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नित्यानंद प्रभु (जन्म:१४७४) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।
नित्यानन्द जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति (ब्राह्मण), मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां १४७४ के लगभग[1] वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एकचक्र या चाका[2] नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्णलीला तथा रामलीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्ययन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्यायचूड़ामणि' की पदवी मिली।
यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये १२ वर्ष के ही थे माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्णकीर्तन करते हुए २० वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँचकर वहीं रहने लगे। जब श्रीगौरांग का नवद्वीप में प्रकाश हुआ, यह भी संवत् १५६५ में नवद्वीप चले आए। यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु परब्रह्म परमात्मा है तथा श्री नित्यानंद प्रभु अनादि मूल गुरुतत्व ,अक्षर,ब्रह्म है । नित्यानन्द प्रभु के विषय मे श्री चैतन्य महाप्रभु कहा करते थे कि 'ये नित्यानंद हमारे सबसे उत्तम भक्त हैं। श्री नित्यानंद प्रभु हमसे अभिन्न है। एक समय चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी से कहा था कि नित्यानंद के बिना हमारी कृपा प्राप्त करना असंभव है मैं पूर्णतः श्री नित्यानंद के अधीन हु। नित्यानंद प्रभु की महिमा जानकर वीरभद्र गोस्वामी ने उनको श्री चैतन्य महाप्रभु के सर्वोच्च भक्त तथा श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु द्वारा प्रकट है ऐसा प्रतिपादन किया था। श्री नित्यानंद प्रभु ने सब भक्तो को संबोधित करते हुए कहा था कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप धाम की धुरा उनके ऊपर सोपि है। क्योंकि नित्यानंद प्रभु का ह्रदय श्री चैतन्य महाप्रभु का रहने का धाम है। जब सब भक्त संकीर्तन के लिए एकत्रित हुए थे तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा था ये अवधूत नित्यानंद हमारे रहने का धाम हैं।
श्रीमहाप्रभु जी के शब्दों में- मेरे तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हु। ये नित्यानंद मेरे रहना का धाम, अक्षरब्रह्म रूप,सभी पार्षदों के आश्रय स्थान है और इनको हम साथ लेकर आये है।हमारे सर्वोच्च रस उपासना का सिद्धांत प्रचार करने के लिए इनको हम साथ लाये है। ये तो हमारे रहने का धाम है।सब देवी देवताओं सहित अनन्य भक्त के आश्रय है। ये अवधूत तो हमारा सर्वस्व है। हम दोनों अभिन्न है।
श्री नित्यानंद प्रभु हमारे उत्तम भक्त है । वही सभी जीवो के लिए गुरुतत्व है। यही अनादि मूल अक्षर ब्रह्म है।हम उनसे पृथक नहिए। ये तो हमारे रहने का धाम है। जहा नित्यानंद है वहा हम है।जहाँ हम है वहीं नित्यानंद है।उनको हमसे अलग। कोई नही कर सकता। हे रूप आप नित्यानंद प्रभु के पास जाओ वो हमारे रहने का धाम है।वह अनादि मूल गुरुतत्व है । ये निताई हमारे सबसे प्रिय है।इनके समान कोई भक्त नही और मेरे समान कोई भगवान नही। मैं तो नित्यानंद प्रभु के आधीन हु। नित्यानंद प्रभु की महानता तो देव भी नही जान सकते।इतने ये महान है। हम जैसा बस नित्यानंद है दूसरा कोई नही। मेरे प्रिय नित्यानंद मैं तुमसे सबसे अधिक स्नेह करता हु
ऐसे वचन स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री नित्यानंद प्रभु की महिमा का गान करते हुए अपने निजी पार्षदों से कहे है ।
इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो जाती तथा 'जै निताई-गौर' कहती। नित्यानन्द के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडलु यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नवद्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्री गौरांग के अप्रकट होने के पश्चात् वसुधा देवी से एक पुत्र वीरचंद्र हुए जो बड़े प्रभावशाली हुए। संवत् १५९९ में नित्यानंद का तिरोधान हुआ औैर उनकी पत्नी जाह्नवी देवी तथा वीरचंद्र प्रभु ने बंगाल के वैष्णवों का नेतृत्व ग्रहण किया।
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