदस्य केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दो सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाता है; ऐसा तब किया जाता है जब राष्ट्रपति को लगता है कि उस समुदाय का सदन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है।
* : असम के 12 सीटों और मेघालय के १ सीट पर चुनाव नहीं हुए थे।[15]
अगस्त १९४७ में स्वतंत्र होने और २६ जनवरी १९५० को अपना संविधान लागू करने के बाद1952 में भारत का पहला आम चुनाव सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात देश में पहली बार 1952 में लोकसभा का गठन हुआ।[16] इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 364 सीटों के साथ सत्ता में आई। इसके साथ, पार्टी ने कुल पड़े वोटों का 45 प्रतिशत प्राप्त किया था। पूरे भारत में 44.87 प्रतिशत की चुनावी भागीदारी दर्ज की गई। जवाहर लाल नेहरू देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने, उनकी पार्टी ने मतदान के 75.99% (47665951) मत प्राप्त करके विरोधियों को स्पष्ट रूप से हरा दिया। 17 अप्रैल 1952 को गठित हुई लोक सभा ने, 4 अप्रैल 1957 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया।
प्रथम आम चुनाव से ठीक पहले नेहरू के दो पूर्व कैबिनेट सहयोगियों ने कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए अलग राजनीतिक दलों की स्थापना कर ली थी। जहां एक ओर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अक्टूबर 1951 में जनसंघ की स्थापना की, वहीं दूसरी ओर दलित नेता भीमाराव अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति महासंघ (जिसे बाद में रिपब्लिकन पार्टी का नाम दिया गया) को पुनर्जीवित किया। जो अन्य दल उस समय आगे आए उनमें आचार्य कृपालनी की किसान मजदूर प्रजा परिषद, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शामिल हैं। हालांकि, इन छोटे दलों को पता था कि वे वास्तव में कांग्रेस के खिलाफ कहीं खड़े नहीं होते हैं।
पहली लोकसभा के अध्यक्ष श्री गणेश वासुदेव मावलंकर थे। पहली लोकसभा में 677 (3784 घंटे) बैठकें हुई, यह अब तक हुई बैठकों की उच्चतम संख्या है। इस लोक सभा ने 17 अप्रैल 1952 से 4 अप्रैल 1957 तक अपना कार्यकाल पूरा किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1952 की अपनी सफलता की कहानी को 1957 में आयोजित हुए दूसरे लोकसभा चुनावों में भी दोहराने में कामयाब रही। कांग्रेस के 490 उम्मीदवारों में से 371 सीटें जीतने में कामयाब रहे। पार्टी ने कुल 57,579,589 मतों की जीत के साथ 47.78 प्रतिशत बहुमत सुरक्षित रखा। जवाहर लाल नेहरू अच्छे बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटे। 11 मई 1957 को, एम. अनंतशयनम आयंगर को सर्वसम्मति से नई लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया।
इन चुनावों में कांग्रेस के सदस्य फिरोज गांधी का उदय भी देखा गया (जिन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू की बेटी इंदिरा से विवाह किया)। उन्होंने उत्तर प्रदेश के रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी, नंद किशोर को 29,000 से अधिक मतों के अंतर से हराया।
दिलचस्प बात यह रही कि 1957 के चुनावों में एक भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं थी। 1957 में निर्दलीयों को मतदान का 19 प्रतिशत प्राप्त हुआ। दूसरी लोकसभा ने 31 मार्च 1962 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया।
तीसरी लोकसभा अप्रैल 1962 में बनाई गई थी। उस समय पाकिस्तान के साथ संबंध खराब बने हुए थे। चीन के साथ 'दोस्ताना' संबंध भी अक्टूबर 1962 के सीमा युद्ध से एक मिथ्या ही साबित हुए। अपनी सरकार द्वारा सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान न देने के मुद्दे पर चारों ओर आलोचना होने के बाद, नेहरू को तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को हटाने और अमेरिका की सैन्य सहायता लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। नेहरू का स्वस्थ्य तेजी से बिगड़ने लगा और वह 1963 में स्वास्थ्य लाभ के लिए कश्मीर में कई महीने गुजारने के लिए बाध्य हो गए। 1964 मई में उनके कश्मीर से लौटने पर, नेहरू सदमे से पीड़ित हुए और बाद में दिल का दौरा पड़ने से 27 मई 1964 को उनका निधन हो गया। विशेषज्ञों का कहना है कि 1962 में चीन के भारत की सीमाओं के आक्रमण और पाकिस्तान के साथ घरेलू मामलों ने नेहरू को कड़वाहट से भर दिया था।
वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता गुलजारीलाल नंदा ने नेहरू की मृत्यु के बाद दो सप्ताह के लिए उनकी जगह ली। कांग्रेस द्वारा लाल बहादुर शास्त्री को नया नेता चुने जाने तक उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में काम किया। शास्त्री प्रधानमंत्री पद के लिए एक संभावित विकल्प नहीं थे जिन्होंने, शायद अप्रत्याशित रूप से, 1965 में पाकिस्तान पर जीत दिलाने में देश का नेतृत्व किया। शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति, मोहम्मद अयूब खान ने, पूर्व सोवियत संघ के ताशकंत में 10 जनवरी 1966 को एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए। हालांकि, शास्त्री अपनी जीत के फायदे देखने के लिए ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे।
शास्त्री की मृत्यु से उत्पन्न हुए रिक्त स्थान के कारण कांग्रेस ने एक बार पुनः नेता विहीन हो गयी। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले एक बार फिर नंदा को एक महीने से कम समय के लिए कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा, शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप काम करती थीं। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने 1966 में इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पूराने कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई से कड़े विरोध के बावजूद, इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री बनीं। कांग्रेस के लिए वास्तव में यह समय सबसे अच्छा नहीं था। पार्टी आंतरिक संकटों से जूझ रही थी और देश हाल में लड़े दो युद्धों के प्रभाव से उबर रहा था। अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ था और मनोबल काफी गिरा हुआ था। जिन अन्य मुद्दों ने लोक सभा को हिला कर रख दिया था उनमें मिजो आदिवासी बगावत, अकाल, श्रमिक अशांति और रुपया अवमूल्यन के मद्देनजर गरीबों की बदहाली शामिल थी। वहीं पंजाब में भी भाषाई और धार्मिक अलगाववाद के लिए आंदोलन चल रहा था।
भारत अप्रैल 1967 में चौथे चुनाव की राजनैतिक गतिविधियों से गुजर रहा था। जिस कांग्रेस ने अब तक चुनावों में 73 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थी, आगे आने वाला समय उसके लिए और बुरा साबित होने वाला था।
कांग्रेस के आंतरिक संकट का असर 1967 के चुनाव के परिणामों में साफ दिखाई दिया। पहली बार, कांग्रेस ने निचले सदन में करीब 60 सीटों को खो दिया। उसे 283 सीटें पर जीत प्राप्त हुई। 1967 तक, सबसे पुरानी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में भी कभी 60 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थीं। यहाँ भी कांग्रेस को एक बड़ा झटका सहना पड़ा क्योंकि बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल में गैर कांग्रेसी सरकारें स्थापित हुईं। इस सब के साथ, इंदिरा गांधी को, जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गयीं थी, 13 मार्च को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। असंतुष्ट आवाज़ों के शांत रखने के लिए, उन्होंने मोरारजी देसाई को भारत का उपप्रधानमंत्री और भारत का वित्तमंत्री नियुक्त किया। मोरारजी देसाई ने नेहरू की मृत्यु के बाद इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाए जाने का विरोध किया था।
कांग्रेस पार्टी के भीतर मतभेद बढ़ते रहे। कांग्रेस ने 12 नवम्बर 1969 "अनुशासनहीनता" के लिए मोरार जी देसाई को निष्कासित कर दिया। इस घटना ने कांग्रेस को दो भागों में विभाजित कर दिया: (१) कांग्रेस (ओ) - संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) के लिए - जिसका नेतृत्व मोरारजी देसाई ने किया और (२) कांग्रेस (आई) - इंदिरा के लिए - जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं। इंदिरा ने दिसंबर 1970 तक सीपीआई (एम) के समर्थन से एक अल्पमत वाली सरकार को चलाया। वह आगे अल्पमत की सरकार नहीं चलाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने चुनावों की अवधि से एक वर्ष पहले मध्यावधि लोकसभा चुनवों की घोषणा कर दी।
इंदिरा गांधी ने 1971 में कांग्रेस को भारी बहुमत से जीत दिलाई। "गरीबी हटाओ" के चुनावी नारे के साथ प्रचार करते हुए, वह 352 सीटों के साथ संसद में वापस आयीं; यह पिछले चुनावों की 283 सीटों के मुकाबले उल्लेखनीय सुधार था।
इंदिरा गांधी ने 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान साहसिक निर्णय लिया जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश मुक्त हो गया। दिसंबर 1971 में भारत की जीत का सभी भारतीयों द्वारा स्वागत किया गया क्योंकि यह चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका से राजनयिक विरोधों का सामना करते हुए प्राप्त हुई थी। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी ब्लॉक के देशों को छोड़कर शायद ही किसी अन्य देश ने भारत का अंतरराष्ट्रीय समर्थन किया था।
इंदिरा और कांग्रेस दोनों के समक्ष कुछ अन्य समस्याएं भी थीं। भारत पाक युद्ध में आयी भारी आर्थिक लागत, दुनिया में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट ने आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ा दिया था।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर उनके 1971 के चुनाव को अवैध ठहरा दिया। इस्तीफे के बजाय, इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की और पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया।
आपातकाल मार्च 1977 तक चला और 1977 में आयोजित चुनावों में जन मोर्चा नाम के पार्टियों के गठबंधन से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. ऐसा पहली बार हुआ था जब कांग्रेस को एक गंभीर हार का सामना करना पड़ा था।
कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा 1977 के चुनावों में मुख्य मुद्दा था। राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक नागरिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया गया था और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विशाल शक्तियां अपने हाथ में ले ली थीं।
गांधी अपने इस निर्णय की वजह से काफी अलोकप्रिय हुईं और चुनावों में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 23 जनवरी को गांधी ने, मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। चार विपक्षी दलों, कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने 'जनता पार्टी' के रूप में मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया।
जनता पार्टी ने मतदाताओं को आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों और मानव अधिकारों के उल्लंघन की याद दिलाई जैसे अनिवार्य बंध्याकरण और राजनेताओं को जेल में डालना.। जनता अभियान में कहा गया कि चुनाव तय करेगा कि भारत में "लोकतंत्र होगा या तानाशाही"। कांग्रेस आशंकित दिख रही थी। कृषि और सिंचाई मंत्री बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोड़ दी और ऐसा करने वाले कई लोगों में से वे एक थे।
कांग्रेस ने एक मजबूत सरकार की जरूरत होने की बात कहकर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की लेकिन लहर इसके खिलाफ चल रही थी।
स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस को चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी ने 298 सीटें जीती। मोरार जी देसाई 24 मार्च को भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने, उन्हें चुनावों से दो महिने पहले ही जेल से रिहा किया गया था।
कांग्रेस की लगभग 200 सीटों पर हार हुई। इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी भी चुनाव हार गए।
जनता पार्टी, कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ जनता के गुस्से पर सवार होकर सत्ता में आयी लेकिन इसकी स्थिति कमजोर थी। लोकसभा में पार्टी की 270 सीटें थीं और सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत नहीं थी।
भारतीय लोक दल के नेता चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम, जिन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी, जनता गठबंधन के सदस्य थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के से वे खुश नहीं थे।
आपातकाल के दौरान मानवाधिकार के हनन की जांच के लिए जो अदालतें सरकार ने गठित की थीं वे इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रतिशोधी दिखाई पड़ीं, इंदिरा ने स्वयं को एक परेशान महिला के रूप में चित्रित करने का कोई मौका नहीं गवांया।
समाजवादियों और हिंदू राष्ट्रवादियों का मिश्रण जनता पार्टी, 1979 में विभाजित हो गई जब भारतीय जनसंघ (BJS) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को छोड़ दिया और बीजेएस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
देसाई ने संसद में विश्वास मत खो दिया और इस्तीफा दे दिया। चरण सिंह, जिन्होंने जनता गठबंधन के कुछ भागीदारों को बरकरार रखा था, उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में जून 1979 में शपथ ली।
कांग्रेस ने संसद में चौधरी चरण सिंह के समर्थन का वादा किया लेकिन बाद में पीछे हट गई। उन्होंने जनवरी 1980 में चुनाव की घोषणा कर दी और वे अकेले प्रधानमंत्री थे जो कभी संसद नहीं गए। जनता पार्टी के नेताओं के बीच की लड़ाई और देश में फैली राजनीतिक अस्थिरता ने कांग्रेस (आई) के पक्ष में काम किया, जिसने मतदाताओं इंदिरा गांधी की मजबूत सरकार की याद दिला दी।
कांग्रेस ने लोकसभा में 351 सीटें जीतीं और जनता पार्टी, या बचे हुए गठबंधन को 32 सीटें मिलीं।
जनता पार्टी का साल दर साल विभाजन होता रहा लेकिन ये देश के राजनैतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ: यह एक गठबंधन था और इसने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस को हराया जा सकता है।
31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या ने, कांग्रेस के लिए सहानुभूति मत बनाए। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद लोकसभा को भंग कर दिया गया और राजीव गांधी ने अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
नवंबर 1984 के लिए चुनाव की घोषणा कर दी गई और चुनाव प्रचार के दौरान राजीव ने लोगों को अपने परिवार के योगदान की याद दिलाई।
कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। इसने 409 लोकसभा सीटें और लोकप्रिय मतों का 50 फीसदी अपने नाम किया, यह पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। तेलुगू देशम पार्टी 30 सीटों के साथ संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। यह भारतीय संसद के इतिहास के उन दुर्लभ रिकार्डों में एक है जिसमें कोई क्षेत्रीय पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी।
9वीं लोकसभा के चुनाव भारतीय चुनावी राजनीति में कई मायनों में ऐतिहासिक घटना रहे। इन चुनावों ने राजनेताओं के मतदाता से वोट मांगने के तरीके को बदल दिया। अब जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगना केंद्र बिंदु बन गया।
यद्यपि 1989 के आम चुनाव कई संकटों से जूझ रहे युवा राजीव के साथ लड़े गए किन्तु कांग्रेस सरकार अपनी विश्वसनीयता और लोकप्रियता खो रही थी। बोफोर्स कांड, पंजाब में बढ़ता आतंकवाद, एलटीटीई और श्रीलंका सरकार के बीच गृह युद्ध उन समस्याओं में से कुछ थी जो राजीव गांधी की सरकार के सामने थीं। राजीव के सबसे बड़े आलोचक विश्वनाथ प्रताप सिंह थे जिन्होंने सरकार में वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय का कामकाज संभाला रखा था। रक्षा मंत्री के रूप में सिंह के कार्यकाल के दौरान यह अफवाह थी कि उनके पास बोफोर्स रक्षा सौदे से संबंधित ऐसी जानकारी थी जो राजीव गांधी की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर सकती थी।
लेकिन सिंह को शीघ्र ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया और फिर उन्होंने कांग्रेस और लोक सभा में अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान के साथ जन मोर्चा का गठन किया और इलाहाबाद से लोकसभा में प्रवेश किया।
11 अक्टूबर 1988 को, जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) के विलय से जनता दल की स्थापना हुई ताकि सभी दल एक साथ मिलकर राजीव गांधी सरकार का विरोध कर करें। जल्द ही, द्रमुक, तेदेपा और अगप सहित कई क्षेत्रीय दल जनता दल से मिल गए और नेशनल फ्रंट की स्थापना की। पांच पार्टियों वाला नेशनल फ्रंट, भारतीय जनता पार्टी और दो कम्यूनिस्ट पार्टियों- भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के साथ मिलकर 1989 के चुनाव मैदान में उतरा।
लोकसभा में 525 सीटों के लिए यह चुनाव 22 नवम्बर और 26 नवम्बर 1989 को दो चरणों में आयोजित हुए। नेशनल फ्रंट को लोकसभा में आसान बहुमत प्राप्त हुआ और उसने वाम मोर्चे और भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। राष्ट्रीय मोर्चे की सबसे बड़े घटक जनता दल ने 143 सीटें जीतीं, इसके अलावा माकपा और भाकपा ने क्रमशः 33 और 12 सीटें हासिल कीं. निर्दलीय और अन्य छोटे दल 59 सीटें जीतने में कामयाब रहे।
हालांकि, कांग्रेस अभी भी 197 सांसदों के साथ लोकसभा में अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। भाजपा 1984 के चुनावों में दो सीटों के मुकाबले इस बार के चुनावों में 85 सांसदों के साथ सबसे ज्यादा फायदे में रही। विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के 10वें प्रधानमंत्री बने और देवीलाल उप प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक कार्यालय संभाला। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे पर रथ यात्रा शुरू किए जाने और बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा बिहार में गिरफ्तार किए जाने के बाद पार्टी ने वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वीपी सिंह ने विश्वास मत हारने के बाद इस्तीफा दे दिया।
चंद्रशेखर 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए और उन्होंने 'समाजवादी जनता पार्टी' बनाई। उन्हें बाहर से कांग्रेस का समर्थन मिला और वे भारत के 11वें प्रधानमंत्री बने। उन्होंने आखिरकार 6 मार्च 1991 को इस्तीफा दे दिया, जब कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरकार राजीव गांधी पर जासूसी कर रही है।
10 वीं लोकसभा के चुनाव मध्यावधि चुनाव थे क्योंकि पिछली लोकसभा को सरकार के गठन के सिर्फ 16 महीने बाद भंग कर दिया गया था। यह चुनाव विपरीत वातावरण में हुए और दो सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दों, मंडल आयोग की सिफारिसें लागू करने और राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के चलते इन्हें 'मंडल-मंदिर' चुनाव भी कहा जाता है।
जहां एक ओर वी.पी. सिंह सरकार द्वारा लागू मंडल आयोग की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, जिसके कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सामान्य जातियों के देश भर में इसका विरोध किया, वहीं दूसरी ओर मंदिर अयोध्या के विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे का प्रतिनिधित्व करता था जिसे भारतीय जनता पार्टी अपने प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में उपयोग कर रही थी।
मंदिर मुद्दे के फलस्वरुप देश के कई हिस्सों में दंगे हुए और मतदाताओं का जाति और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो गया। राष्ट्रीय मोर्चे में फैली अव्यवस्था ने कांग्रेस की वापसी के संकेत दे दिए थे।
चुनाव तीन चरणों में 20 मई 12 जून और 15 जून 1991 आयोजित किए गए। यह कांग्रेस, भाजपा और राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल (एस)- वामपंथियों मोर्चे के गठबंधन के बीच एक त्रिकोणीय मुकाबला था।
मतदान के पहले दौर के एक दिन बाद 20 मई को, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की तमिल ईलम लिबरेशन टाइगर द्वारा श्रीपेरंबदूर में चुनाव प्रचार करते हुए हत्या कर दी गई। चुनाव के शेष दिनों को जून के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिए गया और अंत में मतदान 12 जून और 15 जून को हुआ। इस बार के संसदीय चुनावों में अब तक का सबसे कम मतदान हुआ, इसमें केवल 53 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
इन चुनावों के परिणामों से एक त्रिशंकु संसद बनी, जिसमें 232 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और 120 सीटों के साथ भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जनता दल सिर्फ 59 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा।
21 जून को, कांग्रेस के पी वी नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। राव, नेहरू-गांधी परिवार के बाहर दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे।
11 वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के परिणामों से एक त्रिशंकु संसद का गठन हुआ और दो वर्ष तक राजनैतिक अस्थिरता रही जिसके दौरान देश के तीन प्रधानमत्री बने।
प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की कांग्रेस (आई) सरकार ने सुधारों की एक शृंखला को लागू किया जिसने विदेशी निवेशकों के लिए देश की अर्थव्यवस्था को खोल दिया। राव के समर्थकों ने उन्हें देश की अर्थव्यवस्था को बचाने और देश की विदेश नीति को स्फूर्ति देने का श्रेय दिया लेकिन उनकी सरकार अप्रैल से मई में चुनाव से पहले अनिश्चित और कमजोर थी।
मई 1995 में, वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने कांग्रेस छोड़ दी और अपनी पार्टी का गठन किया। हर्षद मेहता घोटाले, राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा की रिपोर्ट, जैन हवाला कांड और 'तंदूर हत्याकांड' मामले ने राव सरकार की विश्वसनीयता को क्षतिग्रस्त किया।
भाजपा व उसके सहयोगी दल और संयुक्त मोर्चा, वाम मोर्चा और जनता दल का गठबंधन, चुनावों में कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे।
तीन सप्ताह के अभियान के दौरान, राव ने अपने द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधारों को मुद्दा बनाकर मतदाताओं को आकर्षित किया और भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर मतदाताओं को रिझाया।
मतदाता किसी भी पार्टी से प्रभावित नहीं लगते थे। भाजपा ने 161 सीटें जीती और कांग्रेस ने 140। संसद की सीटों की आधी संख्या 271 थी।
राष्ट्रपति ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, चूंकि वे संसद में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया थे।
वाजपेयी ने 16 मई को प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला और संसद में क्षेत्रीय दलों से समर्थन पाने की कोशिश की। वह इस काम में विफल रहे और 13 दिनों के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
जनता दल के नेता एच डी देवेगौड़ा ने 1 जून को एक संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार का गठन किया। उनकी सरकार 18 महीने चली।
देवेगौड़ा के विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री के रूप में अप्रैल 1997 में पदभार संभाला जब कांग्रेस बाहर से एक नई संयुक्त मोर्चा सरकार का समर्थन करने के लिए सहमत हो गई। लेकिन गुजराल केवल एक कामचलाऊ व्यवस्था के रूप में थे। देश में 1998 में फिर से चुनाव होना तय था।
11वीं लोकसभा का जीवन छोटा था, यह मुश्किल से डेढ़ साल चली. अल्पमत वाली इंद्र कुमार गुजराल की सरकार (मई 1996 के आम चुनावों से 18 महीनों के भीतर संयुक्त मोर्चा की दूसरी सरकार), 28 नवम्बर 1997 को गिर गई जब सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने राजीव गांधी की हत्या में द्रमुक नेता। ओं के शामिल होने के विवाद के चलते सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
नए चुनावों की घोषणा की गई और 10 मार्च 1998 को 12 वीं लोकसभा का गठन हुआ और वरिष्ठ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन को नौ दिन बाद शपथ दिलाई गई। 12 वीं लोकसभा केवल 413 दिन चली, जो उस तिथि तक का सबसे कम समय था।
एक व्यवहार्य विकल्प के अभाव के कारण तब विघटन हो गया जब 13 महीने पुरानी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को 17 अप्रैल को केवल एक मत से बेदखल कर दिया गया। ऐसा पांचवीं बार हुआ था जब लोकसभा को अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले भंग कर दिया गया।
4 दिसम्बर 1997 को लोक सभा के विघटन के बाद समय से पहले ही सभी लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए।
चुनाव पश्चात गठबंधन की रणनीति ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को 265 सीटों का कार्यकारी बहुमत प्रदान किया। इस संदर्भ में 15 मार्च को, राष्ट्रपति के आर नारायणन ने वाजपेयी को अगली सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। 19 मार्च को वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
17 अप्रैल 1999 को, वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत खो दिया और इसके फलस्वरूप उनकी गठबंधन सरकार ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इसका कारण अपने 24 पार्टी वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में सामंजस्य की कमी होना बताया। भाजपा, गठबंधन की अपने सहयोगी जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के पीछे हटने के कारण मतदान में एक वोट से हार गई थी।
जयललिता अपनी मांगे पूरी ना होने पर लगातार समर्थन वापस लेने की धमकी दे रही थीं, इन मांगों में विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार से बर्खास्त करना शामिल था जिसका नियंत्रण वे तीन साल पहले खो चुकी थीं। भाजपा ने आरोप लगाया कि जयललिता भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से बचने की मांग कर रहीं थीं और पार्टियों के बीच कोई समझौता नहीं किया जा सका जिससे सरकार की हार हुई।
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस, क्षेत्रीय और वामपंथी समूहों के साथ मिलकर बहुमत वाली सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं पा सकी। 26 अप्रैल को, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी और जल्दी चुनाव करने की घोषणा कर दी। भाजपा ने मतदान होने तक एक अंतरिम प्रशासन के रूप में शासन करना जारी रखा, चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथि 4 मई घोषित की गई थी।
चूंकि पिछले चुनाव 1996 और 1998 में आयोजित हुए थे, इसलिए 1999 के चुनाव 40 महीने में तीसरी बार हो रहे थे। चुनावी धोखाधड़ी और हिंसा को रोकने के लिए देश के 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में सुरक्षा बलों को तैनात करने हेतु ये चुनाव पांच सप्ताह तक चले थे। कुल मिलाकर 45 पार्टियों ने (छह राष्ट्रीय, शेष क्षेत्रीय) 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा।
लंबे चुनाव अभियान के दौरान, भाजपा और कांग्रेस ने आम तौर पर आर्थिक और विदेश नीति के मुद्दों पर सहमति व्यक्त की, इसमें पाकिस्तान के साथ कश्मीर सीमा विवाद का निपटारा भी शामिल था। उनकी प्रतिद्वंद्विता केवल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और वाजपेयी के बीच के व्यक्तिगत टकराव के रूप में ही अधिक प्रकट हुई।
सोनिया गांधी को 1998 में काफी कम उम्र में पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया, सोनिया की जन्मभूमि इटली होने की बात को मुद्दा बनाकर महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता शरद पवार ने सोनिया के चयन को चुनौती दी। इस कारण से कांग्रेस में आतंरिक संकट पैदा हो गए और भाजपा ने प्रभावी रूप से एक चुनावी मुद्दे के रूप में इसका प्रयोग किया।
वाजपेयी द्वारा कारगिल युद्ध से निपटने का सकारात्मक दृष्टिकोण भी एक मुद्दा था जो भाजपा के पक्ष में काम कर रहा था। यह युद्ध चुनावों से कुछ महीने पहले ही समाप्त हुआ था और इसने कश्मीर में भारत की स्थिति को मजबूत किया था। इसके अलावा, पिछले दो वर्षों में भारत ने आर्थिक उदारीकरण और वित्तीय सुधारों के चलते आर्थिक रूप से काफी वृद्धि तैनात की थी, इसके साथ-साथ मुद्रास्फीति की दरें कम और औद्योगिक विकास की दरें भी उच्च थीं।
अन्य दलों के साथ मजबूत और व्यापक गठजोड़ के मध्यम से राजनैतिक विस्तार के आधार पर, 1991, 1996 और 1998 के चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों ने लगातार विकास किया था; और क्षेत्रीय विस्तार के कारण राजग प्रतिस्पर्धी बन गया और यहां तक कि उसने कांग्रेस की बहुलता वाले क्षेत्रों जैसे उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और असम में भी सबसे ज्यादा वोट प्राप्त किए थे। ये कारक 1999 के चुनाव परिणामों में निर्णायक साबित हुए।
6 अक्टूबर को आए परिणाम में राजग को 298 सीटें मिलीं, कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 136 सीटों पर वियज प्राप्त हुई। वाजपेयी ने 13 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की देखरेख में अपने शासन के पांच साल पूरे किये और 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों के चुनाव हुए.
अधिकांश विश्लेषकों का मानना था कि राजग, 'फील गुड फैक्टर' और अपने प्रचार अभियान 'भारत उदय' की मदद से, सत्ता विरोधी लहर को हरा देगी और स्पष्ट बहुमत प्राप्त करेगी। भाजपा शासन के दौरान अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लगाया गया था। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी (दुनिया में सातवें सबसे बड़ा और भारत के लिए एक रिकॉर्ड)। सेवा क्षेत्र ने भी ढेरों नौकरियां उपलब्ध उत्पन्न हुई थीं।
1990 के दशक के अन्य सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में इन चुनावों में, दो व्यक्तित्वों का टकराव (वाजपेयी और सोनिया गांधी) अधिक देखा गया क्योंकि वहां कोई तीसरा व्यवहार्य विकल्प मौजूद नहीं था। भाजपा और इसके सहयोगियों का झगड़ा एक तरफ था और कांग्रेस और उसके सहयोगियों का झगड़ा दूसरी तरफ। हालांकि, क्षेत्रीय मतभेद राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरे थे।
भाजपा ने राजग के सदस्य के रूप में चुनाव लड़ा, हालांकि इसके सीटों के बंटवारे को लेकर इसके समझौते राजग के बाहर कुछ मजबूत क्षेत्रीय दलों के साथ भी थे जैसे आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी और तमिलनाडु में अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी।
कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर का विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश भी हुई। अंत में, कोई समझौता नहीं हो पाया, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन हो गया। यह पहली बार था कि कांग्रेस ने संसदीय चुनावों में इस तरह के गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा था।
वामपंथी दलों, विशेषकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, ने अपने मजबूत क्षेत्रों जैसे पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम पर चुनाव लड़ा और कांग्रेस और राजग दोनों का सामना किया। अन्य राज्यों जैसे पंजाब और आंध्र प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटें बांटी। तमिलनाडु में वे द्रमुक के नेतृत्व वाले जनतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा थे।
बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस या भाजपा दोनों में से किसी के साथ भी जाने से इंकार कर दिया। ये दोनों भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में आधारित हैं।
हालांकि चुनाव पूर्व भविष्यवाणियों में भाजपा के लिए भारी बहुमत की बात कही गई थी, लेकिन एग्जिट पॉल (चुनाव के तुरंत बाद और गिनती शुरू होने से पहले) में त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी हुई। यह भी आम धारणा है कि जैसे ही भाजपा ने यह मानना आरंभ किया की चुनाव पूरी तरह से उसके पक्ष में नहीं हुए हैं, इसने भाजपा के अभियान का ध्यान इंडिया शाइनिंग से हटाकर स्थिरता के मुद्दों पर केंद्रित कर दिया। जिस कांग्रेस को भाजपा ने "पुराने ढ़ंग वाली" का नाम दिया था उसे मुख्यतः गरीबों, ग्रामीणों, निचली जातियों और अल्पसंख्यक मतदाताओं का भारी समर्थन मिला जिससे कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की; इन लोगों को एक विशालकाय मध्यमवर्ग को जन्म देने वाली विगत वर्षों की आर्थिक वृद्धि का कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ।
चुनाव पूर्व भविष्यवाणियों में पराजय के लिए विभिन्न कारणों को जिम्मेदार माना जाता है। राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय लोग अपने आसपास के मुद्दों, जैसे पानी की कमी, सूखा, आदि, के बारे में ज्यादा चिंतित थे; और भाजपा के सहयोगी सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना कर रहे थे।
13 मई को, भाजपा ने हार को स्वीकार किया और कांग्रेस अपने सहयोगियों की मदद और सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में 543 में से 335 सदस्यों (बसपा, सपा, एमडीएमके और वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन सहित) का बहुमत प्राप्त करने में सफल रही। चुनाव के बाद हुए इस गठबंधन को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन कहा गया।
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर लगभग सभी को हैरान कर दिया। इसके बजाय पूर्व वित्त मंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह से यह दायित्व उठाने के लिए कहा गया। डॉ॰ सिंह इससे पहले नरसिंह राव की सरकार में 1990 के दशक की शुरूआत में अपनी सेवाएं दे चुके थे, जहाँ उन्हें भारत की ऐसी पहली आर्थिक उदारीकरण नीति के रचयिताओं में से एक माना जाता था जिसने आसन्न राष्ट्रीय मौद्रिक संकट से उबरने में मदद की थी।
मई 2009 में, 15वीं लोकसभा के चुनाव के परिणामों की घोषणा की गई। पुनः कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। श्रीमती मीरा कुमार लोक सभा अध्यक्ष बनीं।
अप्रैल–मई २०१४ में भारत में सोहलवीं लोकसभा के चुनाव हुये। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को कुल ३३६ सीटें प्राप्त हुईं। भारतीय जनता पार्टी को अकेले २८२ सीटें प्राप्त हुईं जो साधारण बहुमत के लिये आवश्यक २७२ सीटों से १० अधिक है। कांग्रेस को मात्र ४४ सीटें ही मिल सकीं जो इस पार्टी से आजतक का सबसे खराब प्रदर्शन है। बीजेपी ने केवल 31.0% वोट जीते, जो आजादी के बाद से भारत में बहुमत वाली सरकार बनाने के लिए पार्टी का सबसे कम हिस्सा है,[17] जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का संयुक्त वोट हिस्सा 38.5% था।
भारतीय जनता पार्टी ने 303 सीटों पर जीत हासिल की, और अपने पूर्ण बहुमत बनाये रखा और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 353 सीटें जीतीं। भाजपा ने 37.36% वोट हासिल किए, जबकि एनडीए का संयुक्त वोट शेयर 60.37 करोड़ वोटों का 45% था।[18][19] कांग्रेस पार्टी ने 52 सीटें जीतीं और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 92 सीटें जीतीं। अन्य दलों और उनके गठबंधन ने भारतीय संसद में 97 सीटें जीतीं।
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