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बेरोज़गारी (Unemployment) या बेकारी किसी काम करने के लिए योग्य व उपलब्ध व्यक्ति की वह अवस्था होती है जिसमें उसकी न तो किसी कम्पनी या संस्थान के साथ और न ही अपने ही किसी व्यवसाय में नियुक्ति होती है। किसी देश, राज्य या अन्य क्षेत्र में पूरे श्रम करने वाले लोगों की आबादी में बेरोज़गारों का प्रतिशत उस स्थान का बेरोज़गारी दर (unemployment rate) कहलाता है। अगर वह लोग जो बालक, वृद्ध, रोगी या अन्य किसी अवस्था के कारण अनियोज्य (unemployable)- यानि रोज़गार के लिए अयोग्य - हों काम न करें तो उन्हें बेरोज़गार की श्रेणी में नहीं गिना जाता है और न ही उनकों बेरोज़गारी दर में सम्मिलित करा जाता है।[1][2][3]
बेरोज़गारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेरोज़गारी के दो भेद हैं - असंतुलनात्मक (फ्रिक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। ऐच्छिक बेरोजगारी का प्रभाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेरोजगारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।
प्रोफेसर जे. एम. कीन्स "अनैच्छिक बेरोजगारी" को भी बेरोजगारी का भेद मानते हैं। "अनैच्छिक बेरोजगारी" की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है - 'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।' यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।
शैक्षणिक ढांचे की कमी: शैक्षणिक संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ते छात्रों की संख्या को समायोजित नहीं कर सकती है। इससे सीटों की कमी होती है, खासकर चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसे प्रतिष्ठित क्षेत्रों में।[4]
शिक्षा की खराब गुणवत्ता: मौजूदा कॉलेजों में भी अक्सर योग्य शिक्षकों और उचित बुनियादी ढांचे की कमी होती है, जिससे स्नातक अपर्याप्त कौशल के कारण बेरोजगार हो जाते हैं।[5]
सन् 1919 ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेरोजगारी अभिसमय (Unemployment convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाए। सन् 1931 ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग (Royal Commission on Labour) ने बेरोजगारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेरोजगारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का "बेरोजगारी संबंधी" समझौता सन् 1921 ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।
सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है। हम ये रोक सकते हैं।
जैसे कि किसी काम के लिए दस लोगों की अवश्यकता है परन्तु उससे ज्यादा होते हैं ऐसे अवसर में यह होता है |जेसे एक खेत में 10 लोग काम पूरा कर सकते हैं लेकिन उस खेत में उसी काम को 15 लोग कर रहे है तो वे 5 लोग फालतू मे ही काम पर लगे हुए है ्
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