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भारथीय अकादमिक और राजनेता (1848-1932) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
बिपिन चंद्र पाल (बांग्ला:বিপিন চন্দ্র পাল) (७ नवंबर, १८५८ - २० मई १९३२) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी तथा भारत में क्रान्तिकारी विचारों के जनक थे। वे भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलन के अग्रणी नेताओं में से थे। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली लाल-बाल-पाल के नाम से प्रसिद्ध तीन महान् स्वतंत्रता सेनानियों की त्रिमूर्ति में से एक थे। उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है।
बिपिन चन्द्र पाल | |
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जन्म |
07 नवम्बर 1858 हबीबगंज जिला, (वर्तमान बांग्लादेश), सिलहट क्षेत्र, ब्रिटिश भारत (अब बांग्लादेश) |
मौत |
मई 20, 1932 73 वर्ष) | (उम्र
शिक्षा की जगह | कलकत्ता विश्वविद्यालय |
पेशा |
राजनीतिज्ञ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी |
राजनैतिक पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
हस्ताक्षर |
वे 'स्वराज' या पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता के विचार पर मजबूती के साथ कायम रहे, जिसे केवल साहस, स्व-सहायता और आत्मोत्सर्ग के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता था । अपने काल में बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी श्री बिपिन चन्द्र पाल का घटनापूर्ण जीवन शिक्षक, पत्रकार, लेखक, वक्ता, पुस्तकालयाध्यक्ष तथा सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में उनके योगदान में झलकता है । बंगाल में पुनर्जागरण के पुरोधा श्री पाल ने जनता के मन में बैठी सामाजिक हठधर्मिता और रूढ़िवादिता का विरोध और आलोचना करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया। प्रारम्भ में वे ब्राह्म समाज के सदस्य बने, उसके बाद वेदांत-दर्शन की ओर मुड़े और अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव-दर्शन के समर्थक बने ।
लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक एवं विपिनचन्द्र पाल (लाल-बाल-पाल) की इस तिकड़ी ने १९०५ में बंगाल विभाजन के विरोध में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आंदोलन किया जिसे बड़े स्तर पर जनता का समर्थन मिला।[1][2] 'गरम' विचारों के लिए प्रसिद्ध इन नेताओं ने अपनी बात तत्कालीन विदेशी शासक तक पहुँचाने के लिए कई ऐसे तरीके अपनाए जो एकदम नए थे। इन तरीकों में ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज, औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि शामिल हैं।
उनके अनुसार विदेशी उत्पादों के कारण देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो रही थी और यहाँ के लोगों का काम भी छिन रहा था। उन्होंने अपने आंदोलन में इस विचार को भी सामने रखा। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गरम धड़े के अभ्युदय को महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इससे आंदोलन को एक नई दिशा मिली और इससे लोगों के बीच जागरुकता बढ़ी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जागरुकता पैदा करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उनका विश्वास था कि केवल प्रेयर पीटिशन (प्रार्थना करने और रोने घिघियाने से) से स्वराज नहीं मिलने वाला है।
श्री बिपिन चन्द्र पाल का जन्म एक बंगाली कायस्थ परिवार में ,श्री राम चन्द्र पाल और श्रीमती नारायणी के घर 7 नवम्बर, 1858 को बंगाल के सिलहट जिले के पोइल ग्राम में हुआ, जो अब बांग्लादेश में है। 1866 में उन्हें सिलहट शहर स्थित अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल में भेजा गया। उसके बाद उन्होंने दो मिशनरी विद्यालयों में पढ़ाई की और बाद में 1874 में सिलहट राजकीय उच्च विद्यालय से कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास की। उच्च शिक्षा के लिए बिपिन चन्द्र कलकत्ता गये और 1875 में प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में अपने अगले चार वर्षों के दौरान उन्होंने भारत की नव राष्ट्रीय चेतना को क्रमशः उभरते देखा । अपने विद्यालय और कालेज के दिनों में उन्होंने काफी अध्ययन किया जिससे उनकी साहित्यिक रुचि और दक्षता बढ़ी। उन्हें बंगला साहित्य, विशेषकर बंगला कविता और कथा साहित्य पसंद थे। अंग्रेजी लेखकों में उन्हें इमर्सन और थियोडोर पार्कर विशेष प्रिय थे।
बिपिन चन्द्र ने 1879 में कटक के हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक के रूप में अपनी जीविका प्रारम्भ की। उन्होंने गंभीरतापूर्वक पत्रकारिता का भी कार्य किया और सिलहट में एक बंगला साप्ताहिक 'परिदर्शक' शुरू किया (1880), 'बंगाल पब्लिक ओपिनियन' के सहायक संपादक के रूप में कार्य किया (1882); और इसी रूप में वे लाहौर से निकलने वाले 'द ट्रिब्यून' से जुड़े (1887)। उन्होंने 'कलकत्ता पब्लिक लाइब्रेरी' के पुस्तकालयाध्यक्ष और सचिव के रूप में भी डेढ़ साल तक कार्य किया ( 1890-91)।
कलकत्ता में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान, बिपिन चन्द्र कुछ प्रख्यात लोगों के सम्पर्क में आये। उनमें से कुछ थे- ब्राह्म समाज के प्रसिद्ध नेता श्री केशवचन्द्र सेन, जिन्होंने श्री पाल को ब्राह्म समाज आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया; श्री शिवनाथ शास्त्री, जिन्होंने उन्हें स्वाधीनता, व्यक्तिपरकता और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत किया और श्री विजय कृष्ण गोस्वामी, जिन्होंने बाद में सार्थक रूप से उनके आध्यात्मिक जीवन को गढ़ा ।
राजनीति में बिपिन चन्द्र शुरू में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से प्रभावित थे और उन्हें अपना गुरु मानते थे; लेकिन बाद में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष के साथ मिलकर काम किया। वर्ष 1877 की शरद ऋतु में शिवनाथ शास्त्री ने उन्हें औपचारिक रूप से उस दल के सदस्य के रूप में आमंत्रित किया जो ब्रह्म समाज के सामाजिक और धार्मिक आदर्शवाद को सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के राजनीतिक आदर्शवाद और 'इंडियन एसोसिएशन' से जोड़कर देखता था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बिपिन चन्द्र पाल का जुड़ाव 1886 में कलकत्ता में हुए इसके अधिवेशन के दूसरे सत्र से ही शुरू हो गया जहां वे इसमें सिलहट से प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। बिपिन चन्द्र ने 1887 में मद्रास में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के तीसरे सत्र में मुखरता से भारतीयों के अधिकारों के लिए अवाज बुलंद करते हुए 'आर्म्स एक्ट, 1887' के निरसन के लिए रखे गए संकल्प का समर्थन किया। उन्होंने इस एक्ट के अलोकतांत्रिक प्रावधानों की आलोचना की जिनके अंतर्गत कोई भी भारतीय वैध लाइसेंस के बिना हथियार रख या ले नहीं जा सकता था। कांग्रेस के चौथे सत्र में बिपिन चन्द्र ने देश की औद्योगिक स्थिति और तकनीकी शिक्षा की स्थिति की पड़ताल के लिए आयोग गठित करने के संदर्भ में रखे गए संकल्प का समर्थन किया।
1898 में बिपिन चन्द्र 'ब्रिटिश एंड फारेन यूनिटेरियन एसोसिएशन' द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति पर धर्मशास्त्रीय अध्ययन हेतु इंग्लैण्ड गए। लेकिन उन्होंने एक वर्ष के बाद छात्रवृत्ति लेना छोड़ दिया और हिन्दू दर्शन पर व्याख्यान देना तथा भारत की आजादी की खातिर कार्य करना शुरू कर दिया। 1900 में वे देशभक्ति की भावना के उत्साह के साथ भारत आए तथा देश की आजादी के आन्दोलन में कूद पड़े। अपनी साप्ताहिक पत्रिका "न्यू इंडिया" (1901) के माध्यम से उन्होंने पंथनिरपेक्षता, तर्कवाद और राष्ट्रवाद की वकालत की। 1906 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन किए जाने के एक वर्ष के बाद बिपिन चन्द्र ने राष्ट्रवादी दैनिक पत्र 'वंदे मातरम्' शुरू किया। 1907 में बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश और मद्रास के अपने यादगार प्रचार दौरे के दौरान बिपिन चन्द्र ने असहयोग के सिद्धांतों, अंग्रेजी पुस्तकों के बहिष्कार, देश पर काबिज विदेशी सरकार के साथ सभी प्रकार के संबंध को तोड़ने और राष्ट्रीय शिक्षा की ओजस्वितापूर्ण वकालत की। ब्रिटिश सरकार अब उन्हें अपना शत्रु मानने लगी थी। कथित वन्दे मातरम् राजद्रोह मामले में अरविंद घोष के विरुद्ध गवाही देने से इंकार करने पर उन्हें छह माह के लिए जेल में बंद कर दिया गया। जेल से बाहर आने पर वह बलात् निर्वासन (अगस्त, 1908) की अवधि काटने के लिये तुरंत ही इंग्लैण्ड चले गए।
इंग्लैण्ड में अपने तीन वर्ष के प्रवास (1908-11 ) के दौरान बिपिन चन्द्र ने एक नए राजनीतिक चिन्तन का विकास किया जिसे उन्होंने 'साम्राज्य-दृष्टिकोण' (एम्पायर-आइडिया ) का नाम दिया। उन्होंने एक संघ (फेडरल यूनियन) के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के पुनर्निर्माण की बात कही जिसमें भारत, ब्रिटेन और सभी स्वशासित ब्रिटिश उपनिवेशों को समान और स्वतंत्र सहभागी के रूप में एक दूसरे का सहयोग करना था। वापस भारत आने पर उन्होंने एक मासिक पत्रिका ( जर्नल) 'दि हिन्दू रिव्यू' (1913) निकालनी शुरू की तथा अपने इस विचार को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। उसके बाद वह श्रीमती एनी बेसेंट और बाल गंगाधर तिलक के होम रूल आंदोलन से जुड़ गए।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात्, संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष भारत की राजनीतिक मांगों को रखने के लिए तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में उन्होंने तीसरी बार इंग्लैण्ड का दौरा किया। रूस की बोल्शेविक क्रांति (1917) से भी वह काफी प्रभावित हुए तथा उन्होंने इसे एक नए विश्व का जन्म बताया। 1919 में वह भारत लौटे तथा 1921 में उन्होंने बरिसाल में आयोजित बंगाल प्रांतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। हालांकि गांधीजी और अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ अपने मतभेद के कारण उन्होंने सक्रिय राजनीति से व्यावहारिक रूप से अपने आपको अलग कर लिया, फिर भी 20 मई 1932 को अपने निधन तक पुस्तकों और लेखों के माध्यम से वह अपने विचार व्यक्त करते रहे ।
अरविन्द घोष द्वारा बिपिन चन्द्र को राष्ट्रवाद का सबसे प्रबल समर्थक कहना ठीक ही है। कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज को अपना लक्ष्य बनाने से काफी पहले ही उन्होंने पूर्ण स्वराज की विचारधारा को निडर होकर पुरजोर रूप से उठाया था। उन्होंने 1921 के अपने बरिसाल भाषण में स्पष्ट रूप से कहा था कि वह भारत को इंग्लैण्ड, फ्रांस या जापान की तरह एक केंद्रीकृत वर्गशासित राज्य के रूप में विकसित होते नहीं देखना चाहते थे । वह संघीय भारतीय गणतंत्र के पक्षधर थे जिसमें प्रत्येक प्रांत ( भाषाई आधार पर पुनर्गठित ), प्रत्येक जिला और यहां तक कि प्रत्येक गांव, स्थानीय स्वायत्तता का भरपूर उपयोग कर पाता ।
राजनीति के अतिरिक्त बिपिन चन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा ने सामाजिक, राजनीतिक और मीमांसात्मक दर्शनशास्त्र, साहित्य और साहित्यिक आलोचना, तुलनात्मक धर्म-समालोचना, सामाजिक इतिहास, आत्मकथा एवं जीवनीपरक-रेखाचित्र जैसी मानवीय ज्ञान की कई शाखाओं में मौलिक योगदान दिया । बिपिन पाल के संदर्भ में 'लेखनी तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है' की उक्ति कदाचित सत्य है जिनके बंगला और अंग्रेजी में लिखे लेख और भाषण इन भाषाओं पर उनके अधिकार के साथ-साथ उनकी विद्वता और मुक्त एवं सहज अभिव्यक्ति के जीवंत प्रमाण हैं।
उन्होंने बंगाल वैष्णववाद के दर्शनशास्त्र के संबंध में लिखते हुए भारतीय संस्कृति के मूलभूत पहलुओं के कुछ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और आधुनिक भारत के कुछ निर्माताओं, जैसे राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, आशुतोष मुखर्जी और एनी बेसेंट के जीवन-वृत्तों पर एक अध्ययनात्मक लेखमाला लिखी। उन्होंने बंगला भाषा में रानी विक्टोरिया की एक जीवनी और अपनी आत्मकथा, मैमोरीज ऑफ माई लाईफ एण्ड टाईम्स (1932) भी प्रकाशित की।
उनकी स्वतंत्र चेतना ने उन्हें अपने जीवन में बहुत पहले से ही सामाजिक बुराईयों और कुप्रथाओं का 'ब्रह्मसमाज' के झंडे तले विरोध करने के लिए प्रेरित किया। वे जाति प्रथा के विरुद्ध थे और उन्होंने एक विधवा से अंतर-जातीय विवाह करके अपनी इस धारणा की सच्चाई का प्रदर्शन किया। उन्होंने एक विधवा से विवाह किया था जो उस समय दुर्लभ बात थी। इसके लिए उन्हें अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ा। लेकिन धुन के पक्के पाल ने दबावों के बावजूद कोई समझौता नहीं किया। किसी के विचारों से असहमत होने पर वह उसे व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते थे। यहाँ तक कि सहमत नहीं होने पर उन्होंने महात्मा गाँधी के कुछ विचारों का भी विरोध किया था।[3]
केशवचंद्र सेन, शिवनाथ शास्त्री जैसे नेताओं से प्रभावित पाल को अरविन्द के खिलाफ गवाही देने से इंकार करने पर छह महीने की सजा हुई थी। इसके बाद भी उन्होंने गवाही देने से इंकार कर दिया था।
वह ऐसे पहले व्यक्ति थे जिसने गांधी या उनके 'गांधी पंथ' की आलोचना करने का साहस किया था। इसी कारण पाल ने १९२० में गांधी के असहयोग आंदोलन का भी विरोध किया। गांधी जी के प्रति उनकी आलोचना की शुरुआत गांधी जी के भारत आगमन से ही हो गई थी जो १९२१ के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में भी दिखी जब उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधी जी की "तार्किक" की बजाय "जादुई विचारों" की आलोचना करने लगे।
'एज ऑफ कंसेन्ट बिल' ( 1891 ) को अपना पूरा समर्थन देते हुए उन्होंने सामाजिक रूढ़िवादियों को पूरी तरह अलग-थलग होने पर बाध्य कर दिया। गरीबों और पददलितों के प्रति मन में उठी चिंता के कारण 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उन्होंने असम चाय बागान श्रमिकों के अभियान का नेतृत्व किया। अपनी पुस्तक 'द न्यू इकॉनमिक मीनेस ऑफ इंडिया' में उन्होंने भारतीय श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि और काम के घंटों में कमी करने की मांग की थी। उन्होंने न केवल श्रमिक क्षेत्र की बंगला पत्रिका 'संहति' का नामकरण किया अपितु इसके लिए अपनी लेखनी द्वारा भी सहयोग दिया। उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली को पूर्णतः राष्ट्रीय पद्धति पर पुनर्गठित करने की जोरदार पैरवी की। उन्होंने बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा हेतु चलाए जा रहे आन्दोलन में भाग लिया और प्रारंभ से ही राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् से जुड़े रहे थे।
वक्तृत्व कला के धनी बिपिन चन्द्र कदाचित् इस बात के अनूठे उदाहरण थे कि किस प्रकार मानव स्वर हजारों लोगों की उपस्थिति वाली सभाओं में मुखरता से गूंज सकता है। उनके पास वह अनूठा कौशल और गरजदार आवाज थी जो उन दिनों, जबकि ध्वनि का परिवर्द्धन करने वाले यंत्र मौजूद नहीं थे, में भी मात्र वक्तृत्व कला से भारी भीड़ को सम्मोहित करने की शक्ति रखती थी।
अपनी श्रेष्ठता के कारण बिपिन चन्द्र ने उन असाधारण नेताओं की पंक्ति में अपना एक चिरस्थायी स्थान बना लिया है जिन्होंने सामाजिक और राजनैतिक आजादी के संग्राम के दौरान भारत में प्रगतिशील विचारों के प्रसार और आन्दोलनों में अपना अमूल्य योगदान दिया था ।
उन्होंने स्वैच्छिक रूप से १९२० में राजनीति से संन्यास ले लिया, हालांकि राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार जीवनभर अभिव्यक्त करते रहे। स्वतन्त्र भारत के स्वप्न को अपने मन में लिए वह २० मई १९३२ को स्वर्ग सिधार गए।
पाल की कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं [1]:
विपिनचन्द्रपाल ने लेखक और पत्रकार के रूप में बहुत समय तक कार्य किया। १८८६ में उन्होने सिलहट से निकलने वाले 'परिदर्शक' नामक साप्ताहिक में कार्य आरम्भ किया। उनकी कुछ प्रमुख पत्रिकाएं इस प्रकार हैं[1]:
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