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भारतीय स्थापत्य कला विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
वेसर शैली भारतीय हिन्दू स्थापत्य कला की तीन में से एक शैली है। नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर या बेसर शैली की संज्ञा दी गई है। यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है।[1] इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं।
मध्यभारत तथा कर्णाटक के मन्दिरों में प्रायः उत्तरी तथा द्रविड दोनों ही शैलियों का सम्मिलित स्वरूप मिलता है। कर्णाटक के चालुक्य मंन्दिर और गोंडवाना तथा कौशल के राजगोंड मंदिर वेसर शैली के माने जाते हैं। चालुक्यों और राजगोंडो ने मिश्रित वेसर शैली को प्रोत्साहन दिया था। इन मन्दिरों का रूप कुछ विशिष्ट ही होता है।[2]
नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं। बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं। बेसर शैली के मंदिरों का आकार आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्ध गोलाकार होता है। बेसर शैली का उदाहरण है- वृंदावन का वैष्णव मंदिर जिसमें गोपुरम बनाया गया है। गोंडवाना काल में भी अधिकतर बेसर शैली का ही उपयोग हुआ है। गुप्त काल के बाद देश में स्थापत्य को लेकर क्षेत्रीय शैलियों के विकास में एक नया मोड़ आता है। इस काल में ओडिशा, गुजरात, राजस्थान एवं बुंदेलखंड का स्थापत्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। इन स्थानों में 8वीं से 13वीं सदी तक महत्त्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण हुआ। इसी दौर में दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूटकालीन और चोलयुगीन स्थापत्य अपने वैशिष्ट्य के साथ सामने आया।
विमान शिखर छोटा, फ़ैले कलश, मूर्तियों का आधिक्य, अलंकरण परम्परा का बाहुल्य ही इनकी विशेषता है। अधिकांशतः दक्खिन में मिलने वाले इन मन्दिरों के शिल्प को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने का प्रयास चालुक्यों और होयसालों ने सर्वाधिक किया है।
अन्य शैलियाँ हैं:
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