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पृथ्वीराज रासो
मध्यकालीन भारतीय महाकाव्य / From Wikipedia, the free encyclopedia
पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा एक महाकाव्य है जिसमें सम्राट पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता चंदबरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे। 1165 से 1192 के बीच पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था। पृथ्वीराज रासो और पृथ्वीराज काव्य के अनुसार पृथ्वीराज का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था[1][2] थे[2][1][1] , इन 15 + विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने रासो और अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों का अध्ययन करके पृथ्वीराज चौहान को एक क्षत्रिय बताया है[1][2] [1] ,इसकी तमाम जानकारी भारतीय सरकार के वेबसाइट पे है[1]।
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![]() नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित पृथ्वीराज रासो संस्करण का कवर | |
कवि | चाँद बरदाई |
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भाषा | ब्रजभाषा |
विधा | महाकाव्य कविता |
ऑनलाइन पढ़ें | विकीस्रोत पर |
"पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है, जिसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छन्दों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं - कवित्त (छप्पय), दूहा (दोहा), तोमर गोत्र (त)[1],त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादम्बरी के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट राव के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही पृथ्वीराजरासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण भट्ट राव द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों के उपरान्त चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है -
- पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
- रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।
- पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि॥ "[3]
पृथ्वीराज रासो में दिए हुए संवतों का अनेक स्थानों पर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मेल न खाने के कारण अनेक विद्वान पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं।[4] इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है, कुल ३ प्रतियाँ है। रचना के अन्त मे पृथ्वीराज द्वारा शब्द-भेदी बाण चला कर ग़ोरी को मारने की बात भी की गयी है।