कार्बन-१४ द्वारा कालनिर्धारण
From Wikipedia, the free encyclopedia
कार्बन-१४ द्वारा कालनिर्धारण की विधि (अंग्रेज़ी:कार्बन-१४ डेटिंग) का प्रयोग पुरातत्व-जीव विज्ञान में जंतुओं एवं पौधों के प्राप्त अवशेषों के आधार पर जीवन काल, समय चक्र का निर्धारण करने में किया जाता है। इसमें कार्बन-१२ एवं कार्बन-१४ के मध्य अनुपात निकाला जाता है।[4] कार्बन के दो स्थिर अरेडियोधर्मी समस्थानिक: कार्बन-१२ (12C) और कार्बन-१३ (१३C) होते हैं। इनके अलावा एक अस्थिर रेडियोधर्मी समस्थानिक (१३C) के अंश भी पृथ्वी पर मिलते हैं।[5] अर्थात कार्बन-१४ का एक निर्धारित मात्रा का नमूना ५७३० वर्षों के बाद आधी मात्रा का हो जाता है। ऐसा रेडियोधर्मिता क्षय के कारण होता है। इस कारण से कार्बन-१४ पृथ्वी से बहुत समय पूर्व समाप्त हो चुका होता, यदि सूर्य की कॉर्मिक किरणों के पृथ्वी के वातावरण की नाइट्रोजन पर प्रभाव से और उत्पादन न हुआ होता। ब्रह्माण्डीय किरणों से प्राप्त न्यूट्रॉन नाइट्रोजन अणुओं (N२) से निम्न परमाणु प्रतिक्रिया करते हैं:
कार्बन-१४ के उत्पादन की अधिकतम दर ९-१५ कि.मी. (३०,००० से ५०,००० फीट) की भू-चुम्बकीय ऊंचाइयों पर होती है; किन्तु कार्बन-१४ पूरे वातावरण में समान दर से फैलता है और ऑक्सीजन के अणुओं से प्रतिक्रिया कर कार्बन डाईआक्साइड बनाता है। यह कार्बन डाईआक्साइड सागर के जल में भि घुल कर फैल जाती है। पौधे वातावरण की कार्बन डाईआक्साइड को प्रकाश-संश्लेषण द्वारा प्रयोग करते हैं, एवं उनका सेवन कर पाचन के बाद जंतु इसे निष्कासित करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जीवित प्राणी लगातार कार्बन-१४ को वातावरण से लेन-देन करता रहता है, जब तक वो जीवित रहता है। उसके जीवन के बाद ये अदला-बदली समाप्त हो जाती है। इसके बाद कार्बन-१४ की शरीर में शेष मात्रा का रेडियोधर्मी बीटा क्षय के द्वारा ह्रास होने लगता है। इस ह्रास की दर अर्ध आयु काल यानि ५,७३०±४० वर्ष में आधी मात्रा होती है।
कार्बन १४ की खोज २७ फरवरी, १९४० में मार्टिन कैमेन और सैम रुबेन ने कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय रेडियेशन प्रयोगशाला, बर्कले में की थी। जब कार्बन का अंश पृथ्वी में दब जाता है तब कार्बन-१४ (१४C) का रेडियोधर्मिता के कारण ह्रास होता रहता है। पर कार्बन के दूसरे समस्थाकनिकों का वायुमंडल से संपर्क विच्छे१द और कार्बन डाईआक्साइड न बनने के कारण उनके आपस के अनुपात में अंतर हो जाता है। पृथ्वी में दबे कार्बन में उसके समस्थानिकों का अनुपात जानकर उसके दबने की आयु का पता लगभग शताब्दी में कर सकते हैं।[6]
कार्बनकाल विधि के माध्यम से तिथि निर्धारण होने पर इतिहास एवं वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी होने में सहायता मिलती है। यह विधि कई कारणों से विवादों में रही है वैज्ञानिकों के अनुसार रेडियोकॉर्बन का जितनी तेजी से क्षय होता है, उससे २७ से २८ प्रतिशत ज्यादा इसका निर्माण होता है। जिससे संतुलन की अवस्था प्राप्त होना मुश्किल है। ऐसा माना जाता है कि प्राणियों की मृत्यु के बाद भी वे कार्बन का अवशोषण करते हैं और अस्थिर रेडियोधर्मी-तत्व का धीरे-धीरे क्षय होता है। पुरातात्विक नमूने में उपस्थित कॉर्बन-१४ के आधार पर उसकी डेट की गणना करते हैं। ३५६ ई. में भूमध्य सागर के तट पर आये विनाशाकारी सूनामी की तिथि निर्धारण वैज्ञानिकों ने कार्बन डेटिंग द्वारा ही की है।[7]
रेडियोकार्बन डेटिंग तकनीक का आविष्कार १९४९ में शिकागो विश्वविद्यालय के विलियर्ड लिबी और उनके साथियों ने किया था। १९६० में उन्हें इस कार्य के लिए रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने कार्बन डेटिंग के माध्यम से पहली बार लकड़ी की आयु पता की थी। वर्ष २००४ में यूमेआ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों कोस्वीडन के दलारना प्रांत की फुलु पहाड़ियों में लगभग दस हजार वर्ष पुराना देवदार का एक पेड़ मिला है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह विश्व का सबसे पुराना वृक्ष है। कार्बन डेटिंग पद्धति से गणना के बाद वैज्ञानिकों ने इसे धरती का सबसे पुराना पेड़ कहा है।[8] इसके अलावा कार्बन-१४ डेटिंग का प्रयोग अनेक क्श्जेत्रों में काल-निर्धारण के लिए किया जाता है।[9] व्हिस्की कितनी पुरानी है, इसके लिए भी यह विधि कारगर एवं प्रयोगनीय रही है। आक्सफोर्ड रेडियो कार्बन एसीलरेटर के उप निदेशक टाम हाइहम के अनुसार १९५० के दशक में हुए परमाणु परीक्षण से निकले रेडियोसक्रिय पदार्थो की मौजूदगी के आधार पर व्हिस्की बनने का समय जाना जा सकता है।[10]