रीति संप्रदाय
From Wikipedia, the free encyclopedia
रीति सम्प्रदाय आचार्य वामन (९वीं शती) द्वारा प्रवर्तित एक काव्य-सम्प्रदाय है जो रीति को काव्य की आत्मा मानता है।[1] यद्यपि संस्कृत काव्यशास्त्र में 'रीति' एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है। लक्षणग्रंथों में प्रयुक्त 'रीति' शब्द का अर्थ ढंग, शैली, प्रकार, मार्ग तथा प्रणाली है। 'काव्य रीति' से अभिप्राय मोटे तौर पर काव्य रचना की शैली से है। रीतितत्व काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। ‘रीति’ शब्द ‘रीड’ धातु से ‘क्ति’ प्रत्यय मिला देने पर बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ प्रगति, पद्धति, प्रणाली या मार्ग है। परन्तु वर्तमान समय में ‘शैली’ (स्टाइल) के समानार्थी के रूप में यह अधिक समादृत है।
आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में 'रीति' को काव्य की आत्मा घोषित किया है। उनके अनुसार 'पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है' (विशिष्टपदरचना रीतिः)। वामन के मत में रीति काव्य की आत्मा है (रीतिरात्मा काव्यस्य)। उनके अनुसार विशिष्ट पद-रचना, रीति है और गुण उसके विशिष्ट आत्मरूप धर्म है।
- विशिष्ट पदरचना रितिः।
विशिष्ट शब्द को स्पष्ट करते हुये वे कहते हैं -
- विशेषो गुणात्मा।
वामन ने गुण को विशेष महत्व दिया है। रीति काव्य की आत्मा है और गुण रीति के कारणभूत वैशिष्ट्य की आत्मा है।
डॉ नगेन्द्र अपनी पुस्तक ’रीति काव्य की भूमिका’ में लिखते हैं कि-
- रीति शब्द और अर्थ के आश्रित रचना चमत्कार का नाम है जो माधुर,य ओज और प्रसाद गुणों के द्वारा चित्र को द्रवित, दीप्त और परिव्याप्त करती हुयी रस दशा तक पहुँचाती है।
काव्य में रीति का विशेष महत्त्व है। रीति के अन्य परिभाषाकार कहते है कि काव्य में रीति पदों के संगठन से रस को प्रकाशित करने में सहायक होती है। इस प्रकार रीति का काव्य में वही स्थान है जो शरीर में आंगिक संगठन का है। जिस प्रकार अवयवो का उचित सन्निवेश शरीर के सौन्दर्य को बढाता है, शरीर को उपकृत करता है उसी प्रकार वर्णों का यथास्थान प्रयोग शब्द रूपी शरीर और अर्थ रूपी आत्मा के लिए विशेष उपकारक है।
आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद तय किये हैं– वैदर्भी रीति, गौडी रीति, पाञ्चाली रीति। आचार्य दण्डी केवल दो ही भेद मानते हैं, वे पाञ्चाली का समर्थन नहीं करते। दण्डी, 'रीति' के स्थान पर 'मार्ग' शब्द का प्रयोग करते हैं। परवर्ती आचार्यो ने रीति के तीन से भी अधिक भेद स्थापित किये हैं। लाट देश में प्रयुक्त होने वाली एक ‘लाटी’ रीति का प्रादुर्भाव हुआ। बाद में भोज ने ‘मालवी’ और ‘अवन्तिका’ नामक दो अन्य रीतियों का अविष्कार किया। आचार्य विश्वनाथ रीति को काव्य का उपकारक मानते हैं। 'वक्रोक्तिजीवित' के लेखक कुन्तक ने रीति का खुलकर विरोध किया, आचार्य मम्मट उनके समर्थन में आये और रीति को वृत्तियों से जोड़ने की बात की। राजशेखर ने रीति को काव्य का 'बाह्य तत्व' बताया। उनके अनुसार, – ‘वाक्यविन्यासक्रमो रीतिः’। किन्तु यह सब विरोध विद्वानों की आम सहमति नहीं पा सका और वामन के रीति सम्बन्धी विचारों को मान्यता मिली।