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रक्तरस में पित्तरंजक (Billrubin) नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इस दशा को कामला या पीलिया (Jaundice) कहते हैं।
Jaundice, NOS वर्गीकरण एवं बाह्य साधन | |
Yellowing of the skin and conjunctiva overlying the sclera caused by Hepatitis A. | |
आईसीडी-१० | R17. |
आईसीडी-९ | 782.4 |
डिज़ीज़-डीबी | 7038 |
मेडलाइन प्लस | 003243 |
एम.ईएसएच | D007565 |
सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है।
रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थिति में, जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है।
वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता हैस, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है।
प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन 'के' का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है।
कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है।
पीलिया की चिकित्सा में इसे उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन किया जाता है जिसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती कराना आवश्यक हो जाता है। कुछ मिर्च, मसाला, तेल, घी, प्रोटीन पूर्णरूपेण बंद कर देते हैं, कुछ लोगों के अनुसार किसी भी खाद्यसामग्री को पूर्णरूपेण न बंद कर, रोगी के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है कि वह जो पसंद करे, खा सकता है। औषधि साधारणत: टेट्रासाइक्लीन तथा नियोमाइसिन दी जाती है। कभी-कभी कार्टिकोसिटरायड (Corticosteriod) का भी प्रयोग किया जाता है जो यकृत में फ़ाइब्रोसिस और अवरोध उत्पन्न नहीं होने देता। यकृत अपना कार्य ठीक से संपादित करे, इसके लिए दवाएँ दी जाती हैं जैसे लिव-52, हिपालिव, लिवोमिन इत्यादि। कामला के पित्तरंजक को रक्त से निकालने के लिए काइनेटोमिन (Kinetomin) का प्रयोग किया जाता है। कामला के उपचार में लापरवाही करने से जब रोग पुराना हो जाता है तब एक से एक बढ़कर नई परेशानियाँ उत्पन्न होती जाती हैं और रोगी विभिन्न स्थितियों से गुजरता हुआ कालकवलित हो जाता है।
पीलिया रोग
वायरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को साधारणत: लोग पीलिया के नाम से जानते हैं। यह रोग बहुत ही सूक्ष्म विषाणु (वाइरस) से होता है। शुरू में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं पडते हैं, परन्तु जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते हैं, लोग इसे पीलिया कहते हैं।
जिन वाइरस से यह होता है उसके आधार पर मुख्यतः पीलिया तीन प्रकार का होता है वायरल हैपेटाइटिस ए, वायरल हैपेटाइटिस बी तथा वायरल हैपेटाइटिस नान ए व नान बी।
रोग का प्रसार कैसे?
यह रोग ज्यादातर ऐसे स्थानो पर होता है जहाँ के लोग व्यक्तिगत व वातावरणीय सफाई पर कम ध्यान देते हैं अथवा बिल्कुल ध्यान नहीं देते। भीड-भाड वाले इलाकों में भी यह ज्यादा होता है। वायरल हैपटाइटिस बी किसी भी मौसम में हो सकता है। वायरल हैपटाइटिस ए तथा नाए व नान बी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के नजदीकी सम्पर्क से होता है। ये वायरस रोगी के मल में होतें है पीलिया रोग से पीडित व्यक्ति के मल से, दूषित जल, दूध अथवा भोजन द्वारा इसका प्रसार होता है।
ऐसा हो सकता है कि कुछ रोगियों की आंख, नाखून या शरीर आदि पीले नही दिख रहे हों परन्तु यदि वे इस रोग से ग्रस्त हो तो अन्य रोगियो की तरह ही रोग को फैला सकते हैं।
वायरल हैपटाइटिस बी खून व खून व खून से निर्मित प्रदार्थो के आदान प्रदान एवं यौन क्रिया द्वारा फैलता है। इसमें वह व्यक्ति हो देता है उसे भी रोगी बना देता है। यहाँ खून देने वाला रोगी व्यक्ति रोग वाहक बन जाता है। बिना उबाली सुई और सिरेंज से इन्जेक्शन लगाने पर भी यह रोग फैल सकता है।
पीलिया रोग से ग्रस्त व्यक्ति वायरस, निरोग मनुष्य के शरीर में प्रत्यक्ष रूप से अंगुलियों से और अप्रत्यक्ष रूप से रोगी के मल से या मक्खियों द्वारा पहूंच जाते हैं। इससे स्वस्थ्य मनुष्य भी रोग ग्रस्त हो जाता है।
रोग कहाँ और कब?
ए प्रकार का पीलिया तथा नान ए व नान बी पीलिया सारे संसार में पाया जाता है। भारत में भी इस रोग की महामारी के रूप में फैलने की घटनायें प्रकाश में आई हैं। हालांकि यह रोग वर्ष में कभी भी हो सकता है परन्तु अगस्त, सितम्बर व अक्टूबर महिनों में लोग इस रोग के अधिक शिकार होते हैं। सर्दी शुरू होने पर इसके प्रसार में कमी आ जाती है।
रोग के लक्षण:-
ए प्रकार के पीलिया और नान ए व नान बी तरह के पीलिया रोग की छूत लगने के तीन से छः सप्ताह के बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।
बी प्रकार के पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) के रोग की छूत के छः सप्ताह बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।
पीलिया रोग के कारण हैः-
रोगी को बुखार रहना।
भूख न लगना।
चिकनाई वाले भोजन से अरूचि।
जी मिचलाना और कभी कभी उल्टियाँ होना।
सिर में दर्द होना।
सिर के दाहिने भाग में दर्द रहना।
आंख व नाखून का रंग पीला होना।
पेशाब पीला आना।
अत्यधिक कमजोरी और थका थका सा लगना
कमर के दाहिनी ओर दर्द होना
रोग किसे हो सकता है?
यह रोग किसी भी अवस्था के व्यक्ति को हो सकता है। हाँ, रोग की उग्रता रोगी की अवस्था पर जरूर निर्भर करती है। गर्भवती महिला पर इस रोग के लक्षण बहुत ही उग्र होते हैं और उन्हे यह ज्यादा समय तक कष्ट देता है। इसी प्रकार नवजात शिशुओं में भी यह बहुत उग्र होता है तथा जानलेवा भी हो सकता है।
बी प्रकार का वायरल हैपेटाइटिस व्यावसायिक खून देने वाले व्यक्तियों से खून प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को और मादक दवाओं का सेवन करने वाले एवं अनजान व्यक्ति से यौन सम्बन्धों द्वारा लोगों को ज्यादा होता है।
रोग की जटिलताऍं:-
ज्यादातार लोगों पर इस रोग का आक्रमण साधारण ही होता है। परन्तु कभी-कभी रोग की भीषणता के कारण कठिन लीवर (यकृत) दोष उत्पन्न हो जाता है।
बी प्रकार का पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) ज्यादा गम्भीर होता है इसमें जटिलताएं अधिक होती है। इसकी मृत्यु दर भी अधिक होती है।
उपचार:-
रोगी को शीघ्र ही डॉक्टर के पास जाकर परामर्श लेना चाहिये।
बिस्तर पर आराम करना चाहिये घूमना, फिरना नहीं चाहिये।
लगातार जाँच कराते रहना चाहिए।
डॉक्टर की सलाह से भोजन में प्रोटिन और कार्बोज वाले प्रदार्थो का सेवन करना चाहिये।
नीबू, संतरे तथा अन्य फलों का रस भी इस रोग में गुणकारी होता है।
वसा युक्त गरिष्ठ भोजन का सेवन इसमें हानिकारक है।
चॉवल, दलिया, खिचडी, थूली, उबले आलू, शकरकंदी, चीनी, ग्लूकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली आदि कार्बोहाडेट वाले प्रदार्थ हैं इनका सेवन करना चाहिये
रोग की रोकथाम एवं बचाव
पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्यान रखना जरूरी हैः-
खाना बनाने, परोसने, खाने से पहले व बाद में और शौच जाने के बाद में हाथ साबुन से अच्छी तरह धोना चाहिए।
भोजन जालीदार अलमारी या ढक्कन से ढक कर रखना चाहिये, ताकि मक्खियों व धूल से बचाया जा सकें।
ताजा व शुद्व गर्म भोजन करें दूध व पानी उबाल कर काम में लें।
पीने के लिये पानी नल, हैण्डपम्प या आदर्श कुओं को ही काम में लें तथा मल, मूत्र, कूडा करकट सही स्थान पर गढ्ढा खोदकर दबाना या जला देना चाहिये।
गंदे, सडे, गले व कटे हुये फल नहीं खायें धूल पडी या मक्खियाँ बैठी मिठाईयाँ का सेवन नहीं करें।
स्वच्छ शौचालय का प्रयोग करें यदि शौचालय में शौच नहीं जाकर बाहर ही जाना पडे तो आवासीय बस्ती से दूर ही जायें तथा शौच के बाद मिट्टी डाल दें।
रोगी बच्चों को डॉक्टर जब तक यह न बता दें कि ये रोग मुक्त हो चूके है स्कूल या बाहरी नहीं जाने दे।
इन्जेक्शन लगाते समय सिरेन्ज व सूई को 20 मिनट तक उबाल कर ही काम में लें अन्यथा ये रोग फैलाने में सहायक हो सकती है।
रक्त देने वाले व्यक्तियों की पूरी तरह जाँच करने से बी प्रकार के पीलिया रोग के रोगवाहक का पता लग सकता है।
अनजान व्यक्ति से यौन सम्पर्क से भी बी प्रकार का पीलिया हो सकता है।
स्वास्थ्य कार्यकर्ता ध्यान दें
यदि आपके क्षेत्र में किसी परिवार में रोग के लक्षण वाला व्यक्ति हो तो उसे डॉक्टर के पास जाने की सलाह दें।
क्षेत्र में व्यक्तिगत सफाई व तातावरणीय स्वच्छता के बारे में बताये तथा पंचायत आदि से कूडा, कचरा, मल, मूत्र आदि के निष्कासन का इन्तजाम कराने का प्रयास करें।
रोगी की देखभाल ठीक हो, ऐसा परिवार के सदस्यों को समझायें।
रोगी की सेवा करने वाले को समझायें कि हाथ अच्छी तरह धोकर ही सब काम करें।
स्वास्थ्या कार्यकर्ता सीरिंज व सुई 20 मिनिट तक उबाल कर अथवा डिसपोजेबल काम में लें।
रोगी का रक्त लेते समय व सर्जरी करते समय दस्ताने पहनें व रक्त के सम्पर्क में आने वाले औजारों को अच्छी तरह उबालें।
रक्त व सम्बन्धित शारीरिक द्रव्य प्रदार्थो पर कीटाणुनाशक डाल कर ही उन्हे उपयुक्त स्थान पर फेंके अथवा नष्ट करें।
जरा सी सावधानी-पीलिया से बचाव
पीलिया के परिणामों को समझने के लिए, पीलिया उत्पन्न करने वाली रोगात्मक प्रक्रियाओं को अवश्य समझना चाहिए. पीलिया अपने आप में कोई बीमारी नहीं है, बल्कि यह कई संभव मूलभूत रोगात्मक प्रक्रियाओं का एक लक्षण है जो बिलीरूबिन के चयापचय के सामान्य शारीरिक कार्यों के क्रम में कभी उत्पन्न होता है।
जब लाल रक्त कोशिकाएं लगभग 120 दिनों का अपना जीवन काल पूरा कर लेती हैं, या जब वे क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, तो उनकी झिल्लियां कमजोर हो जाती हैं और उनके कटने-फटने की संभावना बन जाती हैं। जब प्रत्येक लाल रक्त कोशिका जालीयअंत:कला प्रणाली से होकर गुजरती है, तो इसकी झिल्ली कोशिका अत्यधिक कमजोर होने के कारण इसे धारण नहीं कर पाती है और कोशिका झिल्ली कट-फट जाती है। हीमोग्लोबिन सहित कोशिका की अंतर्वस्तु को बाद में रक्त में स्रावित कर दिया जाता है। हीमोग्लोबिन का मैक्रोफेज के द्वारा जीवाणु भक्षण किया जाता है और यह इसके हेमी (अल्परक्तकणरंजक) और ग्लोबिन (रक्तगोलिका) भागों में विभाजित होता है। ग्लोबिन वाला भाग, जो एक प्रोटीन होता है, अमीनो अम्लों में अवक्रमित होता है और पीलिया में इसकी कोई भूमिका नहीं होती है। तब हीमे अणु के साथ दो प्रतिक्रियाएं होती हैं। प्रथम ऑक्सीकरण प्रतिक्रिया लघुनेत्रगुहा संबंधी (माइक्रोसोमल) एंजाइम हीमे ऑक्सीजिनेज़ के द्वारा उत्प्रेरित होती है और इसके परिणामस्वरूप बिलीवर्डीन (हरित पित्तवर्णक), लोहा और कार्बन मोनोऑक्साइड उत्पन्न होते हैं। अगला कदम है कोशिका द्रव्य के एंजाइम बिलीवर्डीन रिडक्टेज के द्वारा बिलीवर्डीन का एक पीले रंग के टेट्रापाइरॉल वर्णक बिलीरूबिन में अपचयन. यह बिलीरूबिन "असंयुग्मित," "मुक्त" या "अप्रत्यक्ष" बिलीरूबिन होता है। प्रतिदिन प्रति किलोग्राम लगभग 4 मिलीग्राम बिलीरूबिन उत्पन्न होता है।[1] इनमें से अधिकांश बिलीरूबिन मृत लाल रक्त कोशिकाओं से हेमी (अल्परक्तकणरंजक) के टूटने से अभी बताई गई प्रक्रिया से आता है। हालांकि लगभग 20 प्रतिशत अन्य हेमी (अल्परक्तकणरंजक) स्रोतों से आता है, जिसमें अप्रभावी लाल रक्त कोशिकाओं की उत्पत्ति और अन्य हीमे युक्त प्रोटीन, जैसे कि मांशपेशी संबंधित माइलोग्लोबीन और साइटोक्रोम का टूटना शामिल है।
फिर असंयुग्मित बिलीरूबिन रक्त प्रवाह से होकर यकृत में पहुंचता है। क्योंकि यह बिलीरूबिन घुलनशील नहीं होता है, तथापि, यह रक्त के माध्यम से सीरम अन्न्सार (albumin) तक पहुंचाया जाता है। एक बार यकृत में पहुंच कर यह जल में अधिक घुलनशील बनने के लिए ग्लुकुरोनिक अम्ल के साथ संयुग्मित होता है (बिलीरूबिन डाइग्लुकूरोनाइड, या सिर्फ "संयुग्मित बिलीरूबिन" का निर्माण करने के लिए). यह अभिक्रिया एंजाइम यूडीपी-ग्लुकुरोनाइड ट्रांसफेरेज़ (UDP-glucuronide transferase) द्वारा उत्प्रेरित होती है।
यह संयुग्मित बिलीरूबिन यकृत से स्रावित होकर पित्त के हिस्से के रूप में पित्तनली और मूत्राशयिक नालियों में पहुंचता है। आंत संबंधी जीवाणु बिलीरूबिन को यूरोबिलीनोज़ेन में परिवर्तित करता है। यहाँ से यूरोबिलीनोज़ेन दो मार्ग अपना सकता है। यह या तो इसके बाद स्टेरकोबिलिनोज़ेन में परिवर्तित हो सकता है, जो फिर स्टेरकोबिलिन में ऑक्सीकृत हो जाता है और मल में छोड़ दिया जाता है या आंत की कोशिकाओं द्वारा यह पुन: अवशोषित कर लिया जा सकता है, गुर्दों में रक्त में पहुंचा दिया जाता है और ऑक्सीकृत उत्पाद यूरोबिलिन के रूप में मूत्र में छोड़ दिया जाता है। स्टेरकोबिलिन और यूरोबिलिन उत्पाद क्रमशः मल और मूत्र के रंग के लिए जिम्मेदार होते हैं।
जब कोई रोगात्मक प्रक्रिया चयापचय के सामान्य कार्य में हस्तक्षेप करती है और बिलीरूबिन के उत्सर्जन की सूचना सही ढंग से दी जाती है, तो इसके परिणामस्वरूप पीलिया हो सकता है। रोगात्मक क्रिया द्वारा प्रभावित होने वाले शारीरिक तंत्र के अंगों के आधार पर पीलिया को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। तीन श्रेणियां हैं:
श्रेणी | परिभाषा |
---|---|
यकृत में पहले से होने वाली | रोग संबंधी क्रिया (पैथॉलॉजी) जो यकृत में पहले से हो रही है। |
यकृत में होने वाली | रोग संबंधी क्रिया जो यकृत (जिगर) के भीतर पायी जाती है। |
यकृत के बाहर होने वाली | रोग संबंधी क्रिया जो यकृत में बिलीरूबिन के संयोग के बाद देखी जाती है। |
यकृत में पहले होने वाला पीलिया किसी भी ऐसे कारण से होता है जो रक्त-अपघटन (लाल रक्त कोशिकाओं के अपघटन) के दर में वृद्धि करता है। उष्णकटिबंधीय देशों में मलेरिया इस तरीके से पीलिया उत्पन्न कर सकता है। कुछ आनुवंशिक बीमारियां जैसे कि हंसिया के आकार की रक्त कोशिका में होने वाली रक्तहीनता, गोलककोशिकता और ग्लूकोज 6-फॉस्फेट डिहाइड्रोजनेज की कमी कोशिका अपघटन में वृद्धि उत्पन्न कर सकती है और इसलिए रुधिरलायी (रक्तलायी) पीलिया हो सकता है। आमतौर पर, गुर्दे की बीमारियां, जैसे कि रुधिरलायी (रक्तलायी) यूरीमियाजनित संलक्षण से वर्णता भी हो सकती है। बिलीरूबिन के चयापचय में विकार होने से भी पीलिया हो सकता है। पीलिया में आम तौर पर उच्च तापमान के साथ बुखार आता है। चूहे के काटने से होने वाले बुखार (संक्रामी कामला) से भी पीलिया हो सकता है।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों में शामिल हैं:
यकृत में होने वाला पीलिया गंभीर यकृतशोथ (हैपेटाइटिस), यकृत की विषाक्तता और अल्कोहल संबंधी यकृत रोग का कारण बनता है, जिसके द्वारा कोशिका परिगलन यकृत के चयापचय करने की क्षमता और रक्त का निर्माण करने के लिये बिलीरूबिन उत्सर्जित करने की क्षमता कम करता है। कम आम कारणों में शामिल हैं प्राथमिक पित्त सूत्रणरोग, (primary biliary cirrhosis), गिल्बर्ट संलक्षण (बिलीरूबिन के चयापचय से संबंधित एक आनुवांशिक बीमारी जिससे हल्का पीलिया हो सकता है, जो लगभग 5% आबादी में पायी जाती है), क्रिग्लर-नज्जर संलक्षण, विक्षेपी कर्कटरोग (कार्सिनोमा) और नाइमैन-पिक रोग, वर्ग (टाइप) सी. नवजात शिशु में पाया जाने वाला पीलिया, जिसे नवजात पीलिया कहा जाता है, आमतौर पर प्राय: प्रत्येक नवजात शिशु में होता है क्योंकि संयोग और बिलीरूबिन के उत्सर्जन के लिये यकृत संबंधी रचनातंत्र लगभग दो सप्ताह तक की आयु के पहले पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं होता है।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों में शामिल हैं:
यकृत के बाहर होने वाला पीलिया, जिसे प्रतिरोधात्मक पीलिया भी कहा जाता है, पित्त प्रणाली में पित्त की निकासी में होने वाले अवरोधों के कारण होता है। सबसे आम कारण हैं आम पित्त नली में पित्त पथरी का होना और अग्न्याशय के शीर्ष पर अग्नाशयी कैंसर होना. इसके अलावा, परजीवियों का एक समूह, जिन्हें "यकृत परजीवी" कहा जाता है आम पित्त नली में रह सकते हैं, जो प्रतिरोधात्मक पीलिया उत्पन्न कर सकते हैं। अन्य कारणों में आम पित्त नली के स्रोत में अवरोध, पित्त अविवरता, नलिका संबंधी कार्सिनोमा, अग्न्याशयशोथ और अग्नाशयी कूटकोशिका (pancreatic pseudocysts) शामिल हैं। प्रतिरोधात्मक पीलिया का एक असाधारण कारण मिरिज़्ज़ि संलक्षण (Mirizzi's syndrome) है।
पीले मलों और काले मूत्र की उपस्थिति एक प्रतिरोधात्मक या यकृत के बाहर होने वाले कारण को सूचित करता है क्योंकि सामान्य मल को पित्त वर्णक से रंग प्राप्त होता है।
रोगियों में कभी-कभी अत्यधिक सीरम कोलेस्ट्रॉल उपस्थित रह सकता है और वे अक्सर गंभीर खुजली या "खाज" की शिकायत करते हैं।
कोई भी एक जांच पीलिया के विभिन्न वर्गीकरणों के बीच अंतर स्पष्ट नहीं कर सकता है। यकृत के कार्य परीक्षणों का मिश्रण एक निदान पर पहुंचने के लिए आवश्यक है।
[2] | यकृत के पहले होने वाला पीलिया | यकृत में होने वाला पीलिया | यकृत के बाहर होने वाला पीलिया | |
---|---|---|---|---|
कुल बिलीरूबिन | सामान्य/बढ़ा हुआ | बढ़ा हुआ | ||
संयुग्मित बिलीरूबिन | बढ़ा हुआ | सामान्य | बढ़ा हुआ | |
असंयुग्मित बिलीरूबिन | सामान्य/ बढ़ा हुआ | सामान्य | ||
यूरोबिलीनोज़ेन | सामान्य/ बढ़ा हुआ | घटा हुआ / नकारात्मक | ||
मूत्र का रंग | सामान्य | काला | ||
मल का रंग | सामान्य | पीला | ||
क्षारीय फॉस्फेटेज स्तर | सामान्य | बढ़ा हुआ | ||
ऐलेनाइन (स्फतिकीय एमीनो अम्ल) ट्रांसफेरेज़ और ऐस्पार्ट्रेट ट्रांसफेरेज़ स्तर | बढ़ा हुआ | |||
मूत्र में संयुग्मित बिलीरूबिन | उपस्थित नहीं | उपस्थित |
नवजात (शिशु) संबंधी पीलिया आमतौर पर हानिरहित होता है: यह अवस्था अक्सर नवजात शिशुओं में जन्म के बाद लगभग दूसरे ही दिन देखी जाती है। यह अवस्था सामान्य प्रसवों में 8वें दिन तक रहती है, या समय से पहले जन्म होने पर 14वें दिन तक रहती है। सीरम बिलीरूबिन बिना किसी आवश्यक हस्तक्षेप के निम्न स्तर तक चला जाता है: पीलिया संभवतः जन्म के बाद एक चयापचय और शारीरिक अनुकूलन का परिणाम है। चरम स्थितियों में, मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने वाली स्थिति मस्तिष्कीनवजातकामला (Kernicterus) उत्पन्न हो सकती है, जिससे महत्वपूर्ण आजीवन अपंगता हो सकती है। इस बात की चिंता की जा रही है कि अपर्याप्त खोज और नवजात बिलीरूबिन की अधिकता के अपर्याप्त उपचार के कारण हाल के वर्षों में यह स्थिति बढ़ती जा रही है। आरंभिक उपचार में अक्सर शिशु को गहन प्रकाशचिकित्सा के संसर्ग में लाया जाता है।
कभी यह विश्वास किया जाता था कि पीलिया से पीड़ित व्यक्तियों को सब कुछ पीला ही दिखाई देता था। विस्तार में जाने पर, पीलियाग्रस्त आंख का अर्थ एक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण समझा जाने लगा, जो सामान्य रूप से अधिक नकारात्मक या अधिक दोषग्राही था। अलेक्जेंडर पोप ने "ऐन ऍसे ऑन क्रिटिसिज्म" ("An Essay on Criticism") (1711) में लिखा:" संक्रमित जासूस को हर कोई संक्रमित मालूम पड़ता है, जैसा कि पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को हर जगह पक्षपात ही दिखता है". इसी प्रकार 19 वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी कवि लॉर्ड अल्फ्रेड टेनीसन ने अपनी कविता लॉक्स्ली हॉल ("Locksley Hall") में लिखा: "So I triumphe'd ere my passion sweeping thro' me left me dry, left me with the palsied heart, and left me with a jaundiced eye."
पीलियाग्रस्त अधिकांश रोगियों में यकृत फलक (पैनल) असामान्यताओं की विभिन्न पूर्वानुमान योग्य पद्धतियां होंगी, यद्यपि इसमें अवश्य ही महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। विशिष्ट यकृत फलक में प्रमुख रूप से यकृत से प्राप्त एंजाइमों के रक्त स्तर शामिल होंगे, जैसे कि एमीनोट्रांसफेरेज़ (ALT, AST) और क्षारीय भास्वीयेद (फॉस्फेटेज़) (ALP); बिलीरूबिन (जिसके कारण पीलिया होता है); और प्रोटीन के स्तर, विशेष रूप से, कुल प्रोटीन और श्विति (albumin). यकृत के कार्य के लिये अन्य प्रमुख प्रयोगशाला परीक्षणों में GGT और प्रोथॉम्बिन टाइम (PT) शामिल हैं।
हड्डी और हृदय संबंधी कुछ विकार ALP और एमीनोट्रांसफेरेज़ में वृद्धि ला सकते हैं। इसलिये यकृत संबंधी समस्या से उनके अंतर निकालने की दिशा में प्रथम कदम GGT के स्तरों की तुलना करना है, जो केवल यकृत संबंधी विशिष्ट स्थितियों में बढ़ेगा. दूसरा कदम पीलिया के पित्त संबंधी (पित्तरुद्ध कामला) या यकृत संबंधी (यकृत में होने वाला) कारणों और परिवर्तित प्रयोगशाला परीक्षणों से अंतर स्पष्ट करना है। पहला विशेष रूप से एक शल्य चिकित्सा संबंधी प्रतिक्रिया सूचित करता है, जबकि दूसरा विशेष रूप से चिकित्सीय परीक्षा की प्रतिक्रिया का सहारा लेता है। ALP और GGT स्तर विशेष रूप से पर एक ही तरीके से बढ़ जाएंगे जबकि AST और ALT एक अलग तरीके से बढ़ेंगे. यदि ALP (10-45) और GGT (18-85) स्तर AST (12-38) और ALT(10-45) के ऊंचाई के अनुपात में बढ़ते हैं तो यह पित्तरुद्ध कामला की समस्या को सूचित करता है। दूसरी तरफ, अगर AST और ALT में वृद्धि ALP और GGT में वृद्धि से महत्वपूर्ण रूप से अधिक होता है, तो यह एक यकृत संबंधी समस्या को सूचित करता है। अंत में, पीलिया के यकृत संबंधी कारणों के बीच अंतर पता करने में AST और ALT के स्तरों की तुलना उपयोगी साबित हो सकती है। AST स्तर आमतौर पर ALT स्तर से अधिक होगी. सिवाय यकृतशोथ (हैपेटाइटिस) (विषाणुजनित या यकृतविषकारी) के अधिकांश यकृत संबंधी विकारों में यही स्थिति बनी रहती है। अल्कोहल से यकृत को नुकसान पहुंचने में अपेक्षाकृत रूप से सामान्य ALT स्तर देखने को मिल सकते हैं, जिसमें AST AST की तुलना में 10x अधिक होता है। दूसरी तरफ, यदि ALT AST की तुलना में अधिक होता है, तो यह यकृतशोथ (हैपेटाइटिस) का सूचक होता है। ALT और AST के स्तर यकृत को नुकसान पहुंचने की सीमा तक अच्छी तरह से सहसंबद्ध नहीं होते है, यद्यपि इन स्तरों में बहुत उच्च स्तर से शीघ्र कमियां गंभीर परिगलन सूचित कर सकते हैं। श्विति (Albumin) के निम्न स्तर एक दीर्घकालिक स्थिति सूचित करने लगते हैं जबकि यह यकृतशोथ (हैपेटाइटिस) और पित्तरुद्ध कामला में सामान्य रूप से होता है।
यकृत संबंधी फलकों के लिए प्रयोगशालाओं के परिणामों की अक्सर उनके अंतरों के परिमाण से तुलना की जाती है न कि शुद्ध संख्या और साथ ही साथ उनके अनुपातों से. AST: ALT अनुपात इस बात का एक अच्छा सूचक हो सकता है कि विकार अल्कोहल के सेवन से यकृत को होने वाला नुकसान (10), यकृत का अन्य प्रकार का नुकसान (1 से अधिक) या यकृतशोथ (1 से कम) है। 10x सामान्य से अधिक बिलीरूबिन के स्तर नवोत्पादित या यकृत के अंदर पित्तस्थिरता सूचित कर सकते हैं। इससे कम स्तर यकृतकोशिकीय कारणों को सूचित करने लगते हैं। 15x से अधिक AST स्तर तीव्र यकृतकोशिकीय नुकसान को सूचित करने लगता है। इससे कम प्रतिरोधात्मक कारणों को सूचित करने लगता है। सामान्य 5x से अधिक ALP स्तर प्रतिरोध को सूचित करने लगता है, जबकि सामान्य 10x से अधिक स्तर औषधि (विषाक्त) प्रेरित पित्तरुद्ध कामला यकृतशोथ या साइटोमेगालोवायरस (Cytomegalovirus) को सूचित कर सकते हैं। इन दोनों स्थितियों में भी ALT और AST सामान्य 20× से अधिक हो सकते हैं। सामान्य 10x से अधिक GGT स्तर विशेष रूप से पित्तस्थिरता को सूचित करते हैं। 5-10× स्तर विषाणुजनित यकृतशोथ को सूचित करते हैं। सामान्य 5× से कम स्तर औषधि विषाक्तता को सूचित करने लगते हैं। गंभीर (अतिपाती) यकृतशोथ में विशेष तौर पर ALT और AST स्तर सामान्य 20-30× (1,000 से अधिक) से अधिक बढ़ेगा और कई सप्ताहों तक महत्वपूर्ण रूप से काफी बढ़ा हुआ रह सकता है। एसीटोमाइनोफेन (Acetaminophen) विषाक्तता के परिणामस्वरूप ALT और AST स्तर सामान्य 50x से अधिक हो सकते हैं।
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