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प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक। विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
अवन्ति प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में से एक था।[1] आधुनिक मालवा ही प्राचीन काल की अवन्ति था, जिसके दो भाग थे। उत्तरी अवन्ति जिसकी राजधानी उज्जयिनी (अवंती) थी तथा दक्षिणी अवन्ति जिसकी राजधानी महिष्मती थी। इन दोनों क्षेत्रों के बीच नेत्रावती नदी बहती थी। उज्जयिनी की पहचान मध्यप्रदेश के वर्तमान उज्जैन नगर से की जा सकती हैं।[2] प्राचीन काल में यहाँ हैहय राजवंश का शासन था। महावीर स्वामी तथा गौतम बुद्ध के समकालीन यहाँ के शासक प्रद्योत या चंड प्रद्योत था। इसके प्रमुख नगर कुरारगढ, मक्करगढ एव सुदर्शनपुर थे। पुराणों के ग्रंथ आभीरों को अवंती से जोड़ते हैं।[3]
इसका उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। अंवतिनरेश ने युद्ध में कौरवों की सहायता की थी। पौराणिक हैहयों ने उसी जनपद की दक्षिणी राजधानी माहिष्मती (मांधाता) में राज किया था। सहस्रबाहु अर्जुन वहीं का राजा बताया जाता है। बुद्ध के जीवनकाल में अवंती विशाल राज्य बन गया और वहाँ प्रद्योतों का कुल राज करने लगा। उस कुल का सबसे शक्तिमान् राजा चंड प्रद्योत महासेन था जिसने पहले तो वत्स के राजा उदयन को कपटगज द्वारा बंदी कर लिया, पर जिसकी कन्या वासवदत्ता का उदयन ने हरण किया। अवंती ने वत्स को जीत लिया था, पंरतु बाद उसे स्वयं मगध की बढ़ती सीमाओं में समा जाना पड़ा। बिंदुसार और अशोक के समय अवंती साम्राज्य का प्रधान मध्यवर्ती प्रांत था जिसकी राजधानी उज्जयिनी में मगध का प्रांतीय शासक रहता था। अशोक स्वयं वहाँ अपनी कुमारावस्था में रह चुका था। उसी जनपद में विदिशा में शुंगों की भी एक राजधानी थी जहाँ सेनापति पुष्यमित्र शुंग का पुत्र राजा अग्निमित्र शासन करता था। जब मालव संभवत: सिकंदर और चंद्रगुप्त की चोटों से रावी के तट से उखड़कर जयपुर की राह दक्षिण की ओर चले थे, तब अंत में अनुमानत: शकों को हराकर अवंती में ही बस गए थे और उन्हीं के नाम से बाद में अवंती का नाम मालवा पड़ा।
प्राचीन संस्कृत साहित्य तथा पाली साहित्य में अवन्ति या उज्जयिनी का सैंकड़ों बार उल्लेख हुआ है। महाभारत में सहदेव द्वारा अवन्ति को विजित करने का वर्णन है। बौद्ध काल में अवन्ति उत्तरभारत के शोडश महाजनपदों में से थी जिनकी सूची अंगुत्तरनिकाय में हैं। जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में इसी जनपद को "मालव" कहा गया है। इस जनपद में स्थूल रूप से वर्तमान मालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश का बीच का भाग सम्मिलित था।
बुद्ध के समय अवन्ति का राजा प्रद्योत वंश का चंडप्रद्योत था। इसकी पुत्री वासवदत्ता से वत्स नरेश उदयन ने विवाह किया था जिसका उल्लेख भास रचित 'स्वप्नवासवदत्ता' नामक नाटक में है। वासवदत्ता को अवन्ती से सम्बंधित मानते हुए एक स्थान पर इस नाटक में कहा गया है-
हम! अतिसद्दशी खल्वियमार्याय अवंतिकाया:
चतुर्थ शती ई.पू. में अवन्ती जनपद मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी मगध साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। इससे पूर्व मगध और अवन्ती का संघर्ष पर्याप्त समय तक चलता रहा था जिसकी सूचना हमें परिशिष्टपर्वन से मिलती है। 'कथासरित्सागर' से यह ज्ञात होता है कि अवन्तीराज चंडप्रद्योत के पुत्र पालक ने कौशाम्बी को अपने राज्य में मिला लिया था।
विष्णु पुराण से विदित होता है कि संभवत: गुप्त काल से पूर्व अवन्ती पर आभीर आधिपत्य था-
सौराष्ट्रावन्ति…विषयांश्च--आभीर शूद्राद्या भोक्ष्यन्ते
ऐतिहासिक साहित्य हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में 57 ई. पू. में विक्रम संवत के संस्थापक उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था।
चौथी शती ईस्वी में गुप्त काल के सम्राट समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवन्ति को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फैंका।
गुप्तकालीन कालिदास ने उज्जयिनी का यह वर्णन किया है-
वक्र: पंथा यदपि भवत: प्रस्थिस्योत्तराशां, सौधोत्संगप्रणयविमुखोमास्म भूरुज्जयिन्या:
इसके साथ ही कालिदास ने अवन्ती का भी उल्लेख किया है-
प्राप्यावन्तीमुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान्
इससे संभवत: यह जान पड़ता है कि कालिदास के समय में अवन्ती उस जनपद का नाम था, जिसकी मुख्य नगरी उज्जयिनी थी।
चीनी यात्री युवानच्वांग के यात्रावृत से ज्ञात होता है कि अवन्ति या उज्जयिनी का राज्य उस समय (615–630 ई.) मालव राज्य से अलग था और वहाँ एक स्वतन्त्र राजा का शासन था।
शंकराचार्य के समकालीन और शिष्य अवन्ती-नरेश चक्रवर्ती सम्राट सुधन्वा थे, जिन्होंने उज्जयिनी को राजधानी बना कर शासन किया था।
9 वीं व 14 वीं शतियों में उज्जयिनी में परमार वंशका शासन रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धारा नगरी में अपनी राजधानी बनाई। मध्यकाल में इस नगरी को मुख्यत: उज्जैन ही कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है।
दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन को बुरी तरह से लूटा और यहाँ के महाकाल के अति प्राचीन मन्दिर को नष्ट कर दिया। अगले प्राय: पाँच सौ वर्षों तक उज्जैन पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा।
18वीं शताब्दी में मराठाओं ने बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मालवा को अपने साम्राज्य में मिला लिया। मालवा में मुस्लिम शासन हमेशा के लिए समाप्त हो गया और मराठा सिंधिया नरेशों के तहत फिर से हिंदू शासन यहाँ स्थापित हुआ और 1810 ई. तक उज्जैन उनकी राजधानी रही। इस वर्ष सिंधिया ने उज्जैन से हटा कर राजधानी ग्वालियर में बनाई। मराठों के राज्यकाल में उज्जैन के कुछ प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया गया था। इनमें महाकाल का मन्दिर भी है।
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