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रानी रासमणि ( 28 सितंबर - 19 फ़रवरी, 1861) बंगाल में, नवजागरण काल की एक महान नारी थीं। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता, एवं कोलकाता के जानबाजार की जनहितैषी ज़मीनदार के रूप में प्रसिद्ध थीं। वे दक्षिणेश्वर काली मंदिर की संस्थापिका थीं, एवं नवजागरण काल के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं धर्मगुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मुख्य पृष्ठपोषिका भी हुआ करती थी। प्रचलित लोककथा के अनुसार, उन्हें एक स्वप्न में हिन्दू देवी काली ने भवतारिणी रूप में दर्शन दिया था, जिसके बाद, उन्होंने उत्तर कोलकाता में, हुगली नदी के किनारे देवी भवतारिणी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
रानी रासमणि রানী রাসমণি | |
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कोलकाता के कर्ज़न पार्क में रानी रासमणि की प्रतिमा, उनको "रानीमाँ" कह कर संबोधित किया गया है, और नीचे उन्हें "लोकमाता रानी रासमणि" कहा गया है। | |
जन्म |
28 सितंबर, हालीशहर, ब्रिटिश भारत |
मौत |
19 फ़रवरी, 1861 |
जाति | बंगाली |
प्रसिद्धि का कारण | सामाजिक कार्यकर्ता, जनबाज़ार की जमीनदार, दक्षिणेश्वर मंदिर की संस्थापिका |
धर्म | हिन्दू |
रानी रासमणि ने अपने विभिन्न जनहितैषी कार्यों के माध्यम से प्रसिद्धि अर्जित की थी। उन्होंने तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु, कलकत्ता से पूर्व पश्चिम की ओर स्थित, सुवर्णरेखा नदी से जगन्नाथ पुरी तक एक सड़क का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, कलकत्ता के निवासियों के लिए, गङ्गास्नान की सुविधा हेतु उन्होंने केन्द्रीय और उत्तर कलकत्ता में हुगली के किनारे बाबुघट, अहेरिटोला घाट और नीमताल घाट का निर्माण करवाया था, जो आज भी कोलकाता के सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण घाटों में से एक हैं। तथा उन्होंने, स्थापना के दौर में, इम्पीरियल लाइब्रेरी (वर्त्तमान भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता) एवं हिन्दू कॉलेज (वर्त्तमान प्रेसिडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता) वित्तीय सहायता प्रदान किया था।[1]
रानी रासमणि को अक्सर लोकसंस्कृति में सम्मानजनक रूपसे "लोकमाता" कहा जाता है।
रानी रासमणि का जन्म २६ सितंबर १७९३ में, वर्तमान उत्तर चौबीस परगना जिला के हालीशहर के कोना ग्राम के एक कृषिजीवी परिवारमें हुआ था।[2] अपने यौवनकाल में वे असामान्य सुन्दरी हुआ करती थीं। मात्र ११ वर्ष की आयुमें उनका विवाह, कोलकाता के जनबाज़ार के धनी माहिष्य ज़मीन्दार बाबू रामचन्द्र दस के संग करवा दिया गया।
पति की मृत्यु के पश्चात, उन्होंने उनकी जमीन्दारी का सारा भार अपने ऊपर उठा लिया एवं अत्यंत दक्षता के साथ अपने अपने दायित्वों का परिचालन शुरू कर दिया। व्यक्तिगत तौरपर, रानी रासमणि, किसी सामान्य धर्मिक बंगाली हिन्दू विधवा के समान सरलतापूर्वक जीवनयापन किया करती थीं। जमीन्दारी की बागडोर संभाली के बाद, उन्होंने सामाजिक एवं लोक कल्याणकारी योजनाओं में कार्य करना शुरू किया, जिसके कारण लोगों में ज़मींदारी के प्रति समर्थन काफी बढ़ गया।
रानी रासमणि की, तत्कालीन ब्रिटिश शासन के साथ भी कई बार टकराव हुआ करते थे, और उनके समय, रानी और ब्रिटिश सरकार के बीच भिड़न्त के क़िस्से जान सामान्य में काफी प्रचलित हुआ करते थे। जब ब्रिटिश शासन ने उस समय गंगा नदी में मश्ली लगाने पर कर लागू किया था, तब उसके विरोध में रानी रासमणि ने हुगली नदी के एक हिस्से पर अवरोध लगा कर हुगली के महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर रोक लगा दी थी, जिसके कारण अंततः ब्रिटिश सरकार को उस कर को वापस लेना पड़ा था। रानी के पास, उन गरीब मछुआरों का समर्थन था, जिनकी जीवनयापन पर इस कर के कारण खतरा आ गया था। एक बार, सरकार ने उनके घर की दुर्गा पूजा की विसर्जन यात्रा पर रोक के आदेश दे दिए थे, इस आधार पर की इससे नगर की शांति भंग होती है, मगर रानी रासमणि ने इस आदेश की अवहेलना की तजि, जिसके जवाब में सरकार ने उनपर भारी जुर्माना लगाया, मगर जनसामान्य में उनके लिए समर्थन के कारण उठे विरोध और हिंसा के कारण सरकार को इस जुर्माने को वापस लेना पड़ा था।
रानी रासमणि ने अपने विभिन्न लोक सेवा कार्यों के माध्यम से प्रसिद्धि अर्जित की थी और अपनी जनहितैषी ज़मीन्दार की छवि तैयार की थी। उन्होंने तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु, कलकत्ता से पश्चिम की ओर स्थित, सुवर्णरेखा नदी से पुरी तक एक सड़क का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, कलकत्ता के निवासियों के लिए, गङ्गास्नान की सुविधा हेतु उन्होंने केन्द्रीय और उत्तर कलकत्ता में हुगली के किनारे बाबुघट, अहेरिटोला घाट और नीमताल घाट का निर्माण करवाया था, जो आज भी कोलकाता के सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण घाटों में से एक हैं। तथा उन्होंने, स्थापना के दौर में, इम्पीरियल लाइब्रेरी (वर्त्तमान भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता) एवं हिन्दू कॉलेज (वर्त्तमान प्रेसिडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता) वित्तीय सहायता प्रदान किया था।
प्रचलित लोककथन के अनुसार, उन्हें एक स्वप्न में हिन्दू देवी काली ने भवतारिणी रूप में दर्शन दिया था, जिसके बाद, उन्होंने उत्तर कोलकाता में, हुगली नदी के किनारे देवी भवतारिणी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। जिसे आज दक्षिणेश्वर काली मंदिर के नाम से जाना जाता है। रामकुमार चट्टोपाध्याय को इस मन्दिर के प्रधानपुरोहित नियुकित किया गया, जोकि गदाधर चट्टोपाध्याय(बाद में रामकृष्ण परमहंस) के बड़े भाई थे। गदाधर चट्टोपाध्याय को बाद में अपने बड़े भाई के पद पर नियुक्त किया गया और इस मन्दिर में रहते हुए वे स्वयं स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में एक विख्यात दार्शनिक, योगसाधक और धर्मगुरु के रूप में उभरे। रानी रासमणि ने ही उन्हें प्रधानपुरोहित के पद पर नियुक्त किया था। तथा वे रामकृष्ण परमहंस की पितृपोषक भी बनीं।
अत्यंत धार्मिक और समाजसेवी प्रवृत्ति की होने के बावजूद, समाज के कुछ तापकों द्वारा, शूद्र जाति के परिवार में जन्मे होने के कारण, उनके साथ भेद भाव का व्यवहार किया जाता था। रामकृष्ण परमहंस ने अपने लेखों में उस घटना का भी ज़िक्र किया था, जब उनके शुद्र जाती में जन्मे होने के कारण कोई भी ब्राह्मण दक्षिणेश्वर मंदिर में पुरोहित बनने के लिए तैयार नही होता था।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रानी रासमणि को देवी दुर्गा के अष्टनायिकाओं में से एक माना करते थे।[3]
२१ फ़रवरी १८६१ में कलकत्ता में ६७ वर्ष की आयु में रानी रासमणि का निधन हो गया।
वर्ष १९५५ में रानी रासमणि की जीवन पर बंगला भाषा मे एक जीवनचरित्र फ़िल्म बनाई गई थी, जिसका निर्देशन कालीप्रसाद घोष ने किया था, एवं रानी रासमणि के मुख्य किरदार को मशहूर अभिनेता मोलिना देवी ने निभाया था।[4]
सम्मानजनक रूप से, रानी रासमणि को अक्सर, साहित्य, पुस्तकों, अखबारों, धार्मिक समुदाय तथा श्रद्धालुओं द्वारा और प्रचालित लोकसंस्कृति में "लोकमाता" और "रानीमाँ" जैसी उपाडियों से सम्मानित किया जाता था।
रानी रासमणि के सम्मान में कोलकाता में कई स्थानों पर उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य प्रांगण के प्रवेशद्वार पर रानी रासमणि का मन्दिर है। इसके अलावा केन्द्रीय कोलकाता के कर्ज़न पार्क में, जिसमें कोलकाता, बंगाल एवं भारत के महानतम व्यक्तित्वों की प्रतिमाएँ हैं, उसमें रानी रासमणि की भी प्रतिमा मौजूद है, जिसमें उन्हें "रानीमाँ" के नाम से संबोधित किया गया है। इसके अलावा, कोलकाता के विभिन्न क्षेत्रों में रानी रासमणि के सम्मान में अनेक सड़कों और अन्य सार्वजनिक स्थानों के नाम उनके नाम पर है:
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