शल्य माद्रा (मद्रदेश) के राजा थे महाराज पांडु इनके बहनोई थे | और नकुलसहदेव के मामा थे।[1] महाभारत में दुर्योधन ने उन्हे छल द्वारा अपनी ओर से युद्ध करने के लिए राजी कर लिया। उन्होने कर्ण का सारथी बनना स्वीकार किया और कर्ण की मृत्यु के पश्चात युद्ध के अंतिम दिन कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन युधिष्ठिर के हाथों मारे गए। इनकी बहन माद्री, कुंती की सौत थीं और पाण्डु के शव के साथ चिता पर जीवित सती हो गई थीं।

कर्ण का सारथी बनते समय शल्य ने यह शर्त दुर्योधन के सम्मुख रखी थी कि उसे स्वेच्छा से बोलने की छूट रहेगी, चाहे वह कर्ण को भला लगे या बुरा। वे कर्ण के सारथी तो बन गये किन्तु उन्होने युधिष्ठिर को यह भी वचन दे दिया कि वे कर्ण को सदा हतोत्साहित करते रहेंगे। (मनोवैज्ञानिक युद्ध) दूसरी तरफ कर्ण भी बड़ा दम्भी था। जब भी कर्ण आत्मप्रशंसा करना आरम्भ करता, शल्य उसका उपहास करते और उसे हतोत्साहित करने का प्रयत्न करते। शल्य ने एक बार कर्ण को यह कथा सुनाई-

एक बार वैश्य परिवार की जूठन पर पलने वाला एक गर्वीला कौआ राजहंसों को अपने सम्मुख कुछ समझता ही नहीं था। एक बार एक हंस से उसने उड़ने की होड़ लगायी और बोला कि वह सौ प्रकार से उड़ना जानता है। होड़ में लंबी उड़ान लेते हुए वह थक कर महासागर में गिर गया। राजहंस ने प्राणों की भीख मांगते हुए कौए को सागर से बाहर निकाल अपनी पीठ पर लादकर उसके देश तक पहुंचा दिया। शल्य बोला-'इसी प्रकार कर्ण, तुम भी कौरवों की भीख पर पलकर घंमडी होते जा रहे हो।' कर्ण बहुत रुष्ट हुआ, पर युद्ध पूर्ववत चलता रहा।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

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